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आजादी के बाद की दलित कविता

उत्तर भारत में दलित कविता के क्षेत्र में शून्यता की स्थिति तब भी नहीं थी, जब डॉ. आंबेडकर का आंदोलन चल रहा था। उस दौर में और आजादी के बाद अनेक दलित कवि हुए, जिन्होंने कविताएं लिखीं। प्रस्तुत है कंवल भारती की विशेष आलेख श्रृंखला ‘हिंदी दलित कविता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य’ की दूसरी कड़ी

हिंदी दलित कविता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यदूसरी कड़ी

वर्ष 1947 में भारत आजाद हुआ। भारतीय समाज में सभी वर्गों ने अपने विचार से इस आजादी को अनुभव किया था। दलितों में भी अपनी आजादी की खुशी थी। यह खुशी क्या थी? इसे हम पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोकप्रिय दलित उद्धार प्रचारक कवि महाशय रूपचंद के कविता-कर्म में देखते हैं। महाशय रूपचंद मुरादाबाद जनपद में ग्राम भायपुर की मिलक मौजी मुंडिया (सरकड़ा खास) के निवासी थे। वर्ष 1956 में उनका लोक काव्य संग्रह “रूपचंद भजनावली” नाम से प्रकाशित हुआ था।

महाशय रूपचंद भी 15 अगस्त, 1947 से अछूतों की आजादी का समय मान रहे थे। उन्होंने लिखा–

15 अगस्त सन सैंतालीस से समय अछूतों का आया था।
ग्राम ग्राम और देश देश में सब ने ही सुन पाया था।।
कुआं चिलम और चारपाई मंदिर में अधिक चढ़ाया था।
अजी अपने समय को यह न परखे समय हाथ से खोया था।।
करो भजन मंदि में जाकर भरो कुएं से जा पानी।
भोजन होटल में खावेंगे मिलेगी सब्जी सैलानी।।
चाहे दुकान करो तुम जैसी सुन लो सब चतुर ज्ञानी।
तबीयत चाहे करो तिजारत कपड़ा पहनो लासानी।।
जहां अनेक हिंदू जाते हों वहां जाओ शूद्र ज्ञानी।
जाटव से चमार कहे तो सजा मिलेगी लासानी।।
अछूत कहे जो रोके तुमको मिले जेल का उसे पानी।
अब तो जागो वीर हमारे हुई बहुत अब तक हानी।।[1]

सामाजिक गुलामी से मुक्ति ही अछूतों के लिये आजादी का अर्थ था। आजादी की इस खुशी का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। इसे वही अनुभव कर सकता है, जिसे कुएं पर चढ़ने की मनाही, चिलम पीने की मनाही, चारपाई पर बैठने की मनाही, मंदिर में घुसने की मनाही, अच्छे कपड़े पहनने की मनाही, व्यापार करने की मनाही और होटल में खाने की मनाही हो। गुलामी की इतनी सारी बेड़ियां यदि स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद कानूनन टूट रही हों, तो उसका कौन न स्वागत करेगा?

दलितों के लिये अपने संघर्ष के आरंभिक काल से ही मुख्य समस्या सामाजिक स्वतंत्रता की रही है। उनके लिये सामाजिक दासता ही उनके आर्थिक विकास में बाधा थी। यदि हिंदू राजशाही में मायानंद जैसे संतों ने आवाज उठाकर अपनी शहादत दी थी, तो मुस्लिम सामंतशाही में कबीर और रैदास जैसे कवियों ने प्रतिरोध की मशाल जलाई थी। पर, चूंकि आर्थिक ढांचा सामंती था और राजनीतिक सत्ता का समूचा तंत्र दलित-मुक्ति के विरुद्ध था, इसलिये सामाजिक असमानता बनी रही। जब सामंती तंत्र समाप्त हुआ और स्वाधीन भारत में लोकतंत्र की स्थापना के बाद कांग्रेस सरकार ने दलितों के लिये कुछ कल्याणकारी योजनाएं लागू कीं, तो दलितों ने उसका इसलिये स्वागत किया, क्योंकि वे बदलाव चाहते थे। महाशय रूपचंद ने लिखा–

आजाद किये सब भारतवासी प्रजा राज बनाया है।
यह आजादी प्रजा के लिये श्री गांधी ने महाकष्ट उठाया है।।[2]

चूंकि हजारों साल से भारत की जनता प्रजा बनी हुई थी, इसलिये जनता ने भी जनतंत्र को प्रजातंत्र ही कहा। प्रजा होने की पीड़ा का अहसास सबसे ज्यादा दलितों, किसानों और मजदूरों को था। इसलिये कांग्रेस के राज को यह पीड़ित वर्ग उसे अपना ही राज समझ रहा था और सरकार की घोषणाओं से गदगद था। महाशय रूपचंद ने कांग्रेस की प्रशंसा में कलम तोड़ दी। यथा–

