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दलित कविता की आंबेडकरवादी चेतना का उत्तरोत्तर विकास (दूसरा भाग)

उत्तर भारत में दलित कविता के क्षेत्र में शून्यता की स्थिति तब भी नहीं थी, जब डॉ. आंबेडकर का आंदोलन चल रहा था। उस दौर में और आजादी के बाद अनेक दलित कवि हुए, जिन्होंने कविताएं लिखीं। प्रस्तुत है कंवल भारती की आलेख श्रृंखला ‘हिंदी दलित कविता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य’ की पांचवीं कड़ी का दूसरा भाग

दलित कविता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यपांचवीं कड़ी का दूसरा भाग

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डॉ. आंबेडकर की दलित-मुक्ति की लड़ाई केवल तालाब से पानी लेने, मंदिर में प्रवेश करने और राजसत्ता में अधिकार प्राप्त करने की लड़ाई नहीं थी, बल्कि वह दलितों को धार्मिक जड़ता से मुक्त करने की लड़ाई भी थी। धार्मिक जड़ता का मतलब था– ईश्वर और भगवानों में विश्वास, मोक्ष के लिये तीर्थ यात्राएं करना, पूजा-पाठ, व्रत, भूत-प्रेत और गंडा-ताबीज में विश्वास करना, तथा स्वर्ग-नर्क, परलोक और पुनर्जन्म की काल्पनिक दुनिया को मानना। मोटे तौर पर, यह ब्राह्मणवाद का जाल था, जिसे बुद्ध ने ‘ब्रह्मजाल’ और कबीर साहेब ने ‘माया जाल’ कहा है। इस जाल में जकड़े हुए दलित मानसिक रूप से सदियों से गुलाम हैं। इस जकड़बंदी के कारण ही दलित अपनी गुलामी को अपने पूर्व जन्म के कर्मफल के रूप में देखते हैं और उससे विद्रोह का साहस नहीं कर पाते। डॉ.आंबेडकर ने संभवत: यह बुद्ध के दर्शन से ही जाना था कि दलितों की गुलामी ईश्वरीय नहीं है, बल्कि उसका कारण मानवीय है। उस कारण का निरोध है और उस निरोध का उपाय है। यही बुद्ध का आर्य सिद्धांत है और यह कहना कदाचित गलत न होगा कि बौद्धधर्म की ओर डॉ. आंबेडकर के आकर्षण का मुख्य कारण भी यह आर्य सिद्धांत ही हो सकता है। दलित कवियों ने आंबेडकर की प्रशस्ति के साथ-साथ ब्राह्मणवाद के खिलाफ भी अपने रचनात्मक दायित्व को बखूबी निभाया। इन कवियों ने दलितों की सामाजिक दासता का भी मार्मिक वर्णन किया है। दलित कवि अनेग सिंह ‘दास’, फिरोजाबादी इस दौर के सबसे महत्वपूर्ण कवि हैं, जिन्होंने दलित-काव्य में अपनी सबसे अलग पहचान बनायी थी। वे ‘दास’ कवि के रूप में प्रसिद्ध थे, और दोहा-चौपाई छंद में ‘भीम चरित मानस’ के पहले रचयिता भी थे। उन्होंने दलितों की पशु से भी बदतर स्थिति का वर्णन इन शब्दों में किया–

झाड़ू बांधि कमर पै चलते,
मूक पुरुष बनि रहते थे।
ईश्वर की यदि करें वंदना,
प्राण दंड वो सहते थे।।
पांव न पैर सकें वे जूता,
नंगे पैरों चलते थे।
बने मकां गर कोई ऊंचा,
क्षण में उसे कुचलते थे।।
उच्चासन पर बैठ न सकता,
अनुचित दंड बताये थे।
ज्ञान-दीप लेकर बाबा ने,
सोते लोग जगाये थे।।[1]

‘दास’ कवि की कविता का यह उद्धरण उनकी 31 बंदों में विभक्त सबसे लंबी कविता ‘भीम ज्योति’ से लिया गया है। इसी कविता में वे उस ब्रह्मा पर भी तार्किक व्यंग्य करते हैं, जिसके सिर, भुजा, उदर और पैरों से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का जन्म बताया जाता है। यथा–

शूद्र-विरोधी गिरा उचारी,
ऐसे द्विज थे अभिमानी।
ब्रह्मा के मुख चार बताकर,
रचना रच दी मनमानी।।
थे चार मुंह चारों ही तरफ,
कैसे विधि सोता होगा।
एक नाक घिसती होगी तब,
सकल रात रोता होगा।।[2]

