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दलित कविता की आंबेडकरवादी चेतना का उत्तरोत्तर विकास (तीसरा भाग)

उत्तर भारत में दलित कविता के क्षेत्र में शून्यता की स्थिति तब भी नहीं थी, जब डॉ. आंबेडकर का आंदोलन चल रहा था। उस दौर में और आजादी के बाद अनेक दलित कवि हुए, जिन्होंने कविताएं लिखीं। प्रस्तुत है कंवल भारती की आलेख श्रृंखला ‘हिंदी दलित कविता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य’ की पांचवीं कड़ी का तीसरा भाग

दलित कविता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यपांचवीं कड़ी का तीसरा भाग

पिछली कड़ी के आगे

लगभग इसी समय डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर का कविता-संग्रह “अन्धा समाज और बहरे लोग” (1984) प्रकाशित हुआ। यह संग्रह दलित कविता में एक विस्फोट था। इसने न केवल दलित चिंतन को ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद दोनों मोर्चों पर प्रतिरोध की धार दी, अपितु एक प्रगतिशील साहित्यिक-विमर्श भी दिया। लेकिन हिंदी दलित साहित्य में, इस संग्रह पर चर्चा बिल्कुल नहीं हुई। इस संग्रह की उपेक्षा क्यों हुई, जबकि इसकी कविताएं विचारोत्तेजक थीं? संभवतः इसका कारण सुमनाक्षर का कांग्रेसी होना और जगजीवन राम के प्रति निष्ठावान होना था। यह इसकी झलक संग्रह में भी दिखाई देती है। शायद इसी कारण से संग्रह की भूमिका बाबू जगजीवन राम से लिखायी गयी थी। उन्होंने अपनी भूमिका में लिखा कि “वैदिक परंपरा में भी कुछ ऋषियों ने, जिन्हें अभिजात्य नहीं माना गया, जाति-प्रथा के विरुद्ध विद्रोह की चिनगारी फूंकी। दलित साहित्य का वहीं से बीज पड़ा।”[1] इसी क्रम में सुमनाक्षर ने भी ऋषि वाल्मीकि को आदि कवि माना और ‘अपनी व्यथा’ में लिखा कि ऋषि वाल्मीकि के बाद कितने ही कवि और लेखक पैदा हुए, पर उनकी रचनाओं में उस पीड़ा के दर्शन नहीं होते, जो वाल्मीकि की रचनाओं में थी।[2]

दलित साहित्य, दलित चिंतन और दलित विमर्श को डॉ. आंबेडकर से जोड़ने वाले दलित लेखकों को सुमनाक्षर का यह विचार पसंद नहीं आया। संभवत: इसी कारण से दलित साहित्य में सुमनाक्षर की उपेक्षा हुई। इस उपेक्षा के दोषी काफी हद तक सुमनाक्षर स्वयं भी रहे। उन्होंने साहित्य को गंभीरता से नहीं लिया, वरन् दलित साहित्य की राजनीति पर ज्यादा ध्यान दिया। उन्होंने भारतीय दलित साहित्य अकादमी को एक राजनीतिक पार्टी के रूप में उसी तरह चलाया, जिस तरह एक सुप्रीमो अपनी पार्टी को चलाता है। एक सुप्रीमो के लिये मुद्दे उतने महत्व नहीं रखते, जितनी कि उसकी अपनी महत्वकांक्षाएं महत्व रखती हैं। सुमनाक्षर भी इसके अपवाद नहीं रह सके। दलित साहित्य में उन्होंने कभी भी कोई गंभीर बहस नहीं चलायी। यहां तक कि पिछले 48 वर्षों से जिस ‘हिमायती’ पाक्षिक पत्र का वे संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं, वह दलित साहित्य ही नहीं, दलित पत्रकारिता में भी अपना कोई स्थान नहीं बना पाया। उन्होंने अपने लोगों से प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ में आग लगवाकर, जो हंगामा खड़ा कराया, वह भी उसी तरह का राजनीतिक कृत्य था, जिस तरह का कृत्य अक्सर राजनीतिक पार्टियां विरोध के लिये अपने प्रतिद्वंद्वी का पुतला फूंक कर करती हैं। यह पूरा राजनीतिक ड्रामा था, क्योंकि प्रेमचंद के साहित्य पर उन्होंने कोई बहस नहीं चलायी थी, वरन् उनका रोष सिर्फ ‘चमार’ शब्द को लेकर था, जिसका प्रयोग प्रेमचंद ने किया था।

