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दलित कविता की आंबेडकरवादी चेतना का उत्तरोत्तर विकास (पांचवीं कड़ी का अंतिम भाग)

उत्तर भारत में दलित कविता के क्षेत्र में शून्यता की स्थिति तब भी नहीं थी, जब डॉ. आंबेडकर का आंदोलन चल रहा था। उस दौर में और आजादी के बाद अनेक दलित कवि हुए, जिन्होंने कविताएं लिखीं। पढ़ें, कंवल भारती की आलेख श्रृंखला ‘हिंदी दलित कविता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य’ की पांचवीं कड़ी के चौथे और अंतिम भाग में श्योराज सिंह बेचैन व ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं के बारे में

दलित कविता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यसंदर्भ श्योराज सिंहबेचैन ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताएं

पिछली कड़ी के आगे

नवें दशक के अंतिम वर्ष में दो अत्यंत महत्वपूर्ण कविता-संकलन प्रकाशित हुए, जिन पर चर्चा किये बगैर दलित कविता पर यह अध्ययन पूरा नहीं हो सकता। ये दोनों संकलन आठवें और नवें दशक की दलित काव्य यात्रा के वे पड़ाव हैं, जहां से दलित कविता ने आगे की बहुमार्गी यात्रा की है। दोनों संकलनों का प्रकाशन वर्ष 1989 है। ये रचनाकार हैं ओमप्रकाश वाल्मीकि और श्यौराज सिंह ‘बेचैन’। इनके कविता संकलनों के नाम क्रमशः ‘सदियों का संताप’ और ‘नयी फसल’ हैं।

‘नयी फसल’ का संपादन कुमार प्रदीप, पत्रकार ने किया था, जिसकी एक हजार प्रतियां छापी गयी थीं। पुस्तक के पीछे इसके मिलने का पता श्रीमती वीरबाला सक्सेना, शिक्षिका, बिलारी, मुरादाबाद, उ.प्र. छपा है। आवरण सहित साठ पृष्ठों की इस ‘पाकेट बुक’ आकार की पुस्तिका में 48 कविताएं शामिल हैं, जिसमें अंतिम कविता ‘छपते-छपते’ शीर्षक से बाद में जोड़ी गयी थी, क्योंकि इस कविता का नाम ‘क्रम’ सूची में शामिल नहीं है।

‘सदियों का संताप’ 19 कविताओं का संकलन है, जिसमें 30 पृष्ठ हैं। इसकी छपाई सुंदर और आवरण पृष्ठ आकर्षक है। इसका प्रकाशन ‘फिलहाल प्रकाशन’ 24/49 धर्मपुर, देहरादून से हुआ था, जो लेखक का ही अपना उपक्रम था। बेचैन और वाल्मीकि दोनों दलित कवियों ने समाज, जाति और जनतंत्र की अपनी सघन पीड़ा की अनुभूतियों को अपनी कविताओं में अभिव्यक्त किया है।

सबसे पहले ‘नयी फसल’ की कविताओं पर बात करते हैं। ये कविताएं एक ऐसे परिवेश से आयीं, जो जन-विरोधी और पूंजीवादी है। कवि ने भी अपने संकलन को ‘जनवादी रचनाओं का संग्रह’ कहा है। इन कविताओं को पढ़ने से मालूम होता है कि कवि ने जाति से ज्यादा गरीबी की पीड़ा को भोगा है। उसे जाति के सवालों ने उतना परेशान नहीं किया, जितना वर्ग के सवालों ने। संग्रह की अधिकांश कविताओं में हमें वर्ग-चेतना देखने को मिलती है। तीन कविताओं में जाति-चेतना भी है, पर, एक कविता ‘बेड़िया तोड़ दो’ में हमें आंबेडकर का जिक्र मिलता है, जिसमें कवि ने उनके शिक्षा, संगठन और संघर्ष के नारे का उल्लेख करते हुए उसे मुक्ति-पथ कहा है। यथा–

था तिमिरमय गगन घोर हिंदुत्व से,
नाम समता-स्वाधीनता का न था।
शासकों, ग्रंथ्कारों ने बांटे थे हम,
दूर तक जिंदगी में उजेरा न था।।
ब्राह्मण स्वयं सर्वोपरि था बना,
मात्र पैरों में स्थान था शूद्र का।
तब दलित बेड़ियां तोड़ने को उठे,
उनकी जानिब इशारा हुआ भीम का।।
किंतु ऐ नवयुवा तेरा दायित्व है,
खत्म कर अपने मस्तिष्क की दासता।
ज्ञान पा, संगठित हो के संघर्ष कर,
आपदाओं से मुक्ति का है रास्ता।।[1]

