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बहस-तलब : कर्नाटक में जातिगत अहंकार और दलित-ओबीसी एकता के सवाल

कर्नाटक में दलित उत्पीड़न पर चुप्पी कई सवाल पैदा करती है। आश्चर्य होता है जब पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा, जिन्हें उत्तर भारत में गरीब, पिछड़ा और किसान कहकर प्रचारित किया जाता है, वे भी इस मामले में खामोश ही रहते हैं। बता रहे हैं विद्या भूषण रावत

दक्षिण भारत का कर्नाटक राज्य पिछले कुछ महीनों से सुर्खियों में रहा है। इसकी अनेक वजहें हें, जिनमें हिजाब प्रकारण और जातिगत हिंसक घटनाएं शामिल हैं। अभी एक घटना जिसने मानवीय चेतना पर सवाल खड़े कर दिए हैं, वह इस राज्य के एक गांव चिकवालपुर की घटना है। इस घटना में एक दंपत्ति ने खुदकुशी कर ली, क्योंकि उनकी बेटी ने दलित जाति के अपने प्रेमी के साथ विवाह रचा लिया था। जबकि लड़की का परिवार वॉकलिगा जाति का है। यह कर्नाटक की एक कृषक जाति है, जिसका समाज और राजनीति पर बड़ा प्रभाव है। पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा, पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केंद्रीय विदेश मंत्री एस. एम. कृष्णा इसी जाति के हैं। 

कर्नाटक में वॉकलिगा जाति के अलावा जिस समुदाय का प्रभाव बहुत अधिक है, वह लिंगायत समुदाय है। दोनों एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी भी हैं। राज्य में दलितों और आदिवासियों के ऊपर अत्याचार और शोषण करने के मामले में ब्राह्मण और नायक जाति के अलावा ये दोनों जाति-समुदाय शीर्ष पर हैं। 

अभी कुछ दिनों पूर्व ही कर्नाटक के कोलार कस्बे के एक गांव में एक दलित बच्चे ने एक धार्मिक प्रदर्शन के दौरान भूतअम्मा देवी की मूर्ति को छू दिया। इससे वॉकलिगा समुदाय इतना नाराज हुआ कि उसने दलितों का न केवल बहिष्कार करने की धमकी दी, बल्कि साठ हजार रुपए का आर्थिक दंड भी लगा दिया। बाद मे जब मीडिया में सवाल उठने लगे तब पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार किया। 

खैर, इस घटना की अंतिम परिणति किस रूप में होगी, अभी कहना मुश्किल है, क्योंकि कर्नाटक में अभी भी दलितों के प्रति अन्य जातियों के लोगों में दुराग्रह और पूर्वाग्रह दोनों व्याप्त हैं। आज भी अनेक स्थानों पर दलितों को रेस्तरां आदि में चाय नहीं दी जाती है। उन्हें अपने लिए खुद ही गिलास लाने व धोने के लिए कहा जाता है। ऐसे भी अनेक मामले सामने आए हैं जब नाईयों न दलितों की दाढ़ी-हजामत नहीं बनाई। मंदिरों में दलितों के प्रवेश करने पर हिंसक घटनाएं तो बेहद आम हैं। 

आजकल राहुल गांधी ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के तहत कर्नाटक में पदयात्रा कर रहे हैं। गत 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के मौके पर उन्होंने मैसूर जिले के नंजनगुड तालुका मे बदनवालु गांव में आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लिया। वहां गांव के लोगों के श्रमदान से एक सड़क का निर्माण किया गया, जिसका नाम ‘भारत जोड़ो मार्ग’ रखा गया।

बताते चलें कि यह सड़क 1993 से ही लिंगायत और दलितों के मध्य विवाद को लेकर बंद थी। 

दरअसल, 26 मार्च, 1993 को इस कस्बे में लिंगयत समुदाय के लोगों ने दलितों पर हमला कर दिया था। इस घटना में यहां के स्कूल के प्रधानचार्य बी. नारायणस्वामी, उनके 8 साल के बेटे मधुकर, और स्कूल के कैशियर नटराज की हत्या स्कूल में ही कुल्हाड़ियों से काटकर कर दी गई। इस वारदात को योजनाबद्ध तरीके से तब अंजाम दिया जब दलितों का एक समूह दूसरे गांव से शाम के समय एक क्रिकेट मैच देखकर लौट रहा था। तब झाड़ियों मे घात लगाए अपराधियों ने उनके उपर हमला बोल दिया। अचानक हुए हमले में 3 लोगों की मौके पर ही मौत हो गई और लगभग एक दर्जन लोग घायल हो गए। 

दलित छात्रा के साथ बलात्कार व हत्या के विरोध में कर्नाटक के विजयपुरा में प्रदर्शन करते लोग

दरअसल, यह भी अचानक हुई घटना नहीं थी। चूंकि लिंगायत समुदाय के लोग यहां संपन्न थे तो उनके खेतों में अधिकांश दलित जातियों के लोग ही मजदूरी करते थे। लेकिन बाद में दलित समुदाय के लोग पढ़ाई की तरफ आकर्षित हुए और उनमें डॉ. आंबेडकर के विचारों का प्रसार हुआ। इसमें दलित संघर्ष समिति की अहम भूमिका रही। 

हिंसक वारदात के पीछे वजह यह थी कि इस गांव मे सिद्धेश्वर स्वामी के मंदिर के निर्माण के लिए लिंगयतों ने गांव के दलित समुदाय से भी सहयोग करने की बात कही। दलितों ने भी मंदिर निर्माण में पूरे सहयोग का वादा किया। लेकिन उनकी एक शर्त थी कि मंदिर बनने के बाद उसमें उन्हें प्रवेश का समान अधिकार व सामुदायिक स्तर पर कार्यक्रम करने का अधिकार होगा।