कांग्रेस का हाल कहूं अब निर्बल बली बनाये हैं।
सबको दई जमीन देश में कृषक सभी बनाये हैं।।
कृषक लोगों की सब तकलीफें सब ही दुक्ख मिटाये हैं।
जहां कुंआ नहीं वहां कुंआ लगे टूवैल रैट अब चलते हैं।
सोसाइटी के ढंग में मित्रो गल्ला कपड़ा रुपया बंटते हैं।।
सड़क पुल और पुलिया मित्रो सब रास्ता शुद्ध कराये हैं।
धरमशाला स्कूल हजारों इसी समय बनवाये हैं।।
पढ़ने की कीनी बहुत उन्नति भूले पिछड़े सभी पढ़ाये हैं।
बिला सूद रुपया प्रजा को शासन ने अती बंटवाये हैं।।
ग्राम पंचायत न्यायालय आपका, आप ही धीश बनाये हैं।
ग्राम से बाहर घूर डालना गडढ़ों में डलवाते हैं।।
कृषक लोगों के पशु काम के अकाल मृत्यु मर जाते हैं।
साशन की तरफ से हमने देखा टीका मुफत लगाते हैं।।
बंटे औषधी बिन पैसा के सब ग्राम शहर के ले जाते हैं।
भारत देश आज अपने में सब जन खुशी मनाते हैं।।
कहें रूपचंद मुंडियावासी हाल क्या लिखूं उन्हीं का।।[3]

दलित वर्गों की कितनी छोटी-छोटी खुशियां थीं, जिनमें वे आजादी देख रहे थे। कांग्रेस ने कुछ अछूतों को जमींनें देकर, गांव में कुंआ-ट्यूववैल लगवाकर, काम-धंधे के लिये अनुदान दिलाकर, भले ही सुअर-पालन या चमड़े के गंदे काम में ही उन्हें फंसा कर रखने का इरादा हो, दलितों का विश्वास जीत लिया था। सामाजिक दर्जा भले न बदला हो, पर छुआछूत के खिलाफ कानून बन गया था और भंगी-चमार कहकर बुलाना दंडनीय अपराध बन गया था। सरकारी स्कूलों में दलितों के बच्चों को दाखिला मिलने लगा था और वजीफा भी। अछूत जातियों के लिये यह बहुत बड़ा परिवर्तन था।

पर, सवर्णों के दिलों से छुआछूत नहीं गयी थी। अछूतों के लड़के नए कपड़े पहनकर बन-ठन कर निकलते, तो उनकी आंखों में चुभते थे। चाय की दूकानों पर अछूतों के लिये अलग गिलास रहते थे। चाय पीने वाले अछूत उन गिलासों को स्वयं उठाते और उनमें चाय लेकर पीने के बाद धोकर वहीं रख देते थे। 1970 तक मैंने स्वयं अपने मुहल्ले की दूकानों पर इस छुआछूत को देखा था। यह स्थिति शहरों की थी। गांवों में स्थिति इससे भी बदतर थी। वहां कुछ भी नहीं बदल रहा था। पर, समाज में यथास्थिति के खिलाफ अछूत जातियों में चेतना आने लगी थी। जाति को जगाने के लिये शिक्षा की जरूरत थी, इस बात को दलित कवियों ने समझ लिया था। रूपचंद ने लिखा–

अरे अछूतों देखो निगाह पसार बिन विद्या के हालत बुरी।। टेक।।
इसी कलयुग प्रांत काल में कैसी तुम पर विपत पड़ी।
विद्या न थी पास आपके तभी तो हालत करी बुरी।।
आम रास्ता कुआ लगे थे जिनके ऊपर प्याऊ धरी।
सब पीते थे जल लोटे से अछूतों के लिये बांस नरी।।
एक गज ऊंचे से जल छोड़े थे फिर लोटे पर माज करी।
धरमसालाओं का जिकर सुनो जब वहां पर जाती कौम लिखी।।
अजी अगर जो बताते चमार बड़ी मारा मार करी।।[4]

महाशय रूपचंद द्वारा लिखित काव्य संग्रह का मुख पृष्ठ

अविद्या के कारण और किन-किन गुलामियों की पीड़ा को अछूतों को बरदाश्त करना पड़ता था, इसका मार्मिक चित्रण आगे की इन पंक्तियों में मिलता है–

चौधरी मुखिया परधान साहब आदि नंबरदार कहाते थे।
वो चौपालों में पड़े हमेशा पलकों पर मौज उड़ाते थे।।
काम के लिये अछूत लोग जुलमों से पकड़े जाते थे।
तांगा, बैल गाड़ी और इन्सां बेगारों में जाते थे।।
गस्त सिपाही चौकीदार पटवारी खूब सताते थे।
खात लिसाही छान पीसना हल बेगारों में जाते थे।।
अरे इन्हें तौ रोज नई बेगार, दशा करी बहुत बुरी।।[5]

आगे कवि अछूतों को दीन-हीन बनाकर रखने वाली पूरी व्यवस्था पर चोट करता है–

स्कूलों में नहीं बिठारे विद्या इन्हें पढ़ाने को।
पलटन में भरती नहीं करे शासन के मरद बनाने को।।
पुलिस में भरती नहीं करे थाने में गस्त लगाने को।
कुआ चिलम और चारपाई ना दीनी इन्हें बिठाने को।।
मैफिल में सामिल नहीं, खबाया दूर बिठारे खाने को।
अछूतों के फैशन छीन लिये और जलें देखकर बाने को।।
बिन विद्या के सब बेगार इन्हों पर आन परी।।[6]

अंत में महाशय रूपचंद अछूतों के उद्धार में लगे लोगों के नाम गिनाते हैं–

श्री दयानंद ने दिये जगा अछूतों का उद्धार किया।
श्री देवीदास देहली में जागे जाटव का सुधार किया।।
डाक्टर श्री उम्मेदकार ने कांग्रेस में अधिकार किया।
श्री गिरधारी लाल ने देश हिंद में अपना रोशन नाम किया।।
श्री महीलाल ने इस भारत में जाति का प्रमाण दिया।
श्री रूपचंद का पता मुंडिया जाटव का प्रचार किया।।
माया विद्या अगम अपार, यह मनुष्य बने सरकारी।।[7]

