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ईडब्ल्यूएस आरक्षण : केवल ‘सवर्ण’ आरक्षण नहीं

सामाजिक न्याय की धारा भी सवर्णों की तरफ झुकी हुई है। दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की राजनीतिक हैसियत कमजोर पड़ रही है। मंडल उभार ने राजनीति को दलितों-आदिवासियों व पिछड़ों की ओर झुकाया था। वह अब सवर्णों की ओर झुकती जा रही है। सियासत हिंदुत्व की धुरी पर सिमटती जा रही है। बता रहे हैं रिंकु यादव

आर्थिक आधार पर कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था को सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ द्वारा वैध कहे जाने के बाद आरक्षण को लेकर तमाम तरह की बहसें शुरू हो गई हैं। 

आजाद मुल्क में 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू होने के साथ ही दलितों व आदिवासियों को क्रमश: अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के रूप में 15 प्रतिशत तथा 7.5 प्रतिशत आरक्षण मिल गया था। यह आरक्षण सरकारी सेवाओं, विधायिका व उच्च शिक्षा में भी लागू था। जबकि पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण का सवाल लंबे समय तक अटका कर रखा गया। करीब 40 साल बाद 7 अगस्त, 1990 को मंडल कमीशन की सिफारिश के आधार पर सरकारी सेवाओं में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने की थी। 

जब यह हुआ तब इसका विरोध ऊंची जातियों के लोगों द्वारा हिंसक व अहिंसक दोनों रूपों में सामने आया। फिर यह मामला सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में लाया गया, जिसकी नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने ओबीसी आरक्षण के पक्ष में फैसला तो दिया लेकिन उसने क्रीमी लेयर की शर्त जोड़ दी। प्रारंभ में कहा गया कि एक लाख रुपए या इससे अधिक की आय प्रति वर्ष अर्जन करनेवाले ओबीसी परिवारों के युवाओं को ‘क्रीमी लेयर’ की श्रेणी में रखा जाएगा और वे आरक्षण के हकदार नहीं होंगे। अब यह सीमा साढ़े आठ लाख रुपए प्रति वर्ष है। इस तरह इसके साथ ही आरक्षण का आधार आर्थिक बन जाने का रास्ता भी खुल गया। जबकि यह संविधान में आरक्षण की अवधारणा के खिलाफ था। यहां तक कि ओबीसी को संविधान में ‘सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा के रूप’ में स्वीकार किया गया है। 

वहीं, मंडल कमीशन ने आरक्षण से संबंधित अपनी सिफारिश में साफ तौर पर कहा था कि आरक्षण का मूल लाभ यह नहीं है कि ओबीसी में समतावादी समाज उभरकर सामने आएगा, लेकिन इससे निश्चित रूप से ऊंची जातियों का सेवाओं में कब्जा खत्म होगा।

खैर, पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण के मिलने के साथ ही ‘मंडल उभार’ का ही परिणाम रहा कि दलितों-आदिवासियों के साथ पिछड़ों की बनती-बढ़ती एकजुटता के केंद्र में आरक्षण व सामाजिक न्याय का प्रश्न एक-दूसरे को जोड़नेवाली कड़ी के बतौर सामने आया। सवर्ण विशेषाधिकार व प्रभुत्व पर 52 प्रतिशत आबादी वाले पिछड़ों के उभार से पड़ रहे चोट और ब्राह्मणवाद के लिए बड़े खतरे की संभावना को आरएसएस ने भांप लिया। उसने इसे शूद्र क्रांति की संज्ञा दी और इससे निपटने की चुनौती रेखांकित की। इस प्रतिक्रांति का मकसद ही मंडल उभार से आगे बढ़ी पिछड़ों की सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक हैसियत को ठिकाने लगाने और अंतत: जाति प्रश्न को दबा देने के रास्ते ही आगे बढ़ते हिंदू राष्ट्र तक पहुंचना है।

ध्यातव्य है कि 8 जनवरी, 2019 को लोकसभा में 103 वां संविधान संशोधन बिल पेश हुआ। आनन-फानन में प्रक्रिया आगे बढ़ी और 14 जनवरी, 2019 से आर्थिक आधार पर ईडब्ल्यूएस के लिए दस फीसदी आरक्षण लागू कर दिया गया। आर्थिक आधार पर सवर्णों को आरक्षण देना शूद्र क्रांति के खिलाफ प्रतिक्रांति का एक चरण पूरा हो जाना ही है।

