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बीसवीं सदी के अंतिम दशक की दलित कविता (तीसरा भाग)

कंवल भारती की आलेख शृंखला ‘हिंदी दलित कविता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य’ की छठी कड़ी के तीसरे भाग में पढें मलखान सिंह के कविता संघर्ष का विश्लेषण

पिछली कड़ी के आगे

मलखान सिंह का कवितासंघर्ष

बीसवीं सदी के अंतिम दशक के पूर्वार्द्ध में दलित कविता के दो नये हस्ताक्षर प्रकाश में आये– मलखान सिंह और जयप्रकाश कर्दम। मलखान सिंह का कविता संग्रह ‘सुनो ब्राह्मण’ 1996 में मुरादाबाद उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बे चंदौ से प्रकाशित हुआ और जयप्रकाश कर्दम का कविता-संग्रह ‘गूंगा नहीं था मैं’ 1997 में दिल्ली से प्रकाशित हुआ। इसी समय ओमप्रकाश वाल्मीकि का दूसरा कविता-संग्रह ‘बस्स, बहुत हो चुका’ भी प्रकाशित हुआ। इन तीनों कविता संकलनों की विशेषता यह है कि इनमें दलित कविता के संघर्ष के साथ-साथ उनके कवियों का आत्म-संघर्ष भी अभिव्यक्त हुआ है।

मलखान सिंह के कविता-संग्रह ‘सुनो ब्राह्मण’ का प्रकाशन 1996 में ‘परिवेश’ (चंदौसी) पत्रिका की ओर से हुआ था, और उसी के द्वारा 25 फ़रवरी 1996 को देहरादून में उसका विमोचन हुआ था। पर, दलित साहित्य के क्षेत्र में उनकी कविताओं का कोई नोटिस नहीं लिया गया, यहां तक कि ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी उनकी कविताओं को जनवादी कहकर नकार दिया था। विमोचन के अवसर पर भी यद्यपि मार्क्सवादी लेखकों ने दलित साहित्य पर चर्चा की थी, पर वे मार्क्सवादी बाद में थे, सवर्ण पहले थे। इसलिये, उन्होंने न तो ‘सुनो ब्राह्मण’ की कविताओं पर कोई चर्चा की और न दलित साहित्य को स्वीकार किया। काशीनाथ सिंह ने तो यहां तक कहा कि ‘हिंदी में दलित लेखक हैं, दलित साहित्य नहीं है। उनका मत था कि यदि आम आदमी का मतलब दलित आदमी नहीं है, तो उसकी साहित्य में चर्चा साठ के दशक से शुरु हो गयी थी। उनकी बहुत ही तल्ख टिप्पणी थी कि कुछ लोग इस तरह की बात कर रहे हैं कि दलित लेखकों द्वारा लिखा जाने वाला साहित्य ही दलित साहित्य है, यदि इस बात को सही मान लिया जाये, तो कबीर, रैदास आदि की संत परंपरा को इसमें क्यों नहीं गिना जाता?[1] विद्यासागर नौटियाल की टिप्पणी थी कि “किसी चिंतन को इसलिये खारिज कर दिया जाय कि वह दलित वर्ग में पैदा हुए व्यक्ति का चिंतन नहीं है, तो यह स्वीकार्य नहीं है।”[2] और तो और, अपने को दलितों का लेखक कहने वाले अनिल चमड़िया तक का यही बयान था कि “हिंदी क्षेत्र में दलित लेखक का सवाल कहां से उठा और इस आंदोलन के सूत्रधार कौन हैं? इस पर सोचा जाना चाहिए कि ये हमें कहां ले जाना चाहते हैं?”[3] स्पष्ट है कि नब्बे के दशक तक ये लेखक दलित परंपरा और साहित्य के बारे में कुछ नहीं जानते थे। ये सारे अज्ञानता भरे वक्तव्य ऐसे मंच से आये, जिस पर दलित कवि मलखान सिंह के ‘सुनो ब्राह्मण’ कविता-संग्रह का विमोचन डी. प्रेमपति के द्वारा किया गया था। विमोचन के बाद मलखान सिंह ने अपने वक्तव्य में यह स्पष्ट कर दिया था कि दलित आंदोलन का विरोध “पतित पावन ब्राह्मणों की अपेक्षा समाजवादी और नवब्राह्मणों से अधिक है, ब्राह्मण व्यक्ति से नहीं।”[4] मलखान सिंह ने यह बड़े पते की बात कही थी। जो ‘पतित पावन’ कर्मकांडी और सनातनी ब्राह्मण हैं, उनके कान में किसी आवाज का असर नहीं होने वाला है। विरोध उन ब्राह्मणों से है, जो छद्मवेशी हैं– प्रगतिशील का मुखौटा लगाये हुए हैं।

‘सुनो ब्राह्मण’ का पहला संस्करण जल्दी समाप्त हो गया और 1997 में उसका दूसरा संस्करण मलखान सिंह को निकलवाना पड़ा। दूसरे संस्करण की भूमिका में उन्होंने लिखा, “मेरी कविताएं मेरी भोगी हुई यातनाएं हैं। इन्हें लिखते समय कभी मैं रोया हूं, कभी क्रोध से पागल हो उठा हूं, तो कभी अनायास किसी सार्थक बिंब के हाथ आ जाने पर बच्चों की तरह किलकारी मार घंटों हंसा हूं।” यह उनकी रचना-प्रक्रिया भी है और आत्म-संघर्ष भी।[5]

‘सुनो ब्राह्मण’ शीर्षक कविता संकलन की अंतिम कविता है, जैसे कवि ने अंतिम समाधान दिया हो। लेकिन, सच यह है कि उसकी हर कविता ब्राह्मण को संबोधित है। कवि ने बहुत सोच-समझकर संकलन का नाम ‘सुनो ब्राह्मण’ रखा है। वह जानता है कि इस देश में यदि कोई बुद्धिजीवी है, तो ब्राह्मण है, सामंत नहीं है। ब्राह्मण और सामंत का गठजोड़ है। ब्राह्मण से सामंतवाद है और सामंत से ब्राह्मणवाद है। मलखान सिंह ने इस मर्म को गहराई से समझा और उन समाजवादियों को आईना दिखाया, जिनके लिये ब्राह्मणवाद से ज्यादा सामंतवाद महत्व रखता है और सामंतवाद से ज्यादा पूंजीवाद।

