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बहस-तलब : आंबेडकरवादी आपके जैसे नहीं केजरीवाल जी?

सत्येंद्र जैन और मनीष सिसोदिया को केजरीवाल ने आज का भगत सिंह कहा हैं। आश्चर्य यह कि जब राजेंद्र पाल गौतम के विरूद्ध प्राथमिकी दर्ज की गई तब केजरीवाल ने एक शब्द भी नहीं कहा। सवाल है कि क्या वे अपनी कैबिनेट में सामाजिक न्याय मंत्री रहे राजेंद्र पाल गौतम का अपराध बताएंगे? पढ़ें, विद्या भूषण रावत का यह आलेख

बीते 5 अक्टूबर, 2022 को डॉ. आंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाएं लेने के बाद दिल्ली में आम आदमी पार्टी सरकार के मंत्री रहे राजेन्द्र पाल गौतम को इस्तीफा देना पड़ा। हालांकि इस्तीफा देते समय उन्होंने कहा कि अपनी पार्टी की छवि को बचाने के लिए इस्तीफा दे रहे हैं, लेकिन यह केवल कहने की बात है। इससे कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि उन्हें इस्तीफा देने के लिए बाध्य किया गया होगा। इसकी पुष्टि इस्तीफे के बाद उनके साथ उनकी ही पार्टी के नेताओं द्वारा किया गया परायेपन का व्यवहार है। जाहिर तौर पर यह जातिवादी मानसिकता का प्रतीक है। लेकिन यह समस्या केवल एक पार्टी की नहीं है, अपितु उनलोगों की समस्या है, जिनमें पत्रकार और सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता भी शामिल हैं, जो 2012 के बाद से ही अरविंद केजरीवाल और उनकी मंडली को ‘क्रांतिकारी’ बता रहे थे। 

दरअसल ‘यूथ फॉर इक्वालिटी’ (वाईएफई) से शुरुआत करने वाले केजरीवाल का पहला बड़ा आंदोलन यूपीए-1 सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह द्वारा उच्च एवं तकनीकी शिक्षण संस्थानों में पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था लागू करने के बाद शुरू हुआ था। इतिहास पर गौर करें तो हम पाते हैं कि अन्ना हजारे का आंदोलन भ्रष्टाचार हटाने के बहाने दलित, आदिवासी और पिछड़ों के आरक्षण के खिलाफ आंदोलन था। इसे गैर राजनैतिक रूप देकर कांग्रेस को ध्वस्त करने की योजना थी। यह वह दौर था जब कांग्रेस सामाजिक न्याय कि दिशा में लगातार आगे बढ़ रही थी। हालांकि इसके अंदर भी जातिवादी ताकतें सिर उठा रही थीं। इनमें प्रणब मुखर्जी, कपिल सिब्बल, पी. चिदंबरम और मनीष तिवारी सरीखे बड़े नेता शामिल रहे। यही वह दौर था जब गांधी परिवार पर चौतरफा हमला बोला गया। कहना अतिश्योक्ति नहीं कि सोशल मीडिया से लेकर पारंपरिक मीडिया तक को गांधी परिवार विरोधी सामग्रियों से भर दिया गया। वहीं दूसरी ओर सत्ता में रहने के बावजूद कांग्रेस के नेताओं ने न तो उनके खिलाफ कोई कार्यवाही की और ना ही कोई बचाव किया। 

अरविंद केजरीवाल को संसद पर भरोसा नहीं था। इसलिए वह रामलीला मैदान मे आए पचास हजार लोगों को ही देश की जनता मानकर उनका निर्णय संसद के ऊपर थोपना चाहते थे। इस प्रकार केजरीवाल ने देश की चुनी हुई सरकार को गिराने के लिए पूरी संसदीय प्रणाली को कटघरे मे खड़ा कर दिया। तब जन लोकपाल की खूब चर्चा हुई थी। लेकिन अब वही केजरीवाल सब भूल चुके हैं। विडंबना रही कि दलितों और मुसलमानों का एक बहुत बड़ा वर्ग भी दिल्ली में केजरीवाल को अपना रहनुमा मान बैठा। जबकि अपनी कारगुजारियों से केजरीवाल सरकार ने यह साबित कर दिया है कि वे खुले तौर पर हिंदुत्व की राजनीति कर रहे हैं। ऐसा उनके हनुमान और कृष्ण वाले बयानों से भी जाहिर है।

अरविंद केजरीवाल व मनीष सिसोदिया

सर्वविदित है कि दिल्ली में आप सरकार के कार्यकाल में हुए भीषण सांप्रदायिक दंगे हुए। लेकिन दंगे के दौरान निर्दोषों की हिफाजत करने के बजाय केजरीवाल सरकार ने नरेंद्र मोदी के मॉडल का अनुसरण किया और ऐसे व्यवहार किया जैसे दिल्ली में कुछ हुआ ही नहीं। जबकि अन्ना आंदोलन की हवा को और अधिक प्रभावकारी बनाने के लिए ‘निर्भया’ कांड को जोर-शोर से उठाया गया था। उस समय तो यह लग रहा था कि देश में तख्ता-पलट हो जाएगा। आज आलम यह है कि वही केजरीवल और उनकी नाक के बाल मनीष सिसोदिया व अन्य सवर्ण नेता बिलकिस बानो के अपराधियों को छोड़ देने के विषय में कन्नी काट ले रहे हैं। वे सारे मुद्दों को ‘अच्छे स्कूल और सबको स्वास्थ्य’ के बहाने हवा में उड़ा दे रहे हैं। देश की जनता के साथ इतना बड़ा फर्जीवाड़ा शायद ही किसी ने किया हो। केजरिवाल के दो मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। सत्येंद्र जैन पहले से ही जेल मे हैं और मनीष सिसाेदिया पर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है। सिसोदिया खुद को महारण प्रताप का वंशज कहते हैं। इन दोनों के बारे में केजरीवाल का कहना है कि ये आज के भगत सिंह हैं। आश्चर्य यह कि जब राजेंद्र पाल गौतम के विरूद्ध प्राथमिकी दर्ज की गई तब केजरीवाल ने एक शब्द भी नहीं कहा। सवाल है कि क्या वे अपनी कैबिनेट में सामाजिक न्याय मंत्री रहे राजेंद्र पाल गौतम का अपराध बताएंगे? 

