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क्या है भाजपा के ‘टोटल’ बहिष्कार का मतलब?

प्रवेश वर्मा जैसे लोग हिंदुत्व की भांग खाकर मुसलमानों से दलितों का संघर्ष कराना चाहते हैं। चूंकि वे दलितों का आसानी से बहिष्कार करने के आदी हो चुके हैं, इसलिए सोचते हैं कि मुसलमानों का भी बहिष्कार आसानी से करा लेंगे। बता रहे हैं कंवल भारती

आप टोटल बहिष्कार का मतलब समझते हैं, क्या है? पश्चिमी दिल्ली लोकसभा क्षेत्र से भाजपा के सांसद प्रवेश वर्मा ने एक खास समुदाय के ‘टोटल’ बहिष्कार की अपील यूं ही नहीं की है। यह विचार उनके दिमाग में वहीं से आया है, जहां से उन तथाकथित संतों में आया था, जिन्होंने खुलेआम मुसलमानों के नरसंहार का आह्वान किया था। मोहन भागवत भले ही अब जाति के खिलाफ़ बोलने लगे हैं, सबका डीएनए एक बताते घूम रहे हैं, पर क्या मुसलमानों के ‘टोटल’ बहिष्कार की अपील करने वाले प्रवेश वर्मा या मुसलमानों के नरसंहार का आह्वान करने वाले संतों के खिलाफ़ मोहन भागवत ने अपनी जुबान खोली? नहीं खोली। फिर वह किसे बेवक़ूफ़ बना रहे हैं?

पहले ‘टोटल’ बहिष्कार को समझिए। डॉ. आंबेडकर ने लिखा है कि गांवों में दलितों का दमन करने के लिए जिस ताकतवर हथियार का इस्तेमाल सवर्ण हिंदू करते हैं, वह यही ‘टोटल’ बहिष्कार का हथियार है। इसका मतलब यह है कि गांव में कोई भी हिंदू दलितों को काम नहीं देगा, कोई भी हिंदू दुकानदार दलितों को खाने-पीने का सामान नहीं बेचेगा, और कोई भी हिंदू दलितों को शौच के लिए अपने खेतों में नहीं जाने देगा। इसका परिणाम यह होता था कि दलित इस बहिष्कार को झेल नहीं पाते थे, और सवर्ण हिंदुओं की अधीनता में रहने के लिए तैयार हो जाते थे। लेकिन प्रवेश वर्मा जिनके ‘टोटल’ बहिष्कार की बात कर रहे हैं, वे मुसलमान हैं। 

अब इस बहिष्कार को समझना होगा, क्योंकि मुसलमान सवर्ण हिंदुओं पर निर्भर नहीं हैं। हिंदू उनका टोटल बहिष्कार करके न तो उनका दमन कर सकते हैं, और न उनको अपने अधीन रखने में कामयाब हो सकते हैं। दलितों की स्थिति दूसरी थी, वे गांवों में अपनी आजीविका के लिए पहले से ही सवर्ण हिंदुओं पर निर्भर रहते थे, और काफी हद तक आज भी रह रहे हैं। पर यह स्थिति मुसलमानों के साथ कतई नहीं है। कोई मुसलमान अगर राजमिस्त्री है, तो वह किसी हिंदू के घर काम मांगने नहीं जाता है। जो भी जरूरतमंद है, वह खुद उसके पास जाता है। वह किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करता। वह अपने पास आने वाले हिंदू का भी काम करता है, और मुसलमान का भी, यहां तक कि दलितों का भी काम करता है। यही स्थिति उस मुसलमान की है, जो टाइल्स लगाने का काम करता है, या कारपेंटर है, या बिजली मैकेनिक है, या दो पहिया-चार पहिया गाड़ी का मिस्त्री है, या साइकिल में पंचर बनाने का काम करता है, या लोहे का काम करता है, या नाई का काम करता है या जनरल स्टोर चलाता है या सब्जी बेचने का काम करता है, या हलवाई का काम करता है, इनमें से कोई भी मुसलमान हिंदुओं पर निर्भर नहीं है। वह किसी भी हिंदू से यह नहीं कहता कि वह उसके पास आए। फिर कोई उसका क्या बहिष्कार करेगा?  

दिल्ली में बीते दिनों एक सभा को संबोधित करते भाजपा के सांसद प्रवेश वर्मा

कोई भी हिंदू शायद ही किसी मुसलमान हलवाई से मिठाई खरीदता हो, पर दाढ़ी-बाल कटवाने के लिए वह मुस्लिम नाई की दूकान पर ही जाता है, क्योंकि हिंदू नाई खोजने से भी शायद कोई मिले। बहिष्कार उसका किया जा सकता है, जो किसी की जागीरदारी में रहता हो। मुसलमान हिंदुओं की जागीरदारी में रहते नहीं हैं। फिर भाजपाई उनका बहिष्कार किस तरह करेंगे? हाँ, गुंडों के रूप में झुंड बनाकर कुछ भगवाधारी हिंदू मुसलमानों के खिलाफ दहशत फैलाने के लिए, कुछ सार्वजनिक मार्गों पर रेहड़ी-ठेलों पर खाने-पीने का सामान या सब्जी बेचने वाले, या गुब्बारे बेचने वाले या रिक्शा चलानेवाले गरीब मुसलमानों के साथ जरूर मारपीट करके अपनी मर्दानगी दिखा सकते हैं। पर वे बहिष्कार नहीं कर सकते।