अधिकांश दलित कवि गांवों की पृष्ठभूमि से आये हैं। मलखान सिंह की पृष्ठभूमि भी गांव की है। पर, जिस तरह से गांव उनकी कविताओं में आता है, वह इससे पहले के किसी दलित कवि में नहीं आया। सूरजपाल चौहान की ‘प्रयास’ (1994) में गांव पर दो कविताएं हैं, पर दोनों में गांव चौपाल पर रखा हुक्का, नीम की ठंडी छांव और अमिया की चटनी के साथ चूल्हे की रोटी तक ही सिमटा हुआ है। उनमें दलितों के गांवों का वह यथार्थ नदारद है, जिसमें उनकी पशुओं से भी बदतर जिंदगी थी।

गांव की सामंतवादी अलोकतांत्रिक व्यवस्था से दलित कविता का संघर्ष हमें पहली दफा ‘सुनो ब्राह्मण’ में ही दिखायी देता है। मलखान सिंह अपनी पहली कविता ‘मैं आदमी नहीं हूं’ से अंतिम कविता ‘सुनो ब्राह्मण’ तक में हमें दलितों के उसी गांव से रू-ब-रू कराते हैं, जिसे डॉ. आंबेडकर ने ‘घेटो’ की संज्ञा दी है।[6] वे इस दौर के पहले ऐसे कवि हैं, जिन्होंने आदमी और दलित के बीच के फर्क को उभारा और आम आदमी के नाम पर लिखी जा रही समकालीन जनवादी कविता को जबरदस्त चुनौती दी। नागार्जुन जैसे (मार्क्सवादी) जनकवि में हमें दलित पीड़ा की वह अनुभूति नहीं मिलती, जो मलखान सिंह की इस कविता में मिलती है–

मैं आदमी नहीं हूं स्साब
जानवर हूं
दो पाया जानवर
जिसकी पीठ नंगी है।
कंधों पर/ फैला है/ गट्ठर है
मवेशी का ठठ्ठर है।
खाने को जूठन है
पोखर का पानी है
फूस का बिछौना है
चेहरे पर
मरघट का रोना है।[7]

ये पंक्तियां ‘मैं आदमी नहीं हूं – एक’ की हैं। इसमें दलित ‘दो पाया जानवर है’, जिसकी ‘पीठ नंगी’ है। ‘पीठ नंगी’ का बिंब गहरे अर्थ वाला है। जानवर की पीठ को भी उसका मालिक ढंक देता है, पर दलित वह जानवर है, जिसकी पीठ कोई नहीं ढंकता। उसकी पीठ पर किसी का हाथ नहीं है। न व्यवस्था का और न सत्ता का। उसे बात-बात में मां-बहन की गालियां और बैल की तरह काम करने पर मजूरी में सिर्फ सत्तू मिलता है। मुंह खोलने पर मारने की धमकी। ‘मैं आदमी नहीं हूं – दो’ में यह सामंती चरित्र इस तरह बोलता है–

मुंह खोलने पर
लाल-पीली आंखें दिखा
मुहावरे गढ़ता है
कि गांव का सरपंच
इलाके का दरोगा
मेरे मौसरे भाई हैं
कि दीवाने आम और
खास का हर रास्ता
मेरी चौखट से गुजरता है।[8]

दलित कवि की दृष्टि में ‘गांव’ क्या हैसियत रखते हैं और दलितों को गांव से क्यों डर लगता है, इसके मार्मिक बिंब हमें मलखान सिंह की ‘एक पूरी उम्र’ कविता में मिलते हैं। यथा–

यकीन मानिये
इस आदमखोर गांव में
मुझे डर लगता है
बहुत डर लगता है।
लगता है कि अभी बस अभी
ठकुराइसी मेड़ चीखेगी
मैं अधसौंच ही
खेत से उठ जाऊंगा।
कि अभी बस अभी
हवेली घुड़केगी,
मैं बेगार में पकड़ा जाऊंगा।[9]

मलखान सिंह (30 सितंबर, 1948 – 09 अगस्त, 2019)

‘सफेद हाथी’ कविता में गांव का पूरा दक्खिन टोला मौजूद है, वही दक्खिन टोला, जो दलित वाड़ा कहा जाता है और जिसका कुछ भी नाम हो सकता है– चमरटोला, डोमपाड़ा, आदि कुछ भी। इसी दक्खिन टोले में एक डोमपाड़ा है, जिसका परिचय कवि इन शब्दों में देता है–

गांव के दक्खिन में
पोखर की पार से सटा
यह डोमपाड़ा है
जो दूर से देखने में
ठेठ मेढक लगता है
और अंदर घुसते ही
सूअर की खुडारों में बदल जाता है।[10]

डोमपाड़ा के लोगों के बारे में कवि कहता है–

यहां की कीच भरी गलियों में पसरी
पीली अलसायी धूप देख
मुझे हर बार लगा है कि
सूरज बीमार है या
यहां का प्रत्येक बाशिंदा
पीलिया से ग्रस्त है
इसलिये उनके जवान चेहरों पर
मौत से पहले का पीलापन
और आंखों में
ऊसर धरती का बौनापन
हर पल पसरा रहता है।[11]

यह कविता दलितों की हत्याओं से उपजी है। किसी भी हत्याकांड को इसकी पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है– बेलछी (बिहार, 1977), पारसबीघा (बिहार, 1980), साढ़ूपुर और देहुली (उत्तर प्रदेश), कुम्हेर (राजस्थान) ये सभी नरसंहार अस्सी और नब्बे के दशक में ही हुए थे। इस कविता में हिंदू संस्कृति का जो कथा-बिंब है, वह दलित कविता में इससे पहले कभी नहीं आया। इस में हिंदू सामंतवाद का रक्षक सफेद हाथी के रूप में चित्रित हुआ है, जो मदांध है। उसकी पूंछ से कस कर बांध दिये गये हैं डोमपाड़ा के दलित। यह हाथी मदांध है, लदमद भाग रहा है और दलित गलियों में घिसटते हुए लहुलूहान हो रहे हैं। वे रो रहे हैं और जिंदा रहने की भीख मांग रहे हैं। पूरा गांव तमाशा देख रहा है। कवि कहता है–

गांव तमाशा देख रहा है
और हाथी
अपने खंभे जैसे पैरों से
हमारी पसलियां कुचल रहा है
मवेशियों को रौंद रहा है
झोंपड़ियां जला रहा है
गर्भवती स्त्रियों की नाभि पर
बंदूक दाग रहा है और हमारे
दुधमुंहे बच्चों को
लाल लपलपाती लपटों में
उछाल रहा है।[12]