‘नयी फसल’ की भूमिका डॉ. वीरेंद्र डंगवाल ने लिखी है, जो स्वयं भी जनवादी धारा के सुपरिचित कवि रहे। उन्होंने लिखा है कि बेचैन एक प्रतिबद्ध राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और उनकी कविताएं एक सतत सजग कार्यकर्ता की कविताएं हैं। उनके अनुसार बेचैन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान आंदोलन में लंबे समय तक सक्रिय थे। वे लिखते हैं, “चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के किसान संघर्षों में ग्रामीण समाज की वंचित जातियों और भूमिहीन मजदूरों की भूमिका को सुनिश्चित करने और इस प्रकार इस आंदोलन को संकीर्ण होने से बचाने में उनकी एक खामोश, लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका रही है।”[2]

भूमिका के इस उद्धरण से हम यह समझ सकते हैं कि बेचैन की काव्य-चेतना अपने समय के जनवादी अर्थात् वाम आंदोलन से पैदा हुई है। इसलिये आंबेडकर भी उनके लिये उसी वर्ग चेतना के नायक हैं, जिस वर्ग चेतना के नायक मार्क्स और भगतसिंह हैं। असमानता, अन्याय और शोषण के विरुद्ध समाजवादी व्यवस्था की परिकल्पना का प्रभाव उनके ऊपर वस्तुतः दलित होने के नाते ही पड़ा था। उनके अभाव ग्रस्त दलित जीवन की अनुभूतियों ने उन्हें स्वतंत्रता और समानता के दर्शन से जोड़ने में अहम भूमिका निभायी। इसलिये, उन्होंने अपनी कविताओं में एक दलित और सर्वहारा की दृष्टि से ही देश की आजादी और लोकतंत्र को देखा है। इस ‘देखने’ में उन्हें न आजादी आजादी नजर आती है और न लोकतंत्र लोकतंत्र दिखायी देता है। वे इस फर्क को एक कविता में इस तरह देखते हैं–

थे जहां गोरे वहां काले नजर आने लगे।
हट गये कांटे तो क्या भाले नजर आने लगे।।[3]

इसलिये वे लोकतंत्र में शोषण की व्यवस्था के खिलाफ बिगुल बजाते हैं–

फिर चुनौती सामने है, ध्वस्त करना है निजाम।
शोषकों की मंडली में, फिर मचा दो कोहराम।।
अपने सपने, अपनी खुशियां, अपने हक पाये अवाम।
हर शहादत सार्थक हो, भगतसिंह का यह पैगाम।।[4]

कवि यहां भगतसिंह की प्रासंगिकता को महसूस कर रहा है। एक अन्य कविता में भी कवि भगतसिंह के सपनों का भारत चाहता है। यथा–

गोरे गैरों का जुल्म था कल,
अब सितम हमारे अपनों का।
थे कुछ भी कहें, पर देश,
बना नहीं भगतसिंह के सपनों का।।[5]

वामपंथियों ने भारत की आजादी को ‘अधूरी आजादी’ कहा था। कवि श्योराज सिंह बेचैन ने भी इसी मत को दोहराया है। स्पष्ट है कि यह धारणा उनमें वामपंथ से ही आयी। यथा–

आजादी अभी अधूरी है,
सच है यह बात समझ प्यारे।
कुछ सुविधाओं के टुकड़े खा,
मत नौ-नौ बांस उछल प्यारे।।[6]

डॉ. आंबेडकर के संघर्ष से आजाद भारत के दलितों को शासन और प्रशासन में आरक्षण मिला था। वामपंथियों ने इसका विरोध किया था। उनका कहना था कि इस प्रकार की सुविधाओं से पूर्ण परिवर्तन की लड़ाई ठंडी पड़ती है। बेचैन की धारणा भी यही है–

कर हकों की ठंडी बात नहीं,
बदलाव की आग उगल प्यारे।[7]

कवि आम आदमी की पीड़ा को देख रहा था, जिसे आजादी ने कुछ नहीं दिया था। कवि की दृष्टि में पूरा लोकतंत्र पूंजीवादी है, जिससे शोषित जन खतरे में है–

हां, पूंजीवादी दानव से
खतरे में है शोषित मानवता।[8]

इसलिये कवि आजादी पर प्रश्न चिन्ह लगाता है, क्योंकि वह ‘सुबह’ नहीं आयी, जिसके लिये वीरों ने कुरबानी दी थी–

भूखों की भूख मिटा न सकी,
शोषण और लूट बचा न सकी।
जिस सुबह की खातिर ‘वीर’ मरे,
वो सुबह अभी तक आ न सकी।।[9]

