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दलित कविता में क्रांति-प्रतिक्रांति का दौर (संदर्भ : बिहारी लाल हरित)

उत्तर भारत में दलित कविता के क्षेत्र में शून्यता की स्थिति तब भी नहीं थी, जब डॉ. आंबेडकर का आंदोलन चल रहा था। उस दौर में और आजादी के बाद अनेक दलित कवि हुए, जिन्होंने कविताएं लिखीं। प्रस्तुत है कंवल भारती की विशेष आलेख श्रृंखला ‘हिंदी दलित कविता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य’ की तीसरी कड़ी

हिंदी दलित कविता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यतीसरी कड़ी

गांधीवाद और आर्यसमाज ने दलित चेतना को सांस्कृतिक गुलामी से मुक्त नहीं होने दिया। उसके हिंदू पुनर्जागरण में उदारवाद तो था, पर समाज का पुनर्निर्माण नहीं था। इस उदारवाद से अनुप्राणित दलित कवि अपने दुखों को अनुभव तो करते थे, पर उससे मुक्ति का रास्ता नहीं जानते थे। वे उसी व्यवस्था से सामाजिक न्याय की अपेक्षा करते थे, जो अन्याय पर आधारित थी।

बिहारी लाल हरित (1913-1999) की ‘जाटव भजनावली’ 1938 में जाटव सभा, शाहदरा, दिल्ली से प्रकाशित हुई थी। उसमें उनकी एक गज़ल इस तरह है–

कैसे करें इस दर्द में सोया नहीं जाता।
मुंह को कलेजा आ रहा रोया नहीं जाता।
नीचता प्रमाण से हिरदा हमारा जल रहा,
ना गांठ बल न बांह बल न विद्या का कुछ बल रहा।
बोझा बेगार का ढोया नहीं जाता।।
खाकर हमारी कमेर को धनवान बन गये।
हमको हैवान समझ खुद इन्सान बन गये।
दो आने में खेत अब बोया नहीं जाता।।
तेली के बैल बनकर दिन रात कोल्हू में चले।
खाने को खल तक न मिली फिर कहो किस विध हों भले।
नाहक पिरन दुनिया से भी खोया नहीं जाता।।
स्वामी तो ईश्वर है सबके जगत के पालक पिता।
फिर हो स्वामी कौन से कोई भी इसको देवता।
नादान बिहारी से तो हर टोइया नहीं जाता।।[1]

कवि मेहनतकश दलित मजदूर वर्ग की पीड़ा का वर्णन कर रहा है। सामंती व्यवस्था में उसकी सबसे बड़ी पीड़ा है, उससे बेगार लेना। वह अब उसका बोझ नहीं ढोना चाहता। इस बेगार ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा। न उसके पास धन रहा, न उसका शरीर स्वस्थ रहा और ना ही वह विद्या ही प्राप्त कर सका। उसकी कमाई खाने वाले धनवान हो गए, वह गरीब ही रहा। इस पर भी उसे हैवान समझा जाता है और उसके श्रम पर जीने वाले लोग अपने आप को इंसान कहते हैं। तेली के बैल की तरह दिन-रात खेत में काम करने की मजदूरी सिर्फ दो आने! यह बेगार और शोषण कब तक? कवि इस शोषण से मुक्ति चाहता है, पर मुक्ति का रास्ता उसके पास नहीं है। इसलिए वह ईश्वर से टेर लगाता है। उसकी समझ में यह सीधा-सा तर्क नहीं आता कि यदि ईश्वर ने यह व्यवस्था बनायी है, तो वह उसे खत्म क्यों करेगा? और, यदि ईश्वर ने व्यवस्था नहीं बनायी है, तो उससे उसका मतलब क्या? उसे तो पीड़ित और शोषित लोगों को ही ध्वस्त करना होगा।

पर, सांस्कृतिक पुनरुत्थान के दौर में इस तथ्य को समझना मुश्किल था। ईश्वर की दीन-बंधु की सामंती छवि में ही कवि की आस्था थी। ‘जाटव भजनावली’ दलित नवजागरण इसी आस्था के साथ करती है। यथा–

आसा कर आए द्वारे, उठो जाटव वीर हमारे।
उठो वीरो प्रीति बढ़ाओ, परमपिता से ध्यान लगाओ।।
बोलो जय के नारे।
सचदानंद आनंद कंद हैं, सब के रक्षक दीनबंधु हैं।
जहां के सरजन हारे।।
शरण गही तही मुकती पाई, रविदास की करी सहाई।
जो थे हर के प्यारे।
छेदीलाल हरीहर कहना, गोरधन की भी सुध लेना।
बिहारी दास तुम्हारे।।[2]