दयानंद के अछूतोद्धार का कवि को पता है। पर, उसे डॉ. आंबेडकर के अछूतोद्धार का पता नहीं है। अछूतों में दयानंद को शुद्धि आंदोलन के द्वारा उद्धारक रूप में प्रचारित करने का काम कांग्रेस ने किया था। इस प्रचार के प्रबल स्तंभ थे कांग्रेस के आर्यसमाजी नेता स्वामी श्रद्धानंद, जिनके शुद्धि आंदोलन की भी बाद में गांधी जी ने हवा निकाल दी थी। दिल्ली के देवीदास जाटव, बिजनौर (उत्तर प्रदेश) के गिरधारी लाल और मुरादाबाद के महीलाल भी कांग्रेस के नेता थे। गिरधारी लाल और महीलाल दोनों सुरक्षित सीटों से कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुने गये थे। ये सभी नेता अछूतों में कांग्रेस के प्रचारक थे। ये कांग्रेस और गांधीवाद के प्रति समर्पित थे और डॉ. आंबेडकर के विरोधी थे। कवि इन्हीं के संपर्क में था, इसीलिये उसे डॉ. आंबेडकर के बारे में कोई जानकारी नहीं है। वह उनका नाम तक ठीक से नहीं जानता था, अन्यथा वह उनका नाम ‘उम्मेदकार’ नहीं लिखता। कवि यह भी नहीं जानता कि डॉ. आंबेडकर ने कांग्रेस में अधिकार नहीं किया था, वरन् स्वयं कांग्रेस ने उन्हें सम्मानपूर्वक मंत्रिमंडल में शामिल किया था, जिसे उन्होंने अपने घोर वैचारिक मतभेदों के कारण थोड़े समय बाद ही छोड़ दिया था।

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कांग्रेस और गांधी ने छुआछूत के खिलाफ व्यापक प्रचार किया था। वे वर्णव्यवस्था का उन्मूलन नहीं चाहते थे। हिंदू धर्म व्यवस्था को बनाये रखकर अछूतों के प्रति मानवीय व्यवहार करना और छुआछूत न करना— यह उनका संदेश था, जिसका मकसद था अछूतों की राजनीतिक शक्ति का सत्ता के निर्माण में उपयोग करना। इसलिये इस समय के गांधीवादी कवि छुआछूत के खिलाफ और अछूतों को ‘हिंदू-हिंदू भाई-भाई’ का दर्जा देने वाली कविताएं लिख रहे थे। दलित कवि भी इसी भावधारा के साथ थे। महाशय रूपचंद की भजनावली का यह भजन देखिए–

छुआछूत का जाल मित्रो दिल से सभी बिसारो।
मां जाए बन जाओ वीर यह हिन्दुस्तान तुम्हारो।।
ज्यों गन्दा नाला मिले गंग में जल गंगा हो जाई।
न्यों ब्राह्मन क्षत्री सूद्र वैश सब बनो मां जाए भाई।।
मित्रो पारस पथरी देख लो लोहे को सोना देत बनाई।
क्या ब्राह्मन क्षत्री और वैशों में ना वह सकती आई।।
आज हमारे देश हिंद में छुआछूत फैलाई।
एक्का एक शत्रु बन बैठे जो मा जाए भाई।।[8]

जातीय एकता का यह भाव अच्छा है। पर यह एकता ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को करनी होती, तो कभी की हो गयी होती। ये चारों वर्ग या वर्ण जिस व्यवस्था से संचालित हैं, वह है चारवर्णी व्यवस्था। यह हिंदू धर्म का प्राण तत्व है। गांधी जी भी कहते थे कि यदि वर्णव्यवस्था खत्म हो जाएगी, तो हिंदू धर्म ही खत्म हो जाएगा। वेद-शास्त्रों के अनुसार यह ईश्वरीय व्यवस्था है, जिसका पालन धर्म का पालन है। क्या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य धर्म छोड़ सकते हैं? यदि नहीं, तो जातीय एकता कैसे हो सकती है? धर्म की यह व्यवस्था ही तो छुआछूत और जातिभेद सिखाती है।

लेकिन यह कैसे विश्वास किया जा सकता है कि महाशय रूपचंद इस सच्चाई से अनभिज्ञ हों? डॉ. आंबेडकर का वर्णव्यवस्था विरोधी आंदोलन और उसे लेकर गांधी से उनका विवाद देश भर में चर्चित था। कानून मंत्री के रूप में लखनऊ, आगरा, अलीगढ़ में उनकी सभाएं हो चुकी थीं। जिस वर्ष ‘रूपचंद भजनावली’ छपी, उसी वर्ष उन्होंने लाखों लोगों के साथ बौद्धधर्म अपनाया था। उस ऐतिहासिक धर्मांतरण की खबर भी महाशय को न हुई हो, यह कैसे हो सकता है?

