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फुलेवाद और मार्क्सवाद के बीच साम्यता के विविध बिंदु (पहला भाग)

मार्क्स ने कहा कि शोषणकारी वर्ग व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए वर्ग व्यवस्था से सर्वाधिक पीड़ित अर्थात कामगार लड़ेगा। वहीं फुले ने कहा कि वर्ण-जाति आधारित व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए शूद्र, अतिशूद्र और स्त्री घटक के रूप में लड़ेगा। फुले ने इसे अपने कृत्यों से साबित भी किया। पढ़ें, प्रो. श्रावण देवरे के आलेख का पहला भाग

जब हम किसी भी आंदोलन पर चर्चा करते हैं तो सबसे पहले उस आंदोलन को खड़ा करने वाले व्यक्ति का उल्लेख करते हैं, जिसके कारण उस विचारधारा वआंदोलन का आगाज होता है। फुलेवाद, आंबेडकरवाद, मार्क्सवाद, गांधीवाद आदि आंदोलनों विचारधाराओं को इसी तर्ज पर पहचाना जाता है। उसके बाद उस आंदोलन के विभिन्न आयाम व उपलब्धियों की बातें कही जाती हैं। 

किसी भी विचारधारा को तत्वज्ञान का दर्जा प्राप्त करने के लिए जिन अनेक कसौटियों से पार पाना होता है, उनमें से एक है उनका वैश्वीकरण! मानवीय समाज व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन घटित करके मनुष्य को प्रगति के अगले मोड़ तक ले जाने में सहायक सिद्ध होने वाली विचारधारा को तत्वज्ञान के रूप में समझ जाना चाहिए। इस आधार पर देखें तो पूंजीवादी लोकशाही का तत्वज्ञान भारतीय समाज के संदर्भ में गांधीवाद के रूप में जाना जाता है। वहीं वर्ण, जातिव्यवस्था के अंत का तर्कसंगत विचारसिद्धांत प्रस्तुत करके  कुछ हद तक सफलता पानेवाला आंदोलन व विचारधारा फुले विचार अथवा फुलेवाद आंबेडकर विचार या आंबेडकरवाद के रूप में जाना जाता है। 

यदि हम फुलेवाद की बात करें तो इसका मुख्य उद्देश्य है– वर्ण-जाति आधारित  व्यवस्था को खत्म कर उसकी जगह समतावादी व पूंजीवादी लोकशाही स्थापित करना। जोतीराव फुले ने इसकी वैचारिकी के संबंध में मूलभूत सिद्धांत प्रतिपादित किये थे। उनका पहला मूलभूत सिद्धांत था– ब्राह्मण व गैर-ब्राह्मण के बीच संघर्ष का सिद्धांत। वे मानते थे कि “बलि राजा के पतन के बाद भारतीय इतिहास ब्राह्मणगैर ब्राह्मण के बीच के संघर्ष का इतिहास है।” सनद रहे कि जिस समय कार्ल मार्क्स अपनी मार्क्सवादी तत्वज्ञान का पहला सिद्धांत प्रस्तुत कर रहे थे, उसी समय जोतीराव फुले अपने फुलेवाद का पहला सिद्धांत प्रस्तुत कर रहे थे और उस पर अमल भी कर रहे थे।

आप देखें कि मार्क्सवाद का पहला सिद्धांत है– “प्राथमिक साम्यवादी समाज के पतन के बाद दुनिया का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है।” 

फुले और मार्क्स के उपरोक्त दोनों सिद्धांतों में इतनी समानता है कि प्रथम दृष्टि में ऐसा लगता है कि इन दोनों महापुरुषों की मुलाकात हुई होगी और दोनों ने मिलबैठकर आपस में चर्चा कर ये सिद्धांत तैयार किए होंगेलेकिन यह सच नहीं है, क्योंकि मार्क्स   फुले कभी एकदूसरे से नहीं मिले और कभी एकदूसरे का भाषण भी नहीं सुने। उन्होंने एकदूसरे की पुस्तकें लेख भी नहीं पढ़े और फिर भी इन दोनों महापुरुषों की विचार प्रक्रिया तंतोतंत जुड़ती हैं। 