इसे किसी भी गांव के दक्खिन टोले में स्थित किसी भी दलित बस्ती का संहार कह सकते हैं। सफेद हाथी ने प्रायः सभी जगह ऐसा ही संहार किया है। कवि इसे सामंतशाही का उत्सव बताते हुए कहता है–

इससे पूर्व कि यह उत्सव
कोई नया मोड़ ले ले
हाथी देवालय के
अहाते में आ पहुंचा है।
देवगण प्रसन्न हो रहे हैं
कलियर भैंसे की पीठ चढ़ यमराज
लाशों का निरीक्षण कर रहे हैं
देवताओं का प्रिय राजा
हम मौत से बचे
स्त्री-पुरुष और बच्चों को
रियायतें बांट रहा है
मरे हुओं को मुआवजा दे रहा है।[13]

हिंदू संस्कृति और राजसत्ता के शर्मनाक गठजोड़ को यह कविता जिस तरह ‘सफेद हाथी’, ‘देवालय’, ‘देवता गण’, ‘यमराज’ और ‘देवताओं के प्रिय राजा’ शब्दों के प्रयोग से नंगा करती है, उसमें हम सामंतवाद, ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद के लिये काम कर रही राज्यसत्ता के खिलाफ दलित कविता के संघर्ष को स्पष्ट देख सकते हैं।

गांव को रेखांकित करने वाली उनकी सबसे अच्छी कविता ‘हमारे गांव में’ है, जिसे उन्होंने अब्दुल बिस्मिल्लाह की कविता ‘हमारे मुलुक में’ पढ़ने के बाद लिखा था। मलखान सिंह उन्हें अपने गांव का परिचय इस तरह कराते हैं–

हमारे गांव में भी
कुछ हरि होते हैं
कुछ जन होते हैं
जो हरि होते हैं
वह जन के साथ
न उठते हैं/ न बैठते हैं/ न खाते हैं/
न पीते हैं
यहां तक कि जन की
परछाइ तक से परहेज करते हैं।[14]

वे इस परिचय को और आगे बढ़ाते हुए कहते हैं–

हमारे गांव में नम्रता
जन की खास पहचान है
और उद्दंडता हरि का बांकपन
तभी तो वह बोहरे का लौंडा
जो ढंग से नाड़ा भी नहीं खोल पाता
को दूर से ही आता देख
मेरे बाबा
‘कूंवरजू पांव लागूं’ कहता है
और वह अशिष्ट
अपना हर सवाल
तू से शुरु करता है
तू पर ही खत्म करता है।[15]

मलखान सिंह के गांव में बेगार अभी भी जारी है, भले ही वह “चिलम थमा कर ली जाय/ या लाठी दिखाकर/ दोनों में कोई बुनियादी फर्क नहीं है।”[16] उनके गांव में हरि की सत्ता सर्वोच्च है, जिसके रथ को लथपथ पसीने में जन खींचता है। हरि के कारनामे भी कवि ने खूब गिनाये हैं। वह अपने दुर्ग को बचाने के लिये हर हथकंडा अपनाता है। “कहीं राम नाम ओढ़/ गीर्तन गाता है/ कहीं गिरजा की सीढ़ी से/ रास्ता मोक्ष का दिखाता है/ कहीं मस्जिद में सूअर/ मंदिर में गौकशी करा/ जन-जन के हाथों में गड़ांसे थमाता है।”[17] और अंत में–

हरामखोर
विश्व को कपोत घर
बनाने की बात करता ह
खुद बंजी
हथियारों की करता है
और आजादी तक जाने वाले
हर रास्ते पर
बबूल वन बोता है।[18]

इस कविता में कवि ने हरि और जन का वर्गीकरण सवर्ण और दलित के रूप में नहीं किया है, वरन् शोषक और शोषित के अर्थ में किया है। ‘हरि’ ब्राह्मणवादी व्यवस्था का पोषक है, इसलिये शोषक है, जबकि ‘जन’ वह है, जिसका वह शोषण ही नहीं कर रहा है, बल्कि उसकी आजादी के संघर्ष को कुचल भी रहा है।

जिस एक कविता से मलखान सिंह जनवादी बना दिये गये, वह ‘भूख’ है। यह जनवादी-चिंतन के साथ-साथ दलित-चिंतन की भी विडंबना है कि वह दलित-कविता में जाति की पीड़ा को ही देखना चाहता है, भूख की पीड़ा को नहीं। भूख पर लिखने वाले कवि को वह जनवादी और कम्युनिस्ट कहकर नकार देता है। ऐसे दलित लेखक यह भूल जाते हैं कि यदि गरीबी और भूख उनके पुरखों के पास नहीं होती, तो वे अनुभूतियां उन्हें कहां मिलतीं, जिनका मार्मिक चित्रण उन्होंने अपनी आत्मकथाओं में किया है। यदि ओमप्रकाश वाल्मीकि और सूरजपाल चौहान धनाढ्य परिवार से होते तो क्या वे मैला कमाने जाते और जूठन लाकर खाते? यदि श्यौराज सिंह बेचैन का परिवार धनी होता, तो क्या उन्हें अपने बचपन को अपने कंधों पर ढोना पड़ता? ये वे सवाल हैं, जिन पर दलित लेखकों को मंथन करना होगा। ये सवाल जनवादी या कम्युनिस्ट चिंतन के नहीं हैं, वरन् ये दलित चिंतन के भी असली सवाल हैं। जनवादियों और कम्युनिस्ट चिंतकों के पास इन सवालों के जवाब नहीं हैं, क्योंकि ये आर्थिक व्यवस्था से नहीं, हिंदुओं की धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था से जुड़े सवाल हैं। इन पर दलित चिंतकों को ही विचार करना होगा।

माना कि गरीब होना उतना बुरा नहीं, जितना अछूत होना, और बकौल डॉ. आंबेडकर गरीब आदमी अमीर हो सकता है, पर अछूत हमेशा अछूत रहेगा।[19] लेकिन विज्ञान का सिद्धांत है कि कुछ भी स्थायी नहीं होता है, परिवर्तन संसार का नियम है। व्यवस्थाएं बदली हैं और आगे भी बदलेंगी। दलित कविता में जाति ही प्राथमिकता में क्यों है? क्या दलित को भूख नहीं लगती है? यदि लगती है, तो उस पर दलित लेखक नहीं लिखेगा, तो कौन लिखेगा? मलखान सिंह ‘भूख’ कविता लिखकर दलित कवि नहीं रह गये, यह यदि कोई सोचता है, तो घटिया सोचता है। ‘भूख’ कविता जातीय पूर्वाग्रह के कारण नहीं पढ़ी गयी, जबकि दलित चेतना की वह सबसे मार्मिक और सशक्त कविता है। उसका आरंभ इन पंक्तियों से होता है–