वर्ष 1941-42 में बिहारी लाल हरित डॉ. आंबेडकर के संपर्क में आये। उनके विचारों को सुनने का उन्हें अवसर मिला। फलतः उनकी कविता में भी नयी सौंदर्य चेतना विकसित हुई। एक नयी तेजस्विता के साथ उनकी आठ कविताओं की एक लघु पुस्तिका “अछूतों का पैगंबर” नाम से 1946 में प्रकाशित हुई। इस पुस्तिका में शुरु में ही चार ‘दोहे’ इस प्रकार हैं–

अब तो लगा है दोस्तो आज़ार भीम का।
दिल से न दूर होवेगा, यह प्यार भीम का।।
रक्त है नाड़ी में गौरव पुरुषों का करें।
डंका बजा दें दुनिया में एक बार भीम का।।
नौजवानों आप का ही खास है कर्त्तव्य।
झंडा उठा दो मिलकर के एक बार भीम का।।
गुणवानों से भी खास कर ये ही अपील है।
घर-घर में फैला डालिये प्रचार भीम का।।[3]

इस पुस्तिका के अंतिम पृष्ठ पर बिहारी लाल हरित द्वारा रचित अन्य पुस्तकों की विज्ञापित सूची से पता चलता है कि 1946 तक डॉ. आंबेडकर के विचार को लेकर उनकी दो पुस्तकें और भी छप चुकी थीं– ‘अछूतों का बेताज बादशाह’ और ‘अछूतों का पिस्तौल’। ये पुस्तकें उपलब्ध नहीं हो सकीं। ‘अछूतों का पैगंबर’ में पहले भजन की टेक इस तरह है–

भीम बाबा तो जग में औतार हो गया।
प्रकाश का जमाना है अब तो प्रकाश है।।
उठ जाग अछूत जाति अब तू क्यों निराश है।
तेरे जगाने वाला भीम अब तो नाहर हो गया।।[4]

1940 के दशक में डॉ. आंबेडकर ने राष्ट्रीय आंदोलन में दलित मुक्ति के प्रश्न को मुख्य और केंद्रीय प्रश्न बना दिया था। यह प्रश्न हिंदू नेताओं से था, जो अंग्रेजों से स्वराज की मांग कर रहे थे। स्वाधीन भारत में शासन सत्ता किनके हाथों में होगी, व्यवस्था कैसी होगी और उसमें दलित वर्गों की स्थिति और भूमिका क्या होगी, डॉ. आंबेडकर इस प्रश्न को स्वतंत्रता मिलने से पूर्व ही हल कर लेना चाहते थे। राजनैतिक स्तर पर भारत के ज्ञात इतिहास में यह पहली लड़ाई थी, जिसका संपूर्ण नेतृत्व डॉ. आंबेडकर कर रहे थे। कांग्रेस और गांधी ने इस लड़ाई को कमजोर करने के जितने भी प्रयास हो सकते थे, वे सब उन्होंने किये, पर दलित वर्गों का बहुमत डॉ. आंबेडकर के साथ था, जिसने इस लड़ाई को पूरे उत्साह से जारी रखा और आजादी मिलने तक कमजोर नहीं होने दिया था। इस उत्साह को कवि ने इन पंक्तियों में चित्रित किया है–

भीम बाबा मैदां में लो अब सज गए।
कि खुदगर्जों की शक्ल पै साढ़े तीन बज गए।।
एक बूढ़े का दिल तो तार-तार हो गया।[5]

यह बूढ़ा और कोई नहीं स्वयं गांधी थे, जो दलित वर्गों को हिंदू व्यवस्था में बनाये रखना चाहते थे। पर, दलित जनता अपनी मुक्ति के प्रश्न पर डॉ. आंबेडकर के लिये कोई भी कुरबानी देने के लिये तैयार थी। इसलिये दलित कवि ने लिखा–

सारे अछूत हैं अब अपनी बिसात पर।
कुरबानी ये कर देंगे बाबा की बात पर।।
हमने पूछा है सबसे, इकरार हो गया।।[6]

1940 में दिल्ली की अनाजमंडी में जाटव समाज का एक विशाल जलसा हुआ था, जिसमें लोगों ने हाथ उठाकर डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व को स्वीकार किया था। ऊपर की पंक्तियों में उसी ‘इकरार’ का इजहार है।