ईडब्ल्यूएस आरक्षण से सामाजिक न्याय पर करारा प्रहार

अब इसका अगला चरण शुरु हुआ है। यह सामाजिक व राजनीतिक जीवन पर गहरा असर डालने जा रहा है। सनद रहे कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण के लिए किसी कमीशन की जरूरत नहीं पड़ी। न्यायालयों में याचिकाएं दायर हुईं। लेकिन यह लागू रहा। अब संविधान बचाने के राजनीतिक नारे के शोर के बीच ही ईडब्ल्यूएस से संबंधित 103वें संविधान संशोधन को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने गत 7 नवंबर, 2022 को संवैधानिक बता दिया।

सवाल उठता है कि ऐसा न्यायादेश देकर पीठ ने भी संविधान के पक्ष के बजाय सवर्ण विशेषाधिकार व प्रभुत्व के संरक्षक की भूमिका नहीं निभायी?

दरअसल, इसे भाजपा-आरएसएस की प्रतिक्रांति और हिंदू राष्ट्र बनाने के एजेंडे के तहत ईडब्ल्यूएस आरक्षण को वैध बनाकर संविधान के मूल ढ़ांचे को तोड़ने-बदलने और मनु का विधान थोपने की कार्रवाई के रूप में देखा जाना चाहिए, क्योंकि संविधान के मूल ढ़ांचे से ही सामाजिक न्याय को निकाल फेंकने की दिशा में ही यह कार्रवाई हुई है। यह सामाजिक न्याय पर मरणांतक प्रहार है। सवर्ण विशेषाधिकार व प्रभुत्व की गारंटी है। 

पहले भी दलितों, आदिवासियों व पिछड़ों के सवाल, खासतौर पर आरक्षण के मसले पर सुप्रीम कोर्ट सवालों के घेरे में रहा है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भाजपा विरोधी विपक्षी राजनीतिक शक्तियों का संविधान बचाने के नारे का शोर संविधान संशोधन के दौर की अपेक्षा और भी कमजोर सुनाई पड़ रहा है। जरूर ही तमिलनाडु से डीएमके के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन की सुसंगत व स्पष्ट आवाज मुखर हो रही है। उन्होंने लंबे समय से चल रहे सामाजिक न्याय के संघर्ष के लिए इसे झटका बताते हुए ईडब्ल्यूएस आरक्षण का सीधे तौर पर विरोध किया है तथा अपने राज्य में लागू करने से इंकार कर दिया है। इनके अलावा शेष का स्वर स्वागत का है, सहमति का है, चुप्पी का है या फिर कतराकर निकल जाने का है। कांग्रेस तो ईडब्ल्यूएस आरक्षण का श्रेय लेने के लिए भाजपा से होड़ करती सामने आई। भाजपा विरोधी गैर पार्टी शक्तियों के बीच से भी विरोध का स्वर क्षीण है। डीएमके के बाद केवल भाकपा-माले ने सुसंगत व स्पष्ट राजनीतिक स्टैंड लिया है। राष्ट्रीय जनता दल भी बैकफुट पर आ गया है। ब्राह्मणवाद से लड़ने का दावा करने वाले बहुजन आंदोलन के कतारों के बीच भी कमोबेश चुप्पी है, निष्क्रियता है।

दरअसल, 2014 में नरेंद्र मोदी का सत्ता में आना आरएसएस-भाजपा की प्रतिक्रांति के नये मंजिल में प्रवेश करने का एलान ही था। परिणाम यह हुआ कि संविधान व लोकतंत्र को ही बचाने का सवाल मुल्क के सामने आ गया। जरूर ही, कांग्रेस से लेकर विभिन्न क्षेत्रीय दलों, सामाजिक न्याय की राजनीतिक धाराओं और वामपंथी राजनीतिक धाराओं से लेकर विविध रंग की लोकतांत्रिक शक्तियां तक संविधान बचाने की बात कर रही हैं। लेकिन, संविधान बचाने के राजनीतिक निहितार्थ सबके अलग-अलग हैं। उनके संदर्भ अलग-अलग है। 

गौरतलब है कि 2019 के चुनाव से पूर्व जब नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा 103वें संविधान संशोधन को अंजाम दिया जा रहा था तो उस समय भी विपक्ष की ओर से लोकसभा-राज्यसभा में विरोध का स्वर क्षीण ही था। इस संशोधन के खिलाफ लोकसभा में 3 और राज्यसभा में 7 वोट पड़े थे। संसद से बाहर सड़क पर भी किसी राजनीतिक पार्टी ने इस बड़े हमले के खिलाफ जवाबी मोर्चा नहीं लिया।

स्पष्ट है कि लेफ्ट से राइट तक के संविधान बचाने के नारे से सामाजिक न्याय गायब है। सामाजिक न्याय की धारा भी सवर्णों की तरफ झुकी हुई है। दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की राजनीतिक हैसियत कमजोर पड़ रही है। मंडल उभार ने राजनीति को दलितों-आदिवासियों व पिछड़ों की ओर झुकाया था। वह अब सवर्णों की ओर झुकती जा रही है। सियासत हिंदुत्व की धुरी पर सिमटती जा रही है। सवाल है कि क्या हिंदुत्व की राजनीति के मन-मिजाज अनुरूप ढ़लकर विपक्षी राजनीति संविधान को बचा सकती है?