आर्य समाज में प्रचारकों को महाशय कहा जाता था। रूपचंद भी आर्य समाजी महाशय थे। अछूतों के मामले में गांधीवाद आर्य समाज के समर्थन में था, क्योंकि सनातनधर्मी हिंदू छुआछूत को मानते थे और उसे छोड़ने के लिये गांधी जी के मत का विरोध करते थे। गांधीवाद के पास अछूतों के लिये दो कार्यक्रम थे– एक, राजनीतिक रूप से उन्हें कांग्रेस का समर्थक बनाना और दूसरा, धर्म की दृष्टि से उन्हें आर्यसमाज से जोड़ना। महाशय रूपचंद अपने कविता-कर्म से ये दोनों काम कर रहे थे। इसी भजन में वे आगे कहते हैं–

क्या इतनी ताकत नहीं हिंदुओं में बिछड़ों को लेंए मिलाई।
यह ब्राह्मन क्षत्री सूद्र वैश इस्लाम ने लिये दबाई।।
चोटी काटी तोर जनेऊ दीन का कलमा दिया पढ़ाई।
पारस से ज्यों सोना बनता यों ही लिये बनाई।।
अब तो वीरों देश हित में छुआछूत पै मिट्टी डारो।।[9]

आर्यसमाज ने छुआछूत का विरोध इसलिये किया था, क्योंकि अछूत जातियों के लोग आत्मसम्मान के लिये हिंदू धर्म से पलायन करके ईसाई और मुसलमान बन रहे थे। यही चिंता रूपचन्द के भजन में है। इसी भजन में वे गांधी का प्रचार इन शब्दों में करते हैं–

क्या गांधी जी का प्रचार देखकर फटे हमारी छाती।
हर देश देश में देखो वीरो छुआछूत मिटा दी।।
रेसमी साटन पैरना छोड़ो पहनो गाढ़ा खद्दर खादी।
होटल मंदिर कुआं बैठकौं सब की छूत मिटा दी।।
करो दूकान चाहे तुम कैसी यह कानून सुनादी।
जहां पै जहां स्कूल खोल दिये विद्या अधिक बढ़ा दी।।
पिछड़ी जाती पै परी मुसीबत सब बेगार हटा दी।
दखली पचपन सालाबंद करे अब भूमि कानून बना दी।।
कोई किसी का गुलाम रहे न यह भी साफ सुना दी।
पुलिस और पलटन में अछूत की भरती अधिक करा दी।।
राजनीत और पंचायत में सिट कायम करवा दी।
सब इकसार हो जायें हिंद में यह कानून बना दी।।
ज्यों गांधी जी ने सब के कारन हिंदुस्तान सम्हारो।।[10]

कवि की दृष्टि में गांधी जी ईश्वर के अवतार थे, जो निर्बलों के उद्धार के लिये आए थे। यथा–

इसी कलयुग देश हिंद में निरबल को सभी सतावे।
फिर तरह तरह की पड़ी तबाही हाल कहा नहीं जावे।।
उस सत्य नारायन ने टेर सुनी घर अवतार गांधी नाम बतावे।
इसी कलयुग में प्रचारक बनकर वेदों के प्रचार सुनावे।।[11]

छुआछूत के खिलाफ कवि के तर्क झकझोरने वाले हैं। वह इस बात में विश्वास नहीं करता कि उसे हिंदू धर्म की स्वीकृति प्राप्त है। उसका मत है कि छुआछूत धर्म का अंग नहीं है, इसलिये छुआछूत से धर्म भ्रष्ट नहीं होता। इसी मत के गांधी भी थे, जो वर्णव्यवस्था को मानते थे, पर हिंदू धर्म में छुआछूत का खंडन करते थे। महाशय रूपचंद कहते हैं कि अछूत के कुंए पर चढ़ने से, उसकी चिलम पीने से या उसके चारपाई पर बैठने से धर्म नहीं जाता है, जो ऐसा मानता है वह मूर्ख है। बच्चा नौ माह गर्भ में रहता है, सिर नीचे की ओर होता है, जहां मैल-कुचैल-मूत्र जाता है। जब बच्चा बाहर आता है, तो भंगन को बुलाकर उसके मुंह में उंगली डलवायी जाती है। जब बच्चा चारपाई पर कपड़ों में टट्टी करता है, तो उसे माता-पिता ही साफ करते हैं। फिर वे भंगी क्यों नहीं कहलाते? यह भजन इस तरह है–

कुआ चिलम और चारपाई से कहो धरम क्यों जाई।
हिंदू वीरो सोचो गौर से बुद्धि कहां गमाई।।
नौ दस मास गरभ में रहते नरक योंन भुगताई।
ऊपर को तो पैर कर दीने नीचे को मुख लटकाई।।
जहां मैल कुचैल मूत्र जाता यह गंदा नाला भाई।
घड़ी घड़ी और पल पल जब ईश्वर से डोर लगाई।।
बाहर आये बुलाई भंगन मुख में ऊंगली डलवाई।
घर बाहर और चारपाई पै बच्चा माता सहित न भाई।।
फिर ब्राह्मण ने वहां खाना खाया सब मेल करे वह वेद कौन सा भाई।
घर द्वार और चारपाई पर कपड़ों में बच्चा टट्टी करता भाई।।
फिर टट्टी साफ मात पिता ही करते क्यों भंगन नहीं बुलाई।
क्यों वह टट्टी साफ करने से भाइयो फिर भंगी भंगन ठैराई।।[12]

शरीर की शरीर से कैसी छुआछूत? कबीर ने कहा था– ‘एक चाम एक मल मूतर, को ब्राह्मण को सूदर।’ महाशय रूपचंद भी यही तर्क देते हैं–