लेकिन, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सोहनपाल सुमनाक्षर एक अच्छे दलित कवि हैं और 1984 में प्रकाशित उनका कविता संग्रह ‘अन्धा समाज और बहरे लोग’ उनकी प्रखर दलित चेतना को रेखांकित करता है। इस संग्रह की कविताओं में वर्ग और वर्ण दोनों के खिलाफ आवाज है। पहली ही कविता ‘मेरा देश’ में भारत एक ऐसे देश के रूप में आता है, जहां गरीब सबसे ज्यादा संख्या में रहते हैं। इसमें एक ऐसे परिवार का चित्रण है, जो मेहनतकश है, लेकिन फिर भी गरीब है। यथा–

बारिश में छप्पर चूता है
नीचे घास-फूस का बिछौना है
कैसे रात कटे और कब सवेरा होय।
घर पर बैठी जवान बिटिया के
हाथ पीले करने हैं पर
घर में न आटा है, न दाल
चूल्हा भी कई छाक नहीं गरमाया है।[3]

दूसरी कविता ‘शोषण’ है। उसमें भी यही गरीब आदमी कवि की संवेदना के केंद्र में है। पूंजीवादी व्यवस्था के विद्रूप को चित्रित करते हुए कवि कहता है–

भूख से पिलपिलाये, पेट को कमर में लगाये
जब मैं देखता हूं किसी बच्चे को
कूड़ेदान में पड़ी जूठी पत्तलों को
चाटकर अपनी भूख मिटाते हुए
तब लाल हो जाती हैं मेरी आँखें
उन फूली हुई तोदों को देखकर
जो अपने कुत्तों को भी
बिस्कुट, मक्खन, टोस्ट
खिलाते अघाते नहीं हैं।[4]

सुमनाक्षर के कविता-संग्रह में ‘मगर मच्छी आंसू’, ‘पूर्वजन्म का ढकोसला’, ‘अंतर कहां रहा’, ‘तुमने यह ढोंग क्यों रचाया’, ‘प्रतीक’, ‘अंधी परंपराएं’, ‘आजादी और गुलामी’ और ‘राम कहां था उस दिन’ अत्यंत प्रखर कविताएं हैं। ‘अंतर कहां रहा’ में कवि उच्च जातियों की संस्कृति को कटघरे में खड़ा करते हुए कहता है–

तुमने हमें नीच/ कमीन/
ढेढ़/ हरामी/
और न जाने क्या-क्या कहा,
और मेरी मां-बहनों को तो
तुमने वे पदवियां दे डालीं
जो लाख ढूंढ़ने पर भी
कहीं नहीं मिलती हैं
सभ्य समाज के शब्दकोश में।

क्या इसी से हम कहें कि–

तुम सभ्य हो
शिष्टाचारी हो
मानवता के हिमायती हो
सदाचारी हो।[5]

यदि सुमनाक्षर दलित कविता में यह सवाल उठा रहे थे, तो साहित्य में दलित विमर्श को भी स्थापित कर रहे थे। इसीलिये, वे ‘प्रतीक’ कविता में होली को दलितों की गुलामी का प्रतीक बताते हैं। और ‘अन्धी परम्पराएं’ में ‘दशहरा’ के बारे में कहते हैं–

यह हमारी हार का दिन है
पराधीनता-दिवस है।
इसी दिन आर्यों ने विदेश से आकर
हम आदिवासियों को
गुलाम बनाया था
और हमारे ऊपर थोप दी थीं
दासता की जंजीरें
बांध दिया था हमारी बौद्धिकता को
अपने शस्त्र में
हमारे लिये प्रतिबंध लगाकर।[6]