केजरीवाल ने अपनी पार्टी के दो रोल मॉडलडेल बनाए। इनमें एक शहीद भगत सिंह और दूसरे बाबासाहब डॉ. आंबेडकर। लेकिन क्या वे वाकई में इनदोनों के विचारों का अनुपालन कर रहे हैं? जबकि इन दोनों के बीच अनेक वैचारिक समानताएं हैं। इन समानताओं में लोकतंत्र के प्रति अटूट आस्था, तर्कवाद, मानववाद शामिल है।। 

डॉ. आंबेडकर ने प्रबुद्ध भारत का जो सपना देखा, उसमें जातिगत भेदभाव का खात्मा, छुआछूत से मुक्ति, महिलाओं की आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि अनेक महत्वपूर्ण सवाल थे। ऐसे में यदि अरविंद केजरीवाल यह कहते हैं कि वे डॉ. आंबेडकर को अपना रोल मॉडल मानते हैं तो उनकी किताबें ‘बुद्ध और उनका धम्म’ और ‘जाति का विनाश” स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए। उन्हें यह बताना चाहिए कि डॉ. आंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं में ऐसा क्या है, जिससे डॉ. आंबेडकर के प्रति विश्वास डोल गया? 

कहना न होगा कि साधारण से लगने वालीं डॉ. आंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाएं आज भी आंबेडकरवादियों के लिए किसी भी अन्य धार्मिक पुस्तक या धर्मगुरु से बड़ी पंक्तिया हैं। 

एक संस्मरण मेरी जहन में है। कुछ वर्ष पूर्व देहरादून में एक बड़े प्रगतिशील विचारक के घर पर एक औपचारिक गोष्टी मे शिरकत करने का मौका मिला। इसमें हिंदी साहित्य की नामचीन हस्तियां भी आमंत्रित थीं। मुझे उनके विषय के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। वहां कुछ लोग मुझसे बौद्ध धम्म को लेकर सवाल करने लगे। मैंने उन्हें डॉ. आंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं के बारे में बतया और कि मैं इन्हीं प्रतिज्ञाओं के आधार पर बौद्ध धर्म का अनुपालन करता हूं। मेरे वे निरूत्तर हो गए, क्योंकि वे बौद्ध धम्म को भी ब्राह्मणवादी व्यवस्था का ही हिस्सा साबित करना चाहते थे। 

राजेंद्र पाल गौतम के संदर्भ में केजरीवाल कह सकते थे कि वह अपने मंत्री की बात या विचारों से व्यक्तिगत तौर पर सहमत नहीं हैं, लेकिन उनकी वैयक्तिकता का सम्मान करते हैं। परंतु, उन्होंने ऐसा नहीं किया और इस अंदाज में कहा कि जो भी भगवान की आलोचना करेगा उसे वह स्वीकार नहीं करेंगे। 

सच तो यह है कि केजरीवाल के लिए न तो डॉ. आंबेडकर महत्वपूर्ण हैं और ना ही शहीद भगत सिंह। इन दोनों पर केजरीवाल सिर्फ सत्ता की मार्केटिंग का धंधा कर रहे हैं। हकीकत में होते तो वे भगत सिंह की किताबें– ‘मै नास्तिक क्यों?’ और ‘अछूत का सवाल’ आदि पाठ्यक्रमों में शामिल करते या फिर कभी सार्वजनिक रूप से इनके बारे में चर्चा करते। लेकिन केजरीवाल ऐसा नहीं करेंगे।

अब तो यह बात राजेंद्र पाल गौतम की समझ में आ चुकी होगी कि केजरीवाल को आंबेडकरवाद नहीं चाहिए। उन्हें केवल अपनी पार्टी के एक छोटे से प्रकोष्ठ में दलित नेता चाहिए। 

सनद रहे कि मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित हुए हैं। यह महत्वपूर्ण परिघटना है। खड़गे एक आंबेडकरवादी रहे हैं। कर्नाटक और देश की राजनीति में उनका लंबा राजनैतिक अनुभव रहा है। गुलबर्गा मे उन्होंने जिस बुद्ध विहार का निर्माण किया है, वह दर्शनीय है। उसके अलावा उन्होंने बहुत से सामाजिक सास्कृतिक संगठनों के साथ मिलकर काम किया हैं। 

बहरहाल यह बात हमें याद रखनी होगी कि आंबेडकरवाद आज के सबसे अधिक धारदार विचार है और राजनीतिक दलों की समझ मे आ जाना चाहिए कि अब यदि वे वाकई में डॉ. आंबेडकर के विचारों का सम्मान करना चाहते हैं तो उन्हें उनकी आलोचनाओ को सुनने और सहन करने की क्षमता तो होनी ही चाहिए। नहीं तो आज की पीढ़ी को डॉ. आंबेडकर का नाम लेकर बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। यह बात नेताओं को गांठ बांध लेनी चाहिए। 

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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