दलित कविता का बुद्धसंघ प्रेमी काल

हिंदू देवी-देवताओं, साधु-संन्यासियों और ऋषि-मुनियों की पोल-पट्टी खोलने में जो साहस उस दौर के दलित कवियों ने किया, वह साहस आज के दलित कवियों में बहुत कम मिलता है। ये कवि वास्तव में समाज को जागरूक करने का काम बहुत ही ईमानदारी और जिम्मेदारी से कर रहे थे। ये आज के लेखकों की तरह नाम, यश और पुरस्कार के लिये नहीं लिख रहे थे, वरन् समाज को बदलने के लिये लिख रहे थे। आंबेडकर की वैचारिकी ने उन्हें जुनूनी बना दिया था। और उस वैचारिकी का विस्तार करना उनके जीवन का ध्येय बन गया था। ये कवि धनी परिवार से नहीं आये थे, वरन् गरीब मेहनतकश परिवारों से थे। इनमें से कुछ दिहाड़ी मजदूर तक थे और कुछ उत्पादन से जुड़े कुशल दस्तकार थे। यहां आठवें दशक के दो अत्यंत महत्वपूर्ण दलित कवियों का जिक्र करना बहुत आवश्यक है। इनमें एक थे– सीलमपुर, दिल्ली के बुद्धसंघ प्रेमी। इनका पूर्व नाम बलवंत सिंह प्रेमी जड़ौदवी था। ये मूलतः मेरठ के निवासी थे। सन् 1953 में उन्होंने मेरठ के भैसोली मैदान में डॉ. आंबेडकर का भाषण सुना था, और उनसे इतने प्रभावित हुए कि आर्यसमाज का प्रचार छोड़कर आंबेडकर के प्रचारक बन गये। वर्ष 1965 में वे बौद्धधर्म ग्रहण करने के बाद बुद्धसंघ प्रेमी हो गये। ये पेशे से राज मिस्त्री थे। दूसरे कवि थे– मिथन सिंह बौद्ध, जो हापुड़ के ‘सरावा’ गांव के रहने वाले थे। ये पेशे से दर्जी थे, और कविता में बुद्धसंघ प्रेमी के शिष्य थे।

बुद्धसंघ प्रेमी को दलित कविता में एक नये छंद को जन्म देने का श्रेय भी जाता है। यह नया छंद ‘लड़ी’ है, जो गिरधर की ‘कुंडली’ का आभास कराता है। प्रेमी ने लड़ियों के माध्यम से लोक काव्य में नयी चेतना और नये विमर्श को प्रतिष्ठित किया है। ये लड़ियां समाज में व्याप्त धार्मिक अंधविश्वास, पाखंड और कुरीतियों पर जबरदस्त प्रहार करती हैं। ऐसा प्रहार न हिंदी के भद्र काव्य में मिलता है और ना ही लोक काव्य में। प्रेमी ने ये लड़ियां 1970 के दशक में लिखी थीं। पर, उनका प्रकाशन आठवें दशक के शुरु के वर्षों में हुआ। लड़ियों का पहला भाग 1975 में, दूसरा 1976 में और तीसरा 1978 में प्रकाशित हुआ था। उसके बाद 1990 के दशक में लड़ियों के तीन भाग और प्रकाशित हुए। ये लड़ियां इतनी लोकप्रिय हुईं कि बुद्धसंघ प्रेमी की लोकप्रियता को भुनाने के लिये कई नकली बुद्धसंघ प्रेमी भी पैदा हो गये, जिनके विरुद्ध प्रेमी जी को बाकायदा अपनी पुस्तकों के कवर के पीछे अपील छपवाकर जनता को नकली बुद्धसंघ प्रेमियों से सावधान छपवाना पड़ा था।

प्रेमी की लड़ियों में नयी चेतना और नए विमर्श की कुछ बानगियां यहां प्रस्तुत की जाती हैं। ‘धर्म’ पर कटाक्ष करती उनकी यह लड़ी देखिए–

नहाय धोय पूजा करे, माथे तिलक लगाय।
मंदिर अन्दर बैठ के, घंटा शंख बजाय।।
घंटा शंख बजाय, गीत ईश्वर के गाता।
पशु को कहता शुद्ध, मनुष को नीच बताता।।
कह ‘प्रेमी’ कविराय सकल हिंदू अज्ञानी।
पीवे गौ का मूत, मनुष का पिये न पानी।।[3]

एक अन्य लड़ी में वे तीर्थों का खण्डन करते हैं–

बाल मुड़ाने बाल के तीरथ पर ले जाय।
बालक तो मुड़ता नहीं, खुद ही मुड़कर आय।।
खुद ही मुड़कर आय, फंसा ठगियों में जाके।
पैसा लिया धरवाय, पत्थर को देव बताके।।
कह ‘प्रेमी’ कविराय, पैसे बिन पैदल धाया।
बालक तो क्या मुड़ा, आप ही मुड़कर आया।।[4]

एक और लड़ी में वे देवी के नाम पर बकरा और शराब लेने वाले भगतों की पोल खोलते हुए उन्हें जेल भिजवाने की सलाह देते हैं–