बिहारीलाल हरित द्वारा रचित ‘श्री रविदास भक्त की झांकी’ तथा ‘अछूतों का पैगंबर’ का मुख पृष्ठ

दूसरे भजन में कवि ने डॉ. आंबेडकर को सोती हुई कौम का रखवाला कहा है। टेक इस प्रकार है–

उठ मेरी सोवती कौम तेरा रखवाला आ गया।
तेरा सूखा पड़ा चमन था।
किया खुदगर्जों ने दमन था।
सूखे बिरवे सींचने को ये माली आ गया।[7]

इस कविता में कवि ने दलित वर्गों के लिये ‘कौम’ शब्द का प्रयोग किया है। कौम का मतलब राष्ट्र होता है, जाति नहीं, इसलिए यह वर्गीय चेतना के अर्थ में नहीं, बल्कि पृथक राष्ट्रीयता के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। असल में, दलित जातियों को यह अनुभव हो गया था कि उन पर हिंदुओं के अत्याचार का कारण यह है कि वे हिंदू नहीं हैं, बल्कि एक अलग कौम (राष्ट्र) हैं। यह भान उन्हें डॉ. आंबेडकर के आंदोलन ने ही कराया था। उन्होंने कहा था कि विश्व में यहूदियों पर बर्बर अत्याचार इसलिये हुए थे, क्योंकि वे ईसाईयों के साथ मिश्रित होकर नहीं रहना चाहते थे। लेकिन, भारत में दलितों पर इसलिये अत्याचार होते हैं, क्योंकि वे हिंदुओं के साथ मिश्रित होकर रहना चाहते हैं। इससे यह अर्थ स्पष्ट निकाला जा सकता है कि दलित हिंदू राष्ट्र के अंग नहीं माने जाते हैं।

वर्ष 1942 में डॉ. आंबेडकर वायसराय की कार्यकारी परिषद के श्रम सदस्य चुने गए थे, जिस पर वे 1945 तक रहे। श्रम सदस्य के रूप में उन्होंने दलितों और मजदूरों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किए। इस कालखंड में दलित हित में जो कार्य उन्होंने किए, वे इससे पहले कभी नहीं हुए थे। मजदूरों के लिये पहला सामाजिक चार्टर भी उन्हीं के प्रयासों से बना था। उन्हीं के प्रयास से पहली दफा दलित समस्या भारतीय राजनीति के केंद्र में आयी थी। दलित वर्ग परिवर्तन चाहते थे और डॉ. आंबेडकर उनके लिये इस परिवर्तन की सबसे बड़ी आशा बन गए थे। इसी आशा को कवि ने इन छंदों में व्यक्त किया है–

गोर्धन बिहारी लिखे करारी।
नवयुवकों करो त्यारी।
खबर लेन मैं थारी, भीम सा ख्याली आ गया।
उठ मेरी सोवती कोम तेरा रखवाली आ गया।।[8]

डॉ. आंबेडकर की लड़ाई का दलित वर्गों पर इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि उनके जन्मदिन (चौदह अप्रैल) को लोग दीवाली की तरह मनाने लगे थे। कवि ने इस दिन का भव्य चित्रण इस भजन में किया है–

सब मिल अपने भवन सजाओ।
भांत-भांत के रंग लगाओ।
सुंदर छवि निराली।
आज आयी है भीम दिवाली।।
खुश होकर त्यौहार मनायें।
बांट मिठाई बच्चे खायें।
खुश हो हाली-पाली,
आज आई है भीम दिवाली।।[9]

बिहारी लाल हरित जनकवि थे। कवि रत्न बख्शीदास और पं. बंशीराम बेधड़क मुसाफिर के प्रसिद्ध अखाड़े के प्रसिद्ध रत्न थे। पहले लोक कवियों और गायकों के अखाड़े हुआ करते थे। हरित इस अखाड़े के सबसे समर्थ और जागरूक कवि थे, जो कविता में अपने समय को चित्रित कर रहे थे। कलावादी दलित साहित्य की भूमिका को लाख नकारें, पर दलित समाज में परिवर्तन की चेतना दलित-कविता ने ही पैदा की थी।

यह वह समय था, जब डॉ. आंबेडकर की ‘शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन’ और उसके नीले झंडे के नीचे देश का दलित वर्ग संगठित हो रहा था। दलितों को इस संघर्ष से ऐसे परिवर्तन की आशा थी, जो उन्हें सामाजिक दासता से मुक्त कर सकती थी। इस नीले झंडे से कवि को क्या-क्या आशाएं थीं, उसे वह इस भजन में चित्रित करता है–