भूख! आंख खुलते ही तुझे
चौखट पर बैठा देखा है
देखा है कि तुझे
आंगन में पसरा देख
मेरी मां फूट-फूट रोई हैं।[20]

क्या इन पंक्तियों में हमें भूखे दलित परिवार का बिंब दिखायी नहीं देता है? क्या भूख ही दलित को घूरे तक खींच कर नहीं ले गयी है? यथा–

भूख! हमारी रात को दर्द
दिन को नासूर बना दिया है तूने
और हमारे वजूद को
घूरे तक खींच लायी है तू।[21]

और भूख से विद्रोह की यह चेतना भी क्या दलित चेतना नहीं है?–

भूख! यहां रोज-रोज
टुकड़ों में मरने से
एक पूरी मौत
मरने की सोची है हमने
अब तू केवल सूअरों का
कलेजा चाक करना सिखा दे
और हमारी बस्ती में टंगी
स्वर्ग की नसैनी तोड़
चूल्हों में जला दे
तब देखना/ इतनी आग उगलेगी
यह धरती कि/ आकाश जल जायगा
और तुझे थोक में/ भुनाने वाला हाथ भी
शेष नहीं बच पायेगा।[22]

यहां भूख और गरीबी के खिलाफ दलित कवि पूंजीवाद से ही नहीं, ब्राह्मणवाद से भी लड़ रहा है। यहां बाबासाहब मौजूद हैं, जिन्होंने कहा था दलित वर्गों को अपने दोनों शत्रुओं– ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद से लड़ना होगा?[23] तब, मलखान सिंह की कविता का संघर्ष दलित चेतना का संघर्ष क्यों नहीं है?

निस्संदेह जातीय अपमान ने दलितों को सबसे ज्यादा पीड़ित किया है। नौकरीपेशा दलितों को शहरों में हिंदुओं की बस्तियों में आज भी किराये का मकान नहीं मिलता। उन्हें जाति के कारण अपमानित होना पड़ता है। कितने ही दलित लेखकों का यह निजी अनुभव भी है। लेकिन, इस जातीय अपमान को दलित कविता में बिंबित करने वाला पहला कवि मलखान सिंह ही है। यथा–

इस अपरिचित बस्ती में
घूमते हुए मेरे पांव थक गये हैं
अफसोस! एक भी छत
सर ढकने को तैयार नहीं
हिंदू दरवाजा खुलते ही
कौम पूछता है और/ नाक भौं सिकोड़
गैर सा सलूक करता है।[24]

लेकिन दलित कविता में यह तेवर हमें पहली बार मिलता है कि इस गैर से सलूक से अपमानित कवि अगले दरवाजे पर दस्तक नहीं, ठोकर मारता है और एक ऐसे घर के निर्माण की परिकल्पना करता है, जिसमें “हर अपरिचित पांव भी अपना लगेगा।” यथा–

अब केवल यही सोच रहा हूं कि
सामने बंद दरवाजे पर/ दस्तक नहीं, ठोकर दूंगा
दीवालें चूल से उखाड़/ जमीं पर बिछा दूंगा
मकां ऐसा बनाऊंगा/ जहां हर होंठ पर
बंधुत्व का संगीत होगा
मेहनतकश हाथ में/ सब तंत्र होगा
वृहद आंगन/ हमारा घर बनेगा
हर अपरिचित पांव भी
अपना लगेगा।[25]

‘मेहनतकश हाथ में सब तंत्र होगा’, कम्युनिस्ट-विरोधी दलित लेखकों के लिये यह एक पंक्ति भी मलखान सिंह को कम्युनिस्ट या जनवादी घोषित करने के लिये काफी है। पर, यही बात डॉ. आंबेडकर ने भी कही थी। उन्होंने कहा था कि भारत को जिस नेतृत्व की जरूरत है, वह नेतृत्व सिर्फ मजदूर वर्ग ही उसे दे सकता है।[26] इस आधार पर डॉ. आंबेडकर को कम्युनिस्ट क्यों नहीं कहा जाता? सवाल यह है कि यदि मेहनतकश हाथों में तंत्र आने पर आपत्ति है, तो क्या ब्राह्मणों, पूंजीपतियों और शोषकों के हाथों में तंत्र रहना चाहिए?

जाति पर मलखान सिंह की कविता ‘फटी बंडी’ है। जाति के दंश ने दलित काव्य में कितना स्पेस घेरा है, उसकी गणना करना असंभव है। उसके केन्द्र में ही जाति है। जाति पर आधारित इन तमाम कविताओं में ‘फटी बंडी’ बिल्कुल अलग दिखायी देती है– अपने बिंब विधान में भी और अर्थवत्ता में भी। यथा–

मैं अनामी हूं
अपने इस देश में
जहां-जहां भी रहता हूं
आदमी मुझे नाम से नहीं
कौम से पहचानता है और
कौम से ही सलूक करता है।
कमबख्त कौम
सधे बाज सी निरंतर
मेरा पीछा करती है।[27]

यहां ‘कौम’ एकदम देसी भाषा का शब्द है। जाति के लिये ‘कौम’ शब्द ही गांव-देहातों और जनसाधारण में बोला जाता है; जैसे, किस कौम के हो? यही लोग बोलते हैं। शायद ही मलखान सिंह से पहले दलित कविता में ‘कौम’ शब्द आया हो।[28] ‘कौम’ के लिये ‘फटी बंडी’ का बिंब भी न केवल काबिले गौर है, बल्कि काबिले तारीफ भी है। ‘फटी बंडी’ गरीबी की पहचान है। जैसे किसी आदमी के तन पर फटी बंडी को देखकर उसके गरीब होने का पता चल जाता है, वैसे ही फटी बंडी सी यह जाति है, जो दलित के साथ-साथ चलती है। वह जहां जाता है, जाति उसके साथ जाती है। वह गांव की पगडंडी पर होता है और जाति उसके साथ-साथ चलती है। जाति सधे बाज की तरह उसका पीछा करती है, खेत-खलिहान, बाजार सब जगह। यहां तक कि कवि कहता है–

मैं कल कारखाने
सभागार में हूं
बंडी मेरे कंधों में है।[29]