मद्य मांस का भोज कर, लिया चढ़ावा आप।
ऐसे लोग पाखंड रच, करवाते हैं पाप।।
करवाते हैं पाप, लोगों को खूब बहकाते।
ये पाखंडी लोग, बच्चों की बलि चढ़ाते।।
कह ‘प्रेमी’ कविराय, इन्हें मत पास बिठाओ।
मैं यह दूंगा सलाह, सभी को जेल पहुंचायो।।[5]

हिंदू देवताओं की भी जिस साहस के साथ उन्होंने पोल खोली, उससे उनका वैज्ञानिक चिंतन सामने आता है। उन्होंने शिव, इंद्र, चंद्रमा, ब्रह्मा, सूर्य, विष्णु, राम और कृष्ण सभी देवताओं के चरित्रों का रहस्य खोला है। ‘इंद्र देवता’ नामक लड़ी में वे लिखते हैं–

इंद्र की सुन लीजिए, जो देवों में खास।
लाखों सुंदर नारियां, रखता हरदम पास।।
रखता हरदम पास उन्हें दरबार नचाता।
मांस मद्य का सेवन कर नित भोग लगाता।।
कह ‘प्रेमी’ कविराय कामी था इतना इंदर।
चोरी से घुस जाय नार जो देखी सुंदर।।[6]

उन्होंने पूर्वजन्म, पुनर्जन्म, आवागमन और परलोक का खंडन किया। ‘लोक-परलोक’ शीर्षक उनकी यह लड़ी देखिए–

लोक छोड़ परलोक की, करते हैं जो आस।
लखा किसी ने भी नहीं, झूठा है विश्वास।।
झूठा है विश्वास लोक का जन्म सुधारो।
वर्तमान को समझ भविष्य की फेर विचारो।।
कह ‘प्रेमी’ कविराय बने मत ज्यादा लोभी।
जैसे घाट का रहा, रहा न घर का धोबी।।[7]

प्रेमी ने भक्ति के स्थान पर विज्ञान को महत्व दिया। यथा–

आज मनुष्य को चाहिए, भगति नहीं विज्ञान।
जो भगती में लग रहे, वही लोग परेशान।।
वही लोग परेशान फिरे हैं दुक्ख उठाते।
विज्ञानी खुद सुखी औरों को सुख पहुंचाते।।
कह ‘प्रेमी’ कविराय करें अंधे नर भगती।
गये चांद पर पहुंच देख विज्ञान की शक्ति।।[8]

प्रेमी की लड़ियों का तीसरा भाग ‘सत्य-असत्य की परख’ नाम से 14 अप्रैल, 1978 को डॉ. आंबेडकर के जन्म दिवस पर प्रकाशित हुआ। जैसा कि नाम से ही पता चलता है, इसमें क्या सत्य है और क्या गलत है, इसकी परख विवेक के आधार पर की गयी है। वे बुद्ध और आंबेडकर की वंदना करने के बाद इस पद से पुस्तक का आरंभ करते हैं–

जिन शास्त्रों में भरी विषमता,
उन्हें धार्मिक ग्रंथ न मानो।
अलग-अलग फिरके हों जिनमें,
जन-कल्याणी पंथ न मानो।।
जातिभेद हो जिन सन्तों में,
उनको साधु संत न मानो।
जब तक एक धर्म नहीं ‘प्रेमी’,
जातिवाद का अंत न मानो।।[9]

कबीर की भांति प्रेमी भी ईश्वर को जगत-निर्माता मानने वालों से तर्क करते हैं–

जगत रचा है ईस ने गर ये अपने हाथ।
बतलाओ संसार की कहां से की शुरुआत।।
कहां से की शुरुआत, हमें समझावो भाई।
पशु-पक्षी या वृक्ष, मनुष्य या भूमि बनाई।।
कह ‘प्रेमी’ कविराय बतावो हमको ज्ञानी।
आग, हवा यह जमी, बना या पहले पानी।।[10]

आजीवकों की तरह ही प्रेमी का मानना है कि संसार का निर्माण नहीं, विकास हुआ है। इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रेमी ने इस लड़ी में प्रस्तुत किया–

ईश्वर ने सृष्टि रची, यह झूठा विश्वास।
लाखों-करोड़ों वर्ष में, इसका हुआ विकास।।
इसका हुआ विकास, एक न कोई निर्माता।
कार्य-कारण बने स्वयं ही सब बन जाता।।
कह ‘प्रेमी’ कविराय, ईश ने जगत रचाया।
इस रचना से अलग स्वयं वह कहां से आया।।[11]