मुसलमानों का बहिष्कार करने वाले भगवाधारी हिंदुओं को एक बात और समझने की है, और वह यह कि मुसलमानों ने अपने आप को एक आत्मनिर्भर आर्थिक राष्ट्र के रूप में विकसित कर लिया है। उनके पास अपने आलीशान बाजार हैं, जिनमें जनरल स्टोर, मेडिकल स्टोर, अस्पताल, डाक्टर्स, फर्नीचर, प्रिंटिंग प्रेस, किताबें, स्टेशनरी; रेडीमेड कपड़ों, इलेक्ट्रॉनिक और इलेक्ट्रिक सामानों के शोरूम; क्रॉकरी, हार्डवेयर की दुकानें, सब्जियों की दुकानें; स्वीट हाउस, जूते-चप्पल, मांस-मछली की दुकानें; जरी-गोटा, जेवरात, शादी-व्याह के कपडों तथा अन्य सामान बनाने वाले टेलर; सोफा बनाने वाले, बावर्ची, शामियाने लागने वाले, बच्चों के खिलौने, स्त्रियों की प्रसाधन सामग्री, भवन-निर्माण की सामग्री, आदि उपभोग की ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो न हो। और ये मुस्लिम बाज़ार हिंदुओं पर निर्भर नहीं हैं, बल्कि उनका मुस्लिम समाज ही उनका विशाल खरीदार है। उनके अपने स्कूल और कॉलेज हैं। और ये ऐसी संस्थाएं हैं, जिनमें संभ्रांत हिंदू भी अपने बच्चों को प्रवेश दिलाने के लिए पंक्तिबद्ध ख्ड़े रहते हैं। यह ऐसा आत्मनिर्भर राष्ट्र है, जिसका बहिष्कार करने की हैसियत भी हिंदुओं में नहीं है।

मैं स्वयं जिस बस्ती में पैदा हुआ, पला-बढ़ा, वहां शायद ही कोई दूकान किसी हिंदू की थी। रोजमर्रा के उपभोग में आने वाली सारी चीजों की दुकानें मुसलमानों की थीं, जो वहाँ आज भी हैं। हमारे घर दूध मुसलमान के यहां से आता था, आटा-दाल, नमक, मिर्च-मसाले, तेल-घी सब मुसलमानों की दुकानों से आता था, सब्जियां भी हम मुसलमानों की दुकानों से लाते थे, मुस्लिम कुंजडों की एक बड़ी सब्जी मंडी वहां पर थी, जो आज भी मौजूद है। बकरे का मांस भी मुसलमान कसाई की दुकान से आता था। जिन फेरी वालों से हमारी औरतें कपडा-लत्ता और बिसाती का सामान खरीदती थीं, वे भी मुसलमान थे। यहां तक कि हमारे इलाके में मिठाई की दुकानें भी मुस्लिम हलवाइयों की थीं, और हम बड़े शौक से वहां से लड्डू, बर्फी, जलेबी, बालुशाही वगैरह खरीदते थे, कोई परहेज हमारे अंदर नहीं था। जिन दिनों मैं सुल्तानपुर जनपद में रहता था, तो वहां शाहपुर बाज़ार में मुस्लिम हलवाई की दूकान की चाशनी में डूबी हुई गुझिया मुझे बहुत पसंद थी। और प्रवेश वर्मा जैसे लोग हिंदुत्व की भांग खाकर मुसलमानों से दलितों का संघर्ष कराना चाहते हैं। चूंकि वे दलितों का आसानी से बहिष्कार करने के आदी हो चुके हैं, इसलिए सोचते हैं कि मुसलमानों का भी बहिष्कार आसानी से करा लेंगे।

भले ही, प्रवेश वर्मा जैसे उन्मादी लोग गलतफहमी के शिकार हैं, लेकिन वे जिस एजेंडे के तहत मुसलमानों का ‘टोटल’ बहिष्कार करने की बात बोल रहे हैं, उसे समझने की जरूरत है। वह एजेंडा दलित-पिछ्ड़ी जातियों को वर्णव्यवस्था की ओर वापस ले जाने का है। उदाहरण के लिए वह कह रहे हैं, मुस्लिम नाई का बहिष्कार करो, और हिंदू नाई से दाढ़ी-बाल कटवाओ। अब हिंदू नाई अपना पेशा छोड़ चुके हैं। वे दूसरे धंधों में आ गए हैं, या पढ़-लिखकर नौकरियां कर रहे हैं। लेकिन प्रवेश वर्मा जैसे प्रगति-विरोधी लोग चाहते हैं कि दलित-पिछ्ड़ी जातियां अपने पुश्तैनी पेशों में लौटें, और मुसलमानों वाले मैकेनिक, मिस्त्री के काम भी सीखें, जिससे मुसलमानों का ‘टोटल’ बहिष्कार किया जा सके। हालांकि मुसलमानों का ‘टोटल’ बहिष्कार तो प्रवेश वर्मा जैसे नेताओं के रहनुमओं के भी वश की बात नहीं है, लेकिन वे और उनकी वर्णव्यवस्थावादी भगवा सरकार मुसलमानों के बहिष्कार के बहाने जिन दलित-पिछ्ड़ी जातियों को पुश्तैनी धंधों में लौटने की अप्रत्यक्ष सीख दे रहे हैं, वह भी उनका गुप्त-काल का हिंदू भारत बनाने का वह दिवास्वपन है, जिसे देखते-देखते ही उनकी आने वाली पीढ़ियां भी मर-खप जाएंगीं। क्योंकि, इन्हें मालूम होना चाहिए कि प्रगति की रफ़्तार पीछे की ओर नहीं, आगे की ओर बढ़ती है। जब तक इन बददिमागों के हाथों में दुर्भाग्य से इस देश की शासन-सत्ता है, तब तक ये ताकत के बल पर अपना वर्चस्व तो बनाए रख सकते हैं, पर किसी भी समुदाय या समाज का टोटल बहिष्कार नहीं कर सकते।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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