गौर कीजिए कि 2019 में फिर से नरेंद्र मोदी को मिली ऐतिहासिक जीत के बाद बहुतेरे टिप्पणीकार मंडल राजनीति के अंत की घोषणा कर रहे थे। कहा जा रहा था कि नरेंद्र मोदी में जातियों का मकड़जाल तोड़ने की ताकत है तो खुद मोदी ने भी कहा कि “अब देश में सिर्फ दो ही जाति रहने वाली है और देश इन दो जातियों पर ही केंद्रित रहने वाला है। 21वीं सदी में भारत में एक जाति है गरीब और दूसरी जाति है देश को गरीबी से मुक्त कराने के लिए कुछ न कुछ योगदान देने वालों की।” जाति की इस नई परिभाषा में जाति को नकारा गया। जाति के प्रश्न को नकारने का मतलब है सामाजिक न्याय के एजेंडा व अवधारणा पर सवाल खड़ा करना। सामाजिक न्याय की राजनीति के अंत का विमर्श जाति के सवाल व सामाजिक न्याय के विमर्श के अंत से ही जुड़ता है। 

नरेंद्र मोदी ने जाति की इस परिभाषा में वर्ग संघर्ष की अवधारणा को भी निशाने पर लिया और आर्थिक बराबरी के संघर्ष पर प्रश्न चिन्ह खड़ा किया। वैसे भी मोदी अक्सरहां जातिवाद व जातिवादी राजनीति को निशाने पर लेते हैं और विकासवाद की बात करते हैं। अभी कुछ दिनों पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि “जाति व्यवस्था अतीत है और उसे भुला देना चाहिए”। 

ऐसे में मोदी से लेकर भागवत तक के बयानों के निहितार्थ साफ हैं। दरहकीकत हिंदुत्व की राजनीति सामाजिक न्याय की चेतना और पूंजीवाद विरोधी वर्गीय चेतना के अवरोध को खत्म करते हुए ही आगे बढ़ सकती है। इसके लिए जरूरी है कि जाति के प्रश्न और वर्ग संघर्ष की अवधारणा को दबा दिया जाए।

ईडब्ल्यूएस आरक्षण के जरिए सवर्ण विशेषाधिकार व प्रभुत्व को पुनर्स्थापित करने व स्थायित्व देने की केवल गारंटी नहीं हुई है, बल्कि सामाजिक न्याय की विचारधारा व राजनीति पर भी बड़ा हमला हुआ है। स्थापित राजनीतिक अवधारणाओं को क्षतिग्रस्त किया गया है। सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय को गड्डमड्ड कर दिया गया है। सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय की परिभाषा को बदल दिया गया है। अलग-अलग समस्याओं के चरित्र के अनुरूप उसके समाधान के लिए तय नीतियों-कार्यक्रमों की अंतर्वस्तु को बदल कर हिंदुत्व के डिजाइन में पेश किया गया है। हिंदुत्व के विरोधी उत्पीड़ित पहचानों पर जोरदार चोट किया गया है। इन पहचानों के आधार सामाजिक न्याय व आरक्षण की अवधारणा को क्षतिग्रस्त करने के साथ सामाजिक न्याय के संघर्ष की बुनियाद पर हमला बोला गया है। परिणामस्वरूप खासतौर पर मंडल-बहुजन राजनीति के समक्ष अस्तित्व बचाने का प्रश्न खड़ा हो गया।

ईडब्ल्यूएस आरक्षण बुनियादी तौर पर सवर्ण आरक्षण है। सवर्णों को आरक्षण देने का आर्थिक आधार के सिवा और कोई आधार नहीं बन सकता है। आरक्षण को गरीबी उन्मूलन के उपकरण में बदलकर ही उसका उपयोग सवर्ण विशेषाधिकार व प्रभुत्व की गारंटी के लिए हो सकता है। लेकिन, आरक्षण को सामाजिक न्याय के उपकरण के बजाय आर्थिक कल्याण या गरीबी उन्मूलन के उपकरण के बतौर पेश करने के जरिए आरक्षण की अवधारणा बदल दी गयी, उसका सार बदल दिया गया। अंतत: इसके जरिए संविधान के मूल ढ़ांचे से सामाजिक न्याय को निकाल बाहर निकाल फेंका गया। जबकि यह सच है कि आरक्षण के उपकरण से गरीबी उन्मूलन या आर्थिक कल्याण संभव नहीं है। गरीबी जैसी आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए बढ़ते कॉरपोरेट लूट पर अंकुश लगाने और अर्थनीति को बदलने की जरूरत है।