जोतीराव फुले व कार्ल मार्क्स

दरअसल, मानव समाज का विकास अनेक स्तर अनेकानेक विधियों के तहत होने के बावजूद उसकी दिशा सतत आगे बढ़ने वाली होने के कारण समकालीन विचारधाराओं में तत्वज्ञानों में समानता होना स्वाभाविक है।

मार्क्स के सामने वर्ग समाज था, इसलिए वह अपने सिद्धांत में वर्गीय संकल्पना प्रस्तुत किया और फुले के सामने जाति आधारित समाज था तो उन्होंने वर्णजातीय संकल्पना प्रस्तुत की। 

मार्क्स एवं फुले में जो यह साम्यता दिखती है, उनमें उनके द्वारा रखा गया ऐतिहासिक भौतिकवाद एक महत्वपूर्ण तत्वज्ञान का हिस्सा है। मार्क्स ने अपनी सैद्धांतिकी में प्राथमिक साम्यवादी समाज के बारे में बताया है। उनके मुताबिक यह समाज पूर्णतया वर्गविहीन समतावादी समाज था। उसी प्रकार जोतीराव फुले बलि के राज के बारे में बताते हैं कि यह राज्य जातिविहीन स्त्रीपुरुष के बीच समतावादी समाज था।

मार्क्स को अपना आदर्श मॉडल प्राथमिक साम्यवादी समाज लगता था, तो फुले को बलि का राज्य आदर्श मॉडल लगता था। मार्क्स अपना सिद्धांत सिद्ध करने के लिए मालिक-दास, व पूंजीपति बनाम कामगार आदि वर्गीय संघर्ष का उदाहरण देते हैं। तात्यासाहब के सामने वर्णजातीय समाज होने के कारण उन्होंने बलि राजा बनाम वामन, एकलव्य बनाम द्रोणाचार्य, शंबूक बनाम राम, कर्ण बनाम परशुराम और अर्जुन जैसे अनेक वर्ण-जातीय संघर्ष के उदाहरण दिए। 

फुले नेगुलामगिरीग्रंथ में विष्णु के दशावतारों की वैज्ञानिक समीक्षा की और कहा कि यह वर्णजातीय संघर्ष ऐतिहासिक भौतिकवाद का हिस्सा है।

मार्क्स ने जिस तरह मूलभूत शोषणशासन की व्यवस्था के जड़ में वर्ग आधारित व्यवस्था को बताया, जोतीराव फुले ने वर्णजाति व्यवस्था को मूल कारण बताया। इन दोनों सामाजिक व्यवस्थाओं के विरोध में लड़ेगा कौन? इसके बारे में भी फुले और मार्क्स में कमाल की साम्यता है।

मार्क्स ने कहा कि शोषणकारी वर्ग व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए वर्ग व्यवस्था से सर्वाधिक पीड़ित अर्थात कामगार लड़ेगावहीं फुले ने कहा कि वर्णजाति आधारित व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए  शूद्र, अतिशूद्र और स्त्री घटक के रूप में लड़ेगा। फुले ने इसे अपने कृत्यों से साबित भी किया। उनके क्रांतिकारी कार्यों की शुरुआत लड़कियों अस्पृश्यों के लिए स्कूल खोलने से हुई। 

गुरु फुले के इस वर्णजाति संघर्षों के सिद्धांत का विकास आगे चलकर डॉ. आंबेडकर करते हैं।बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर : राइटिंग्स एंड स्पीचेस’ के पांचवें खंड के पृष्ठ संख्या 112-115 पर एक चार्ट के माध्यम से यह बताया गया है। डॉ. आंबेडकर वर्णजाति आधारित युद्ध का सिद्धांत समझाते हुए बताते हैं कि वर्णजाति युद्ध में एक शत्रु पक्ष ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य वर्णों से निकली जातियों से बना है। इस जाति युद्ध में दूसरे पक्ष का नेतृत्व अस्पृश्य करते हैं और शूद्र (ओबीसी) इनका स्वाभाविक मित्र है। 