यहां मजदूर वर्गों में व्याप्त ब्राह्मणवाद को कवि ने रेखांकित किया है। यह उस तथाकथित समाजवादी आंदोलन पर भी एक प्रहार है, जिसने ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष को प्राथमिकता नहीं दी और परिणामतः भारत के मजदूर एक नहीं हो सके। यही बात डॉ. आंबेडकर ने अपने प्रसिद्ध व्याख्यान ‘जाति का विनाश’ ‘संसदीय लोकतंत्र और मजदूर’, ‘भारतीय मजदूर और ट्रेड यूनियन’ और ‘मजदूरों को यह युद्ध क्यों जीतना चाहिए’ में कही है।[30]

जाति के संबंध में डॉ. आंबेडकर ने लिखा है कि जाति सामाजिक अलगाव पैदा करती है और दलित तथा सवर्ण के बीच ऐसा अजनबीपन बनाती हैं कि जब वे मिलते हैं, तो उन्हें यह नहीं लगता कि वे एक ही राष्ट्र के नागरिक आपसे में मिल रहे हैं, बल्कि वे ऐसे मिलते हैं, जैसे दो भिन्न राज्यों के नागरिक मिल रहे हैं।[31] इसी अनुभूति को कवि भी ‘फटी बन्डी’ में व्यक्त करता है। यथा–

इस आदमखोर बंडी ने
इतनी बेरहमी से रौंदा है कि आज
रोशनी से मुझे डर लगता है
गैल चलते मेरे कान बजते हैं
सामने खड़ी भीड़ के करीब से गुजरने पर
मन कांप-कांप जाता है
परिचित श्रीमान से बात करते
जीभ हकलाती है
अपरिचित श्रीमान से हाथ मिलाते
हाथ कांपता है
लगता है कि ठांव की पूछने के बाद
वह पांव की भी पूछेगा
चुनांचे पूरा का पूरा सफर
बर्फीली दुश्मनी में बदल जायेगा।[32]

बिंब-विधान की दृष्टि से मलखान सिंह बेजोड़ कवि हैं। ‘एक नया ताड़ वृक्ष’, ‘सुनो ब्राह्मण’, ‘आखिरी जंग’, ‘धरती की गति’ और ‘मैं निराश नहीं हूं मित्र’ उनकी बेजोड़ बिंब की महत्वपूर्ण कविताएं हैं। ‘एक नया ताड़ वृ़क्ष’ में पूरा दलित आंदोलन मौजूद है, न केवल डॉ. आंबेडकर का, बल्कि स्वामी अछूतानंद का आंदोलन भी। स्वामी जी के अनुसार, आर्य चरवाहों के रूप में भारत में आये थे और बाद में यहीं बस गये। उन्होंने मूलनिवासियों के विरोध को छल-बल और शस्त्र-बल से कुचला और उनके सारे संसाधनों पर कब्जा कर उन्हें दास बना लिया। यह बिंब हमें इस कविता में इस तरह मिलता है–

निविड़ एकांत में/ पर्वत-पुत्र
सुघड़ ऊंचाइयों को याद करता है
सागर पुत्र अतल गहराइयों को,
और हम, उस पाखंडी/ चरवाहे को याद करते हैं
जिसने चरैती छोड़/ जीवन का हर सुख
सूत के धागों में बांध
बगल में लटका लिया था
अग्नि को साक्षी बता/ घोषित किया था
कि यह धरती/ यह आकाश
दूध उगलती नदियां/ पर्वत-पाताल
सबके सब हमारे हैं/ केवल हमारे
और विरोध में तने हार हाथ को
नरक में धकेल दिया था
जहां केवल यातनाएं/ और दमघोंटू यातनाएं
पसरी थीं चारों ओर।
तब से हम जी रहे हैं
सड़ियल कुत्ते की जिंदगी
जिसके करीब से गुजरने पर
पंख सड़ जाते हैं हवाओं के।[33]

फिर, हजारों-हजारों साल तक दास बना दिये मूलनिवासियों ने, कवि के शब्दों में–

मुट्ठी भर सुख के लिये
कितने सागरों को हाथों से धोया है
कितने पर्वतों को कंधों पर ढोया है
कितनी बंजर जमीं में
बसंत बन बोया है।[34]

लेकिन उनके हिस्से में हर बार–

आये हैं उजाड़ घर
गाय का मूत रचा
गोबर पुता इतिहास
जिसके पन्ने-पन्ने पर
उत्पीड़न और अपमान के
प्रतिमान टंगे हैं।[35]

किंतुकवि का दुख इस बात को लेकर है कि दलितों ने अपनी आजादी के जो आंदोलन चलाये, उनका परिणाम यह हुआ कि उन्हें सिर्फ झंडा टंगी प्रतीकात्मक आजादी मिली और उनकी सुविधाओं के सारे फैसले कलंदरों और बंदरों ने अपने हाथों में रखे। पर कवि का दुख अपनों में भी एक नया ताड़ वृक्ष उग आने को लेकर है–

उफ, कैसा यह तांता है
कि हमारी बस्ती का
जो भी चतुर सुजन/ नगर को जाता है
डूबता है दल-दल में
जंगल के बीचो बीच
एक नया ताड़ वृक्ष/ और उग आता है।[36]

यहां राजनीति का वह जाल प्रतिबिंबित हुआ है, जो पूना-पैक्ट में गांधी और कांग्रेस के नेताओं द्वारा दलितों के लिये बुना गया था। तब से आज तक दलितों के चतुर सुजन उसी दल-दल में डूब रहे हैं और दलितों के लिये ताड़ वृक्ष ही बनते जा रहे हैं। यही वजह है कि दलितों के सारे रेडिकल संघर्ष खत्म हो गये हैं। उन्हें आरक्षण मिलता रहे, बाकी नीतियों, योजनाओं और सुधारों से उन्हें क्या लेना-देना? कितना मजबूत जाल है ब्राह्मणवाद का।

कवि इसी ब्रह्मजाल को तोड़ने की बात ‘सुनो ब्राह्मण’ कविता में करता है। यथा–

सुनो ब्राह्मण!
हमारी दासता का सफर
तुम्हारे जन्म से शुरु होता है
और इसका अंत भी
तुम्हारे अंत के साथ होगा।[37]

दासता की इस प्रक्रिया को हम ‘एक नया ताड़ वृक्ष’ में देख चुके हैं। आजादी के बाद समय बदला। लोकतंत्र ने दलितों को विकास के अवसर प्रदान किये। दलितों ने उन अवसरों का लाभ उठाया और वर्ण-व्यवस्था के चौखटे को तोड़कर समान स्तर पर आने का प्रयास किया। लेकिन ब्राह्मण के लिये जैसे समय बदला ही नहीं है। वह उच्चता के दंभ में अभी भी स्वयं को भूदेव मानता है। कवि इन्हीं भूदेवों को निम्न वर्गों की बगावत और बदलाव की धारा को व्यक्त करते हुए कहता है–