खोये अधिकार दिलायेगा जय भीम का झंडा।
छुवाछूत मिटायेगा जय भीम का झंडा।।
इस झंडे का मान, करेगा सारा हिन्दुस्तान,
अभिमान गढ़ को ढावेगा, जय भीम का झंडा।।
विसलेसन बनकर आज, करेगा अछूतों के सब काज।
भूखों को नाज दिलायेगा, जय भीम का झंडा।।
गोर्धन बिहारी लिखे करारी, अब नवयुवकों करो त्यारी।।
सारी कौम जगावेगा जय भीम का झंडा।।[10]

इस कविता से पता चलता है कि 1945-46 तक दलित वर्गों में, खास तौर से हिंदी क्षेत्र के दलित समुदाय में, डॉ. आंबेडकर का नेतृत्व क्रांतिकारी महत्व का हो गया था और ‘जय भीम’ का नारा लोकप्रिय हो चुका था। उनके लिये आंबेडकर एक मसीहा और देवता बन चुके थे। यह कवि के इस ‘सरोता’ छंद से पता चलता है–

सुनो भारत के नर नारी हम पुजारी बाबा भीम के।।
कोई पूजे दई देवता कोई पूजे चंडी।
गलिहारे का सय्यद पूजे जाकर के मुसटंडी।।
बुत पूजे ढोंगा चारी, हम पुजारी बाबा भीम के।।
भारत की अछूत जाति को अब अपना घर सूझा।
भीमराव भारत में अपना सही देवता पूजा।।
जिसे पूजे गोर्धन बिहारी, हम पुजारी बाबा भीम के।।[11]

इससे पता चलता है कि 1940 के दशक में डॉ. आंबेडकर दलित वर्ग में पूजनीय बन चुके थे। निश्चित रूप से यह उनके संघर्ष का परिणाम था, जिसने सोयी हुई कौम को जगा दिया था और मुरदों में प्राण फूंक दिये थे। जो बोलना नहीं जानते थे, वे बोलने लगे थे और जो कमान की तरह झुके रहते थे, वे सीना तानकर सिर उठाकर खड़े होने लगे थे। किसी सोयी कौम में यदि कोई इतना बड़ा परिवर्तन ला दे, तो वह उस कौम के लिये पूज्य देवता ही है। कवि ने इसे ठीक ही इन शब्दों में व्यक्त किया है–

भारत की अछूत जाति को अब अपना घर सूझा।
भीमराव भारत में अपना सही देवता पूजा।।

प्रेमचंद की ‘सवा सेर गेहूं’ कहानी में शंकर किसान एक ब्राह्मण से सवा सेर गेहूं उधार लेता है, जिसे चुकाते-चुकाते उसे बीस साल लग जाते हैं और वह गुलामी करता हुआ ही मर जाता है। प्रेमचंद की कहानियों को छोड़कर उस काल के अन्य किसी भी साहित्य में, खास तौर से हिंदी काव्य में ऐसी किसी सामाजिक समस्या का जिक्र नहीं मिलता। दलित कवि न सिर्फ इस यातना के द्रष्टा थे, बल्कि उसे अपने काव्य में चित्रित भी कर रहे थे। इसी भजन-संग्रह में बिहारी लाल हरित एक भजन में कर्ज की मार्मिक कथा इस तरह सुनाते हैं–

दादा का करजा पोते से नाय उतरने पाया।
तीन रुपये में जमींदार के सत्तर साल कमाया।।[12]

इस कविता को पढ़ते हुए ‘सवा सेर गेहूं’ का शंकर स्मृति में आ जाता है। पर, यह शंकर की व्यथा से भी भयानक है कि जमींदार से लिया गया तीन रुपए का कर्ज इतना ज्यादा हो गया कि उसे चुकाने में सत्तर साल लग जाते हैं। कवि इन दो पंक्तियों में दो अलग-अलग बातें कहता है। पहली पंक्ति से उस समाज व्यवस्था का चित्रण करता है, जिसमें तीन पीढ़ियां भी जमींदार का तीन रुपए का कर्ज नहीं उतार पाती हैं। और, दूसरी पंक्ति उस शोषण की अर्थव्यवस्था को रेखांकित करती है, जिसमें एक जमींदार तीन रुपए कर्ज देकर उससे सत्तर साल तक लाभ कमाता था। ऐसा किस तरह संभव होता है, इस अर्थशास्त्र को भी कवि ने इस भजन में अभिव्यक्त किया है। यथा–