‘राम कहां था उस दिन’ एक ऐसी कविता है, जिसमें अज्ञानतावश दलितों द्वारा पूजे जाने वाले ‘राम’ पर कवि ने सवाल उठाए हैं। यथा–

रामू को घुटनों से नीची
धोती पहनने पर
जमींदार ने बेरहमी से पीटा था
जिस दिन,
वह राम कहां था उस दिन?
उसकी पत्नी चमेली को
बेगार से इनकार करने पर
मार-पीट, बेइज्जत कर
अधमरा किया था
जिस दिन,
वह राम कहां था उस दिन?[7]

कवि दलितों को सावधान करते हुए कहता है–

राम सर्वव्यापी है
ढकोसला है
राम सर्वश्रेष्ठ है
सफेद झूठ है
राम अन्यायियों को
निहारता है, दंड देता है,
महान धोखा है।[8]

यह दलित आंदोलन में हिदूधर्म के प्रतिरोध का समय था। हिंदू धर्मग्रंथों, देवताओं और संस्कृति का जितना तीव्र विरोध इस काल में हुआ, उतना बाद के समय में नहीं हुआ। पर, इस काल के कवि को अपनी परंपरा का बहुत कम बोध था। सुमनाक्षर भी इस ‘अज्ञान’ के शिकार हैं। यह हमें उनकी कविता ‘मृत्संजीवनी’ को पढ़ने से मालूम होता है। वे इस कविता में रैदास और कबीर को हिंदू धर्म के प्रचारक के रूप में चित्रित करते हैं। कहते हैं–

रैदास की वाणी
छिपी है जिसमें
हिंदूआनी
बहाकर
अपनी कठोती में ही गंगा
लोभी ब्राह्मणों को
कर दिया था उन्होंने नंगा।[9]

इसी प्रकार वे ‘कबीर’ के बारे में कहते हैं–

वह कबीर
तुम्हारे लिये हिंदी साहित्य का सितारा है
हिंदू पंडितों का प्यारा है
और उसके वंशज जुलाहे-
अछूत हैं शूद्र हैं
और घृणीय हैं।[10]

1970 और 1980 के दशक में प्रकाशित कुछ दलित काव्य संग्रहों के मुख्य पृष्ठ

यदि कवि ने अपनी परंपरा का अध्ययन किया होता, तो उसे जरूर मालूम होता कि कबीर और रैदास दोनों निर्गुण धर्मी थे और हिंदुत्व के प्रचार से उनका कोई संबंध नहीं था। ब्राह्मणवाद और ब्राह्मण-दर्शन के सबसे मुखर विद्रोही पंद्रहवीं शताब्दी में यही दलित-बहुजन कवि थे। इन्हीं दार्शनिक दलित-बहुजन कवियों ने परलोक, आवागमन, पुनर्जन्म, स्वर्ग-नर्क, अवतारवाद और वर्ण-व्यवस्था का तार्किक खंडन किया था। वे न हिन्दुत्व के प्रचारक थे और न हिंदू पंडितों के प्यारे।

लेकिन, सुमनाक्षर की कविता में दलित जीवन की कठोर वास्तविकताओं के बिंब हैं। वे ऐसे अनुभवों से रू-ब-रू कराते हैं, जो भविष्य के निर्माण के लिये संघर्ष का रास्ता दिखाते हैं। ‘अब नहीं सहा जाएगा’ कविता में ‘भगवान’ के प्रति दलित की आस्था का खंडन दलित कविता का वह स्वर है, जिसका सशक्त प्रतिमान हमें एक दशक बाद मलखान सिंह की कविता में मिलता है। यथा–

दुखियों के आर्तनाद पर
भगवान कृष्ण आएं
न आएं,
अब तो हर दलित युवक
स्वयं कृष्ण बन
सुदर्शन चक्र चलाएगा।
हमारा मन भर गया है
तुम्हारे कारनामों से
अब हर दलित युवक
स्वयं शंकर बन
अपन त्रिनेत्र खोल
तुम्हारे प्रलय का डमरू बजाएगा।[11]