तो सुनो वशिष्ठ
द्रोणाचार्य तुम भी सुनो
हम तुमसे घृणा करते हैं
तुम्हारे अतीत
तुम्हारी आस्थाओं पर थूकते हैं।[38]

किसी भी जनवादी कविता में, जिसे मार्क्सवादी कहा जाता है, ब्राह्मणवाद के खिलाफ यह प्रतिरोध नहीं मिलता। इसके विपरीत जनवादी और प्रगतिशील लेखकों ने इस दलित-प्रतिरोध को गाली की संज्ञा दी और दलित साहित्य को गाली-गलौंच का साहित्य कहकर नाक-भौं सिकोड़ी। वे इस बात को आज तक नहीं समझ सके कि मेहनतकश की दुर्दशा और उनके विसंगठन का मुख्य कारण ब्राह्मणवाद है। यह कहने का साहस सिर्फ दलित कवि ने किया। इसलिये, यह बात मलखान सिंह ही कह सकते हैं कि “अब मेहनतकश कंधे/ तुम्हारा बोझ ढोने को/ तैयार नहीं है।”[39] क्योंकि उसे आज साफ-साफ दिखायी दे रहा है–

बरफ पिघल रही है
बछेड़े मार रहे हैं फुर्री
बैल धूप चबा रहे हैं
और एकलव्य
पुराने जंग लगे तीरों को
आग में तपा रहा है।[40]

यहां दलित एकलव्य पुराने जंग लगे तीरों को आग में नहीं तपा रहा है, बल्कि ब्राह्मणवाद के शास्त्रों को आग के हवाले कर रहा है। जिस ईश्वर को ब्राह्मणों ने शास्त्रों का निर्माता कहा है, दलित कवि ने उसी ईश्वर के खिलाफ बिगुल बजाया है। यह सही है कि मार्क्सवादी और जनवादी चिंतन ईश्वरवादी नहीं है, पर जिस तरह दलित कवियों ने ईश्वर से दो-दो हाथ किये हैं, वैसी सूरते हाल हमें जनवादी और मार्क्सवादी (हिंदी) कविता में नहीं मिलती। दलित कवि मलखान सिंह ने ईश्वर के इतिहास तक को पकड़ लिया है। ब्राह्मणों की रक्षा के निमित्त अवतार लेने वाले ईश्वर का इतिहास दलित वर्गों के लिये कितना पीड़ादायी था, उसका वर्णन हमें उनकी ‘आखिरी जंग’ कविता में मिलता है। यथा–

ओ परमेश्वर
कितनी पशुता से रौंदा है हमें
तेरे इतिहास ने
देख, हमारे चेहरों को देख
भूख की मार के निशान
साफ दिखायी देंगे तुझे।
हमारी पीठ को सहलाने पर
बबूल के कांटों से दोनों
मुट्ठियां भर जायेंगी तेरी।[41]

जिस तरह दलित कवि हीरा डोम ने ईश्वरज की ‘भक्तवत्सल’ छवि को तोड़ा था, उसी तरह यहां मलखान सिंह ने भगवान के दीनबंधु और न्यायकर्ता की छवि को तोड़ा है। यथा–

हमारी बस्ती में
खांसती-बोझा ढोती
लाशों को देख
जिंदा रहने का साहस ही
खो बैठेगा तू।
हम फिर भी जिंदा हैं
और तू चुप है
गूंगे की तरह चुप
गोया तू मुंसिफ नहीं
शैतान का ही वंशज है।[42]

जब सारी व्यवस्था का नियामक ईश्वर है, तो दलित जातियों के दुखों के परिप्रेक्ष्य में वह न्यायकर्ता कैसे हो सकता है। यदि उसके रहते हुए शैतान दलितों की बस्तियां उजाड़ रहे हैं, औरतों के साथ बलात्कार कर रहे हैं और उन्हें जिंदा आग में जला रहे हैं, तो उसे शैतान का वंशज ही कहा जा सकता है।

हिंदुओं के भगवान जिस ठाठ-बाट और राजसी पोशाक में रहते हैं, उससे वे दलितों को अपने नहीं लगते। कवि कहता है कि उनकी शक्ल तो मुखियाओं और सेठों से ज्यादा मिलती है। यथा–

चक्रधर!
चाह कर भी हम
नहीं चाह पाते तुझे
क्योंकि हमारे गांव के मुखिया की शक्ल
हू-ब-हू तेरी शक्ल से मिलती है।
और तेरी बनी-ठनी मेहरिया
नगर की शौकीन बनैनी
दिखायी देती है हमें।[43]

कवि ने ‘शिव’ के पूज्य प्रतीकों में भी दलित चेतना का विचारोत्तेजक बिंब प्रस्तुत किया है। वह शिवलिंग में एकलव्य का काटा गया अंगूठा और ‘अर्द्ध कुम्भाकार योनि’ पर बिखरी पंखुड़ियों में बलात्कार की शिकार रोती-बिलखती स्त्रियों के छीने गये सपनों को देखता है। यथा–

हम जब भी
तेरे कदमों में सर रखने की सोचते हैं
तेरा धरती में गड़ा स्थूल लिंग
अग्रज एकलव्य का कटा अंगूठा
प्रतीत होता है हमें।
और तेरी अर्द्ध कुम्भाकार योनि पर
बिखरी लाल गुलाबी पंखुड़ियां
रोती-बिलखती आंखों से छीने गये
सपने प्रतीत होती हैं।[44]

कवि बाबासाहेब के इस मत का अनुयायी है कि दलितों को अपना प्रदीप स्वयं बनना चाहिए। उन्होंने कहा था कि कोई भगवान और देवता उनका उद्धार नहीं कर सकता। उन्हें अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी होगी। दलित जातियों का विराट अनुभव इसकी पुष्टि करता है। भगवान और देवताओं के भरोसे उन्हें गरीबी और दुखों से कभी मुक्ति नहीं मिली। राम को पूजने के बाद भी, राम ने उनकी अस्पृश्यता दूर नहीं की। इसलिये अंत में कवि कहता है–

धनुर्धर!
आज जान गये
ठीक-ठाक जान गये हैं कि
कल निकम्मों के साथ
होने वाली आखिरी जंग में
तू हमारा सारथी नहीं होगा
और पूरा का पूरा जंग
हमें अपने ही बाजुओं से
जीतना होगा।[45]