लेकिन कवि इस सिद्धांत में विश्वास करता है कि शोषित जनों को अपनी तकदीर खुद बदलनी होगी। उन्हें किसी ‘अवतार’ की राह न देखकर खुद ही अपना निर्माण करना होगा। यथा–

मजबूत हैं हम कमजोर नहीं,
अपना निर्माता और नहीं।
समझें तो लैं तकदीर बदल,
दुनिया भर की तसवीर बदल।
मत अवतारों की राह देख,
कर स्वयं समस्या हल प्यारे।।[10]

बेचैन की दलित चेतना भी शोषित जन की चेतना है। उसकी दृष्टि में दलित जाति से नहीं, वरन् वे सभी लोग दलित हैं, जो शोषित और गरीब हैं। कवि व्यावहारिक धरातल पर दलित को देखता है, और सवाल उठाता है–

भूखे नंगे बेघर
दलित से तो पूछे कोई
यह कौन-सी सदी है?
और कौन-सा जमाना है?[11]

आगे, कवि आंबेडकर के दर्शन को जाति और वर्ग विहीन समाज के निर्माण के रूप में ग्रहण करता है, जिसमें धर्म की भी विषमता न हो। यथा–

जाति, धन, धर्म की
विषमता रहेगी नहीं
भीम के सपूत
ऐसा भारत बनाना है।[12]

‘हम एक हैं’ कविता में कवि ऐसे ही भारत के निर्माण के लिये मजदूरों, किसानों और मेहनतकश लोगों की एकता का आह्वान करता है। यथा–

मजदूर किसानों के अधर यूं ही कहेंगे।
हम एक थे, हम एक हैं, हम एक रहेंगे।।
मजहब धरम के नाम पर लड़ना नहीं हमें।
फिरकों में जातियों में बिखरना नहीं हमें।।[13]

इसी कविता में कवि पूंजीवादी ताकतों को उखाड़ फेंकने के लिये भूखे लोगों को उठ खड़े होने को उत्तेजित करता है। यथा–

रोटी की भूख हमसे कह रही है अब उठो।
पूंजी के दरिंदों की बड़ी रीढ़ तोड़ दो।।
सदियों से पी रहे हैं सितमगर लहू के जाम।
मजलूम की तबाही बढ़ाता है ये निजाम।।[14]

श्योराज सिंह ‘बेचैन’ व ओमप्रकाश वाल्मीकि के काव्य संग्रह का आवरण पृष्ठ

यद्यपि ‘नयी फसल’ में कुछ लोकगीत और व्यंग्यात्मक कविताएं भी शामिल हैं, जैसे ‘जिन्दगी’ (लोक मल्हार), ‘साली’ और ‘टिकाऊ पति’। किंतु मुख्यरूप से कवि राजनैतिक बदलाव का कवि है। उसकी कविताएं नये विश्व का निर्माण चाहती हैं, जिसमें न रंगभेद हो, न लिंगभेद, न जातिभेद और न आर्थिक विषमता, बल्कि ऐसा वातावरण हो, जिसमें सभी फलें-फूलें और किसी के भी सपनों की हत्या न हो। कवि ऐसी रहनुमाई नहीं चाहता, जो देश को जाति-पांति और सांप्रदायिकता की आग में झोंक दे। ‘नया जहां’ कविता में कवि पूरी तरह आश्वस्त है कि देश के नौजवान नया जहां बनाएंगे और नयी सुबह लेकर आएंगे। यथा–

नौजवां नया जहां बनाएंगे-बनाएंगे।
जात-पांत का तनाव।
ऊंच-नीच भेदभाव।
पेट के सवाल का।
जो दे नहीं सके जवाब।।
ऐसी रहनुमाई को हटायेंगे-हटायेंगे।।
पी गये थे आंसुओं के साथ रात।
कह नहीं सके थे दिल की बात रात।।
हम सुबह के वास्ते ही आये हैं।
हम सुबह जरूर लेके जायेंगे।।[15]

ऐसे ही विचारों की अभिव्यक्ति हमें कवि की अन्य कविताओं ‘विश्व युद्ध नहीं चाहिए’, ‘अंगूठा दिखाइए’, ‘घोर अंधकार है’, ‘कसाई को जिताते रहे भाई की तरह’, ‘हमें कोई गम नहीं है’, ‘रंगभेद मिटवाबैगो’, ‘खिलाफ’, ‘बदलाव’, ‘प्रभाती का बिगुल’ और ‘जीवन दाव रे’ में मिलती हैं। इन कविताओं में कवि मंहगाई, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, शोषण और भेदभाव के खिलाफ आम आदमी को युद्ध में उतारता है, और आम आदमी को बदलाव की नयी चेतना से लैस करता है। वह अपने समय के कवियों और शायरों को कलम को खंजर बनाने को कहता है–

