गत 18 अगस्त, 2022 को झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने एक अहम फैसले की घोषणा की। नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज के विरोध में पिछले तीन दशकों से संघर्ष कर रही केंद्रीय जन संघर्ष समिति के सदस्यों के साथ बैठक में उन्होंने कहा कि राज्य सरकार ने केंद्रीय रक्षा मंत्रालय के उस प्रस्ताव पर रोक लगा दी है, जिसमें उसने वर्ष 2042 तक नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज की अवधि विस्तार की बात कही गई थी। सोरेन के इस घोषणा का पूरे सूबे के आदिवासियों ने स्वागत किया है। हालांकि अब भी आदिवासी समुदाय के लोगों को इस बात का इंतजार है कि राज्य सरकार अब घोषणा के बाद की कार्यवाही करे और केंद्र पर नेतरहाट इलाके के करीब साढ़े चौदह सौ वर्ग किलोमीटर जमीन को सेना के अधिकार से मुक्त करे तथा उसे स्थानीय आदिवासियों के हवाले करे।
बताते चलें कि वर्ष 1956 में मैनुवर्स फील्ड फायरिंग एंड आर्टिलरी प्रैक्टिस एक्ट के तहत 1956 से 1992 तक गोलाबारी अभ्यास के लिए नेतरहाट के 7 गांवों के अधिग्रहण की अधिसूचना जारी की गई थी। इसके बाद वर्ष 1964 से सेना द्वारा पठार इलाके में गोलाबारी के अभ्यास की शुरूआत की गई। इसके बाद 28 मार्च, 1992 को रक्षा मंत्रालय द्वारा अधिसूचना जारी की गई, जिसके अन्तर्गत फील्ड फायरिंग रेंज का अवधि विस्तार 11 मई 2002 तक कर दिया गया। इसके बाद वर्ष 2002 में इसका विस्तार 11 मई, 2022 तक के लिए कर दिया गया। इस बार भी रक्षा मंत्रालय, भारत सरकार ने 11 मई, 2042 तक के लिए अवधि विस्तार का प्रस्ताव भेजा है, जिस पर हेमंत सोरेन असहमति व्यक्त की है।
इस संबंध में केंद्रीय संघर्ष समिति, लातेहार-गुमला के सचिव जेरोम जेराल्ड कुजूर का कहना है कि मुख्यमंत्री द्वारा की गई घोषणा स्वागत योग्य है। अब यह लगने लगा है कि नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज के इलाके से सेना का अधिकार खत्म हो जाएगा और 1956 से चली आ रही यह परिपाटी अब खत्म होगी। लेकिन इस संबंध में अभी तक राज्य मंत्रिपरिषद द्वारा कोई ठोस पहल की जानकारी प्राप्त नहीं हुई है। उन्होंने आगे कहा कि मुख्यमंत्री द्वारा अभी घोषणा की गई है। अब यदि राज्य मंत्रिपरिषद केंद्रीय रक्षा मंत्रालय को अपनी असहमति भेजे तो यह मुमकिन है कि रक्षा मंत्रालय नेतरहाट इलाके को खाली कर दे।
वहीं प्रो. रजनी मुर्मू उन लोगों में शामिल हैं, जिन्हें राज्य के मुख्यमंत्री के बयान पर विश्वास नहीं है। वह कहती हैं कि “यह रक्षा मंत्रालय का मामला है और यह राष्ट्रपति के तहत आता है। सेना कहां प्रेक्टिस करेगी, यह रक्षा मंत्रालय तय करेगा, जो केंद्र सरकार के दिशा-निर्देश पर चलती है।” वह तंज कसते हुए कहती हैं कि “ऐसे लोग भी मुख्यमंत्री को बधाई देते हुए उनके साथ फोटो खिंचवाने में आपाधापी कर रहे हैं, जिनका नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज के आंदोलन में रत्ती भर भी योगदान नहीं रहा है। यह नेतरहाट के 245 गांव के आदिवासियों के साथ धोखा है।” उन्होंने कहा कि “अभी केंद्र सरकार वन संरक्षण नियमों को अधिसूचित किया है, जिसके तहत केंद्र सरकार द्वारा आदिवासी इलाके में जमीन अधिग्रहण करने के लिए न तो राज्य सरकार की सहमति की आवश्यकता है और ना ही ग्रामसभा की।”
प्रो. मुर्मू कहती हैं कि “नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज के अलावा अब लातेहार में ही टाइगर प्रोजेक्ट और मंडल डैम का मसला है। केंद्र सरकार इन दोनों परियोजनाओं का उद्घाटन कर चुकी है, जिसका सीधा मतलब है कि इन परियोजनाओं के अंतर्गत जितने भी आदिवासी गांव आएंगे, उन सभी को उजाड़ा जाएगा। ऐसे में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सरकार के फैसले की क्या अहमियत होगी, सोचने वाली बात है।”
वहीं नरेगा वॉच, झारखंड के संयोजक जेम्स हेरेंज कहते हैं कि “आज नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज, जो करीब 1471 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला है, जिसमें 157 मौजों के 245 आदवासी बहुल गांव बसे हैं, उसे मुक्त कराने की दिशा में अहम पहल की गई है। यह 30 वर्षों के अहिंसात्मक आंदोलन का परिणाम है। यह संघर्षशील आदिवासी समुदाय के लिए बेहद गौरवपूर्ण है।”
सामाजिक कार्यकर्ता व पत्रकार सुनील मिंज कहते हैं कि “नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज को झारखंड सरकार द्वारा पुनः अधिसूचित नहीं करने का निर्णय लिये जाने का श्रेय निःसंदेह 1471 वर्ग किलोमीटर के प्रभावित इलाके में पसरी 242 ग्राम सभाओं को जाता है। इन सशक्त ग्राम सभाओं ने 90 के दशक से ही केंद्रीय जन संघर्ष समिति का गठन कर आंदोलन खड़ा किया था और आर्टिलरी प्रैक्टिस के दौरान तोप से निकलने वाली गर्जन को रोक दिया था। लंबे संघर्ष के दौरान कई नेतृत्वकारी अगुओं के ऊपर सरकार विरोधी काम करने के आरोप में संगीन मामले लादे गए। इन चुनौतियों के बावजूद अपनी जन्मस्थली को बचाने के लिए वे नेतरहाट के पठार पर वैसे ही डटे रहे जैसे वहां साल के पेड़ खड़े हैं।”
ज्ञान विज्ञान समिति, झारखंड के महासचिव विश्वनाथ सिंह कहते हैं कि “इस जीत का सबसे पहले श्रेय जन संघर्ष समिति और उसके अगुआ साथियों के जुनून, समझदारी, धैर्य, समन्वय, आत्मविश्वास एवं उन ग्रामीणों को जाता है, जिन्होंने हार नहीं मानी और आंदोलन के दौरान निरंतर हर तरह की मुसीबतों का सामना करते हुए, मीलों पैदल चले, संघर्षशील रहे। इस मामले में हेमंत सरकार को बधाई दिया जा सकता है कि उसने जनभावना का ख्याल रखते हुए निर्णायक पहल की।”
(संपादन : नवल/अनिल)
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