क्या चाम का काम करने से भाइयो मनुष्य चमार बन जाते हैं।
क्या चाम की चुसकी चाम कुंए में नल में चाम लगाते हैं।।
चाम की तांत चाम का साँटा क्या सूप में चाम लगाते हैं।
चाम की डोलची चाम का जूता बटुए में चाम लगाते हैं।।
चाम की पेटी चाम का चश्मा घड़ियों में चाम लगाते हैं।
चाम के पशु चाम के पक्षी ब्राह्मन क्षत्री सूद्र वैश चाम के होते हैं।।
चाम का करम कर ईश्वर ने सब योनी में चाम लगाते हैं।
कहें रूपचन्द्र ओछे दुनिया में अज्ञानी छुआछूत मचाते हैं।।
ज्ञान चिराग नहीं हिरदे में अती अंधकार है भाई।।[13]

एक अन्य भजन में महाशय रूपचंद कहते हैं कि पांच वर्ष की कन्या के साथ बूढ़े का ब्याह कराने से धर्म नहीं जाता, जाटव से मिलने से धर्म चला जाता है। धर्म की इस निस्सारता पर कवि कहता है–

कुंवारी की दुरगत करें न जोड़ मिलाते।
यह पांच वर्ष की कन्या बूढ़े संग ब्याते।।
कन्यों का जोड़ मिलाओ, क्यों ऐसे पाप कमाओ।
तो भी तुम धरम बताओ, जाटव से क्यों घबड़ाओ।।[14]

आगे कवि के तर्क और भी जोरदार हैं। कुत्ता घर में घुस कर बरतन चाट जाता है, कौए कलसे का पानी पी जाते हैं, भोजन पर मक्खी बैठ जाती है, गंगा में शहर की गंदगी लाने वाले नाले गिरते हैं, पशु-शूद्र सब उसमें नहाते हैं, तो भी धर्म नहीं जाता। फिर जाटव से ही क्यों घिनियाते हो? यथा–

घर में कुत्ता वरै बरतन चाट जाते,
जल का कलसा भरा काग पी जाते।
भोजन में मक्खी बैठे उसे न खाते,
जब समझूं तुम्हारा धर्म गंगा नहीं नहाते।।
गंग में गंदा नाला आवे, शहरों की गन्दगी लावे।
वहां पशु शूद्र भी न्हावे, न्यौं धर्म तुम्हारा जावे।।
छूत क्यों जाटव जाति से, यह ओंछा घिन्याता है।।[15]

द्विज कवियों को गांव सदैव आकर्षित करते आए हैं। वे भारतीय गांव को आज भी आदर्श गणराज्य मानते हैं और संसार की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था भी। पर, दलित कवियों के लिये गांव कभी भी गणराज्य नहीं रहे हैं। गांव कभी भी दलितों के लिये आकर्षण का केंद्र नहीं रहे। उनके लिये आज भी गांव-व्यवस्था एक नारकीय व्यवस्था है। गांवों की अंधी प्रशंसा करने वाले द्विज लेखकों ने कभी भी दलितों के दृष्टिकोण से गांवों को नहीं देखा। महाशय रूपचंद ने एक भजन में गांव की स्थिति का वर्णन किया है। यद्यपि यह वर्णन काफी सतही है, तथापि वह द्विज-विश्वास और मान्यता का खंडन तो करता ही है। यथा–

जिस ग्राम के अंदर अत्याचार और पंच लोग अन्यायी हों।
छान करें न न्याव धर्म को खाते खूब मिठाई हों।।
जिस ग्राम के अन्दर छोटी बड़ी हजारों कौम कहाती हों।
बड़ी कौम छोटी कौम को दिन और रात सताती हों।।
अजी इसी से घटा रही हो अपनी ताकत को।।[16]

कवि आगे कहता है कि जातिवाद और निम्न जातियों के साथ अत्याचार ने न सिर्फ गांवों को बल्कि हिंदू शक्ति को भी खंडित और कमजोर किया है। कवि इस यथार्थ को सामने लाता है कि गांव का हर नर-नारी अधर्म में फंसा हुआ है, अज्ञान और अविद्या की वहां अंधियारी है, फूट और छुआछूत है और वहां रहने वाली सातों जातियों की ‘तवियत’ (संस्कृति) अलग-अलग है। वहां न दलित की हिंदू से और न हिंदू की मुसलमान से एकता है। कवि सामाजिक एकता का आह्वान करता है। यथा–

जिस ग्राम के अंदर फंसे हुए अधरम में हर एक नारी हो।
अज्ञान और अविद्या की झुकी महाघोर अंधियारी हो।।
जिस ग्राम के अंदर फूट घुसी और छुआछूत अति भारी हो।
जिस ग्राम में सातों जात बसे फिर तवियत न्यारी न्यारी हो।।
हिंदू मुसलिम सब मिल बैठो यही अरज हमारी हो।
अब छुआछूत पै मिट्टी डालो सब भारत के नर नारी हो।।[17]

महाशय रूपचंद ने छुआछूत का खंडन चमार के संदर्भ में ज्यादा किया है। हालांकि, पीछे हम उनकी संवेदना का विस्तार मेहतर तक देख चुके हैं। वास्तव में कवि चमार जाति से है। इसीलिये वह चमार तक ही छुआछूत को देखता है। यह चर्म और चमड़े के प्रति कवि के इस भाव से पता चलता है–

उसी चाम को देखो यार अब जूता खूब ले जाते हैं।
उसी चाम को देखो मित्रो घड़ियों में लगवाते हैं।।
बिला चाम का कोई न देखा सब चामदार कहलाते हैं।
लो चमड़े ने कितनी इज्जत पाई जिसको बुरा बताते हैं।।
कुआ के अंदर चाम परे और नल में चाम लगाते हैं।
कौम चमार नहीं दुनिया में करम चमार कहाते हैं।।[18]