जमींदार से कहा एक दिन आखिर डरते-डरते
भूखा है परिवार मेरा न पेट हमारे भरते।।[13]

जमींदार ने कहा–

चार रुपये तेरी करूँ नौकरी मौज उड़ाया करिए।
बारह रुपये आठ आने तू हमें पुगाया करिए।
बूढ़ा तो गया स्वर्ग लोक कूं फिर बेटा वहां आया।
तीन रुपये में जमींदार के सत्तर साल कमाया।।[14]

1947 में देश स्वाधीन हुआ और कांग्रेस के नेतृत्व में स्वतंत्र भारत की पहली सरकार अस्तित्व में आयी। पर, जो राजे-महाराजे और पूंजीपति पहले से शासक थे, वे ही इस लोकतंत्र के भी शासक थे। इस वर्ग ने दलितों में गांधीवादी नेतृत्व उभारा और गांधीवाद की सामाजिक चेतना से दलितों को जोड़ने की राज्य-स्तर से सारी कवायदें शुरु की गईं। आंबेडकर के क्रांतिकारी दलित आंदोलन को कांग्रेस पहले ही पूना-पैक्ट के द्वारा ठंडा कर चुकी थी। अब उसकी चेतना को भी खत्म करने की मुहिम शुरु हो गयी थी। कांग्रेस ने इसके लिये दलित नेता बाबू जगजीवन राम को मैदान में उतारा, जिन्होंने आठवें दशक में दलित साहित्य को गांधीवाद की ओर मोड़ने के लिए दिल्ली में भारतीय दलित साहित्य अकादमी की स्थापना की थी।

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वर्ष 1947 के बाद बिहारी लाल हरित कांग्रेस के नेता बाबू जगजीवन राम के संपर्क में आए। वे अब कांग्रेसी हो गए थे और बाबू जगजीवन राम के भक्त। फलतः उनके सरोकार भी बदले और उनकी कविता के आदर्श भी। 1949 में उनकी कविताओं की पुस्तक ‘हिंद के सितारे’ प्रकाशित हुई, जिसके आवरण पृष्ठ पर पं. जवाहरलाल नेहरू का चित्र छपा था। चौधरी किशनलाल व खुशीराम कैन, शाहदरा इसके प्रकाशक थे। इस पुस्तक में उनकी ग़ज़लों और भजनों का संग्रह है। इस पूरे संग्रह में डॉ. आंबेडकर पर कोई कविता नहीं है, न किसी कविता में उनका नाम है। पहली कविता ‘ग़ज़ल’ है, जो महाराणा प्रताप से शुरु होती है और तेग बहादुर, गोविंद सिंह, स्वामी दयानंद, श्रद्धानंद, लेखराज, वीर भगत सिंह से गुजरकर गांधी की शहादत पर खत्म होती है।[15]

दूसरी ग़ज़ल ‘फूट’ से शुरु होती है। टेक इस प्रकार है–

इस फूट ने बिगाड़ी ओ भारत शान तेरी।
सुन करके रो पड़ोगे दुख दासतान मेरी।।[16]

‘फूट’ यानि आपस की दुश्मनी। जातिभेद यहां ‘फूट’ में बदल गया है। ग़ज़ल में महमूद गजनवी द्वारा सोमनाथ मंदिर ध्वस्त करने और सोना लूटने का वर्णन है। यथा–

उस सोमनाथ जैसे मंदिर की लूट करना।
जिसमें झलक रही थी ज्योति महान तेरी।।
छप्पन सैतून जिसमें जवाहरात के जड़े थे।
और खास हिस्से में भी माया की जिसमें ढेरी।।
सात हाथ लंबी सोने की मूरती थी।
दुश्मनों ने जिसको कर खुर्द-बुर्द गेरी।।
बीस हजार गांव जिसको मिले हुए थे।
तीस लाख हिंदू जिसकी करते थे फेरी।।
पांच लाख मुस्लिम पक्षपात से जो आए।
महमूद गजनवी की और फौज थी बहुतेरी।।
पांच हजार हिंदू मंदिर में काम आए।
गुजरात राव की भी कुछ फौज काट गेरी।।[17]