फिर कलम खंजर बना लो
गीत में शोले भरो
सच्चा शायर वो
जो लिखे अपने दौरों के खिलाफ।[16]

बेचैन ने राजनैतिक बदलाव की कविताओं के साथ-साथ प्रेम-गीत भी लिखे। उनका प्रेम भी एक आम आदमी का प्रेम है, जो अपनी हजारों ख्वाहिशों के साथ अपनी प्रेयसी को चाहता है, पर गरीबी, बेरोजगारी और लाचारी उसके मन के मधुमास को पल्लवित होने से पहले ही पतझर में बदल देती है। उनकी कविता में यह दर्द इस तरह उभरा है–

सब चले जाते हैं पतझर
या कि हो मधुमय बहार।
देखती रहती हैं आंखें
कारवांओं के गुबार।।[17]

लेकिन प्रेम के लिये कवि आग पर भी चलने को तैयार है–

दिल के भीतर हजारों-हजारों दीये।
जिन्दगी भर जलेंगे तुम्हारे लिये।
दूर कितनी भी हों प्यार की मंजिलें,

आग पर भी चलेंगे तुम्हारे लिये।[18]

बेचैन ने अपनी कविता के केंद्र में स्त्री की स्वाधीनता को रखा है। ‘औरत’ कविता में जहां उन्होंने सामाजिक और आर्थिक दोनों आधारों पर स्त्री के शोषण का चित्रण किया है, वहां ‘औरत की गुलामी’ में यह रेखांकित किया है कि वह उपेक्षित ही पैदा होती है–

पैदा हुई थी जिस दिन
घर शोक में डूबा था।
बेटे की तरह उसका
उत्सव नहीं बना था।
बंदिश भरा है बचपन,
बोझिल सी जवानी है।[19]

कवि बताता है कि सारी अग्नि-परीक्षाएं स्त्री के लिये ही हैं–

औरत की गुलामी भी
एक लंबी कहानी है
कभी अग्नि परीक्षा में
औरत ही तो बैठी थी
होती थी जब सती तो
औरत ही तो होती थी।[20]

लेकिन, कवि कहता है कि स्त्री को अपनी इस दासता की बेड़ियों को स्वयं ही काटना होगा–

अब वक्त है वो अपने
आयाम खुद बनाये।
तालीम हो या सर्विस
अपने हकूक पाये।
मिल-जुल के विषमता की
दीवार गिरानी है।[21]

बेचैन ने अपनी रचना-प्रक्रिया को भी अपनी एक कविता में व्यक्त किया है। वह कविता है, ‘दर्द समेट लिखा मैंने’। यह संकलन की सबसे मार्मिक कविता है और इस मायने में सबसे महत्वपूर्ण भी है कि जहां यह कवि के जीवन के दुखद यथार्थ से हमें रू-ब-रू कराती है, वहां इससे यह भी स्पष्ट होता है कि कविता का अर्थ मनोरंजन नहीं, बल्कि पीड़ा का उद्घाटन करना है। कवि कहता है–

गिरता उठता चला
ज्ञान की कुछ ऊंचाई तक पहुंचा।
पर्वत राई लगा
स्वार्थ से ऊपर बैठ लिखा मैंने।
मादक लगी न रात
चांदनी साधक लगी न स्मृतियां।
सूरज ठंडा लगा
धूप में जिस दिन बैठ लिखा मैंने।[22]

संभ्वतः सबसे पहले नजीर अकबराबादी ने चांद को रोटी कहा था। पर, वास्तव में हरेक भूखे को चांद रोटी ही नजर आता है, क्योंकि चांद की तरह रोटी भी गोल होती है और पहुंच से बाहर। बेचैन का कवि भी जब भूखे पेट लिखता है तो उसे चांद रोटी जैसा लगता है, और उसी समय उसे ‘सारे जहां से अच्छा है’ पर संदेह होने लगता है। यथा–

चांद लगा रोटी का टुकड़ा
भूखे पेट लिखा मैंने
सारे जहां से अच्छा है
यह उस दिन कुछ संदेह हुआ
शामिल होकर मजदूरों में
अपना रेट लिखा मैंने।[23]

कवि आगे भूख-पीड़ित जीवन के लिए एक नग्न प्रतीक का प्रयोग करते हुए कहता है कि उसने कब्र में रहकर इस भ्रम में लिखा कि लाशें भी जिंदा होती हैं। यथा–

कमरे में भी नहीं
कब्र में रहकर गीत लिखा मैंने
लाशें भी जिंदा हैं, हां
इस भ्रम के तहत लिखा मैंने।
वर्षों खोया रहा खुदी में
वर्षों दिल बेचैन रहा
सागर उथला लगा
कि गम में गहरा बैठ लिखा मैंने।।[24]