यहां कवि अपनी अवधारणा में स्पष्ट नहीं है। उसका कहना है कि जाति चमार नहीं होती, बल्कि कर्म चमार होता है। कवि इसी रूढ़ धारणा का है कि चमार चमड़े का काम करने वाले लोग होते हैं। यह धारणा दलित कविता की अपरिपक्व वैचारिकी को दर्शाती है।

एक अन्य भजन में कवि श्रम-विभाजन को ही जाति-विभाजन भी मानता है। यथा–

यह कौम करम का नाम है ईश्वर ने एक बनाये।
कृषी का करते करम किसान कहलाते।
सोने का करते करम सुनार कहलाते।।
लोहे का करते करम लोहार कहलाते।
चोरी का करते करम चोर कहलाते।।
जो करते जैसा करम वैसा कहलाते।
जो करे चाम का करम चमार कहलाते।।
जो करता नीचा काम है वह नीचा ही कहलाये।।[19]

निस्संदेह नीच कर्म ही व्यक्ति को नीच बनाता है। मध्यकाल के दलित संत कवि रैदास का भी यही विचार था कि ‘नर को नीच करि डार है, ओछे कर्म की कीच’। लेकिन महाशय रूपचंद नीच कर्म का निर्णय नहीं कर पाए। कवि श्रम-विभाजन को और भी आधुनिक विस्तार देता है। यथा–

जो मिडिल पास हो जाय मुंशी कहलाते।
जो डिगरी करते पास डिप्टी कहलाते।।
जो करे जजी को पास जज्ज हो जाते।
जो एल.एल.बी. पास हो जाते।।
वह करते जिरह का काम वकील कहलाते।
यह सब पेसे में सुम्मार है सब करनी के फल पाये।।[20]

‘वज्रसूची’ में अश्वघोष मनुष्यों में जातियों का खंडन करते हैं और पशु-पक्षियों में जाति मानते हैं। महाशय रूपचंद भी जातियों को पशु-पक्षियों में मानते हैं, मनुष्यों में नहीं। यथा–

अब कौमों का करते जिकर सुनो मेरे भाई।
यह मेढ़ा, बकरा बने कौम दो भाई।।
यह भैंसा, गाय कहलाये फरक है भाई।
यह खच्चर, गोड़ा बने कौम दो भाई।।
यह कऊआ, कोयल एक रंग बोल न भाई।
यह लख चौरासी योन कौम बतलाई।।
यह मनुष्य कौम सब एक है पेसे के नाम कहाये।।[21]

वर्ग चेतना की दृष्टि से यह कविता (भजन) महत्वपूर्ण है। इससे पता चलता है कि कवि जाति विभाजन को श्रम विभाजन मानता है, पर जाति के आधार पर श्रमिकों का विभाजन उसे स्वीकार नहीं है। उसके लिये मानव स्वयं एक जाति है, शेष सारे नाम, जिन्हें लोग जातियां कहते हैं, वे पेशों के नाम हैं। इस आधार पर कवि का तर्क यह है कि कोई चर्मकार चमड़े का काम न करके खेती आदि का या अन्य काम करता है, तो उसे चमार कैसे कहा जा सकता है? दूसरा तर्क कवि यह देता है कि सामाजिक रूप से सभी मनुष्य एक जैसे हैं, उनमें कोई भी भेद नहीं है। तीसरी स्थापना कवि यह देता है कि हिन्दू (धर्मशास्त्र) जिन चौरासी लाख योनियों की बात करते हैं, वही वास्तव में जातियां हैं। इनमें मनुष्य सहित सभी जीव-जंतु आते हैं। मनुष्य भी एक जाति है, इसलिये सभी की शारीरिक रचना समान है। किन्तु पशु-पक्षी और कीट योनियां एक ही जाति नहीं हैं, वरन् वे अलग-अलग जातियां हैं और उनकी शारीरिक संरचनाएं भी समान नहीं हैं।

भजन की अंतिम पंक्तियों में कवि जाति को कर्म (पेशा) मानते हुए दलित वर्गों को गंदे कर्म छोड़ने की सलाह देता है–

जो करते जैसा करम वैसा फल पाते।
मित्रो छोड़ो गंदे करम बहुत समझाते।।
अब उठना हो तो उठो देर क्यों लाते।
मुंशी रूपचंद बेज्ञान हैं कौमों के सिफत बताये।।
यह कौम करम नाम है।।[22]

दलित आंदोलन में यह समय सुधारों का था। शिक्षा और गंदे पेशों का परित्याग-सुधार आंदोलन के दो मुख्य कार्यक्रम थे। मृतक जानवरों को उठाकर फेंकना, उनकी खाल निकालना, मैला उठाना, नार काटना जैसे गंदे कामों के खिलाफ दलित आंदोलन सक्रिय था। गांव-गांव और मुहल्ले-मुहल्ले में सुधार समितियां बन गयी थीं, जो दलितों को गंदे काम छोड़ने और अपने बच्चों को पढ़ाने के लिये जागरूक कर रही थीं। निस्संदेह, यह आंदोलन अस्मिता और स्वाभिमान का नवजागरण था। सवर्ण और अन्य समुदायों के दबंग लोग दलितों को अबे-तबे करके, नाम बिगाड़ कर अपमान जनक शब्दों से पुकारा करते थे। पर, जागरूक दलित अब इसे चुपचाप सहन नहीं करते थे, बल्कि उसका प्रतिरोध करते थे। दलित कविता यहां खूब मुखर हुई है। ऐसे सवर्णों को अज्ञानी कहकर महाशय रूपचंद इस भजन में फटकार लगाते हैं–