यद्यपि सुमनाक्षर के कविता संग्रह ‘अंधा समाज और बहरे लोग’ की कविताएं दलित कवि के भावुक मन की अभिव्यक्तियां हैं, और उन पर उस समय के दलित आंदोलन का प्रभाव दिखायी देता है, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि इन कविताओं ने भविष्य की दलित कविता को मार्ग दिखाया था।

लगभग इसी समय 1988 में, दिल्ली में ‘भारतीय दलित साहित्य मंच’ ने 25 दलित कवियों की कविताओं का संग्रह प्रकाशित किया, जिसका नाम था ‘पीड़ा जो चीख उठी’। इस मंच का यह पहला प्रकाशन था। इस संग्रह का संपादन सामूहिक रूप से हुआ था, क्योंकि संपादक के रूप में किसी भी कवि का नाम नहीं दिया गया है। जिन 25 कवियों की कविताएं इस संग्रह में शामिल की गयी हैं, उनमें बिहारी लाल ‘हरित’ का नाम भी शामिल है, जिन पर हम पिछली कड़ी में प्रकाश डाल चुके हैं। अन्य कवियों में रामदास शास्त्री, लक्ष्मी नारायण सुधाकर, मंसाराम विद्रोही, राजपाल सिंह राज, नाथूराम सागर, कुसुम वियोगी, बुद्धसंघ प्रेमी, नाथूराम ताम्र, कर्मशील भारतीय, नत्थू सिंह पथिक, अनुसूया ‘अनु’, भगवान दास ‘सुजात’, जयपाल सिंह, रणजीत सिंह ‘निर्भय’, राम सिंह निम, राजपाल सिंह राजा, इन्द्रजीत कनौजिया, दिलीप सिंह अश्क, हरकिशन सन्तोषी, रामदास ‘निमेश’, जसराम हरनौटिया, सिद्ध गोपाल, के.पी. सिंह ‘आदित्य’ और आनंद स्वरूप की कविताएं शामिल हैं।[12] चाहे जो कारण रहा हो, इस संग्रह में सोहनपाल सुमनाक्षर और भीमसेन संतोष की कविताओं का न होना अखरता है, जबकि वे ‘भारतीय दलित साहित्य मंच’ के संस्थापकों में थे।

इस संग्रह से हमें ऐसे अनेक नये कवियों का पता चलता है, जिनकी कविताओं में प्रखर दलित-विमर्श है। इनमें एक महत्वपूर्ण कवि रामदास शास्त्री हैं, जो एटा (उत्तर प्रदेश) के थे और दिल्ली में रहते थे। ‘कवि के प्रति’ कविता में वे भद्रलोक के उन कवियों की आलोचना करते हैं, जो आकाश से प्यार करते हैं और यथार्थ की उपेक्षा करते हैं। वे कहते हैं–

धरती के भी आंसू पोंछो
अगर प्यारा है आकाश।
कोरा कागज कवि से बोला
करो नहीं कवि का उपहास।।[13]

ये भद्रलोक के कवि जिस शहंशाह ने ताजमहल बनवाया, उसकी तो प्रशंसा करते हैं, पर जिन लोगों ने उसके निर्माण में अपने सुख, सपने और प्राण तक दे दिये, उन मजदूरों पर मौन रहते हैं। यथा–

उसका तुमने यश गाया है,
जिसने ताजमहल बनवाया।
ताजमहल बन गये स्वयं जो,
उनका तुमने यश कब गाया।।[14]

संग्रह के एक अन्य महत्वपूर्ण कवि लक्ष्मी नारायण सुधाकर हैं, जो उस समय तक ‘भीम सागर’ और ‘आंबेडकर शतक’ काव्य पुस्तकें लिख चुके थे। ये मैनपुरी (उत्तर प्रदेश) के थे, जो अब दिल्ली में रहते हैं। उनकी कविता ‘नवयुग’ में जातिविहीन समाज की परिकल्पना है, जहां आदमी को आदमी से जोड़ने का आह्वान है। यथा–