उस महान ज्योति वाले सोमनाथ मंदिर में दलितों के लिये क्या था? तीस लाख हिंदुओं के गांव में दलितों की स्थिति क्या थी? क्या उन्हें सामाजिक अधिकार प्राप्त थे? दलित कवि ने इस प्रश्न पर विचार करने की जरूरत ही नहीं समझी। उसे महमूद गजनवी द्वारा लूट और हिंदुओं के कत्लेआम ने द्रवित किया, पर वह इस सत्य को नहीं जान सका कि मंदिर में अकूत धन और स्वर्ण ही दलितों के शोषण का आधार था। पांच लाख मुसलमान तीस लाख हिंदुओं को धराशायी कर दें, इसका मतलब फूट नहीं है, गलत सामाजिक व्यवस्था है, जिसे हिंदूधर्म और उसका कानून समर्थन देता है। कवि ने हिंदुत्व के फोल्ड को स्वीकार कर लिया था। इसलिये उसने ग़ज़ल का अंत इस शे’र से किया–

द्वेष भाव त्यागो और छुआछूत दिल से।
गोरधन बिहारी मिटजा यह हिंद की अंधेरी।।[18]

सिर्फ द्वेष भाव और छुआछूत मिट जाने से भारत का अंधियारा दूर होने वाला नहीं है। पर, कवि मजबूर था। वह गांधीवाद की प्रतिक्रांति का वाहक बन गया था। उसने इस सत्य की उपेक्षा की कि वर्ण-व्यवस्था पर आधारित समाज-व्यवस्था को बदले बिना और समानता, स्वतंत्रता और बंधुता पर आधारित समाज का निर्माण किए बिना भारत न एक राष्ट्र बन सकता है और ना ही शक्तिशाली बन सकता है। लेकिन कवि में हिंदुत्व के प्रति मोह और आस्था इतनी घनीभूत है कि उसे धर्मांतरण भी स्वीकार नहीं है। यथा–

मृत्यु से डरता नहीं सुन लो मेरा कलाम।
हिंदूधर्म को छोड़कर नहीं बनूं इसलाम।।

और–

हिन्दुस्तानी बालक कभी न धर्म गंवाया करते।
हंसी खुशी से वीर-धर्म पर सर कटवाया करते।।[19]

कवि की दृष्टि में वे वीर हैं, जो हिंदुत्व के लिये अपने प्राण तक बलिदान कर देते हैं। वे महाराणा प्रताप की प्रशंसा में कहते हैं कि उसने मुगलों से देश को आजाद कराने की प्रतिज्ञा की थी और इसके लिये उसने सारे ऐश्वर्य को ठुकरा दिया था। यथा–

मुगलों से आजाद देश को जब तक न कर पाऊंगा मैं।
चांदी सोने के बर्तन में भोजन को ना खाऊंगा मैं।।[20]
पत्तों पर भोजन खाना, नहीं दाढ़ी को बनवाना।
नहीं मूंछों पर ताव लगाना, यह करके दिखलाऊंगा मैं।।
पलंग मसैरी पर जब सोऊं, विजय देश में पाऊंगा मैं।
ऋषियों का जो खून रगों में उसको फिर दौड़ाऊंगा मैं।।[21]

इस कविता में दलित चेतना नहीं, ऋषि-मुनियों की हिंदू चेतना है। राणा प्रताप कवि के लिये इसलिये प्रशंसनीय हैं, क्योंकि वह ऋषियों के भारत का पुनर्जागरण चाहते थे। ऋषियों का भारत वर्ण-व्यवस्था का भारत था। उस भारत में द्विजों को आज़ादी थी, दलितों को नहीं। कवि अपनी जमीन को कितनी निर्ममता से छोड़ रहा था।

राणा प्रताप के बाद कवि चाणक्य और चंद्रगुप्त की प्रशंसा में कलम चलाता है।
देश में शासक होय विदेसी, चमन बतलाओ हमको कैसी।
युनानी की ऐसी-तैसी, सब को मार भगाना होगा।।
बिना हुए आजाद शिखा में, कोना गांठ लगाना होगा।
दुश्मन को नीचा दिखलाकर चन्द्रगुप्त सम्राट बनाकर।।
सेलोकस को छोरी ब्याहकर, भारत अंदर लाना होगा।
चाणक्य नीति यूं बतलारी, सुनो चित देकर नर नारी।
गोर्धन बिहारी लिखे करारी, पद भाषा में गाना होगा।।[22]

इसके बाद कवि ने शिवाजी की प्रशंसा में भजन लिखा[23], और पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बहाने समय को रेखांकित किया–

