बहस-तलब
अभी हाल ही में छठ का उत्सव मनाया गया। पूरे बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश का यह सबसे महत्वपूर्ण उत्सव माना जाता है। हर बार लोग इसकी व्याख्या अपने हिसाब से करते रहे हैं। छठ से ठीक पहले दीपावली को लेकर सोशल मीडिया पर जंग छिड़ गई कि क्या बहुजनों को दीपावली मनानी चाहिए?
उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जैसी जगह मे बुद्धिस्ट विद्वान और भंते नंद रत्न पिछले कई वर्षों से दीपकोत्सव मनाते आ रहे हैं। मुझसे बातचीत के क्रम में उन्होंने बताया कि अनेक ‘बुद्धिजीवियों’ ने उनसे कहा कि दीपावली बहुजनों की परंपरा नहीं है। वह कहते हैं कि भारत में सभी त्यौहारों का एक बहुजन पक्ष है और यदि हम उनकी जांच पड़ताल नहीं करेंगे तो फिर केवल ब्राह्मणवादी शक्तियां ही उसका इस्तेमाल करेंगीं। त्यौहारों में स्थानीयता होती है और भारत में विभिन्न त्यौहारों को अलग अलग-स्थानों पर अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है।
पर्व-त्यौहारों के दूसरे आयाम भी रहे हैं। मसलन, बाल गंगाधर तिलक ने दशहरे का राजनीतिक इस्तेमाल किया। गणपति पूजा के जरिए भी उन्होंने राजनीतिक हित साधा। डॉ. आंबेडकर ने धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस के लिए दशहरे का दिन ही चुना और आज उसे अशोका विजयादशमी का नाम दिया गया है। हालांकि नागपुर में अहिंसक क्रांति 14 अकतूबर 1956 के दिन हुई थी, लेकिन उसके बाद में मुख्य कार्यक्रम अशोका विजयादशमी के दिन ही होता है। दशहरे के दिन पूरा नागपुर बुद्धमय हो जाता है। आरएसएस का दशहरे का कार्यक्रम केवल अखबारों और न्यूज चैनलों के लिए होता है। लेकिन दीक्षा भूमि में लाखों लोग जय भीम और नमो बुद्धाय कहते हुए आते हैं और विभिन्न कार्यक्रमों में भागीदार बनते हैं। इसे सबसे बड़ी रक्तहीन क्रांति कहा जाता है। उन्होंने दलितों को बुद्ध की वैचारिकी में शामिल कर उन्हें एक नया दर्शन देते हुए बताया कि बिना सांस्कृतिक परिवर्तन के कोई राजनैतिक परिवर्तन सफल नहीं हो सकता। दरअसल सांस्कृतिक परिवर्तन ही हमारे जीवन मे बदलाव की असली वजह होता है।
यदि हम बहुजन आंदोलन के तीन सबसे बड़े नायकों– जोतीराव फुले, डॉ. आंबेडकर और पेरियार के जीवन चरित्र को देखें तो पाएंगे कि उनका मुख्य ध्यान अपने समाज को विकल्प देने का था। तीनों की वैचारिकी में अनेकानेक साम्यताएं हैं। फुले का सत्यशोधक हो या डॉ. आंबेडकर की धम्म का मार्ग हो या फिर पेरियार का स्वाभिमान आंदोलन, सभी ब्राह्मणवाद के शिकार लोगों को अपने-अपने तरीके से एक सम्मानजनक विकल्प देने की बात कर रहे थे और तीनों ने ही उन धूर्त सांस्कृतिक परंपराओं की पोल खोली, जिन्होंने देश के अधिसंख्य समाज को मानसिक और शारीरिक तौर पर गुलाम बनाकर रखा।