जो बेज्ञान लोग होते हैं
ना समझे इलम अकिल अदब इनसान को।। टेक।।
अपने को समझें शेर समाना, दूजों को समझें नादांना।
गुन ओगुन को नहीं पहचाना, वह रखते हैं अभमान को।
न्यों ज्ञान नहीं रखते हैं।।
परसराम से परसा कहते हैं, अपने को पूरा लेते हैं।
राम या सिंह कहते हैं, क्यों उलटा बोले नाम को।।
क्यों पूरा नहीं कहते हैं।।
जो नर ज्ञानवान होते हैं, खोटे वचन नहीं कहते हैं।
सबका नाम पूरा लेते हैं, वह समझे भगवान को।।
वह यों ही पूरा होते हैं।।
उलटा बोले क्या मिलता है, उनका तो सीना जलता है।
कहें रूपचंद कांटा चुबता है, कर ना सकें बयान को।।
मौके पे दाब लेते हैं, जो बेज्ञान लोग होते हैं।।[23]

यह शालीन फटकार जब सवर्णों को सीधा नहीं करती और वे दलित जाति के लोगों को अपमानित करने से बाज नहीं आते, तो ऐसे मूर्खों को डंडे से समझाने की नसीहत भी कवि देता है–

दुनियां में वीरों डंडा है सरदार।। टेक।।
अज्ञान अविद्या कुमति वाले मूर्ख मानते डंडे से।
न्याव धरम को जो ना माने वह भी मानते डंडे से।।
जिस जिस के डंडे में ताकत वो ही बने जी सवार।।
जिसके ताकत होए भुजों में सब करें नमस्ते डंडे से।
खाली हाथ युद्ध में जाते देखे पिटते डंडे से।।
सीधी उंगली घी न निकले वो भी निकले टेढ़ी से।
अजी सीधी गऊएं कटै हमेशा रोती हैं जार बेजार।।[24]

कवि इस सत्य को जानता है कि डंडा वही चला सकता है, जिसके पास पैसा है। इसलिये वह धन की महिमा भी दलितों को बताता है–

इस भारत में भाईयों पैसा ही सरदार।। टेक।।
जिसके पैसा होए हाथ में दीगर यार बन जाते हैं।
बिना द्रव के इस भारत में धक्के बहुतक खाते हैं।।
अरे कलयुग के भाईयो मतलब का संसार।।
यार दोस्त और रिश्तेदार भी आंख बचाकर जाते हैं।
अकिलमन्द और इलमदार मिट्टी के मोल बिकाते हैं।।
भूले हुए सभी नरनारी गुडा उसे बताते हैं।
उल्टा बोलैं करें हिकारत केंड़ी नजर उठाते हैं।।
उठ जा साले मेरे मकान से यह लवज जवां पर लाते हैं।
गरीबों को तो इस भारत में ईश्वर ही न्याव चुकाते हैं।।
बगर परोसी लोग नगर के सब ही बुरा बताते हैं।
एक रुपये से सौ तक मित्रो ना कोई धीर बंधाते हैं।।
अरे मजबूरी पै भाईयो रहना है दुसवार।।[25]

कवि के अनुसार, यदि पैसा हाथ में हो, तो सभी दोस्त बन जाते हैं। यदि पैसा नहीं है, तो बुद्धिमान और ज्ञानवान को भी कोई नहीं पूछता। गरीब का कोई साथी नहीं होता, सिवाय भगवान के। इसलिये कवि इस बात पर जोर देता है कि दलित अपने आर्थिक हालात सुधारें, पर वे सिर्फ मजदूरी पर निर्भर रहकर हालात नहीं सुधार सकते। स्पष्ट है कि कवि उन्हें अन्य स्वतंत्र व्यवसाय करने की सलाह देता है। कवि इस बात पर बल देता है कि आदमी कर्म से ऊंच और नीच होता है, जाति से नहीं। यथा–

प्यारे मित्रों कर्म प्रधान होता है।
कर्म से ऊंच और नीच होता है।।
परंतु आपको चाहिए पवित्र काम।
हो जिसमें विद्या व नाम।।[26]

महाशय रूपचंद सुधार युग के कवि थे। हिंदुत्व से विद्रोह और सांस्कृतिक मूल्यांकन का युग अभी दलित कविता में शुरु नहीं हुआ था। दलित कवि आर्यसमाज और गांधीवाद से प्रभावित थे, इसलिये ईश्वरवाद की हिंदू धारणाओं में उनकी पूरी आस्था थी। वेद और पुराण में भी उनकी श्रद्धा थी। पंद्रहवीं शताब्दी में जिस निर्गुण ईश्वर का विकास शूद्र-अतिशूद्र संत कवियों ने किया, उसे ब्राह्मण संतों की सगुण प्रतिक्रांति ने दबा दिया था, पर वह उसे मिटा नहीं पायी थी। दलितों के मानस में उसकी उपस्थिति हमेशा रही। दलित जन मानस ने ईश्वर को निर्गुण भी माना और सगुण भी। वह उसे सतनाम भी कहता था और हरिओम भी। वह उसे निराकार रूप में सर्वशक्तिमान मानता था और साकार रूप में भक्तों की रक्षा करने वाला अवतार भी। इस द्वैत को आर्यसमाज का एकेश्वरवाद भी दूर नहीं कर सका। यही कारण है कि हम इस युग की दलित कविता में हिंदुत्व का विरोध नहीं देखते हैं। दलित कवि यह समझने में असमर्थ थे कि सर्वशक्तिमान ईश्वर निर्बल का बल क्यों नहीं है? महाशय रूपचंद की यह रागनी देखिए–