‘छपते-छपते’ के तहत जो कविता संकलन में शामिल की गई, वह मार्क्सवादी कवि गोरख पांडे की आत्महत्या पर है, जिसे कवि ने ‘एक सच्चाई की खुदकुशी’ नाम दिया है। यह कविता 30 जनवरी, 1989 को लिखी गयी है। गोरख पांडे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में छात्र थे और उसी के कैम्पस में स्थित छात्रावास में उन्होंने मौत को गले लगाया था। बेचैन भी उस समय तक जेएनयू के छात्र हो चुके थे। गोरख पांडे की दुखद मृत्यु से द्रवित होकर उन्होंने यह कविता लिखी–

तुम्हारी मौत मोहब्बत की मौत लगती है
तुम्हारे पास नर्मदा थी गंगा, कावेरी
बही न एक भी जीवन के मरु में आकर।
तुम्हारी प्यास जरूरत की प्यास थी गोरख
डसा तन्हाई की दिल को तड़पाकर।
हसरते इंकलाब दिल में धड़कनें ठहरी
आंख खुलते समाजवाद का सपना रोया
गर्दिशें लाख, पर जमीर का सौदा न किया।
गवां दी जान कवि-कर्म पर, धब्बा न लिया
नया समाज नया आदमी बनाने चला?
खुद की सांसों से बुझ गया चिराग कैसा जला।
खुद सच्चाई ने गले डाल लिया था फंदा,
मुझको लगता है एक सच्चाई ने खुदकुशी की है।[25]

हमने देखा कि नवें दशक में दलित कवि श्योराज सिंह ‘बेचैन’ के आत्म-संघर्ष एक सच्चे जुझारू जनवादी चेतना का संघर्ष है। उनकी दृष्टि व्यापक है। उनकी चेतना में वे सारे लोग हैं, जो भूख और शोषण से पीड़ित हैं। वे जाति और वर्ग विहीन समाज के निर्माण के कवि हैं और समाजवादी राज व्यवस्था के स्वप्नदर्शी भी।

ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता

ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं का संग्रह ‘सदियों का संताप’ पूर्ण रूप से दलित चेतना की कविताओं का संग्रह है और यह पहला संग्रह है, जिसने मुख्यधारा के साहित्य में सबसे ज्यादा हलचल मचायी। ये कविताएं भावुकता से मुक्त हैं। उनमें गंभीर दलित चिंतन और विमर्श है। भाषा और शिल्प के स्तर पर भी ये कविताएं हिंदी की मुख्यधारा की कविताओं को चुनौती दे रही थीं। इन कविताओं ने मुख्यधारा की कविता पर हथौड़े बजा दिये। संकलन की पहली ही कविता ‘ठाकुर का कुंआ’ में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने वह सवाल उठा दिया, जिसने सवर्ण चेतना को झकझोरकर रख दिया–

चूल्हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का।
भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का।
कुंआ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या?
गांव? शहर? देश?[26]

यह सवाल वाल्मीकि ने 1989 में उठाया था, आजादी के चार दशक बाद। डॉ. आंबेडकर ने 1930 में भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर सवाल खड़े किये थे कि दलितों को आजादी दिये बगैर भारत की आजादी सवर्णों की आजादी होगी और दलितों के लिये वह एक हिंदू राज ही होगा, जिसमें सब कुछ हिंदुओं को हासिल होगा, और दलितों को उनकी गुलामी में ही रहना होगा। वाल्मीकि की यह कविता इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि वह डॉ. आंबेडकर की शंका को सही साबित कर रही है। यही नहीं, उन्होंने दलितों से झूठी सहानुभूति रखने वाले सवर्ण रचनाकारों से भी दो-दो हाथ किये। ‘युग चेतना’ की ये पंक्तियां देखिए–

मैंने दुःख झेले
सहे कष्ट पीढ़ी-दर-पीढ़ी इतने
फिर भी देख नहीं पाये तुम
मेरे उत्पीड़न को
इसीलिये युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझे।[27]

‘कविता और फसल’ कविता में वाल्मीकि ने सहानुभूति और स्व-अनुभूति के स्वर को भी रेखांकित किया, जो मुख्य धारा के लिए पहली अभिव्यक्ति थी। यथा–

ठंडे कमरों में बैठकर
पसीने पर लिखना कविता
ठीक वैसा ही है
जैसे राजधानी में उगाना फसल
कोरे कागजों पर।[28]

उन्होंने साफ-साफ कहा–

फसल हो या कविता
पसीने की पहचान हैं दोनों ही।[29]

