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संघ की मंशा को समझें दलित-बहुजन

आरएसएस से जुड़े लाग गाहे-बेगाहे कहते रहते हैं कि उन्होंने ही कांग्रेस को ‘राम वन गमन पथ’ जैसी योजना बनाने के लिए मजबूर किया। उन्हें जनेऊ दिखाने के लिए मजबूर कर दिया। ऐसे ही केजरीवाल को कृष्‍ण बनने के लिए मजबूर कर दिया। बता रहे हैं संजीव खुदशाह

पिछले दिनों डॉ. आंबेडकर द्वारा 14 अक्टूबर, 1956 को ली गई 22 प्रतिज्ञाओं को लेकर पूरे देश में चर्चा छिड़ गई। चर्चा की वजह रही दिल्ली में सत्तासीन आम आदमी पार्टी (आप) सरकार के मंत्री राजेंद्र पाल गौतम ने गत 5 अक्टूबर को दिल्ली के आंबेडकर मैदान में उन 22 प्रतिज्ञाओं को हजारों की भीड़ के साथ दुहराया। फिर इसके बाद हिंदुत्ववादी लोगों ने इसे अपनी भावनाओं के आहत होने की बात कहकर तूल दिया और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने राजेंद्र पाल गौतम को मंत्री पद से हटा दिया।

दरअसल बहुत सारे लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की मंशा को नहीं समझ पाते हैं। अधिकांश लोग समझते हैं कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सत्‍ता में बनाए रखना ही उसका मकसद है। लेकिन यह सच्चाई नहीं है। सच्चाई यह है कि उसके लिए भाजपा एक मोहरा मात्र है। 

आरएसएस की मूल मंशा हिंदुत्व के मुद्दे को मुख्यधारा में लाना और उसे राजनीति की धुरी बनाए रखना है। संघ फिलहाल अपने इस मकसद में पूरी तरह से कामयाब होता दिख रहा है। ऐसी बात नहीं है कि इससे पहले हिंदुत्व के मुद्दे पर पार्टियां बात नहीं करती थीं या यह मुद्दा उनके एजेंडे में नहीं था। लेकिन 2014 के बाद परिस्थितियां पूरी तरह बदल गई हैं। 

अब किसी भी दल के एजेंडे में कौमी एकता, भाईचारा, तर्कशीलता और विज्ञानवाद नहीं है। इसीलिए कांग्रेस के नेता राहुल गांधी अपना जनेऊ दिखाकर अपना रक्त दिखाते फिरते हैं। मंदिर-मंदिर माथा टेकते हैं। समाजवाद की बात करने वाली समाजवादी पार्टी ब्राह्मण सम्मेलन करती है। वहीं दलित-बहुजन की बात करने वाली बहुजन समाज पार्टी हाथी को गणेश बताती हैं। मायावती त्रिशूल लिए फिरती हैं। आम आदमी को लेकर चलने की बात करने वाली पार्टी के अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल अपने आप को राम का भक्त हनुमान बताते हैं। 

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत

मतलब यह कि लगभग सभी बड़ी पार्टियां हिंदुत्व की तरफ बड़ी तेजी से बढ़ती हुई देखी जा सकती हैं। 

संघ की मंशा हिंदुत्व को राजनीति की धुरी बनाने की है। इसलिए उसने ऐसा माहौल बना दिया है और यह भ्रम पैदा कर दिया है कि हिंदुत्व के बिना राजनीति नहीं की जा सकती। भाजपा को छोड़कर बाकी सभी दलों को लगता है कि यदि वह भी हिंदुत्व को लेकर बात करेंगे तो लोग भाजपा को छोड़कर उन्‍हे वोट देगे और वे सत्ता में आ जाएंगे। लेकिन वास्तव में यह उनका भ्रममात्र है। 

सवर्ण हिंदू किसी भी हाल में भाजपा और संघ का साथ नहीं छोड़ेंगे। बाकी जो बहुसंख्यक लोग हैं, उनके अंदर भी किसी ना किसी रूप में हिंदुत्व के प्रति अनुराग है। एआईएमआईएम जैसी पार्टियां भी हैं, जो इस्लाम को अपना आधार मानकर राजनीति कर रही है। ऐसे में वे सभी लोग जो विज्ञानवाद को मानते हैं, कौमी एकता के आकांक्षी हैं, आज की तारीख में उनके लिए कोई विकल्प नहीं है। 