यह बात भी समझनी होगी कि फुले और आंबेडकर दोनों ने सास्कृतिक विकल्प को महत्वपूर्ण माना। पेरियार ने आत्मसम्मान का नारा दिया और द्रविड संस्कृति के महत्व को उजागर किया। तीनों ही महापुरुषों ने वैचारिकी के तौर पर ब्राह्मणवाद के विरुद्ध वैकल्पिक संस्कृति दी, जो उनकी तरह नहीं थी, अपितु पूर्णतः मानववादी थी, जिसमें जन्म आधारित कोई भेदभाव न हो।
यदि हम ईमानदारी से दलितों और पिछड़ों के साथ आने के सांस्कृतिक बदलाव को समझना चाहते हैं तो हमारे सामने इन तीनों महान क्रांतिकारियों के कार्यों और विचारों को समझना होगा। अक्सर महापुरुषों को उनके जातीय ढांचे मे डालकर सोचने वाले कभी यह नहीं सोच सकते कि आज डॉ. आंबेडकर को दुनिया भर के उत्पीड़ित समाजों के लिए आत्मसम्मान और मानवाधिकारों के संघर्ष के प्रतीक के रूप में देखा जाना चाहिए। महाराष्ट्र के अंदर कोई भी आंबेडकरवादी आंदोलन फुले के विमर्श के बगैर अधूरा है और यही कारण है कि अक्सर लोग बहुजन आंदोलन को फुले-आंबेडकरवादी आंदोलन भी कहते हैं।
यह कितना दुखद है कि फुले की विचारधारा को सर्वप्रथम आंबेडकरवादी आंदोलन ने स्वीकारा और आज फुले को पिछड़ों के आंदोलन का ‘महापुरुष’ बताते हैं। दरअसल उनका अपमान करते हैं क्योंकि फुले पूरे बहुजन आंदोलन की वैचारिकी के सबसे महत्वपूर्ण केंद्र बिंदू हैं। यदि आप फुले को स्वीकारते हैं तभी डॉ. आंबेडकर की विचारधारा को स्वीकार कर सकते हैं। लेकिन अक्सर जातियों के अनुसार नेता खोजने वाले यही सबसे बड़ी गलती करते हैं।
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वर्ष 1990 के बाद जब उत्तर भारत में मंडल की आंधी चली तो फुले को माली समाज का बताने वाले बहुत से समूह पैदा हुए। लेकिन तब सबने यह नहीं सोचा कि फुले अंधविश्वास, सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ और महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले पूरे भारत के महानायक थे। कई बार फुले को डॉ. आंबेडकर से अलग कर रणनीति बनाने की कोशिश होती है, जो सिवाय बौद्धिक धूर्तता के और कुछ भी नहीं है।
अमूमन ऐसी ही स्थिति अब उत्तर भारत मे फिर से हो रही है जब बुद्ध धम्म की ओर पिछड़ी जातियों का आकर्षण बढ़ रहा है। लेकिन यह उस प्रकार से नहीं बढ़ पाया है जैसे आंबेडकवादी आंदोलन के चलते दलितों मे हुआ है, विशेषकर महाराष्ट्र में। दरअसल, कुछ का आकर्षण तो इसलिए है क्योंकि वे सोचते हैं कि वे सम्राट अशोक के वंशज हैं और इसलिए मौर्य, कुशवाहा आदि समुदायों मे ज्यादा जोश इस बात का है कि इस पर हमारा अधिकार किसी दूसरे से अधिक है। ऐसे लोग डॉ. आंबेडकर को भी नहीं स्वीकारते। हिंदी पट्टी में ऐसे विशेषज्ञों की कमी नहीं है, जो कहते रहते हैं जब दलितों के पास अपना धर्म था फिर चाहे वह रैदासी हो या आदि धरम या सतनामी तो फिर उन्हे ‘गैर’ धर्म में जाने की जरूरत क्यों पड़ी? वे बुद्ध को क्षत्रिय धर्म का कहकर यह साबित करना चाहते हैं कि बुद्ध का दलितों से क्या लेना देना?