यह एक दलित कवि के द्वारा की गयी कविता की ऐसी परिभाषा थी, जो वामपंथियों द्वारा भी नहीं की गयी थी। इसका कारण था, पसीना, जिसका संबंध सिर्फ मेहनतकश दलित समाज से था। इसलिये दलित कवि ने बिना पसीने की फसल और कविता को बेमानी कहते हुए कहा है–

जिसे हरिया लिखता है
चिलचिलाती दुपहर में
धरती के सीने पर
फसल की शक्ल में।[30]

वाल्मीकि ने उस व्यवस्था पर भी चोट की, जिसने दलितों की प्रगति को रोका और उनका सदियों तक उत्पीड़न किया। ‘ज्वालामुखी’ शीर्षक कविता में उन्होंने दलितों की दीनता को नहीं, उनके पराक्रम को रेखांकित किया। यह दलितों की धर्मभीरुता थी, जिसने उन्हें जाति व्यवस्था के बंधनों में रहने के लिये विवश किया था। पर, अब उनकी सदियों की पीड़ा ने ज्वालामुखी का रूप ले लिया है। यथा–

बाहें फड़कती हैं
जिह्वा मचलती है
प्रगति अवरुद्ध
जाति व्यवस्था के बंधन में।
पूर्वजों के शौर्य,
पराक्रम से रंगे पृष्ठों को
धर्मभीरुता की दीमक
चाट गयी है।[31]

बहुत हो चुका
शोषण
प्रताड़ना
और उपेक्षा
बस अब मेरा ज्वालामुखी फट पड़ेगा।[32]

ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी पीढ़ी के दलितों के दर्द और संघर्ष के कवि हैं। वे अपनी पीढ़ी के लोगों में आंसुओं का सैलाब नहीं, बल्कि विद्रोह की चिनगारी देखते हैं। उनकी पीढ़ी के दलितों ने अपने स्वाभिमान और सम्मान के लिये उन गांवों से शहरों में पलायन किया, जो उनके लिये हिंदुओं के बनाए हुए ‘घेटो’ (यातना शिविर) थे। शहरों में आकर, उन्होंने मजदूरों के हजूम को जुलूसों के रूप में देखा और अपने लिये भी संघर्ष का रास्ता चुना। ‘तनी मुट्ठियां’ कविता में कवि इन्हीं दलितों का प्रतिनिधित्व करता है। यथा–

मेरी पीढ़ी सदियों के अभिशाप को
कंधों पर लादे
गांव से शहर तक आयी है
खड़ी देख रही है दोराहे पर
मशाल लिये जाते जुलूस को।[33]

मेरी पीढ़ी ने अपने सीने पर
खोद लिया है संघर्ष
जहां आंसुओं का सैलाब नहीं
विद्रोह की चिन्गारी फूटेगी
जलती झोंपड़ी से उठते धुएं में
तनी मुट्ठियां
तुम्हारे तहखानों में
नया इतिहास रचेंगी।[34]

शंबूक और एकलव्य दलित कविता में दलित अस्मिता के प्रतीक के रूप में प्रयोग किये जाते रहे हैं। पर, वाल्मीकि ने ‘शंबूक का कटा सिर’ कविता में हर युग में शंबूक की शहादत का चित्रण किया। यथा–

यहां गली-गली में
राम है/ शंबूक है
द्रोण है/ एकलव्य है
फिर भी सब खामोश हैं/ कहीं कुछ है
जो बंद कमरों में उठते क्रंदन को
बाहर नहीं आने देता/ कर देता है
रक्त से सनी उंगलियों को महिमामंडित।[35]

इस कविता में कवि ने हिंदी के उन तथाकथित सहानुभूतिवादी द्विज कवियों को आईना दिखाया है, जिन्होंने कभी भी दलित-विरोधी राज व्यवस्था के खिलाफ इसलिये आवाज नहीं उठायी, क्योंकि वे उस व्यवस्था से लाभान्वित वर्ग हैं। इसलिये, दलित कवि ने ‘हथेलियों में थमा सिर’ कविता में दो-टूक शब्दों में कहा–

गली के मुहाने पर
खांसता सदियों का अभिशाप
समय की गिनती भूल चुका है
साथ ही भूल चुका है
सांझ और सवेरे का अंतर।[36]

वाल्मीकि ने पहली बार सवर्णों की आंखों में ऊंगली डालकर उनसे सवाल किया कि यदि दलितों की जिंदगी को उन्हें जीना पड़ता, तो वे क्या करते? ‘तब तुम क्या करोगे’ कविता इस संकलन की ही नहीं, बल्कि संपूर्ण दलित-काव्य की पहली कविता है, जिसमें कवि सवर्णों को निरुत्तर कर देता है। यथा–