लिंगायत समुदाय के लोगों पहले तो उनकी शर्तें मान लेने की बात कही। इसके परिणामस्वरूप गांव के दलित जातियों के लोगों ने तन-मन-धन से मंदिर निर्माण में लिंगायतों का सहयोग किया। लगभग तीस हजार रुपए संग्रह कर लिंगायत समुदाय के लोगों को सौंपे गए और दलितों ने श्रमदान भी किया।

मंदिर निर्माण के बाद 30 जनवरी, 1993 को उद्घाटन के अवसर पर लिंगायतों के बड़े-बड़े गुरुओं ने भागीदारी की। इसमें भाग लेने के लिए हालांकि विभिन्न राजनीतिक दलों के दलित विधायकों को भी आमंत्रित किया गया था लेकिन स्थानीय दलितों को इससे अलग रखा गया। एक तरह से मंदिर में प्रवेश पर रोक लगा दी गई। जब दलितों ने विरोध किया तब लिंगायत समुदाय के युवाओं ने उन्हें लाठी के बल पर भगा दिया। स्थानीय पुलिस ने शांति भंग होने की आशंका के मद्देनजर दोनों पक्ष के युवाओं को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद दोनों पक्षों के बीच तनातनी बढ़ी। दलित यह मान रहे थे कि उनका अपमान किया गया है और उनके साथ धोखा हुआ है। लिंगयत समुदाय के नेता और धार्मिक प्रमुख इस सवाल पर कुछ भी बोलने से कतराते रहे। इससे तनाव बढ़ता ही जा रहा था। दलितों की शिकायत पर पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा और 2 फरवरी, 1993 को स्थानीय पुलिस ने मंदिर में प्रवेश करा दिया। पहले तो पुलिस के डर से कुछ समय तक लिंगायत चुप रहे, लेकिन दलितों ने जब उगाड़ी पर्व के अवसर पर मंदिर मे एक सामुदायिक कार्यक्रम करने की घोषणा की तब लिंगायत समुदाय के लोग भड़क उठे और दलितों पर हमला बोल दिया। 

इसके बाद कर्नाटक में दलितों ने भी लिंगयतों पर हमले किए और स्थिति बेहद तनावपूर्ण रही। सरकार की कार्रवाई ढीली-ढाली रही। वर्ष 2010 में निचली अदालत ने अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत 20 आरोपियों को दोषी मानते हुए आजीवन कारावास की सजा मुकर्रर की। हालांकि हाई कोर्ट ने बाद में 17 अक्टूबर, 2014 को 7 आरोपियों को दोषमुक्त करार दे दिया। जबकि 13 लोगों की सजा को बरकरार रखा। वहीं तीन आरोपियों की मौत ट्रायल के दौरान ही हो गई थी। 

बहरहाल, ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के दौरान यह बताया जा रहा है कि दोनों समुदायों के मध्य दोस्ती हो गई है। लेकिन इस मामले में अभी कुछ भी कहना केवल अनुमान लगाना ही होगा।

बताते चलें कि आज भी कर्नाटक के अनेक मंदिरों मे दलितों का प्रवेश वर्जित है और उनके द्वारा मूर्तियों को छू लेने या गर्भ गृह मे प्रवेश करने पर भारी जुर्माना भी लगाया जाता है। 

अन्य घटनाओं की बात करें तो कर्नाटक के कोलार जिले के कंबलापल्ली गांव मे रेड्डी और वॉकलिगा लोगों ने 11 मार्च, 2000 को 7 दलितों को जिंदा जला दिया था। उन्हें दलितों द्वारा अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना नागवार लगा। कर्नाटक हाई कोर्ट ने इस हत्याकांड के 46 आरोपियों को 21 अगस्त, 2014 को बाइज्जत बरी कर दिया। 

दुखद यह है कि इन सवालों को लेकर कोई ठोस पहल नहीं की जाती है। राजनीतिक गलियारे में इन प्रश्नों पर विचार नहीं किया जाता है। अब इसी मुकदमे की बात करें तो मुकदमे के एकमात्र गवाह वेंकटरायप्पा, जिन्होंने अपने परिजनों को खोया था, उनकी मौत 19 अप्रैल, 2017 को हो गई। 

आज भी यह सच्चाई है कि कर्नाटक के 12 जिलों मे सरकारी तौर पर पांच हजार से अधिक लोग सिर पर मानवमल ढोते बताए गए हैं। सनद रहे कि यह सरकारी आंकड़ा है। वास्तविक संख्या इससे अधिक ही होगी। वहीं 2017 से 2021 तक केंद्र सरकार की रिपोर्ट के अनुसार 26 लोगों की मौत सीवर मे घुसकर सफाई करने के दौरान हुई। 

राज्य सरकार की रपट के आंकड़े बताते हैं कि 1 अप्रैल, 2020 से लेकर 31 मार्च, 2021 तक की अवधि में कर्नाटक में दलित-आदिवासियों की हत्या, प्रताड़ना आदि के 2327 मामले दर्ज किये गये, जो वर्ष 2019 की तुलना में 54 फीसदी अधिक है। 

बहरहाल, कर्नाटक में दलित उत्पीड़न पर चुप्पी कई सवाल पैदा करती है। आश्चर्य होता है जब पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा, जिन्हें उत्तर भारत में गरीब, पिछड़ा और किसान कहकर प्रचारित किया जाता है, वे भी इस मामले में खामोश ही रहते हैं। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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