आदमी को आदमी से जोड़ दो।
इस नये युग को नया अब मोड़ दो।।[15]
विषमता हर क्षेत्र में जो आज है,
द्वेष से दूषित यों सकल समाज है।
भेद भाषा-क्षेत्र का बढ़ने लगा-
हो रहा खंडित अखंडित ताज है,
सूत्र समता-एकता का जोड़ दो।
इस नये युग को नया अब मोड़ दो।।[16]

एक और महत्वपूर्ण कवि मंसाराम ‘विद्रोही’ हैं, जो सीतापुर (उत्तर प्रदेश) में जन्मे और दिल्ली में रहते हैं। वे सचमुच विद्रोही प्रकृति के कवि हैं। उदाहरण के लिये उनकी कविता ‘हमारा देश’ की ये पंक्तियां देखिए–

किस लिये बनी यह संसद है, जो आम राय का नारा है?
हर शोषित कहता शोषित से, क्या भारतवर्ष तुम्हारा है?
क्या करुणा गौतम साथ गयी, अस्पृश्य बिहारी जलते जो?
दिल्ली से लपटें दिखती हैं, अतिवादी हिंदू करते जो?
लू-वर्षा ठंड न छोड़ कहीं, वे शोषित-पीड़ित मरते जो।
भुखमरी जहां की शोभा है, वे भारत में ही रहते जो।।
एक रिक्शा चालक दिल्ली में, जो व्यक्ति पुलिस का मारा है।
हर रिक्शा वाला कहता है, क्या भारतवर्ष हमारा है?[17]

मंसाराम ‘विद्रोही’ ऐसे दलित कवि हैं, जिनमें वर्ग चेतना है। वे गरीब, मजदूर और सर्वहारा वर्गों की दृष्टि से भारत देश को देखते हैं। लेकिन वे ईश्वर को शोषण की संज्ञा देते हुए भी उसे एक पूंजीवाद कहते हैं, जो समझ से परे है। यथा–

जो शोषित पीड़ित मानव हैं, मैं उसको राह दिखाता हूं।
जो सबसे बढ़कर झूठा है, वह ईश्वर मैं बतलाता हूं।।
यह ईश्वर ही तो शोषण है, यह पूंजीवादी नारा है।
मैं ठंडे दिल से कहता हूं, क्या भारतवर्ष हमारा है।।[18]

वर्ग चेतना के ही कवि नाथू राम ‘सागर’ हैं, जिनका जन्म एटा (उत्तर प्रदेश) के हसनगढ़ गांव में हुआ था। उन्होंने अपनी कविता ‘विश्व गुरु’ में इस मिथ का उपहास उड़ाया है कि भारत विश्व का गुरु है। वे लिखते हैं–

आजादी का राग सुनाती लूट, ठगी, काला-बाजारी।
बराबरी की दौड़ दौड़ती भूख-गरीबी संग बीमारी।।
तस्करी, जमाखोरी, करचोरी भाईचारा निभा रहे हैं-
दीन-हीन मजदूर-कृषक, फल-फूल रहे हैं व्यापारी।
बढ़ती जनसंख्या मँहगाई शिखर चूमती है बेकारी।।
इसीलिये हैं विश्व गुरु हम, नमन करे दुनिया सारी।।[19]

डॉ. कुसुम वियोगी भी दलित-मजदूरों के कवि हैं। उनकी वर्गचेतना पूंजीवाद के खिलाफ समाजवाद की समर्थक है। अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश) के हाथरस शहर में जन्मे कवि कुसुम वियोगी ‘परिवर्तन’ शीर्षक कविता में शोषित जनता को उसी अंदाज में क्रांति का रास्ता दिखाते हैं, जिस अंदाज में मार्क्स ने कहा था– “मजदूरों खोने के लिये तुम्हारे पास बेड़ियों के सिवाय कुछ नहीं है, पर पाने के लिये अनंत आकाश है।” कवि कहता है, जीवन तो नश्वर है, आज नहीं तो कल उसे खत्म होना ही है, पर यदि शोषितों क्रांति के लिये खड़े हो जाओ, तो परिवर्तन आज नहीं तो कल होना ही है। यथा–