एक उदाहरण यह कि कांग्रेस की सरकार भी जहां कहीं बन रही हैं, वहां पर वे हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने की रेस में भाजपा को पीछे छोड़ देना चाह रही हैं। इस आधार पर समझा जा सकता है कि आरएसएस अपने मकसद में किस तरह सफल होता दिख रहा है।यही वजह है कि आरएसएस से जुड़े लाग गाहे-बेगाहे कहते रहते हैं कि उन्होंने ही कांग्रेस को ‘राम वन गमन पथ’ जैसी योजना बनाने के लिए मजबूर किया। उन्हें जनेऊ दिखाने के लिए मजबूर कर दिया। ऐसे ही केजरीवाल को कृष्‍ण बनने के लिए मजबूर कर दिया। 

सवाल बहुसंख्यक दलित-बहुजनों का

असल सवाल उनका है जो ब्राह्मणों के धर्म से खुद को अलग रखते हैं। वे जोईसाई, मुस्लिम, सिक्‍ख, कबीरपंथी, रविदासी और सतनामी, आदिवासी हैं, उनके लिए आज कोई विकल्प नहीं है। वे भी हिंदुओं के धर्म ग्रंथों से आहत हैं। वे चाहते हैं कि राजनीति हिंदुत्व के एजेंडे पर नहीं, विकास के एजेंडे पर यानी गरीबी, भूखमरी, शिक्षा, स्वास्थ्य के मुद्दे पर आधारित हो। वे देश में समता, समानता, भाईचारा पर केंद्रित राजनीति चाहते हैं।। लेकिन कोई भी पार्टी फिलहाल इस पथ पर चलती हुई नहीं दिखती है। इसीलिए मौजूद नरम दल या गरम दल में किसी एक को चुनना उनकी मजबूरी हो जाती है। 

अब सवाल यह कि जब डॉ. आंबेडकर द्वारा हिंदू धर्म का परित्याग कर बौद्ध धर्म अपनाया गया और इस मौके पर उन्होंने लाखों लोगों के साथ 22 प्रतिज्ञाएं ली तब उस समय तथाकथित हिंदुओं की भावनाएं क्यों आहत नहीं हुईं? संघ अपने एजेंडे में डॉ. आंबेडकर को रखता है। वह एक ओर गांधी की आलोचना करता है तो दूसरी ओर डॉ. आंबेडकर की प्रशंसा करता है। यही काम आम आदमी पार्टी भी करती है। आम आदमी पार्टी के तमाम कार्यालयों में और जहां उनकी सरकार है, उनके कार्यालयों में डॉ. आंबेडकर की तस्वीर को लगाना अनिवार्य कर दिया गया है। इसके बावजूद डॉ. आंबेडकर की की 22 प्रतिज्ञाओं से उन्हें परेशानी हुई। प्रश्न उठता है कि क्या बहुजनों को लुभाने के लिए ही डॉ. आंबेडकर की तस्वीर लगाई जा रही है! उनकी विचारधारा का क्या होगा? उनकी तमाम किताबों का क्या होगा, जिन्हें भारत सरकार ने प्रकाशित किया है? आखिर वह क्या कारण है कि अरविंद केजरीवाल खुद को डॉ. आंबेडकर का अनुयायी बताते हैं और उनकी ही प्रतिज्ञाएं लेनेवाले अपने मंत्री को हटा देते हैं? 

इसका सीधा कारण है 15 फीसदी सवर्णें को खुश करने की कोशिश। जबकि कोई भी राजनीतिक पार्टी केवल सवर्णों के वोट से सरकार नहीं बना सकती है। लेकिन उन्हें लगता है कि वह यदि हिंदुत्व के खिलाफ जाएंगे तो उनका विनाश निश्चित है।

समाधान क्या है?

हिंदुत्व के एजेंडे को अगर छोड़ दें तो राजनीति के लिए मुद्दों की कमी नहीं है। समता, समानता, भाईचारा, तर्कशीलता, विकास, स्वास्थ्य, गरीबी, बेरोजगारी जैसे तमाम मुद्दे हैं, जिन्हें राजनीति का केंद्र बनाकर विपक्ष आगे बढ़ सकता है। ऐसा कर वह जनता के लिए एक विकल्प बन सकता है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

संजीव खुदशाह

संजीव खुदशाह दलित लेखकों में शुमार किए जाते हैं। इनकी रचनाओं में "सफाई कामगार समुदाय", "आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग" एवं "दलित चेतना और कुछ जरुरी सवाल" चर्चित हैं

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