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कांग्रेस में खड़गे युग, दूरगामी राजनीति की पहल 

राहुल गांधी दूरगामी राजनीति में यकीन करने वाली पीढ़ी है। इस रुप में वह इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी से बिल्कुल भिन्न हैं। राहुल भारतीय राजनीति में लंबी पारी खेलना चाहते हैं। उनका मकसद तत्काल सत्ता मशीनरी पर काबिज होना नहीं है। बता रहे हैं अनिल चमड़िया

कर्नाटक के माला जाति (उत्तर भारत में जाटव जाति के समकक्ष) से आनेवाले राज्यसभा सदस्य मल्लिकार्जुन खड़गे का कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित होने की परिघटना का किस तरह विश्लेषण किया जा सकता है? यह एक सवाल है और एक तथ्य यह कि भारतीय समाज और उसके बीच सत्ता की राजनीति का सच जाति पर केंद्रित है। भारतीय समाज में जाति ही शासक और शासित रही हैं। इसे बनाए रखने और इसे बदलना ही राजनीतिक संघर्ष का मुख्य आधार बना हुआ है। 1885 में कांग्रेस स्वशासन के लिए गोलबंद करने के इरादे से बनी थी। भारतीय राष्ट्रवाद की आड़ में भारतीय समाज में विद्यमान वास्त्विक सत्ता के आधार राजनीति के केंद्र में नहीं आ पाए थे। डॉ. आंबेडकर ने भारतीय राष्ट्रवाद के नारे के बरक्स भारतीय राष्ट्रवाद बनाम भारतीय समाज को केंद्र में लाकर ब्रिटिश भारत से मुक्ति के बाद की राजनीतिक संघर्षों की तस्वीर स्पष्ट कर दी। 

कांग्रेस के बारे में यह कहा जाता है कि उसने राष्ट्र के लिए संस्थाएं खड़ी की है। लेकिन यह वास्तविकता इसमें निहित है कि राष्ट्र के बहुसंख्यक हिस्से को विभिन्न स्तरों पर वंचित रखने की कुशलता भी विकसित करती रही है। नतीजे के तौर पर संसदीय लोकतंत्र के लिए कांग्रेस के विस्तार होने की जो अनिवार्यता थी, वह नहीं हुआ और वह सिमटती गई तथा एक परिवार के आभामंडल के इर्द-गिर्द बने रहने के लिए अभिशप्त हुई। यह कहा जाए कि कांग्रेस में सोशल इंजीनियरिंग की जो पद्धति विकसित की गई थी, उसे ही इस्तेमाल किया जाता रहा है। सत्ता को बनाए रखने के लिए सोशल इंजीनियरिंग और समाज में बुनियादी तौर पर बदलाव के लिए सोशल इंजीनियरिंग में फर्क होता है। यही प्रश्न आज भी कांग्रेस के सामने खड़ा है? 

जवाहरलाल नेहरु के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व व प्रभाव वाली कांग्रेस को सबसे बड़ी चुनौती 1970 से पहले मिली। गैर कांग्रेसवाद व गैर परिवारवाद की राजनीति ने संसदीय लोकतंत्र के विकास के सामने एक नई चुनौती पेश की। यानी समाज के बहुसंख्यक हिस्से के कांग्रेस के प्रभाव से छिटकने और वंचित बहुसंख्यक समाज के भीतर बिखराव को एक हद तक दूर करने की राजनीति परवान चढ़ी। तब इंदिरा गांधी ने समाज के सबसे कमजोर माने जाने वाले समाज के राजनीतिक चेहरे बाबू जगजीवन राम के नेतृत्व में पाकिस्तान को विभाजित करने का युद्ध लड़ा और अपने गरीबी हटाओं के नारे को विश्वसनीय बनाने के लिए जगजीवन राम को कांग्रेस की कमान सौंप दी। यह उदाहरण समझने भर के लिए है कि संसदीय राजनीति में वर्चस्व की सत्ता को जब चुनौती मिलती है तब पार्टियां सोशल इंजीनियरिंग की पद्धति का किस तरह इस्तेमाल करती हैं। 