हे सतनाम तेरे नाम हजारों भेद ना कोई पाता।
कोई ब्रह्म कहे कोई विष्णु कहे कोई महादेव कह गाता।।
कोई निरंकार कोई निरभयकार कोई सायंकार कह गाता।
कोई राम कहे कोई कृष्ण कहे कोई नारायन कह गाता।।
कोई ओम कहे कोई प्रभु कहता कोई तिरलोखी कह गाता।
तुही मात और तुही पिता है तुही है आप भ्राता।।
हाकिम आप हाकिम बनै तू सत्य का न्याव चुकाता।
जिसके ऊपर हो मेहर आपकी कुछ शत्रु नहीं बनाता।।
जिसकी तुमसे लगी लगन हो सब अपराध छिमां हो जाता।
जिस कुल का तू करे उभारन क्षत्री-भगत-कवि बन जाता।।
चौधै तबक, चार युग, तीन लोख में पालन तुही कराता।
हे चारों युग में बने आप ही निरबल के बलधारी।।[27]

यहां ईश्वर निर्गुण सतनाम भी है और शरीरधारी सगुण भी। वही मां है, वही पिता और वही भाई है। उसकी जिस पर कृपा होती है, उसका कोई शत्रु नहीं होता। वह निर्बल का बलधारी है। इस अवधारणा के साथ दलित कवि दलितों में जागरण कर रहे थे। लेकिन, यह प्रतिक्रांति का ही जागरण था, जो न नव था और न परिवर्तनवादी। दलित कवि की ईश्वर में आस्था वैसी ही थी, जैसी निराला की वीणावादिनी में थी। नवसृजन की वैसी ही याचना महाशय रूपचंद की रागनी में हमें मिलती है–

हे सतनाम कृपा करके अब असत को दूर भगा दे।
सत ही धरती सत अकाश में सत का सूर्य चमका दे।।
सत का घिरत सत की बाती सत का चिराग जला दे।
अज्ञान अविद्या आज देश की मुतलिक नष्ट करा दे।।
सत की जोत वरे दिन राती सत की बिजली चमका दे।
उत्तर दखिन पूरब पश्चिम में सत की हवा चला दे।।
मनुष्य लोग सब सुधर जायें तू ऐसा ज्ञान जगा दे।
लिखना पढ़ना सीख जायें गुरू बनकर सबै पढ़ा दे।।
छुआछूत मिट जाय देश की, बिछड़े सभी मिला दे।
अज्ञान अविद्या सब जाति की बनकर गंग बहा दे।।
अजी ऐसी कविता चलै दास की ज्यौं जल की पिचकारी।।[28]

हम वर्ण, जाति, अस्पृश्यता और गंदे पेशों के विरुद्ध दलित कविता का विद्रोह देख चुके हैं। हमने यह भी देखा कि उसने कर्म को ऊंच-नीच का आधार माना, जाति को नहीं। उसने डंडे की ताकत को भी स्वीकार किया और धन के महत्व को भी। उसने गरीबी का महिमामंडन नहीं किया, वरन् उसे दूर करने के लिये नये सम्मानित धंधे करने पर जोर दिया। इस समय की दलित कविता निस्संदेह दलितों को एक मजबूत आर्थिक ताकत बनने की समर्थक थी। यदि वह ईश्वर के खूंटे से बंधी रह गयी, तो इसलिये कि देश आजाद हो गया था, पर सांस्कृतिक गुलामी अभी बाकी थी। सामंतवाद और ब्राह्मणवाद के मजबूत किले से बाहर निकलने के लिये दलित कविता को अभी लंबा संघर्ष करना था।

संदर्भ :

[1] रूपचंद भजनावली, लेखक व प्रकाशक- महाशय रूपचंद दलित उद्धारक प्रचारक, ग्राम भायपुर की मिलक मौजा मुँडिया निवासी पोस्ट सरकड़ा खास, जिला मुरादाबाद, प्रथम बार- 1956, पृष्ठ 6
[2] वही, पृष्ठ 22
[3] वही, पृष्ठ 23-24
[4] वही, पृष्ठ 8
[5] वही
[6] वही, पृष्ठ 9
[7] वही
[8] वही, पृष्ठ 15
[9] वही
[10] वही, पृष्ठ 16-17
[11] वही, पृष्ठ 17
[12] वही, पृष्ठ 18
[13] वही, पृष्ठ 21,22
[14] वही, पृष्ठ 13
[15] वही, पृष्ठ 14
[16] वही, पृष्ठ 25
[17] वही, पृष्ठ 25,26
[18] वही, पृष्ठ 26,27
[19] वही, पृष्ठ 27
[20] वही
[21] वही, पृष्ठ 28
[22] वही
[23] वही, पृष्ठ 28,29
[24] वही, पृष्ठ 29,30
[25] वही, पृष्ठ 31,32
[26] वही, पृष्ठ 34
[27] वही, पृष्ठ 1
[28] वही, पृष्ठ 2

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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