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‘अगर हमारे सपने के केंद्र में मानव जाति के लिए प्रेम है, तो हमारा व्यवहार भी ऐसा होना चाहिए’

गेल ऑम्वेट गांव-गांव जाकर शोध करती थीं, उससे जो तथ्य इकट्ठा होता था, वह बहुत व्यापक था और बहुत लोगों से जुड़ा होता था। उससे जो निष्कर्ष बाहर आता था, वह सत्य के ज्यादा नजदीक होता था। ऐसे समाज के बारे में, प्यार के बारे में जो सपना है, कबीर के सपने के जैसे गेल और मैं उसके प्यासे थे। पढ़ें, डा. भरत पाटणकर का यह संबोधन

[प्रस्तुत संबोधन गत 20 अगस्त, 2022 को फारवर्ड प्रेस द्वारा आयोजित ‘कबीर और कबीरपंथ’ पुस्तक का ऑनलाइन लोकार्पण कार्यक्रम सह परिचर्चा में डा. भरत पाटणकर द्वारा किया गया। परिचर्चा का विषय था– ‘भारतीय समाज के अध्ययन में बाहरी (गैर-भारतीय) समालोचनात्मक दृष्टिकोण का महत्व क्या रहा है?’]

संदर्भ : कबीर और कबीरपंथ किताब का विमोचन सह परिचर्चा

एक बात यह है कि कबीर या रैदास भी एक तरीके से प्यार के दीवाने लोग थे। उनके लेखन में प्रेम केंद्रीय तत्व था। और इसीलिए कबीर ने लिखा, “पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय, एके आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।” यह जो प्रेम है, ह्यूमैन रेस के अंदर सीमितहोने वाला प्यार नहीं था। यह प्रेम पूरी दुनिया में सभी जगह, सभी जीवों के लिए प्रेम है। यह पूरे चराचर जगत के संदर्भ में प्रेम है। तो भारतीय न होकर, भारतीय हो जाना या फिर भारतीय होकर बाहर का हो जाना तभी संभव है जब कबीर जैसे या रैदास जैसे या कुछ हद तक तुकाराम जैसे संतों के संदेशों में वर्णित प्यार को मध्य में रखते हुए आगे बढ़ें। यहां हम पूरी दुनिया और ह्यूमन रेस, और इन सभी के बीच प्यार के बारे में बात कर रहे हैं। यह प्यार भी था और एक तरीके से उसकी शाहिरी (लोक साहित्य) भी थी। मराठी में इसको शाहिरी बोलते हैं। तो इस तरीके से एक जीने का नजरिया है, जीने का तरीका है। और उस तरीके से जीते वक्त खुद को व्यक्त करना है। वही साहित्य में काव्य या गद्य रूप में आगे आ जाता है।