यदि तुम्हें
धकेलकर गांव से बाहर कर दिया जाय
पानी तक न लेने दिया जाय कुँए से
दुत्कारा-फटकारा जाय
चिलचिलाती दुपहर में
कहा जाय तोड़ने को पत्थर
काम के बदले
दिया जाय खाने को जूठन
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें
मरे जानवर को खींचकर
ले जाने के लिये कहा जाय
और
कहा जाय ढोने को
पूरे परिवार का मैला
पहनने को दी जाय उतरन
तब तुम क्या करोगे?[37]

यह कवि की सबसे लंबी और विचारोत्तेजक कविता है, जो वर्ण व्यवस्था के पैरोकारों को लगभग नंगा करते हुए पूछती है–

यदि तुम्हें
नदी के तेज बहाव में
उलटा बहना पड़े
दर्द का दरवाजा खोलकर
भूख से जूझना पड़े
भेजना पड़े नयी-नवेली दुल्हन को
पहली रात ठाकुर की हवेली
तब तुम क्या करोगे?[38]

अंत में कवि यह भी बताता है कि ऐसी स्थिति में सवर्णों की स्थिति क्या होगी? यथा–

साफ-सुथरा रंग तुम्हारा
झुलसकर सांवला पड़ जायेगा
खो जायेगा आंखों का सलोनापन
तब तुम कागज पर
नहीं लिख पाओगे
सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम्।
देवी-देवताओं के वंशज तुम
हो जाओगे लूले-लंगड़े और अपाहिज
जो जीना पड़ जाय युगों-युगों तक
मेरी तरह
तब तुम क्या करोगे?[39]

यह सवाल भी कवि की नजर में है कि दलितों ने ऐसी नारकीय स्थिति के खिलाफ विद्रोह क्यों नहीं किया? देखिए, ‘चोट’ की ये पंक्तियां

पथरीली चट्टान पर
हथौड़े की चोट
चिनगारी को जन्म देती है
जो गाहे-बगाहे आग बन जाती है।
एक तुम हो
जिस पर किसी चोट का
असर नहीं होता।[40]

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि दलित इस स्थिति से निकलना नहीं चाहते थे। सामन्तशाही में वे इस आशा में जीते थे कि कोई चमत्कार होगा या कोई अवतार, जो उनकी मुक्ति के लिये आएगा। ‘पटाक्षेप’ कविता में कवि का यह रेखांकन–

और में
शहर के बीचों-बीच
उलटा लटका हूं जमूरे की तरह
इस उम्मीद में
कि भीड़ से कोई एक बाहर आयेगा
और सूर्य की रोशनी
मशाल की तरह जलाकर
अंधेरे के उत्सव का
पटाक्षेप कर देगा।[41]

लेकिन कोई नहीं आता है। इसलिये कवि को ब्राह्मणों की ऋचाओं को पढ़ते हुए पवित्र नदियों में नहाने और खुद को कीचड़ में लथपथ हाथ में थामें कुदाल के स्पर्श का पूरा अनुभव है, पर उसे दुख इस बात का है कि वह उस कुदाल को अपनी मुक्ति का अस्त्र क्यों नहीं बना सका। ‘कुदाल’ कविता में कवि कहता है–

पृथ्वी की समूची ऊर्जा
रक्त शिराओं में समेटकर भी
मैं अपाहिज था
क्योंकि,
जो कुदाल तुमने दी थी
मेरे हाथ में
वह मिट्टी को सोना तो बना सकती थी
किंतु, उठ नहीं सकती थी
तुम्हारे विरुद्ध?[42]

इस कविता में डॉ. आंबेडकर बोलते हैं, जिन्होंने अपने भाषण ‘जाति का विनाश’ (1936) में कहा था कि चातुर्वर्ण व्यवस्था को सामंतशाही ने कानूनी दंड-व्यवस्था की ताकत पर लागू किया था। यही कारण था कि दलितों में अपने हलों को तलवारों में बदलने की शक्ति नहीं थी।[43] यह इसी कानून की ताकत थी कि सारी रोशनी पर द्विज कब्जा जमाकर बैठ गये थे। उनका सारा ऐश्वर्य दलित के खून से बना है। ‘दीया’ कविता में इस अनुभूति को कवि ने जिन शब्दों में चित्रित किया, उसकी उपस्थिति हमें हिंदी की संपूर्ण कविता में नहीं मिलती। यथा–

कच्चे घर में
जलते दीये की रोशनी पर
कब्जा करके बैठ गये हो तुम।
मेरी पिंडलियों
और भुजाओं के मांस से बनी है बाती
हड्डियों को निचोड़कर
निकाला गया है तेल।
अंधेरे में
कालिख पुता मेरा जिस्म
जिसे तुमने अपवित्र
घोषित कर दिया
तिल-तिल जल रहा है
तुम्हें रोशनी देने के लिये।[44]