इसमें संदेह भी नहीं कि दलितों ने अपने ही बाजुओं के बल पर अपनी लड़ाई लड़ी है और उसे जीता भी है।

‘धरती की गति’ मलखान सिंह की ऐसी कविता है, जिसमें मजदूर शिल्पी अपनी बनायी बंदूक के औचित्य पर सवाल उठाता है। उसे नहीं मालूम कि एक दिन वह उसी के सीने पर दाग दी जायेगी। यथा–

हमारी बंधी मुट्ठियां देख
बंदूक तान ली है तुमने
वही बंदूक
जिसके सूत-सूत पर
हमारी ऊंगलियों के निशान अंकित हैं
वही बंदूक
जिसके रेशे-रेशे में
हमारे पसीने की महक गंथी है।[46]

लेकिन कवि बंदूक तान लेने वालों को सांप की संज्ञा देता है, जिसके पैर नहीं होते। वह बताना चाहता है कि वे धरती की गति को नहीं बदल सकते–

दूसरों की मेहनत पर
कब्जा जमाने वाले सांप
तुम्हारे पैर नहीं होते
मदान्ध हो तुम
तभी तो नहीं समझते
कि गर्जन
चाहे बंदूक की हो
या बादल की
धरती की गति को
नहीं बदल पाते।[47]

मलखान सिंह परिवर्तन के कवि हैं और विश्वास से भरे हुए। वे निराश नहीं हैं। ‘मैं निराश नहीं हूं मित्र’ कविता में वे इसी विश्वास से परिपूर्ण हैं। इस कविता में वे उन आवाजों को साफ-साफ सुन रहे हैं, जो व्यवस्था के खिलाफ गली-कूचों में उभरती हैं। यथा–

मैं निराश नहीं हूं मित्र
गांव की कीच भरी गलियों में
मौसम के खिलाफ
उठती हुई आवाजें
मुझे साफ सुनायी दे रही हैं।[48]

मैंने अपनी किसी टिप्पणी में कहा था कि मलखान सिंह दलित कविता के मुक्तिबोध हैं। इसको लेकर यह निष्कर्ष निकाल लिया गया कि वे मुक्तिबोध की परंपरा के कवि हैं। यह एकदम गलत निष्कर्ष है। दरअसल मेरे कहने का अर्थ यह था कि जिस तरह मुक्तिबोध अपनी ‘ब्रह्म राक्षस’ की परिकल्पना के कारण हिंदी कविता में उपेक्षित किये गये, उसी तरह मलखान सिंह ‘रांपी’, ‘सुतारी’, ‘कन्नी-वसूली’, ‘छैनी-हथौड़ी’ और ‘भूख’ की वजह से दलित कविता में उपेक्षित कर दिये गये। ये सारी चीजें दलितों से संबंध रखती हैं, यह उनके आलोचकों ने नहीं सोचा। उनकी दृष्टि ने मलखान सिंह की कविताओं में जाति का वह दर्द भी नहीं देखा, जिसका चित्र ‘मैं आदमी नहीं हूं’ से ‘सुनो ब्राह्मण’ तक हर कविता में मिलता है। मुक्तिबोध को काफी लंबे समय के बाद हिंदी साहित्य में स्वीकार किया गया, मलखान सिंह को पूरे दस साल के बाद दलित साहित्य में मान्यता मिली। इस एक समानता को छोड़कर मुक्तिबोध और मलखान सिंह में कोई समानता नहीं है। मुक्तिबोध में प्रगतिशीलता है, पर हिंदू संस्कृति और ब्राह्मणवाद के सवाल पर वे संशोधनवादी हैं। लेकिन मलखान सिंह संशोधनवाद के धुर विरोधी हैं। वे ब्राह्मणवाद के अंत में ही दलितों की दासता का अंत मानते हैं।

मलखान सिंह का जन्म एक गरीब अछूत जाति में हुआ। उन्होंने गरीबी को भी भोगा है और अस्पृश्यता को भी। इसलिये उनकी कविता में ‘भूख’ और ‘तुलसी का बिरवा’ साथ-साथ आते हैं। वहां ‘देवालय का सफेद हाथी’ भी और रियायतें बांटने वाला देवताओं का प्रिय राजा भी है, ‘स्वर्ग की नसैनी’ भी है और ‘सूअर’ भी है। वे दोनों स्तरों पर युद्ध लड़ते हैं। उनकी भूख जहां तुलसी का बिरवा उखाड़ कर झाड़ू बनाने और स्वर्ग की नसैनी को चूल्हे में जलाने को कहती है, जो ब्राह्मणवाद के अंत का बिंब है, वहां पूंजीवाद के रूप में ‘सूअरों’ का कलेजा चाक करने की बात भी करती है। प्रगतिशील कविता में ‘दैव’ का अर्थ पूंजीवाद है।[49] मलखान सिंह ने भी दैव को इसी अर्थ में लिया है, पर प्रगतिशील कविता में ‘हाथी’ ब्राह्मणवाद या हिंदू संस्कृति के अर्थ में नहीं है। यह हमें मलखान सिंह की कविता में मिलता है कि दैवगण प्रसन्न होकर हाथी के मस्तक पर वेदी की रज लगा रहे हैं, जिसने अपने पैरों से रौंद कर दलित बस्ती में लाशों के ढेर लगा दिये हैं।

मलखान सिंह, कबीर और हीरा डोम की परंपरा के कवि हैं, जिन्होंने सामाजिक और आर्थिक दोनों मोर्चों पर आवाज उठायी। जो भाषा और तेवर हम कबीर और हीरा डोम में देखते हैं, वही भाव, भाषा और तेवर हमें मलखान सिंह में मिलते हैं। दलितों की समस्याएं केवल सामाजिक ही नहीं हैं, आर्थिक भी हैं। इसलिये डॉ. आंबेडकर ने भी समाजवाद का ही विचार दिया । और समाजवाद ही दलित साहित्य का लक्ष्य होना चाहिए, जैसा कि प्रख्यात मराठी दलित लेखक शरण कुमार लिम्बाले का भी मत है–