ऐसे लोगों को यह सोचना चाहिए कि आज श्रीलंका, थाइलैंड, म्यांमार, दक्षिण कोरिया, जापान, चीन, कंबोडिया और भूटान जैसे देशों में बौद्ध धर्म मुख्य धर्म है जबकि बुद्ध इन देशों में कभी नहीं गए। ऐसा क्यों हुआ? यदि ऐसे ही लोगों की बात मानें तो सारे क्षत्रिय लोग बुद्ध के रास्ते पर चल पड़ते तो भारत के अंदर ब्रह्मणवाद पहले ही खत्म हो चुका होता। यह दुखद ही है कि लोग पूरी बहस को व्यक्ति के जन्म तक ही सीमित कर रहे हैं क्योंकि जिन देशों मे बुद्ध को स्वीकार किया गया, उनके पास उन्हें प्यार करने के सिवाय उनकी बातों और सिद्धांतों के कुछ भी नहीं था। रैदास, कबीर, तुकाराम, चोखामेला आदि सभी तर्कवादी और मानववादी परंपरा के संत हुए हैं, और वे सभी हमारी सशक्त सांस्कृतिक विरासत हैं।
इसलिए यदि हम चाहते हैं कि आपस मे सभी समुदायों में एकता बने तो हमें इन सभी महान संतों को अलग-अलग बांट कर नहीं देखना चाहिए। यह आवश्यक है कि हमें सांस्कृतिक विविधता और लोगों द्वारा अपनी धार्मिकता चुनने की उनकी स्वतंत्रता का सम्मान करना होगा और उस मतभिन्नता का सम्मान करना होगा।
यह भी समझना आवश्यक है कि जहां दलितों की विभिन्न धाराओं में डॉ. आंबेडकर केंद्रक हैं और ऐसे ही यह भी स्वीकारना होगा कि जब भी दलित किसी दूसरे धर्म में जाएंगे तो वे इसी आंबेडकरवादी भावना के साथ नई संस्कृति को अपनाएंगे। अनेक बौद्ध भी डॉ. आंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओ को अब अधिक महत्व नहीं देना चाहते। वे कहते हैं कि इन प्रतिज्ञाओं का बौद्ध धम्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है, जबकि आांबेडकरवादी आंदोलन के लिहाज से यह बहुत महत्वपूर्ण है। यहां यह बात समझने की है कि 1956 मे जब दलित-बहुजन समाज इतना पढ़ा लिखा नहीं था कि बौद्ध धर्म के गूढ़ को समझ पाता। डॉ. आंबेडकर की ये प्रतिज्ञाएं ही एक प्रकार से उनके लिए एक मार्गनिर्देशक थीं। आज समाज बहुत पढ़-लिख चुका है और आगे बढ़ चुका है। धम्म के मार्ग पर चल कर लोग अपना जीवन बना रहे हैं। इसलिए बहुत से बौद्ध धम्माचरी यह मानते हैं कि लोगों को बुद्ध के मार्ग के बारे मे बताया जाना चाहिए और उसके लिए डॉ. आंबेडकर की पुस्तक ‘बुद्ध और उनका धम्म’ सभी को पढ़नी चाहिए।
हम सब जानते हैं कि भारत के त्यौहार मुख्यतः बहुजन समाज के ही त्यौहार हैं और वे सीधे-सीधे कृषि कार्यों से जुड़े हैं। कालांतर में इन सभी त्यौहारों का पाखंडीकरण हो गया, जिसके जरिए लोगों के अंदर परम्पराओं के नाम पर ढकोसला और कुरीतियों ने प्रवेश कर लिया।
यह तो सर्वविदित है कि जाेतीराव फुले से लेकर पेरियार और डॉ. आंबेडकर तक ने हमें सांस्कृतिक विकल्प दिये और बड़ी संख्या में लोगों ने उन्हें स्वीकारा भी। हालांकि अनेक जगहों पर लोगों ने उनके राजनीतिक विकल्पों को तो स्वीकार कर लिया, लेकिन उनके सांस्कृतिक विकल्पों को नहीं स्वीकार किया।
डॉ. आंबेडकर प्रबुद्ध भारत का सपना देखते थे और इसमें वह सभी वर्गों और समुदायों के लोगों को शामिल करते थे। वह विचार परिवर्तन के लिए दिलों का परिवर्तन भी चाहते थे। वह लोगों पर कुछ भी जबरन थोपना नहीं चाहते थे।