प्रेमी ईश्वर में विश्वास को ही शोषितों की दासता का कारण मानते हैं। यथा–

ज्यों-ज्यों शोषित ने किया, ईस नाम से प्यार।
त्यों-त्यों ही बनता रहा, शोषित स्वयं शिकार।।
शोषित स्वयं शिकार, करी लालच में भक्ती।
जितना मन से रटा, क्षीण होती गयी शक्ती।।
कह ‘प्रेमी’ कविराय, नतीजा यहां तक आया।
बल-बुद्धी हुई लोप, राव से दास कहाया।।[12]

ईश्वर शोषक श्रेणी का प्रपंच है, इसे कवि ने अच्छी तरह जान लिया था। इसलिये वह धनी व्यक्ति की ईश्वर-भक्ति को एक नाटक कहता है। यथा–

लोग-दिखावे की करें, भक्ति यहां धनवान।
वैसे सब-कुछ जानते, कहीं नहीं भगवान।।
कहीं नहीं भगवान, फिर भी भय दिखलावे।
डर है निर्धन ईश-जाल से निकल न जावे।।
कह ‘प्रेमी’ कविराय, धनी तो नाटक करता।
निर्धन असली भक्त बना फिरे दुखड़े भरता।।[13]

प्रेमी के शिष्य मिथन सिंह बौद्ध ने भी अपनी जोशीली कविताई से कुरीतियों के विरुद्ध प्रचार कर आंबेडकर-मिशन को फैलाया। ये जाटव जाति के थे, परंतु पेशे से दर्जी थे। आंबेडकर-मिशन के जुनून के कारण ये घर पर बहुत कम रहते थे। अक्सर इनके कार्यक्रम बाहर लगते रहते थे और अधिकतर यात्रा में ही रहते थे। ये गाते बहुत अच्छा थे। स्वयं बुद्ध संघ प्रेमी ने अपनी एक गीत में इनका जिक्र इन शब्दों में किया है–

‘प्रेमी’ से सुनी भीम कहानी, तब मैं झूठ सत्य को जानी।
फिर ‘मिथन सिंह’ बुलवाया, जिसकी है तर्ज निराली।।[14]

मिथन सिंह बौद्ध सिर्फ कवि और गायक ही नहीं थे, वरन् एक पत्रकार भी थे। वे हापुड़ से ‘रिपब्लिकन इंकलाब’ नामक मासिक पत्र का संपादन एवं प्रकाशन करते थे। उनकी लगभग एक दर्जन पुस्तकें हैं, जिनमें ‘बाबासाहेब का जीवन चरित्र’ (दो भागों में), ‘भीमराव गीतावली’, ‘सोचो और बदलो’, ‘देश की दशा’ एवं ‘मिथन के कथन’ मुख्य हैं। वे जुनूनी और इंकलाबी कवि थे और डॉ. आंबेडकर मिशन प्रचारक मंडल, हापुड़ के संस्थापक थे। ‘सोचो और बदलो’ में वे संकल्प करते हैं–

शोषित को समझाने में हम जान लगा देंगे।
भीम मिशन में सत्य कहें हम जीवन गंवा देंगे।।[15]

‘मिथन के कथन’ में वे दलित समाज को चेताते हुए एक कविता में कहते हैं–

भोले वीरों आज चेतना हो जाओ तैयार।
समय नहीं खोने का।।
तुम जितने मूक हुए बैठे उतने ही सताये जाते हो।
अपना कर्तव्य भूले हो यूं निशिदिन दुख पाते हो।।
खाते हो यूं मार जगत की करते हाहाकार।।[16]

एक कविता में वे समाज को बदलने का आह्वान कुछ इस अंदाज में करते हैं–

एक डाक्टर की दवाई हजारों वर्षों से खाई।
पर उन्नीस-बीस का फर्क, न मर्ज में पड़ा दिखाई।।
हजारों दिये इंजेक्शन, उलटा ही हुआ रियेक्शन।
फिर भी डाक्टर न बदला, पड़ा रहा खतरे में जीवन।।
अयोग्य डाक्टर, नकली दवाई सारा इलाज बदल डालो।
ये दूषित समाज बदल डालो, गंदे रिवाज बदल डालो।।[17]

समाज को बदलने के लिये खुद को बदलना जरूरी है, क्योंकि व्यक्ति से ही समाज बनता है। इसलिये, कवि दलितों को अपनी सोच और अपनी अंधी आस्थाओं को बदलने पर जोर देता है। यथा–

जो आठों पहर कमाये, कभी पेट-भर ना खाये।
नेक व मेहनतकश व्यक्ति सबसे छोटा कहलाये।।
कोई कहे है मुकद्दर खोटा, मुझको बनाया प्रभु ने छोटा।
बलवान-विद्वान होते भी खाया अस्पृश्यता का सोटा।।
सदियों पुराना अंधविश्वास, सड़ा मिजाज बदल डालो।
ये दूषित समाज बदल डालो, गंदे रिवाज बदल डालो।।[18]

कवि भारत की आजादी को भी हिंदुओं की आजादी मानता है। उसका कहना है कि हिंदू नेताओं ने हिंदू राज स्थापित करने के मकसद से ही भारत का विभाजन कराया था। यथा–