और, इसके बाद कवि सीधे बगावत का ऐलान करता है–

किन्तु याद रखो
जिस रोज इन्कार कर दिया
दीया बनने से
मेरे जिस्म ने
अंधेरे में खो जाओगे
हमेशा-हमेशा के लिये।[45]

‘सदियों का संताप’ कविता में दलित धरती को अभिशाप से मुक्त कराने के लिये अपनी हथेलियों पर सूर्य उतारते हैं। इस कविता ने हिंदी की तथाकथित मुख्यधारा के संपूर्ण कवियों को ब्राह्मणवाद और सामंतवाद का गुलाम घोषित कर दिया। इस कविता में दलित-आक्रोश की विचारोत्तेजक अभिव्यक्ति हुई है–

सुना है
दहाड़ती आवाजों को
किसी चीख की मानिन्द
जो हमारे हृदय से
मस्तिष्क तक का सफर तय करने में
थककर सो गयी है।
दोस्तों
इस चीख को जगाकर पूछो
कि अभी और कितने दिन
इसी तरह गुमसुम रहकर
सदियों का संताप सहना है।[46]

यह उस सीधी लड़ाई का आह्वान था, जिसका बिगुल डॉ. आंबेडकर ने बजाया था। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलित कविता के संघर्ष को एक नयी सुबह के उजाले तक पहुंचा दिया। ‘धुरी पर घूमती पृथ्वी’ कविता में कवि शोषक श्रेणी को बताता है–

सूरज का अस्त होना
और अंधेरे में बदल जाना
अंत नहीं है
धुरी पर घूमती पृथ्वी
इस बात को अच्छी तरह जानती है।[47]

और दलित कविता का आत्मसंघर्ष कवि के चिंतन में इस परिणिति पर पहुंचता है–

सुबह होने से पहले
मैं, तुम्हें बता देना चाहता हूं
कि सुबह आयेगी धीरे-धीरे
तेज रोशनी चारों ओर फैलकर
अंधेरे को उजाले में बदल देगी।[48]

सुबह धीरे-धीरे ही आयी और तेज रोशनी भी चारों ओर फैली। पर, इस रोशनी में दलित कविता ने अंधेरे को उजाले में बदलने के लिये अपने संघर्ष को कितना और आगे बढ़ाया, यह हम आगे की कड़ी में देखेंगे।

समाप्त

संदर्भ
[1] जनवादी रचनाओं का संग्रह- नयी फसल, श्योराज सिंह बेचैन, सम्पादक- कुमार प्रदीप (पत्रकार), प्रथम संस्करण- 1989, मानसी प्रिन्टर्स, क्रान्ति चौक, बिलारी, मुरादाबाद, पृष्ठ 56
[2] वही, देखिए- भूमिका
[3] वही, पृष्ठ 2
[4] वही
[5] वही, पृष्ठ 20
[6] वही
[7] वही
[8] वही, पृष्ठ 21
[9] वही, पृष्ठ 22
[10] वही, पृष्ठ 22-23
[11] वही, पृष्ठ 34
[12] वही, पृष्ठ 35
[13] वही, पृष्ठ 52
[14] वही
[15] वही, पृष्ठ 3
[16] वही, पृष्ठ 38
[17] वही, पृष्ठ 48
[18] वही, पृष्ठ 19
[19] वही, पृष्ठ 50
[20] वही
[21] वही
[22] वही, पृष्ठ 36
[23] वही
[24] वही, पृष्ठ 36-37
[25] वही, पृष्ठ 59
[26] सदियों का संताप- ओमप्रकाश वाल्मीकि- 1989, फिलहाल प्रकाशन, 24/49, धर्मपुर, देहरादून, प्रथम संस्करण- 1989, पृष्ठ 3
[27] वही, पृष्ठ 12
[28] वही, पृष्ठ 9
[29] वही
[30] वही
[31] वही, पृष्ठ 6
[32] वही, पृष्ठ 7
[33] वही, पृष्ठ 14
[34] वही, पृष्ठ 15
[35] वही, पृष्ठ 13
[36] वही, पृष्ठ 18
[37] वही, पृष्ठ 28
[38] वही, पृष्ठ 29
[39] वही, पृष्ठ 30
[40] वही, पृष्ठ 8
[41] वही, पृष्ठ 11
[42] वही, पृष्ठ 23
[43] डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर : राइटिंग्स एंड स्पीचेज, वॉल्यूम 1, 1989, पृष्ठ 61-63
[44] सदियों का संताप, उपर्युक्त, पृष्ठ 24
[45] वही
[46] वही, पृष्ठ 26
[47] वही, पृष्ठ 27
[48] वही

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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