केंद्र सरकार ने एक बार फिर दोहराया है कि हाथ से मैला साफ करने की वजह से पिछले कुछ वर्षों के दौरान देश में कोई मौत नहीं हुई है। हालांकि संसद में पूछे एक सवाल के जवाब में केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने माना है कि सेप्टिक टैंक और सीवर साफ करने के दौरान पिछले तीन वर्ष में 188 लोगों ने अपनी जान गंवाई है। हालांकि देश में सिर पर मैला ढोने और हाथ से मैला सफाई का कार्य करने पर क़ानूनी रोक है। सरकार दावा कर चुकी है कि इस तरह का काम देश में पूरी तरह बंद हो चुका है, लेकिन संसद में सरकार की स्वीकरोक्ति साबित करती है कि इस दिशा में अभी भी काफी काम किया जाना बाक़ी है।
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता राज्य मंत्री रामदास अठावले के मुताबिक़ सरकार ने हाथ से मैला साफ करने वालों के पुनर्वास पर वित्तीय वर्ष 2014 के बाद से अब तक 266.16 करोड़ रुपये ख़र्च किए हैं। इसके बावजूद यह समस्या बनी हुई है। संसद में दिए लिखित जवाब में अठावले ने कहा है कि 2019 से लेकर अब तक 188 लोग गटर, सीवर या सेप्टिक टैंक साफ करते समय अपनी जान गंवा चुके हैं। हालांकि उन्होंने दावा किया कि हाथ से मैला उठाने या साफ-सफाई करने (अधिकृत शौचालयों की सफाई के दौरान) किसी की मौत नहीं हुई है। अठावले के मंत्रालय की तरफ से बीते 26 जुलाई, 2022 को संसद के जारी मानसून सत्र के दौरान दी गई जानकारी के मुताबिक 2019 में 116 सफाईकर्मियों को सेप्टिक टैंक या सीवर सफाई के दौरान अपनी जान गंवानी पड़ी। वर्ष 2020 में इस तरह की 19 मौतें दर्ज की गईं जबकि 2021 में 36 सफाई कर्मी इस तरह की वारदातों में मारे गए।
इससे पहले, 19 जुलाई, 2022 को राज्य सभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में आवासीय और शहरी मामलों के राज्यमंत्री कौशल किशोर ने बताया था कि पिछले पांच साल के दौरान विभिन्न हादसों में 347 सफाईकर्मियों की जान गई है। मरने वालों में सबसे ज़्यादा 47 उत्तर प्रदेश के हैं, 43 तमिलनाडु के, और 42 दिल्ली के रहने वालें हैं। यह देश भर में हुई इस तरह की मौतों का क़रीब 40 फीसदी है। इसके अलावा हरियाणा में 36, गुजरात में 26, कर्नाटक में 26, राजस्थान में 13, महाराष्ट्र में 30, पंजाब में 14, और पश्चिम बंगाल में 19 लोग सीवर या सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान जान गंवा बैठे।

ज़ाहिर है, यह वो संख्या है जो क़ाग़ज़ों में दर्ज है। देश में कई मामले ऐसे भी हैं जहां प्रशासन ने मृतक के परिवार और ठेकेदार के बीच समझौता करा दिया या मौक़े पर लेनदेन करके मामला रफा-दफा करा दिया। शर्मनाक बात यह है कि अब भी साल भर के दौरान इस तरह के दर्जनों हादसे हो रहे हैं। इससे भी शर्मनाक है कि 2022 में भी जिसे सरकार क्रांतिकारी बदलावों और तमाम तरह के “पहली बार” वाले दावों का साल मानती है, देश में ग़रीब मज़दूर पेट भरने के लिए इस तरह के पेशे में हैं। स्वच्छता अभियान और तमाम योजनाओँ में ग़रीब मज़दूरों के पुनर्वास का सवाल अभी भी देश के सामने ज़िंदा खड़ा है। यह तब है जबकि सरकार एक साल पहले देश को हाथ से सफाई की से मुक्त घोषित भी कर चुकी है।
इसके पहले अगस्त 2021 में संसद में पूछे गए एक सवाल के जवाब में केंद्रीय मंत्री वीरेंद्र कुमार दावा कर चुके हैं कि देश में अब कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है जो हाथ से मैला साफ करने के काम में लगा हो। ज़ाहिर है यह दावा भ्रामक था, क्योंकि अब सरकार मान रही है कि इस साल भी सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई करते समय विभिन्न हादसों में क़रीब दो दर्जन व्यक्ति जान गंवा चुके हैं। हालांकि अभी यह दावा नहीं किया जा सकता कि देश भर में अब इस तरह के काम में लगे कितने सफाईकर्मी शेष हैं।
केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्रालय के मुताबिक़ सफाईकर्मियों की संख्या जानने के लिए आख़िरी बार 2018 में एक सर्वे किया गया था। इस सर्वे के मुताबिक़ तब देश भर में कुल 58 हजार 98 सफाईकर्मी थे। इनमें सबसे ज़्यादा 32 हजार 473 उत्तर प्रदेश में, महाराष्ट्र में 6 हजार 325, उत्तराखंड में 4 हजार 988, असम में 3 हजार 921 और कर्नाटक में 2 हजार 977 कार्यरत थे।
दरअसल, 1993 में एक क़ानून बनाया गया था जिसके मुताबिक़ किसी भी स्वरूप में मानव मल की हाथ से सफाई, मानव द्वारा ढुलाई, या किसी भी तरह निस्तारण अवैध घोषित कर दिया गया था। 2013 में इस क़ानून का विस्तार करते हुए प्रवाहित न किए जा सकने वाले पुराने प्रकार के शौचालयों का निर्माण प्रतिबंधित कर दिया गया। 2013 में ही हाथ से सफाई पर रोक लगाने वाले और सफाईकर्मियों के पुनर्वास से संबंधित क़ानून बनाया गया। इसके ज़रिए सीवर, गड्ढे, सेप्टिक टैंक, या नाले-नाली की हाथ से सफाई पर पूरी तरह रोक लगा दी गई। इसके बावजूद देश भर में इस तरह के काम चोरी-छिपे जारी हैं।
सवाल यह है कि ऐसा हो क्यों रहा है? ज़ाहिर है इसकी कई वजहें हैं। इनमें प्रमुख हैं, लोगों की ग़रीबी, मजबूरी, ठेकेदारों का लालच, देश में साफ सफाई से जुड़े यंत्रों की ऊंची क़ीमतें, मशीन से सफाई में आने वाला ख़र्च और जैसे भी काम करा लेने की लोगों की सोच। लेकिन इससे भी ज़्यादा ज़िम्मेदारी है सरकारी तंत्र की लापरवाही, क़ानून लागू करने वाली एजेंसियों का नकारापन, और सफाईकर्मियों के पुनर्वास को लेकर सरकार का ढीला रवैया। ज़ाहिर इस काम में जो लोग लगे हैं, वह आर्थिक और सामाजिक पदसोपान में सबसे निचले दर्जे पर यानी दलित-पिछड़े हैं। इन लोगों की अपनी कोई मज़बूत आवाज़ नहीं है और जिनपर इनकी आवाज़ उठाने की ज़िम्मेदारी है, वे भी संवेदनशील नहीं हैं।
(संपादन : नवल/अनिल)
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