इन्हें थी फिक्र बस देश आजाद करा लो।
जैसे भी हो भारत राज संभालो।।
गांधी ने कहा देश में फिर रामराज हो।
हिंदू ही देश का बना सरताज हो।।
इसी कारण बांटा यह देश अभागा।
इस घटना से ही भीम का था संदेह भागा।।[19]

पूना-पैक्ट ने कांग्रेस और हिंदू नेताओं के हाथों में दलितों को गांधी से जोड़ने और आंबेडकर से तोड़ने का एक बड़ा हथियार थमा दिया था। आरक्षण लागू करके दलितों को सरकारी नौकरियां देने का सारा श्रेय कांग्रेस की सरकारों ने लिया। इन नौकरपेशा दलितों की गरीबी दूर हो गयी थी। उनकी अगली पीढ़ी भी सुधर गयी थी। पर वे गांधी को जानते थे, आंबेडकर को नहीं। वे अपने दफ्तरों में ही नहीं, घरों में भी आंबेडकर पर चर्चा करने से बचते थे, क्योंकि ऐसा करने से उन्हें अपनी नौकरी खतरे में दिखायी देती थी। ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं थी, बल्कि बहुत ज्यादा थी। एक ऐसा दलित वर्ग पैदा हो गया था, जो सुविधाओं में जीता था। ऐसे लोगों के बीच में आंबेडकर की बात करना आंबेडकर मिशन के लोगों के लिये बहुत मुश्किल काम था। दलित कवियों ने इस स्थिति को भी अपने काव्य में रेखांकित किया है। यथा–

दिल्ली के दलित कवि लालचन्द की एक कविता की ये पंक्तियां–

पढ़-लिखकर के बाबू बन गयै, फिर भी ज्ञान नहीं है।
अपने और पराये की उनको पहचान नहीं है।।
अच्छी-बुरी सब सुन जाता, क्या जिस्म में जान नहीं है।
जो कौम को धोखा देता है, उस सा शैतान नहीं है।।[20]

1970 और 1980 के दशक में प्रकाशित कुछ दलित काव्य संग्रहों के मुख्य पृष्ठ

ये लोकप्रिय दलित कवि सिर्फ बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के चरणों में प्रणाम करने वाले कवि नहीं थे, वरन् अपने समय और परिवेश के प्रति बेहद संवेदनशील एवं जागरूक कवि थे। उन्होंने दलित उत्पीड़न, आरक्षण और भूमि के बँटवारे जैसे ज्वलंत विषयों पर अपनी कलम चलायी थी। ‘समय की पुकार’ में दिल्ली के शाहदरा निवासी दलित कवि मोतीलाल ‘संत’ ने आरक्षण को समाप्त कर भूमिहीन को भूमि और मजदूर को तीस रुपये रोज मजदूरी देने की बात कही। यथा–

भूमिहीन को भूमि बांट कर सही करौ बटवारा।
आरक्षण की नहीं जरूरत शोषित ने ललकारा।।
चाहे गांव हो चाहे शहर हो, हर मजदूर पुकारा।
तीस रुपया मजदूरी रोज दो, तब कहीं होय गुजारा।।[21]

इसमें तीस रुपए दिहाड़ी मजदूरी की मांग की गयी है। इससे पाठक समझ सकते हैं कि 1980 और 90 के बीच वास्तविक दिहाड़ी मजदूरी क्या रही होगी? यह वास्तव में दस से 15 रुपए के बीच रही होगी।

दलित कविता में यथार्थवादी चेतना का विकास

वर्ष 1983 में दिल्ली के उत्तरी घौंडा निवासी दलित कवि भीमसैन ‘संतोष’ के कविता संग्रह ‘शोषित कहे पुकार के’ प्रकाशन से दलित कविता में यथार्थवादी चेतना के युग की शुरुआत हुई। यह वह समय था, जब दलित लेखकों को अपनी पुस्तकें स्वयं अपने साधनों से छपवानी पड़ती थीं, तथाकथित मुख्यधारा के प्रकाशक उनकी पुस्तकों को नहीं छापते थे। इस समस्या के निराकरण के लिये अनेक दलित लेखकों ने अपने प्रकाशन संस्थान, कायम कर लिये थे। इन पंक्तियों के लेखक ने भी 1971 में ‘बोधिसत्त्व प्रकाशन’ इसी मकसद से स्थापित किया था। इसी प्रकार, मथुरा में लोक कवि मानसिंह ने ‘भारती प्रकाशन’, ए.आर. अकेला ने अलीगढ़ में ‘आनंद साहित्य सदन’, बुद्धसंघ प्रेमी ने सीलमपुर, दिल्ली में ‘पंचशील लोक साहित्य प्रकाशन’, राजपाल सिंह ‘राज’ ने ब्रह्मपुरी, दिल्ली में ‘राजलक्ष्मी प्रकाशन’, मनोहर लाल ‘प्रेमी’ ने लखनऊ में ‘पंचशील प्रकाशन’, माताप्रसाद ने जौनपुर में ‘प्रसाद प्रकाशन’ और इसी तरह भीमसैन ‘संतोष’ ने ‘शोषित साहित्य प्रकाशन’ की स्थापना की थी। संतोष ने यह कविता-संग्रह इसी प्रकाशन से प्रकाशित किया था।