इस संदर्भ में अगर हम देखें तो बाहर के देश यानी पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश आदि देशों के अलावा जो देश हैं, उधर से आए हुए लोगों ने जो इधर के इतिहास और सामाजिक, राजनीतिक परिस्थिति का जो मूल्यांकन किया है, जीया है, वह ज्यादा वस्तुनिष्ठ क्यूं दिखता है? क्यों ज्यादा प्यार से वे लिखते रहे हैं। इसका कारण यह है कि जो लोग इस देश के इतिहास से, इस देश की जनता से प्यार करते हैं, वही लोग भारत के बारे में लिखना चाहेंगे। दूसरी बात यह है कि इधर की जो जाति व्यवस्था है, इस जाति व्यवस्था में जो हम सभी लोग जन्मे और बड़े हुए हैं, जाति व्यवस्था के खिलाफ रहने वाले लोग हैं, जाति व्यवस्था को न मानने वाले लोग हैं, जाति व्यवस्था के अंत का ध्येय रखनेवाले लोग हैं, हमारे अवचेतन में भी हमें मानना चाहिए कि कहीं न कहीं हमारी जाति का अंश रहता है। बाहर से यह एकदम दिखायी नहीं देगा। यह तब भी सामने आता है जब हम विचार करते हैं, शब्दों का इस्तेमाल कर लेखन करते हैं। उदाहरण के लिए, हम कौन सी हिंदी में लिखते हैं? अभी का लेखन अलग-अलग तरह की हिंदी में होता है। कहीं अधिक संस्कृतनिष्ठ हिंदी का उपयोग होता है तो कहीं क्षेत्रीय भाषाओं में और कहीं उर्दू मिश्रित हिंदी लिखी जाती है। उस लेखक की किस प्रकार की हिंदी की पढ़ाई हुई है, उससे भी उसकी विचारधारा या विचार करने का तरीका भी तय हो जाता है है। तो बाहर से आए हुए जो लोग हैं, वहां जातिवाद नहीं है, लेकिन न्सलवाद है। कई देशों में वंशवाद चलता है। लेकिन जातिवाद नस्लवाद से अलग होता है। वंशवाद में होता यह है कि जो दूसरे वंश के लोग हैं, उनको गुलाम बनाकर या गुलाम जैसा बनाए रखने और उनके ऊपर राज करना और शोषण किया जाता है। लेकिन जाति व्यस्वथा में एक परतदार अनुक्रम होता है। तो जो बाहर से आए हुए लोग हैं, जो शोषित तबके से हैं और इस देश में रहे नहीं हैं, वे समझ नहीं सकते कि जाति व्यवस्था क्या होती है। और हमारे यहां क्या है कि शोषित जनता में भी जाति का एक अनुक्रम है। और इसकी वजह से जो जाति व्यवस्था के निचले पायदान पर हैं, उनको शोषित जनता में से ही जो ऊपरी पायदान पर है, उन्हें नीच मानते हैं। तो यह जो जटिल व्यवस्था है, उसके बारे में जो बाबा साहब डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि यह श्रमिकों में विभाजन लाता है। तो बाहर के लोग जिन्हें इस जाति व्यवस्था का अनुभव नहीं होता है, उन्हें जाति व्यवस्था अलग तरीके की नजर आती है। इसको देखते वक्त यह उनके अवचेतन में नहीं रहता है कि कौन किस जाति के हैं। जाति में भी कौन सी उपजाति के हैं। इस वजह से जो उनकी लफ्जों के अर्थ लगाने से लेकर शोषण का अर्थ लगाने की बात यदि करें तो ये पूर्वाग्रह उनकी सोच में, अवधारणा बनाने में या लफ्जों का इस्तेमाल करने में नहीं आते। लेकिन आप देखिए कि पाकिस्तान से आनेवाले लोगों में भी जाति व्यवस्था के प्रति सचेतनता रहेगी। बांग्लादेश या श्रीलंका आदि से आएं तो भी जाति व्यवस्था के प्रति सचेतनता बनी रहेगी। लेकिन इन देशों को छोड़कर जो अलग देश से आते हैं, उनमें जाति व्यवस्था प्रभाव नहीं रहेगा। हां स्त्रियों के शोषण के मामले में जरूर रहेगा, अगर वे पुरुष लेखक है तो। बाहर के देशें में भी औरतों का जो शोषण होता है, उसको नजरंदाज करने की प्रवृत्ति रह सकती है। अगर मध्यम आय वर्ग का है तो उसमें मध्यम आयवर्गीय पूर्वाग्रह रह सकता है। लेकिन हम अभी जो बात कर रहे हैं, वह भारत का जातिवादी समाज है। 

कबीर और कबीरपंथ किताब का आवरण पृष्ठ व डा. भरत पाटणकर

इसलिए उनका (बाहर के लोगों का) जो आकलन है, जो विश्लेषण है या सैद्धांतिकरण की कोशिश है, वह जाति पूर्वाग्रहों से नहीं होती है। ऐसा होने के पीछे यही एक कारण है। दूसरा यह कहा जा सकता है कि इतिहास लिखा ही नहीं गया। पुराणों को छोड़कर इतिहास नाम की एक अलग चीज होती है। बाइबिल, कुरान में कुछ इतिहास मिलता है, लेकिन इन सबको छोड़कर इतिहास नाम की एक अलग चीज होती है। यूरोप और अमेरिका में इसके बारे में एक अलग संघर्ष हुआ है। वैचारिक संघर्ष हुए, पुनर्जागरण हुआ। इस पुनर्जागरण से गुजरे हुए वो लोग हैं। और इसलिए इस पुनर्जागरण से इधर भी भाग नहीं रहे हैं, क्योंकि गेल कहती हैं कि जाति व्यवस्था के खिलाफ एक पुनर्जागरण हुआ। उसी का भाग कबीर, रैदास, नामदेव, और तुकोबा हैं। यह पुनर्जागरण एक मातहती पुनर्जागरण है। इसका विस्तार बहुत सीमित है और इसकी ताकत बहुत कम है। हालांकि इन महापुरुषों ने संघर्ष जरूर पैदा किया, लेकिन वे आम जनता की चेतना का हिस्सा नहीं बन पाई। इसीलिए उसमें जो जन्मे हुए लोग हैं, उनमें भी पूर्वाग्रह आ जाता है। लेकिन यूरोप में या अमरीका में इस तरीके का पूर्वाग्रह कम ही आता है। क्योंकि उनके लिए इतिहास अलग है और धार्मिक किताबें जो, ‘इतिहास’ में आती हैं, अलग हैं। यह दूसरा कारण है जिसकी वजह से उन (बाहरी) लोगों द्वारा किया गया विश्लेषण ज्यादा पूर्वाग्रह मुक्त होता है। हिंदू धर्म का जो इतिहास के ऊपर प्रभाव है, और जो पुरण है वही इतिहास है कहने का जो तरीका है और उसका प्रभाव जो जनता के ऊपर है, इससे भी ये बाहरी शोधकर्ता/लेखक मुक्त होते हैं। इन्हीं दो-तीन चीजों की वजह से हम कहेंगे कि वो (बाहरी लोग) अच्छा विश्लेषण करते हैं, या कर सकते हैं या उनके विश्लेष्ण के अच्छा होने की संभावना बढ़ जाती है। हालांकि यह भी तब जब उनके ऊपर इधर के ब्राह्मणवाद का प्रभाव शोध करते समय नहीं पड़ा तब। 