जोतीराव फुले और मार्क्स दाेनों ने धर्म की एक समान व्याख्या की है। जिस प्रकार मार्क्स धर्म को अफीम की गोली बताकर ही नहीं रुकते, बल्कि यह भी कहते हैं कि धर्म ने भी मानव विकास के विशेष स्तर पर प्रगतिशील भूमिका निभाई है। उसी प्रकार फुले वर्णजाति व्यवस्था के लिए ब्राह्मणी वैदिक धर्म को दोषी ठहराते है। लेकिन वे  बौद्ध, जैन वगैरह धर्मों को प्रगतिशील मानते हैं।

वर्ग व्यवस्था नष्ट करने के लिए शोषित वर्ग में वर्गीय चेतना का निर्माण होना आवश्यक है। यह वर्गीय चेतना इतनी तीव्र होनी चाहिए कि वह संघर्ष के लिए प्रवृत्त हो उसके लिए वर्गीय संगठन खड़े करने पड़ते हैं। इस वर्गीय चेतना को संघटित करके उसे क्रांति का मार्ग दिखानेका काम राजनीतिक पार्टी करती है। सोवियत रूस में कामगार संगठनों ने क्रांति की, वहीं चीन में किसान संगठनों ने क्रांति की। इन दोनों राष्ट्रों की कम्युनिस्ट पार्टियों ने यह क्रांति करके दिखाई।

फुलेवाद मार्क्सवाद यहां एकदूसरे से दूरी बनाते हुए फिर से एकत्र आते हुए दिखाई देते हैं। जाति व्यवस्था नष्ट करने के लिए शोषित जातियों में जातीय चेतना का निर्माण होना चाहिए, लेकिन उसके लिए जातीय संगठन खड़ा करने की आवश्यकता नहीं, बल्कि सत्यशोधक समाज जैसे सर्वजातीय संगठन निर्माण करके प्रबोधन के माध्यम से जातीय चेतना का निर्माण करना और उसी माध्यम से जाति-व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करने हेतु प्रेरित करना फुलेवाद का संघर्ष सूत्र है। जाति-चेतना का निर्माण करने के लिए यह प्रबोधन आवश्यक है। ऐसे प्रबोधन से सिर्फ सामाजिक और सांस्कृतिक संघर्ष हो सकता है। क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए पग-पग संघर्ष आवश्यक होता है। यह संघर्ष कौन और केसे करेगा? इस बारे में भी फुलेवाद मार्क्सवाद में फिर से साम्यता दिखाई देती है।

मसलन, रास्ते के संघर्ष के लिए फुलेवाद शुद्ध वर्गीय संगठन का मार्ग स्वीकार करता है। फुले के शिष्य भालेराव किसान संगठन खड़ा करते हैं और दूसरे फुले शिष्य लोखंडेजी कामगार संगठन का निर्माण करते हैं। जातीय प्रबोधन और वर्गीय संगठन इन दो अलगअलग माध्यमों से ही जाति के विनाश हेतु युद्ध लड़ा जा सकता है। यही है फुलेवाद का क्रांतिकारी सिद्धांत।

क्रमश: जारी

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

श्रावण देवरे

अपने कॉलेज के दिनों में 1978 से प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े श्रावण देवरे 1982 में मंडल कमीशन के आंदोलन में सक्रिय हुए। वे महाराष्ट्र ओबीसी संगठन उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने 1999 में ओबीसी कर्मचारियों और अधिकारियों का ओबीसी सेवा संघ का गठन किया तथा इस संगठन के संस्थापक सदस्य और महासचिव रहे। ओबीसी के विविध मुद्दों पर अब तक 15 किताबें प्राकशित है।

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