‘शोषित कहे पुकार के’ में भीमसैन ‘संतोष’ की 23 कविताएं संकलित हैं। इस संकलन की भूमिका सोहनपाल सुमनाक्षर ने लिखी है, जिसका शीर्षक है– ‘दलित साहित्य में उगा सितारा।’ भूमिका की शुरुआत में ही वे लिखते हैं, “वैसे तो साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है, लेकिन हिंदी साहित्य इस विषय में अभी तक इस कथन के अनुरूप नहीं बन पाया।”[22] अतः इस संकलन को हम हिंदी साहित्य में दलित विमर्श का आरंभ और भीमसैन ‘संतोष’ को उस दलित चेतना का संवाहक कह सकते हैं, जो हिंदी साहित्य को शोषित दलित समाज का भी दर्पण बनाना चाहती थी। इन कवियों ने उस सामाजिक यथार्थ को साहित्य का आधार बनाया, जिसे वे स्वयं जी रहे थे। इसलिये सवर्ण लेखकों द्वारा अगले दशक में उठने वाले इस सवाल के लिए कि गैर दलित, दलित साहित्य नहीं लिख सकता, जमीन बनाने का काम इन्हीं कवियों ने किया था। भीमसैन ‘संतोष’ ने स्व-अनुभूति के महत्व को रेखांकित करने के लिये संकलन के आरंभ में ही ये चार पंक्तियां दीं–

उस पीड़ा को वही जानता, जिस प्राणी के तन में होती।
दैविक दुख से अधिक वेदना जाति के बंधन में होती।।
मीन भखे जल जात अभिरत सीप बनाता सुंदर मोती।
अन्तः सिसक रही आंचल में छुपी हुई मानवता रोती।।[23]

‘शोषित कहे पुकार के’ की कविताओं में स्व-अनुभूति की पीड़ा चिनगारी बनकर प्रकट हुई। इस संकलन की हर कविता में शोषण की नयी गाथा दिखायी देती है और हर गाथा के रूप में कवि ने प्रतिशोध के नये खंड काव्य लिखे हैं। ‘कलंकित व्यवस्था’ में भारत की धरती का बिंब है, जो विधवा के रूप में विदेशियों के घर-आंगन में चौका-बर्तन, जी-हजूरी करती थी। लेकिन आजादी के बाद दुल्हन बनी भविष्य की सुखद कल्पनाओं में डूबी वह इसलिये विलाप करती है, क्योंकि पुरानी व्यवस्था को समाप्त कर नयी व्यवस्था स्थापित नहीं की जा रही है। यथा–

आज भी व्यवस्था में
प्रशिक्षण प्रणाली परतंत्रता की लागू की जा रही है
जिससे व्यवस्था में जन्म लेते ही
क्रूरता चेहरे पर हावी होने लगती है
मानव को मानवता में नहीं,
क्रूरता से दानवता में ढाला जाता है।[24]

कवि ने अपने पुलिस-सेवा के अनुभव को इस कविता में व्यक्त किया है। यह वह क्षेत्र है, जिसमें अंग्रेजों की बनायी हुई साम्राज्यवादी प्रणाली अभी भी लागू है और स्वतंत्र भारत के ब्राह्मण शासकों ने इसे इसलिये नहीं हटाया, क्योंकि वह उनकी सामंतवादी व्यवस्था के अनुरूप है। कवि ने इसे ‘कलंकित व्यवस्था’ कहा है।

संकलन की दूसरी कविता ‘पंचायत राज’ है, जिसमें कवि ने पंचायत राज को सामंती राज बताया है, जो मुक्ति के लिये दलित की हर आवाज को पूरी शक्ति से कुचलता है। इस कविता में, कुछ दलित महिलाएं हैं, जो मक्का के खेत की गुड़ाई से थक कर खेत की मेढ़ पर स्थित वट वृक्ष की छांव में कुछ देर आराम के लिये लेट जाती हैं। उसी समय भू-स्वामी के गुंडे एक महिला का स्तन काटकर उसकी हत्या कर देते हैं, विरोध करने पर एक दलित को भी मार देते हैं। गांव में पंचायत बैठती है। पर उसमे जो अपराधी है, वही पंच है। आगे का वर्णन कवि के शब्दों में–