लेकिन आर्थिक सवाल के जवाब में आरक्षण को पेश कर दिया गया है। आरक्षण का आर्थिक समस्याओं के समाधान के उपकरण के बतौर वैधानिक बन जाने से इस धारणा को बल मिलेगा कि यह गरीबी उन्मूलन का कार्यक्रम है। इस गलत धारणा के एससी, एसटी व ओबीसी के बीच जमने से सामाजिक न्याय की लड़ाई कमजोर ही पड़ेगी। यह सामाजिक न्याय की चेतना और वर्गीय चेतना दोनों को कुंद करेगा। भिखारी चेतना पैदा करने और नागरिकों को अधिकारविहीन कर लाभार्थी बनाने का रास्ता साफ होगा। सामाजिक-आर्थिक विषमता विरोधी लड़ाई के सामने चुनौती है। चाहे सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाली ताकतें हों या आर्थिक न्याय की लड़ाई की ताकतें हों, वाम आंदोलन या बहुजन आंदोलन, ईडब्ल्यूएस आरक्षण से कतराकर आगे बढना घातक होगा। इसके खिलाफ उन्हें मैदान में उतरना होगा। साथ ही सामाजिक-आर्थिक न्याय के सवालों को संपूर्णता में संबोधित करना ही होगा। वाम और बहुजन आंदोलन का एकांगीपन इस चुनौती का मुकाबला नहीं कर सकता।

एक और अजीब विडंबना है कि संविधान को बदलने और सामाजिक न्याय को ठिकाने लगाने के दरम्यान 50 प्रतिशत सीमा के कथित तौर पर खात्मे पर सामाजिक न्याय के लिए आगे का रास्ता खुलता हुआ कुछ लोगों को दीख रहा है। हमले को भूलकर बहुतेरे प्रसन्नता व्यक्त कर रहे हैं। राजनीतिक दायरे से नई संभावनाओं का रास्ता खुलने की बात हो रही है। बिहार में राजद और जदयू ने सवर्ण आरक्षण के विरोध से कतराकर ओबीसी के लिए आबादी के अनुपात में आरक्षण और जातिवार जनगणना के सवाल को उठा भी दिया है। इसी बीच झारख़ंड के हेमंत सोरेन सरकार ने आरक्षण की सीमा बढ़ा दी है। भाजपा विरोधी राजनीतिक शक्तियों के बीच से जातिवार जनगणना कराने, ओबीसी आरक्षण बढ़ाने सहित निजी क्षेत्र में आरक्षण जैसे सवाल उठाये जा रहे हैं। न्यायपालिका में नीचे से ऊपर तक एससी, एसटी व ओबीसी के आरक्षण का सवाल भी महत्वपूर्ण हो उठा है। यह न्यायपालिका के ब्राह्मणवादी चरित्र को बदलने की जरूरी शर्त भी है। जरूर ही तात्कालिक तौर पर आगे का रास्ता खुलता हुआ, लड़ाई आगे बढ़ती हुई दिख रही है। सामाजिक न्याय के प्रश्नों पर संघर्ष में आवेग पैदा होने की संभावना दिख रही है। लेकिन यह भी संभावना है कि लड़ाई के आगे का रास्ता और दूर तक की यात्रा मुश्किल व जटिल हो जाए, क्योंकि संविधान के अंदर सामाजिक न्याय की जड़ों को खोद दिया गया है, सामाजिक न्याय की लड़ाई की दृष्टि व ताकत के स्त्रोत को क्षतिग्रस्त कर दिया गया है।

खैर, यह भविष्य के गर्भ में है कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण के खिलाफ लड़ने से कतराकर सामाजिक न्याय का रास्ता खुलेगा या सामाजिक न्याय की लड़ाई अंधेरी सुरंग में फंसेगी? क्या ईडब्ल्यूएस आरक्षण हिंदू राष्ट्र, मनुविधान व ब्राह्मणोक्रेसी के लिए मील का पत्थर साबित होगा? इसे केवल तात्कालिक चुनावी हार-जीत के चश्मे से मत देखिए।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

रिंकु यादव

रिंकु यादव सामाजिक न्याय आंदोलन, बिहार के संयोजक हैं

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