अगर मैं गेल और अपने बारे में बात करूं तों, हमारे रिश्ता की बात करूं तो यह पति-पत्नी का पारंपरिक रिश्ता था। कब हम कॉमरेड बने, साथी बने, कब हम जीवन साथी बने, हमें नहीं पता चला। इस तरीके का जो हमारा रिश्ता था, उसमें भी एक चीज है। जैसे तुकोबा, कबीर, रैदास के बारे में कहें तो प्रेम ही केंद्र है। उसी तरह मानव जाति का प्रेम जो है, मानव जाति का लिबरेशन जो है, यानी एक सपना है कि गम नहीं होनेवाला एक शहर होना चाहिए। वह उनकी एक प्यास थी। यह जो प्यास है, जैसे बुद्ध को प्यास थी कि यहां गम दूर किया करना चाहिए, काव्यमय तरीके, हृदय को छूनेवाले तरीके से आया है, संतों से आया है, कबीर से आए है, रैदास से आया है। यह प्यास होना और दूसरी तरफ प्यार ही जीवन है, जो ये दोनों में है, हमारे एक साथ आने में है। ये दोनों चीजें कॉमन रही थीं। गेल यह कर सकीं। वह इस देश में अलग-अलग तरीके का शोध कर सकीं। और इसके लिए किसी दस्तावेज का सहारा नहीं लिया, बल्कि वह गांव-गांव जाकर लोगों से मिलीं। वह एकमात्र थीं, जो गांव-गांव जाकर शोध करती थीं, उससे जो तथ्य इकट्ठा होता था, वह बहुत व्यापक था और बहुत लोगों से जुड़ा होता था। उससे जो निष्कर्ष बाहर आता था, वह सत्य के ज्यादा नजदीक होता था। ऐसे समाज के बारे में, प्यार के बारे में जो सपना है, कबीर के सपने के जैसे गेल और मैं उसके प्यासे थे। और मैं अभी भी उसका प्यासा हूं।

यह भी पढ़ें – संबोधन : साहित्य और इतिहास में पक्षधरता (संदर्भ ‘कबीर और कबीरपंथ’) 

 इन्हीं संबंधों की वजह से वह ये काम कर सकीं। हमारा जो पैतृक घर है, उस घर में रह सकीं। फारवर्ड प्रेस के लोग जो मेरे घर आए थे, उन्होंने लिखा भी है कि उस घर में रहना भी बहुत कठिन था, क्योंकि हमारे गांव-जवार में बहुत बदलाव आया है, लेकिन हमारे घर में बहुत बदलाव नहीं आया। इस तरीके से एक जो पागलपन था कि जो हम सभी लोगों में प्रेम बांटने के लिए जो कर रहे हैं, उसमें ये घरेलू दिक्कतें कुछ भी नहीं हैं। हमें अपनी परेशानियां ध्यान नहीं आती हैं। यह एक जिंदगी जीने का तरीका है, नजरिया है। इसकी वजह से ही वह सत्य के ज्यादा करीब पहुंची है। तो यह हम कहेंगे कि यह चीज केंद्रीय है भारतीय बनने में, या कौन सी किस्म की भारतीय बनेगी, यह तय होने में भी। वह बुद्धिजीवी बनके या यूनिवर्सिटी लाइफ जीकर भारतीय बन सकती थीं। लेकिन वह ऐसी भारतीय नहीं बनीं। भारतीय बनीं तो यहां पर जितना समय दिया, उसका 90 फीसदी समय में देहातों में जाती रहीं। जब शिमला में थीं, जब दिल्ली में थीं, हर बार गांव-देहात या शहरी गरीब इलाके में ही जाती रहीं एक महीना छुट्टी लेकर। यह महत्वपूर्ण चीज है कि हम जीवनशैली कैसा रखते हैं। अगर हमारे सपने के केंद्र में मानव जाति के लिए प्रेम है, तो हमारा व्यवहार भी ऐसा होना चाहिए। अगर उसने ऐसा व्यवहार नहीं किया होता और आंदोलन की जिंदगी में जनता के साथ एकाकार नहीं होते, डूबे हुए नहीं रहते तो ऐसा योगदान नहीं दे सकते। 

(संपादन : समीक्षा/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

डा. भरत पाटणकर

महाराष्ट्र के सांगली जिले के एक गांव कासेगांव के निवासी डा. भरत पाटणकर लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता हैं। श्रमिक मुक्ति दल के संस्थापक डा. पाटणकर ने किसानों के आंदोलनों का नेतृत्व किया है। इसके अलावा गेल ऑम्वेट के साथ मिलकर इन्होंने अनेक शोध प्रबंधों का लेखन किया है। इनकी प्रकाशित कृतियों में “कांटेंपररी कास्ट सिस्टम”, “महात्मा फुले आणी सांस्कृतिक संघर्ष” व “दी सांग्स ऑफ तुकोबा” (सहअनुवाद : गेल ऑम्वेट) शामिल हैं।

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