पंचों का फैसला
दोनों लाशों को नहर में फेंकना
भूस्वामियों के सामने गर्दन झुकी रहने का आदेश
तन वस्त्र हीन
चमकीले वस्त्र केवल भूस्वामी ही पहन सकेंगे।[25]

उधर, देश की राजधानी में क्या होता है। इस पर कवि टिप्पणी करता है–

और देश की राजधानी में
वोट क्लब पर
विराट हिंदू समाज
अपनी दुमों के साथ
दलित-प्रेम का नारा
दलितों का हत्यारा
नारा लगाता है–
हम सब हिंदू एक हैं।[26]

इस कविता में ‘विराट हिंदू समाज’ का प्रयोग कश्मीर राजघराने के प्रभावशाली कांग्रेसी नेता डॉ. कर्ण सिंह के ‘विराट हिंदू’ आंदोलन के संदर्भ में हुआ है, जो आठवें दशक का सबसे चर्चित आंदोलन था। यह महज संयोग नहीं है कि यही भारत में सर्वाधिक दलित हत्याकांडों का भी दशक है। परसबीघा, देहुली, साढ़ूपुर, कफल्टा आदि अनेक कुख्यात दलित हत्याकांड भी इसी दशक में हुए। इन हत्याकांडों ने इस दशक के दलित नवयुवकों में हिंदुओं के खिलाफ विद्रोह की चेतना पैदा कर दी थी, एक ऐसी चेतना जो उग्रवादी थी और जिसमें प्रतिशोध की आग थी। इस काल के अनेक दलित कवियों में यह आग देखी जा सकती है। यदि दलित जातियों में उग्रवादी संगठन पैदा नहीं हो सके, तो इसके कुछ सामाजिक कारण हैं। पर, कुछ दलित कवि अपनी कविताओं में काल्पनिक प्रतिशोध का चित्रण करने लगे थे। भीमसैन ‘संतोष’ ऐसे ही कवि हैं, जिनकी कविताओं में दलित हत्याकांडों के विरुद्ध एक काल्पनिक प्रतिशोध चित्रित हुआ है। ‘स्वराज’, ‘पालिका बाजार’, ‘चेहरे समाचार पत्रों के’, ‘मुर्दाबाद’, ‘कसकती पीड़ा’ और ‘संरक्षण’ उनकी ऐसी ही उग्र विद्रोह की कविताएं हैं। कवि को समाचार-पत्रों में प्रकाशित दलित-हत्याकांडों की खबरें उद्वेलित करती हैं। पर, वह ऐसी कोई खबर नहीं देखता, जिसमें किसी दलित ने सवर्णों को मारकर किसी दलित हत्याकांड का बदला लिया हो। इससे हताश कवि कहता है–

क्या तुम नपुंसक बने देखते रहोगे
अपने मां-बाप की हत्या होती हुई
अपनी ही आंखों के सामनेअपनी ही बहन की इज्जत लुटती हुई
क्या तुम नपुंसक कहलाना पसंद करोगे?[27]

शायद इसीलिये कवि ने दलित हत्याकांडों के चित्रण में दलित को नपुंसक नहीं रहने दिया है। उसका दलित बदला लेता है और सवर्णों को उतनी ही क्रूरता से मारता है, जितनी क्रूरता से सवर्ण दलित को मारते हैं। उदाहरण के लिये, ‘स्वराज’ कविता में, जो संकलन की एक लंबी कविता है, कवि ने एक कथा रची है–

स्वराज उनके पास कैद है
जो ऊंची जाति के हैं
भू-स्वामी हैं! भूमिधर हैं बड़े-बड़े।[28]
अरे देखो तो उधर
ये कौन आ रहा है
ओह ठाकुर साहब आ रहे हैं
साक्षात राक्षस।[29]

एक श्रमिक चमार, जो ठाकुर का सेवक है, उसके खलिहान में काम कर रहा है। कथा आगे बढ़ती है–

अचानक आते ठाकुर की आवाज कड़कती है
कमीन तुहार हाथन में जान नाहिं दीखत
तुहार थोरी खोज खबर लई लूं।[30]

और आगे–

ठाकुर हंटर फटकारता है नर श्रमिक की ओर,
कांपता है नर श्रमिक शेर के सम्मुख बकरी सा,
बिलख उठता है नर श्रमिक का अंग-अंग
अश्रु धारा बह निकलती है
पिटता जाता है विनती करता हुआ
नाहिं ठाकुर…. आह…. आह
दया करई लो मो गरीब पै, तुहार दास हूं,
मगर ठाकुर का हंटर रुकता नहीं।[31]

तभी श्रमिक की पत्नी आकर ठाकुर को ललकारती है। उसे देखकर ठाकुर उस पर भी हंटर फटकारता है और तभी ‘चमत्कार’ होता है। कवि यहां नाटकीय रूप से श्रमिक के छोटे भाई को प्रकट कर देता है और दृश्य इस तरह हो जाता है–