इस आधार पर देखें तो यदि लोग अभी भी त्यौहारों को मना रहे हैं तो उनका मज़ाक नहीं उड़ाया जाना चाहिए। लोग अपनी मूल संस्कृति और समाज से हटकर आसानी से नहीं जी सकते। इसलिए धर्म ग्रंथों की आलोचना तो कर सकते हैं, लेकिन परंपराओं को एकदम से छोड़ नहीं सकते। छठ का पर्व इसका जीता-जागता उदाहरण है। आज छठ के पर्व में दलितों और पिछड़ों की भागीदारी ज्यादा है। अब अनेक दलित छठ के मौके पर बुद्ध और डॉ. आंबेडकर की तस्वीर भी रखते हैं। अक्सर लोग इसकी आलोचना करते हैं और मजाक उड़ाते हैं। लेकिन इसे हम चाहें तो ऐसे भी देख सकते हैं कि संस्कृतियों के जरिए लोगों तक बात कैसे पहुंचायी जा सकती है। यदि फुले-पेरियार-आंबेडकर के विचार उन तक नहीं पहुंचाए जाएंगे तो ब्राह्मणवाद पहले से ही तैयार है। वह तो इंतजार कर रहा है। मसलन, आरएसएस लोगों के आर्थिक सवालों के उत्तर नहीं दे सकता, लेकिन संस्कृति के नाम पर उसकी उपस्थिति हर जगह हो जाती है। इसलिए यदि हम सही दिशा में लोगों को ले जाना चाहते हैं तो इन सभी त्यौहारों का बहुजनीकरण कर लोगों के सवालों से रू-ब-रू हों और उनके सामने विकल्प प्रस्तुत करें। परंपराएं जल्दी खत्म नहीं होती हैं। उसके लिए सतत प्रयास करने होते हैं। लोगों का मज़ाक उड़ाकर या फिर उनका बहिष्कार कर हम बहुजन समाज को अपने से दूर ही करते हैं। जैसे डॉ. आंबेडकर का धम्मचक्र प्रवर्तन दशहरे के दिन हुआ और अब वह अशोका विजयादशमी के नाम से जाना जाता है, वैसे ही महाराष्ट्र मे किसान दीपावली के मौके पर राजा बली का उत्सव मनाते हैं। उन्हें यह विश्वास है कि राजा बली का राज ही उनकी समस्याओ का समाधान करेगा। तब समाज में सब बराबर होंगे और किसी का शोषण नहीं होगा।
उत्तर भारत में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने इस बात को पहचाना और रामायण मेला आयोजित किया। लेकिन लोहिया का दर्शन पिछड़ी जातियों में कोई सांस्कृतिक विकल्प नहीं ला पाया, क्योंकि वह ब्राह्मणवादी मिथकों पर ही चलता रहा। लेकिन इसके उलट फुले-आंबेडकर त्यौहारों को अपने तरीके से परिभाषित कर रहे थे और उनके अंदर से ब्राह्मणवादी परंपराओं को हटा रहे थे।
बहुजन समाज मे एकता लाने के लिए यह आवश्यक है कि फुले-आंबेडकरवादी आंदोलन के विभिन्न पहलुओं को समझा जाय और फिर बुद्ध, फुले, आंबेडकर और पेरियार को अलग-अलग खांचों में देखना बंद हो। तभी एक बड़ा सांस्कृतिक आंदोलन बन सकेगा। उदाहरण के लिए तमिलनाडु में पेरियार ने सभी गैर-ब्राह्मण जातियों को एकत्र किया और आत्मसम्मान आंदोलन चलाया। सवाल है कि क्या उत्तर भारत में ऐसा कर पाना संभव है?
कुल मिलाकर यह कि किसी भी बदलाव को सबसे अधिक ताकत तब मिलती है जब दूसरे विपक्षी बदलाव में शामिल हो जाय। या कहिए कि दुश्मन दोस्त हो जाय। बुद्ध से लेकर कबीर, रैदास, नानक आदि सभी के रास्ते मानववादी है और इसमें यदि फुले, आंबेडकर, पेरियार, आयोथीदास, अय्यंकाली, वासवा आदि सभी को जोड़ दें तो एक सशक्त संस्कृति बनती है। इसमें प्रेम, मैत्री और करुणा का ही स्थान है। घृणा के लिए कोई जगह नहीं बचती। इतनी बड़ी और सशक्त विरासत वाले लोगों के अंदर तो संस्कृति का कोई संकट नहीं होना चाहिए। लेकिन यह तभी संभव है जब हम इन महानायकों को उनकी जातीय अस्मिताओं में न बांटें और उनके मानववादी विचार को हर तरफ फैलाएं, तभी हम आपस में एक रह पाएंगे और एक सशक्त मानववादी समाज का निर्माण कर पाएंगे। ठीक वैसे ही जैस कबीर ने अमरदेसवा का सपना देखा और फिर रैदास ने बेगमपुरा का।
(संपादन : नवल/अनिल)
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