परिवर्तन तो परिवर्तन है, आज नहीं, कल होना है।
जीवन तो नश्वर है केवल, आज नहीं कल खोना है।।
उठ न सका है तू सदियों से अब तक शोषण सहके।
चिनगारी अंगारा बन के आज हृदय में दहके।।
उठ रे बंधुआ बेगारी का कब तक बोझा ढोना है।
परिवर्तन तो परिवर्तन है, आज नहीं, कल होना है।।[20]

वे आगे पूंजीवादी और सामंतवादी व्यवस्था के खिलाफ सशस्त्र क्रांति की बात करते हैं–

एक रुपये का सूद कभी तुझसे न यों पट पायेगा।
मौन रहा यदि तू भारत में, कभी नहीं उठ पायेगा।।
पूंजीवादी जुए के नीचे, कब तक जोता जायेगा?
सामंती शोषण से आखिर, कब छुटकारा पायेगा?
हिम्मत कर हथियार उठा ले, कब तक ऐसे रोना है?
परिवर्तन तो परिवर्तन है, आज नहीं, कल होना है।।[21]

कवि शोषक श्रेणी के धार्मिक प्रपंचों स्वर्ग-नर्क और भाग्यवाद से शोषित जनता को मुक्त होने का आह्वान करता है। यही प्रपंच क्रांति के मार्ग में बाधा है। कवि कहता है कि यदि मजदूर जाग जाएं, तो इंकलाब आ जाएगा। यथा–

स्वर्ग-नर्क और भाग्यवाद में जब तक समय गंवायेगा।
पराधीनता के बन्धन से मुक्त नहीं हो पायेगा।।
हंसिया और हथौड़ा तेरा काम और कब आयेगा?
मेहनतकश तू जाग उठा तो इंकलाब आ जायेगा।।[22]

दिल्ली के कर्मशील भारतीय भी क्रांति और आक्रोश के कवि हैं। उन्होंने अपनी कविता ‘बढ़ता चल’ में ‘वीर’ को नयी अर्थवत्ता दी है। धन, धरती और स्त्री के लिये बहुत से युद्ध हुए हैं, पर उस युद्ध में लड़ने वाले सभी वीर नहीं होते। कवि कहता है, वीर वह है, जो न्याय के लिये युद्ध करता है। यथा–

युद्ध न्याय का जो लड़ते हैं वीर वही कहलाते।
मरते बार हजार रोज ही वह कायर कहलाते।।
निर्भय हो अन्याय-जुल्म को कर दे वीर विफल रे।
उन राहों पर चलता चल तू जिनका स्वर्णिम कल रे।।[23]

कवि इस मत का है कि अधिकार मांगने से नहीं मिलते हैं, वरन् उन्हें छीनना पड़ता है और जुल्म की सत्ता को उखाड़ा जा सकता है। यथा–

क्या अधिकार कभी मांगने पर मिलते हैं?
अधिकार तो छीने जाते हैं।
अत्याचारी कितना ही सशक्त क्यों न हो,
उसके शासन-तख्त को
उसकी मजबूत जड़ों को
उखाड़ फेंका जा सकता है।
रात कितनी ही जुल्म-फरोश क्यों न हो,
सुबह तो होती अवश्य है।[24]

‘पीड़ा जो चीख उठी’ कविता संग्रह की एक अत्यंत महत्वपूर्ण कविता ‘कफन’ है, जिसके रचयिता रोहतक (हरियाणा) के जयपाल सिंह हैं। उनकी कविता में एक मार्मिक बिंब है, जिसमें एक कफन विक्रेता ‘गरीबी हटाओ आंदोलन’ के तहत कफन और क्रिया-कर्म के सामान पर विशेष छूट देने का बैनर लगाए हुए है। सूचना पढ़कर असंख्य लोगों की भीड़ वहां जमा हो जाती है, जिनमें झोपड़-पट्टी के रहने वाले मटमैले बच्चे हैं, जिनके पिताओं को गोलियों से भून दिया गया है और घरों को आग लगा दी गयी है, गरीबी के मारे बूढ़े हैं और बलात्कार की शिकार स्त्रियां हैं। वे सभी अपने लिये कफन चाहती हैं। कविता की अंतिम पंक्तियां इस प्रकार हैं–