ओह कुत्ते की औलाद ठकरवा
अपने बड़े भाई की इस दशा पर
बहुत आंसू बहाया है मैंने
उतना ही तेरा गंदा खून बहाना है
सटाक… सटाक… सटाक।
छीलता जाता है अंग-अंग आगंतुक का हंटर।[32]

यह कथा दलित पाठकों को उसी तरह की एक संतुष्टि देता है, जिस तरह की संतुष्टि हिंदी फिल्मों में नायक द्वारा खलनायक की पिटाई या हत्या से दर्शकों को मिलती है। ऐसी फिल्में भी इस दशक में काफी संख्या में बनी थीं। कवि पर अपने समय की ऐसी फिल्मों का कुछ प्रभाव हो सकता है। लेकिन अत्याचारों के गर्भ से प्रतिशोध की चिनगारियां भी फूटती ही हैं, और इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कवि अपनी संवेदना में इस स्थिति से भी गुजरा होगा

क्रमश: जारी

संदर्भ :
[1] भीम ज्योति- अनेगसिंह ‘दास’, एम.काम., प्रकाशन- मानसिंह, ग्राम खामनी, मथुरा, प्रथम संस्करण- 1983, पृष्ठ 9
[2] वही, पृष्ठ 10
[3] ‘प्रेमी की लड़ियां’ (प्रथम भाग), बुद्धसंघ प्रेमी (अनार्य भजनोपदेशक), पंचशील लोक साहित्य प्रकाशन, डी-152, न्यू सीलमपुर, दिल्ली, संस्करण द्वितीय (1981), पृष्ठ 10-11
[4] वही, पृष्ठ 14
[5] वही, पृष्ठ 28
[6] वही, द्वितीय भाग, द्वितीय संस्करण (1981), पृष्ठ 13
[7] वही, पृष्ठ 34
[8] वही, पृष्ठ 51
[9] सत्य-असत्य की परख, लड़ियों में (तृतीय भाग), बलवन्त सिंह प्रेमी जड़ौदवी, उर्फ- बुद्धसंघ प्रेमी (अनार्य भजनोपदेशक), ब्लाक डी-152, न्यू सीलमपुर, दिल्ली, संस्करण– 1978, पृष्ठ 7
[10] वही, पृष्ठ 18
[11] वही, पृष्ठ 17
[12] वही, पृष्ठ 44
[13] वही, पृष्ठ 54
[14] मत-मतान्तर, बुद्धसंघ प्रेमी (अनार्य भजनोपदेशक), ब्लाक डी-152, न्यू सीलमपुर, दिल्ली, प्रथम संस्करण (1981), पृष्ठ 30
[15] सोचो और बदलो, मा. मिथनसिंह बौद्ध, डॉ. आंबेडकर मिशन प्रचारक मंडल, हापुड़, जिला गाजियाबाद, प्रथम संस्करण (1983), पृष्ठ 9
[16] मिथन के कथन, मा. मिथन सिंह बौद्ध, प्रकाशक, शशिबाला सिद्धार्थ, डी-438, गोकलपुरी, दिल्ली, प्रथम संस्करण (1989), पृष्ठ 13
[17] वही, पृष्ठ 25
[18] वही
[19] बौद्ध स्त्री गीतांजली, मास्टर मिथन सिंह बौद्ध, डा. अम्बेडकर मिशन प्रचारक मंडल, हापु़ड (गाजियाबाद), दूसरा संस्करण (1983), पृष्ठ 10
[20] आज की पुकार (गीत संग्रह), मा. लालचन्द एवं धर्मसिंह गौतम, पंचशील लोक साहित्य प्रकाशन, डी-152, न्यू सीलमपुर, दिल्ली, प्रथम संस्करण (1984), पृष्ठ 7
[21] समय की पुकार, मोतीलाल ‘सन्त’, सागर प्रिन्टर्स, 7/80 विश्वासनगर, शाहदरा, दिल्ली, (संस्करण का उल्लेख नहीं है, पर सम्भवतः उसका प्रकाशन वर्ष 1980 और 1984 के बीच है। यह पुस्तक मेरे संग्रह में 16 अक्टूबर, 1984 को आयी थी।), पृष्ठ 7
[22] शोषित कहे पुकार के, भीमसैन ‘सन्तोष’, शोषित साहित्य प्रकाशन, बी-166, सुभाष मौहल्ला, उत्तरी घौण्डा, दिल्ली, प्रथम संस्करण (1983), पृष्ठ 5
[23] वही, पृष्ठ 9
[24] वही, पृष्ठ 11
[25] वही, पृष्ठ 15
[26] वही
[27] वही, पृष्ठ 47
[28] वही, पृष्ठ 26
[29] वही
[30] वही
[31] वही, पृष्ठ 27
[32] वही, पृष्ठ 28

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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