समय-समय का फेर है समय बड़ा बलवान।
समय चूक मारा गया, पृथ्वीराज चौहान।।[24]

यह ‘समय’ बोध पलायनवादी विचारधारा तक चला गया है। ये पंक्तियां देखिए–

समय ही पर पैदा होय समय ही पर जाय मर।
समय अनुकूल गुनी कार्य सब देत कर
चक्कर समय दिखाती।[25]

कवि इस विचार का है कि समय ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, न संघर्ष, न श्रम और न व्यवस्था। यथा–

समय ही पर सुंदर भवन महल बनवाय रहे।
बाग और बगीचे ठाठ ऐश के कराय रहे।।
दास और दासी फौज सवारी सजाय रहे।
समय ने ही पलटा दिया रंग सभी भंग हुए।।
गैरों की गुलामी करी, भोजनों से तंग हुए।
शासन का आसन गया महादुखी नंग हुए।
कहां गये घोड़े-हाथी।।[26]

कवि यह नहीं समझ सका कि सुंदर महल और ऐश्वर्य समय की नहीं, व्यवस्था की देन है। यदि शाहबुद्दीन गौरी से पृथ्वीराज चौहान पराजित हुआ था और शासन के आसन से उतर कर महादुखी और नंगा हो गया था, तो यह पतन भी समय के कारण नहीं, जन-विरोधी वर्ण-व्यवस्था के कारण हुआ था।

आगे बिहारी लाल ‘हरित’ शिवाजी को गऊ-रक्षक बताते हुए उनकी प्रशंसा में लिखते हैं–
शिवाजी ने सुन लिया गऊ वध का हाल।
मात से कहने लगा नेत्र करके लाल।
उमंगें उठती थी दिल में शेरे दिल शेवा चला।
गऊ को जाकर छुड़ाया दुष्ट का काटा गला।[27]

कवि ने यह देखने की बिल्कुल कोशिश नहीं की कि भारत माता पर सबसे ज्यादा अत्याचार इन्हीं सामंती सरदारों ने किए थे।

भजन संख्या 10 में वे शिवाजी की प्रशंसा करते हैं और भूल जाते हैं कि शिवाजी का राज सामंतराज ही था। भजन संख्या 12 में कवि ने गुरु गोविंद सिंह की वीरता का वर्णन किया है। निस्संदेह गुरु गोविंद सिंह युद्धभूमि में वर्ण-व्यवस्था का ध्वंस करते हैं और भारत के इतिहास में एक नया अध्याय रचते हैं। वे देश की रक्षा के लिये बलिदान मांगते हैं। जो अपना सिर देता है, वह देश का रक्षक है। ऐसे पांच लोग उन्हें मिलते हैं, जिनमें एक भी ब्राह्मण नहीं है, क्षत्रिय नहीं है। पांचों वीर दलित और निचले वर्गों से आते हैं। उन्होंने जान लिया था कि केवल क्षत्रिय देश की रक्षा नहीं कर सकते। देश की रक्षा के लिए सभी वर्गों से योद्धाओं को लेना होगा। यह एक बड़ी क्रांति थी, जो वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ गुरु गोविंद सिंह ने की थी। लेकिन, कवि ने गुरु गोविंद सिंह के इस योगदान को रेखांकित नहीं किया। वे यही कहते हैं कि गुरु जी यवनों के शत्रु और हिंदुत्व के रक्षक थे।

कवि का अतीत-राग हिंदुत्व-राग से आगे नहीं बढ़ पाया। वह इसी बात पर गर्व करता है कि भारत जगतगुरु है और यहां चक्रवर्ती राजा हुए हैं। यथा–

जगतगुरु भारत कहलाया सिरोमणि सरताज।
चक्रवर्ती राजा भारत वर्ष में हुए अनेक।
भरत और भरतरी का लिखा हुआ मिला लेख।।[28]

यह भारत-राग सामंत-राग भी है। यथा–

कुरुक्षेत्र के युद्ध पहले तेरी ही पुर शान रही।
ध्वजा भारत वर्ष की सब देशों के दरम्यान रही।
चारों ही दिशा में तेरी बजती हुई तान रही।
उठती बुलंद आवाज।।[29]

चारों दिशा में बुलंद आवाज में जिसकी बजती हुई तान रही, वह देश दो हजार वर्षों तक विदेशियों का गुलाम बना रहा। कवि ने इस सवाल पर विचार नहीं किया कि इसी भारत में आदिम जनजातियां और अछूत जातियां भी निवास करती थीं, जो जगतगुरु कहे जाने वाले देश में ज्ञानांधकार में रखी गयी थीं।