और फिर क्यू में से निकल
आगे आया एक व्यक्ति
कृशकाय, अधनंगा
दुबला-पतला
धंसी हुई आंखें
निकले हुए दांत
एक अस्थि पंजर सा बोला–
‘श्रीमान हम सब मरे हुए ही हैं।’[25]

ऐसे ही मुर्दा लोगों के लिए कवि आगे कहता है–

तनिक सोचिए,
ऐसे बर्बर अनाचार-अत्याचार
किसी जिंदा इंसान पर किये जाते हैं क्या?
नहीं।[26]

अलीगढ़ के हरकिशन संतोषी दलितों की एकता पर जोर देते हुए अपनी रूमानी कविता ‘मधुवन पर भरोसा मत करना’ में कहते हैं–

दलितों एक साथ हो जाओ,
वरना मार समय की बहुत पड़ेगी।
तुम्हारा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा,
तुम्हारी पीढ़ी यह मार सहेगी।।[27]

इसी संग्रह के एक और कवि रामदास ‘निमेश’ (ग्राम वीर नगर, तहसील जलेसर, जिला एटा, उत्तर प्रदेश में जन्मे) अछूत को हेय नहीं, वरन् राष्ट्र का आधार मानते हैं। ‘केवल संघर्ष’ कविता में वह कहते हैं–

किसने कहा कि तू अछूत है,
हेय है,
मानव नहीं तू?
ऐसा जो कहते हैं
स्वयं को छलते हैं
और छलते हैं तुझे भी
अपने स्वार्थ की प्रतिपूर्ति को।
प्रकृति की अनुपम कृति है तू
एक अनूठी शक्ति है तू
क्योंकि राष्ट्र का सुदृढ़ भवन खड़ा है
तेरे ही श्रम से।[28]

पर, इन श्रमजीवी उत्पादक जातियों को देश की आजादी ने क्या दिया? न उन्हें आजादी मिली और न श्रम का उचित मूल्य। इस दर्द को बागपत (मेरठ) के दलित कवि जसराम हरनौटिया ने 1987 में लिखी अपनी कविता ‘एक दर्द’ में इन शब्दों में अभिव्यक्त किया है–

आजादी के चार दशकों के बाद
सब फलता-फूलता नजर आता है।
पर, जिनकी कमर पहले झुकी थी,
और झुकती जा रही है
उनकी कमर और सिकुड़ती जा रही है,
क्या सोचा किसी ने
फलते-फूलते भारत में
निर्माण में लगे ये लोग
क्यों हो गये हैं दुबले-पतले?[29]

कवि ने इसका कारण भ्रष्टाचार और देश के साथ गद्दारी को माना है। यथा–

कौन जानता है इस पीड़ा को।
वह तो मात्र लिप्त हैं
लूट-खसोट, चोरी-जारी
या फिर
अपने ही देश से गद्दारी में।[30]

पूंजीवादी राजसत्ता किस प्रकार श्रमिक वर्गों के शोषण पर फलती-फूलती है, संभवतः उस समय तक कवि इस सत्य से अनजान था। पर, यह उसे मालूम था कि यदि यही स्थिति रही तो विध्वंस की आंधी आएगी। यथा–

गद्दारी और वफादारी में
फर्क नहीं रखा
तो निश्चित है
एक दिन विध्वंस की आंधी चली आएगी,
अवश्य आएगी।[31]

गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश) कवि आनंद स्वरूप संकलन के अंतिम कवि हैं, जिनकी दलित चेतना ‘मानवता’ को नये अर्थ में रेखांकित करती है। वह मानवता के पैरोकारों से पूछते हैं–

क्या यही है मानवता
जो बनाये मंदिर
वही उसमें नहीं घुस सकता?
जो करे सफाई सब को उच्च बनाये,
वही नीच कहलाये?[32]