इंदिरा गांधी भारतीय समाज के बीच पश्चिमी विचारों के बीच पली-बढ़ी महिला थीं। वे सत्ता को अपने परिवार की विरासत समझने के विचारों से बाहर निकल नहीं पायीं। इन स्थितियों में कांग्रेस का सांगठनिक आधार कम से कम होता चला गया। सोशल इंजीनियरिंग करने की क्षमता से भी वह चूकती चली गई। कांग्रेस ने भारतीय समाज में वर्चस्व के जिन विचारों को अपने साथ बनाए रखने की जो कुशलता विकसित की थी, उन विचारों ने अपने अलग सांगठनिक आधार विकसित करने की जरुरत महसूस की। यहां तक कि नेहरु के बाद चौथी पीढ़ी के रुप में राहुल गांधी के समक्ष कांग्रेस मुक्त भारत के नारे के रुप में आखिरी चुनौती पेश हुई।

राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे

राहुल गांधी दूरगामी राजनीति में यकीन करने वाली पीढ़ी है। इस रुप में वह इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी से बिल्कुल भिन्न हैं। राहुल भारतीय राजनीति में लंबी पारी खेलना चाहते हैं। उनका मकसद तत्काल सत्ता मशीनरी पर काबिज होना नहीं है। इसे उनकी मां सोनिया गांधी की पृष्ठभूमि के प्रभाव के रुप में भी विश्लेषित किया जा सकता है। भारतीय राजनीति में यह एक खास प्रवृति विकसित हुई है कि उसमें तत्कालिकता पर जोर हैं। इसीलिए पार्टियां सिमट रही है। सत्ता समीकरण का पर्याय हो गया है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस पर परिवार का शिकंजा ढीला किया जा रहा हो और गांधी परिवार संगठन पर काबिज रहने के बजाय अपने प्रभाव मंडल को अहमियत दे रहा हो तो इसे गंभीरता से समझने की जरुरत जान पड़ती है। 

भारतीय राजनीति का यह दौर कहां खड़ा है? जवाब है कि यह सोशल इंजीनिरिंग की विभिन्न पद्धतियों पर आधारित हैं। समाज के वंचित हिस्से को विभिन्न हिस्सों में वास्तविक अर्थो में भागीदार बनाना और विभिन्न हिस्सों की भागीदारी के लिए भ्रम खड़ा करना यह राजनीतिक संघर्षों के केंद्र में है। कांग्रेस अपनी पुरानी स्थितियों से बाहर निकलना चाहती है। उसके एक ठोस सांगठनिक आधार की जरुरत है तो दूसरी तरफ गांधी परिवार के प्रभाव मंडल को पुनर्जीवित करना है। राहुल गांधी की दूरगामी राजनीति करने का लक्ष्य ही वह ताकत है जो कि मल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की स्वीकृति देता है। संसदीय राजनीति में आमतौर पर यह देखा जाता है कि राजनीतिक नेतृत्व संगठन की कमान अपने हाथों में रखकर अपने सीमित सामाजिक आधार को बनाए रखने में लगे रहते है। संगठन की कमान को नियंत्रित करने के दो तरीके होते हैं। एक स्वयं के सीधे नियंत्रण में रखना और दूसरा संगठन के नेतृत्व को प्रतीकात्मक छवि तक सीमित रखना। कांग्रेस के बारे में भी यह राग दोहराया जा रहा है। लेकिन वह जानती है कि प्रतिकात्मक छवि वाले नेतृत्व के जरिये अपना कोई ठोस सांगठनिक आधार नहीं तैयार किया जा सकता है। 

राहुल गांधी भारतीय समाज में जिस तरह के सुधारों को लेकर अपने प्रभाव मंडल का विस्तार कर रहे हैं, वह कांग्रेस की राजनीतिक विरासत में दिखती है। यह एक स्थिति स्पष्ट है कि गांधी परिवार के बिना कांग्रेस की कल्पना नहीं की जा सकती है। इस तरह परिवार का प्रभाव और समाज के विभिन्न हिस्सों की सांगठनिक हिस्सेदारी भविष्य के कांग्रेस की दिशा है। राजस्थान के उदयपुर में कांग्रेस के प्रस्तावों के बाद मल्लिकार्जुन खड़गे का अध्यक्ष बनना दूरगामी राजनीतिक लक्ष्य से जुड़ी परिघटना है, तो ऐसा माना जा सकता है कि कांग्रेस एक संगठन के रुप में विस्तार करने की संभावनाओं के द्वार खोल रहा है। 

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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