भजन 16 और 17 में आल्हा-ऊदल की वीरता का वर्णन कवि ने किया है, जो माता के हुक्म से रणभूमि में चले जाते हैं। इसके बाद का कवित्त महात्मा गांधी की प्रशंसा में लिखा गया है। कवि कहता है–

एक थी संसार भर में ऐसी सच्ची आतमा।
कर दिया है दुष्ट ने जिसका यहां से खातमा।
एक लब पर एकता थी दूसरा परमातमा।
था तो इस संसार में ऐसा था गांधी महात्मा।[30]

कवि ने इससे पूर्व जिस बूढ़े का दिल तार-तार कराया था, यहां वह ‘सच्ची आत्मा’ हो गया है। कवि ने दलित संदर्भ में गांधी को इन शब्दों में याद किया है–

हिंदू मुस्लिम हरिजन सबका प्यारा एक था।
दिल दलितों का था वह दिलवर था पस्ते कौम का
शांति का था देवता रहबर हमारा एक था।
खुले दिल से जायकर फरियाद कोई भी करे
बेकसों के वास्ते सच्चा दवारा एक था।।[31]

अब कवि को ‘हरिजन’ शब्द से भी परहेज नहीं रहा। आगे ‘सुभाष की याद’ शीर्षक से ‘चौक’ छंद में कवित्त है, जिसमें नेता जी सुभाषचंद्र बोस के प्रति श्रद्धा और आस्था व्यक्त की गई है। पर, पूरे संग्रह में एक भी कवित्त दलित चेतना का नहीं है। इस संग्रह में कवि ने सभी नायकों और महापुरुषों को याद किया है, अगर याद नहीं किया है, तो सिर्फ डॉ. आंबेडकर को। एक ‘नज़म’ कवि की सामाजिक परिवर्तन की चेतना को भी रेखांकित करती है, जिसकी ये पंक्तियां उल्लेखनीय हैं–

चाहूं अगर बदलनी प्रथा बदल के छोड़ूं।
ढांचा पुराना अब जो वृथा बदल के छोड़ूं।।
दुनिया बनाऊं ऐसी जहां द्वेष ही नहीं हो।
घृणा के बीज का तो वहां लेश ही नहीं हो।।[32]

संभवत: यह ‘नज़्म’, जिसकी अंतिम पंक्तियां भ्रामक और अस्पष्ट हैं[33], सुभाषचन्द्र बोस की विचारधारा को व्यक्त करती हैं, क्योंकि यह ‘नज़्म’ ‘सुभाष की याद’ कविता के साथ जुड़ी हुई प्रतीत होती है।

क्रमश: जारी

संदर्भ :

[1] जाटव भजनावली, जाटव सभा, शाहदरा, सूबा देहली, पृष्ठ 17
[2] वही, पृष्ठ 15
[3] अछूतों का पैगम्बर, 1946, पृष्ठ 2
[4] वही
[5] वही
[6] वही, पृष्ठ 3
[7] वही
[8] वही
[9] वही
[10] वही, पृष्ठ 4-5
[11] वही, पृष्ठ 5
[12] वही
[13] वही, पृष्ठ 6
[14] वही
[15] हिन्द के सितारे (1949) प्रकाशक चौ. किशनलाल व खुशीराम कैन, शाहदरा, दिल्ली, पृष्ठ 3
[16] वही, पृष्ठ 4
[17] वही, पृष्ठ 4-5
[18] वही, पृष्ठ 5
[19] वही
[20] वही, पृष्ठ 6
[21] वही, पृष्ठ 7
[22] वही, पृष्ठ 8
[23] वही, पृष्ठ 9
[24] वही, पृष्ठ 10
[25] वही, पृष्ठ 11
[26] वही
[27] वही, पृष्ठ 13
[28] वही, पृष्ठ 20
[29] वही, पृष्ठ 20-21
[30] वही, पृष्ठ 24-25
[31] वही
[32] वही, पृष्ठ 28
[33] वही, यथा—
अब स्वार्थियों की फिर से दुनियां बदल के छोड़ूं।
मानव समाज इक हो और एक धर्म वाले।
पुस्तक भी एक ही हो और नेक कर्म वाले।
‘हरित’ देश मरना मरता बदल के छोड़ूं।।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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