वे आगे पूछते हैं कि क्या वे लोग भारत को अपना देश कह सकते हैं, जिनके पास रहने को घर तक नहीं है। यथा–

क्या यही है मानवता का नारा?
रहने को घर नहीं, हिन्दोस्तां हमारा?[33]

वे मानवता के अनेक रूपों की चर्चा करते हुए प्रश्न करते हैं–

क्या यही है मानवता
जो कराती है सांप्रदायिक दंगा
कोई मांगे मजदूरी
उतारें उसके सीने में संगीन पूरी।[34]

मानवता की बात सभी करते हैं, पर कवि ने सही सवाल उठाया है–

यदि यही मानवता है तो
शैतान कहां बसता है?
होता क्यों अन्याय?
भगवान कहां बसता है?[35]
क्रमश: जारी

संदर्भ :

[1] ‘अन्धा समाज और बहरे लोग’ (कविता संग्रह), कवि डा. सोहनपाल सुमनाक्षर, (1984), भारतीय दलित साहित्य अकादमी, 233 टैगोर पार्क, माडल टाउन, दिल्ली, द्वितीय संस्करण- अगस्त 2002, पृष्ठ 3 (भूमिका)
[2] वही, पृष्ठ 5
[3] वही, पृष्ठ 9-10
[4] वही, पृष्ठ 11-12
[5] वही, पृष्ठ 21-22
[6] वही, पृष्ठ 29
[7] वही, पृष्ठ 33
[8] वही, पृष्ठ 34
[9] वही, पृष्ठ 39-40
[10] वही, पृष्ठ 41
[11] वही, पृष्ठ 50-51
[12] पीड़ा जो चीख उठी (कविता संग्रह), भारतीय दलित साहित्य मंच, भगवत गली, ब्रह्मपुरी, गोंडा, दिल्ली, संस्करण प्रथम- 1988, देखिए, प्राक्कथन
[13] वही, पृष्ठ 14
[14] वही
[15] वही, पृष्ठ 17
[16] वही, पृष्ठ 18
[17] वही, पृष्ठ 20
[18] वही, पृष्ठ 21
[19] वही, पृष्ठ 28
[20] वही, पृष्ठ 31
[21] वही
[22] वही
[23] वही, पृष्ठ 39
[24] वही, पृष्ठ 38
[25] वही, पृष्ठ 48
[26] वही
[27] वही, पृष्ठ 65
[28] वही, पृष्ठ 66-67
[29] वही, पृष्ठ 71
[30] वही, पृष्ठ 72
[31] वही
[32] वही, पृष्ठ 79
[33] वही
[34] वही, पृष्ठ 80
[35] वही

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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फूलन जाती की सत्ता, मायके के परिवार की सत्ता, पति की सत्ता, गांव की सत्ता, डाकुओं की सत्ता और राजसत्ता सबसे टकराई। सबका सामना...
इतिहास पर आदिवासियों का दावा करतीं उषाकिरण आत्राम की कविताएं
उषाकिरण आत्राम इतिहास में दफन सच्चाइयों को न सिर्फ उजागर करती हैं, बल्कि उनके पुनर्पाठ के लिए जमीन भी तैयार करती हैं। इतिहास बोध...
हिंदी दलित कथा-साहित्य के तीन दशक : एक पक्ष यह भी
वर्तमान दलित कहानी का एक अश्वेत पक्ष भी है और वह यह कि उसमें राजनीतिक लेखन नहीं हो रहा है। राष्ट्रवाद की राजनीति ने...
‘साझे का संसार’ : बहुजन समझ का संसार
ईश्वर से प्रश्न करना कोई नई बात नहीं है, लेकिन कबीर के ईश्वर पर सवाल खड़ा करना, बुद्ध से उनके संघ-संबंधी प्रश्न पूछना और...
दलित स्त्री विमर्श पर दस्तक देती प्रियंका सोनकर की किताब 
विमर्श और संघर्ष दो अलग-अलग चीजें हैं। पहले कौन, विमर्श या संघर्ष? यह पहले अंडा या मुर्गी वाला जटिल प्रश्न नहीं है। किसी भी...