“दलित समीक्षकों ने मार्क्सवाद की आलोचना करते हुए यह कहा कि मार्क्सवाद सामाजिक विषमता के विरुद्ध बोलता नहीं है और बाबासाहेब सामाजिक विषमता के विरुद्ध बोले हैं। इसका निष्कर्ष उन्होंने यह निकाला कि बाबासाहेब आर्थिक विषमता के विरुद्ध नहीं बोले हैं। लेकिन उन्हें यह समझना चाहिए कि मार्क्स अथवा आंबेडकर के विचारों का स्वरूप इतना इकहरा या एकांगी नहीं है कि उन्हें केवल आर्थिक अथवा केवल सामाजिक कहा जाय। दलितों के प्रश्न केवल सामाजिक हैं, आर्थिक प्रश्नों से उसका लेना-देना नहीं है, यह सोचना ही गलत है। सामाजिक विषमता के साथ ही आर्थिक विषमता भी दलितों का शोषण करती है। हां, दलितों को सामाजिक और आर्थिक इन दोनों स्तरों पर संघर्ष करना होगा। दलित साहित्य दलितों के संघर्ष का साहित्य है। अब दलित साहित्य आंदोलन को आंबेडकरवाद के साथ-साथ मार्क्सवाद को भी स्वीकार करना होगा, तभी यह संघर्ष अर्थपूर्ण होगा, ऐसी समझ स्थापित करनी पड़ेगी।”[50]

क्रमश: जारी

संदर्भ :

[1] अमर उजाला, देहरादून, दिनांक- 26 फरवरी, 1996
[2] वही
[3] वही
[4] हिन्दुस्तान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश संस्करण, नयी दिल्ली, 28 फरवरी, 1996, ‘ओमप्रकाश वाल्मीकि सम्मानित’, शीर्षक समाचार में देखिये ‘लोकार्पण’, यहाँ ‘पतित’ की जगह ‘पक्ति’ अशुद्ध छप गया है।
[5] सुनो ब्राह्मण (कविता संग्रह)- मलखान सिंह, बोधिसत्त्व प्रकाशन, सिविल लाईन्स, रोशनबाग, रामपुर (उ.प्र.), दूसरा संस्करण- 1997, देखिये, भूमिका, पृष्ठ 5
[6] डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, राइटिंग्स एंड स्पीचेज, वॉल्यूम 5, एडुकेशन डिपार्टमेंट, महाराष्ट्र गवर्नमेंट, बांबे, 1990, बुक 1, अध्याय 1
[7] सुनो ब्राह्मण (कविता संग्रह)- मलखान सिंह, प्रकाशकः परिवेश, शक्ति नगर, चंदौसी, मुरादाबाद, उ.प्र., पहला संस्करण- 1996, पृष्ठ 1 और 2
[8] वही, पृष्ठ 3
[9] वही, पृष्ठ 4-5
[10] वही, पृष्ठ 5
[11] वही, पृष्ठ 6-7
[12] वही, पृष्ठ 26
[13] वही
[14] वही, पृष्ठ 28
[15] वही, पृष्ठ 29
[16] वही, पृष्ठ 30-31
[17] वही, पृष्ठ 31
[18] वही
[19] डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, राइटिंग्स एंड स्पीचेज, वॉल्यूम 5, एडुकेशन डिपार्टमेंट, महाराष्ट्र गवर्नमेंट, बांबे, 1990, बुक 4, अध्याय 27, पृष्ठ 412
[20] सुनो ब्राह्मण (उपर्युक्त), पृष्ठ 15
[21] वही, पृष्ठ 16
[22] वही, पृष्ठ 17-18
[23] डॉ. आंबेडकर ने 10 जनवरी 1938 को बम्बई में किसानों की एक सभा में कहा था कि विश्व में दो ही वर्ग हैं— धनी और निर्धन, सम्पन्न और सर्वहारा तथा शोषक और शोषित। एक तीसरा वर्ग ‘मध्य वर्ग’ बहुत छोटा वर्ग है। इसलिये किसान और मजदूर अपनी गरीबी के कारणों पर विचार करेंगे तो वे उन्हें धनिकों और शोषकों में ही मिलेंगे। (देखिये, समाजवादी आंबेडकर- कँवल भारती, स्वराज प्रकाशन, दरियागंज, दिल्ली, संस्करण 2009, पृष्ठ 129; मूल पाठ के लिए देखें— डॉ . बाबासाहेब आंबेडकर : राइटिंग्स एंड स्पीचेज, वॉल्यूम 7, पार्ट 3, पृष्ठ 170)। 1938 में ही उन्होंने 13 फरवरी को मनमाड में कहा था कि इस देश में दलित वर्गों के दो शत्रु हैं— ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद। (वही, पृष्ठ 132; मूल पाठ के लिये- वही, पृष्ठ 173 और, सोर्स मैटेरियल ऑन बाबासाहेब आंबेडकर एंड मूवमेंट ऑफ अनटेबुल्स, पृष्ठ 165)
[24] सुनो ब्राह्मण, उपर्युक्त, पृष्ठ 21
[25] सुनो ब्राह्मण, उपर्युक्त, पृष्ठ 21
[26] डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर : राइटिंग्स एंड स्पीचेज, उपरोक्त, वॉल्यूम 10, 1991, पृष्ठ43
[27] सुनो ब्राह्मण, उपर्युक्त, पृष्ठ 12
[28] ‘सुनो ब्राह्मण’ के दूसरे संस्करण में ‘कौम’ की जगह जाति ने ले ली है, यह गलती किससे हुई? पता नहीं।
[29] सुनो ब्राह्मण, उपर्युक्त, पृष्ठ 13
[30] डॉ. बाबासाहब आंबेडकर : राइटिंग्स एंड स्पीचेज, उपरोक्त, वॉल्यूम 1 व 10
[31] डॉ. बाबासाहब आंबेडकर : राइटिंग्स एंड स्पीचेज, उपरोक्त, वॉल्यूम 5, पृष्ठ 260
[32] सुनो ब्राह्मण, उपर्युक्त, पृष्ठ 14
[33] वही, पृष्ठ 23-24
[34] वही
[35] वही
[36] वही, पृष्ठ 25
[37] वही, पृष्ठ 37
[38] वही, पृष्ठ 40-41
[39] वही, पृष्ठ 41
[40] वही
[41] वही, पृष्ठ 18
[42] वही, पृष्ठ 18-19
[43] वही, पृष्ठ 19
[44] वही, पृष्ठ 19-20
[45] वही, पृष्ठ 20-21
[46] वही, पृष्ठ 36
[47] वही, पृष्ठ 37
[48] वही, पृष्ठ 35
[49] रूप तरंग और प्रगतिशील कविता की वैचारिक पृष्ठभूमि- रामविलास शर्मा, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली, संस्करण- प्रथम 1990, पृष्ठ 267
[50] दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र- शरणकुमार लिंबाले, अनुवादक- रमणिका गुप्ता, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2000, पृष्ठ 68-69

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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