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जीवनदायिनी हैं बेटियां, कब समझेगा दलित-बहुजन समाज?

रोहिणी के इस कदम के सकारात्मक पहलू तो यह है कि बेटियां भी कुछ कर सकती हैं, लेकिन हकीकत यह है कि बेटियां या घर की महिलाएं ही सब कुछ करती हैं और इसलिए उनकी संवेदनाओं का गलत इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। बता रहे हैं विद्या भूषण रावत

बहस-तलब

लालू प्रसाद बिहार की राजनीति के सर्वमान्य योद्धा हैं। उन्हे अनेक प्रकार से परेशान किए जाने के बावजूद उनके राजनीतिक विरोधी उन्हे खत्म नहीं कर पाए। 2005 से लेकर अब तक (इस बीच कुछ महीनों का अंतराल छोड़कर) इतने लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने के बावजूद भी नीतीश कुमार किसी भी प्रकार से लोकप्रियता के मामले में लालू प्रसाद के नजदीक भी नहीं पहुंचते। 

भारतीय राजनीति में लोकप्रियता का एक पैमाना रहा है कि कौन अपने संबोधनों में जनता से सीधे संवाद करता है। मसलन, जब से नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री बने हैं तो उनके विषय में मीडिया में एक ही बात कही जाती है कि वह बेहद ‘असरकारी’ वक्ता हैं और उनके विरोधियों मे कोई भी उनके मुकाबले मे कहीं नहीं हैं। हालांकि ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में देखे तो नेता के वक्ता होने और उनकी सफलता मे कोई संबंध नहीं है। कांशीराम और मुलायम सिंह यादव बहुत अच्छे वक्ता नहीं थे, लेकिन उनका जनता से जुड़ाव बहुत अच्छा था और उनकी बातें सीधे लोगों में के दिल तक पहुंच जाती थी। इंदिरा गांधी भी अच्छी वक्ता नहीं रहीं, लेकिन लोगों के साथ उनका भी जुड़ाव था। 

लेकिन 1990 के दशक में लालू प्रसाद भारतीय राजनीति में एक सितारा बनकर उभरे थे, जिनके हाव भाव और भाषा शैली आम जनता को बहुत छू जाते थे और बिहार की जनता के साथ उनके जैसा संवाद कोई कर नहीं पाया था। आज के टीवी मीडिया के दौर में अपने पुराने मित्रों के मुकाबले लालू मीडिया को अच्छे से अपने पक्ष में कर लेते हैं और उनकी वाक्पटुता और लोगों से सीधा जुड़ाव, कम से कम बिहार के संबंध में, नरेंद्र मोदी से कहीं अधिक है। 

वर्ष 1990 में जब लालू पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने तो अपनी जनसाधारण वाली छवि के चलते ब्राह्मणवादी शहरी विशेषज्ञों ने उनका मज़ाक उड़ाना शुरू कर दिया। लालू प्रसाद के बड़े परिवार को लेकर बहुत से मज़ाक उड़ाये गए। हालांकि यह बात भी हकीकत है कि अक्सर बेटे की चाह में ही परिवार बड़े होते हैं। वैसे तो भारत के कई इलाकों में तो बेटियों को गर्भ में ही मार दिया जाता है, लेकिन गरीब भारत में ऐसा नहीं होता और चाहे मां-बपा कैसे भी पेट पालें, लेकिन बच्चों को मारते नहीं हैं। 

लालू प्रसाद और उनकी बेटी रोहिणी

खैर, लालू प्रसाद के बड़े परिवार को लेकर उनका मजाक उड़ाया गया, लेकिन धीरे-धीरे जब लालू प्रसाद बिहार से बाहर निकल कर रेल मंत्री बने तो उनके बजट ने लोगों का मन जीता फिर भी भारतीय द्विज मीडिया ने उन्हें उनकी सफलता का श्रेय नहीं दिया। 

लालू प्रसाद को राजनैतिक तौर पर तो खत्म नहीं किया जा सका, लेकिन उन्हें कानूनी मामलों में उलझा जरूर दिया गया। वह भी इस दुर्भावना के साथ कि चाहे जैसे भी हो, उन्हें जेल में रखा जाय। लेकिन ये लालू यादव ही हैं, जो अपनी जीवटता के बूते आज भी प्रासंगिक बने हैं। 

खैर लालू राजनीति के न केवल मंजे खिलाड़ी हैं, वे एक सही अर्थों में जनता के नेता हैं। लेकिन उन्हे लंबे रिश्ते निभाना भी आता है। 1989 में कर्पूरी ठाकुर के निधनोपरांत उनके स्थान पर नेता प्रतिपक्ष बनने से लेकर अभी तक जब लालू धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक न्याय की शक्तियों के साथ खड़े रहे हैं। मंडल के समय वह विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ पूरी शक्ति के साथ खड़े रहे और यूपीए की सरकार में एक मजबूत स्तंभ के तौर पर उभरे। हालांकि समय-समय पर अतिविश्वास और परिवार के झगड़ों ने भी उनका नुकसान किया। 1997 में जब वे पहली बार जेल गए तो राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाने के उनके फैसले की कड़ी आलोचना भी हुई। लेकिन यह भी हकीकत है कि जनता ने उसे स्वीकार किया। 

जब नीतीश कुमार ने एनडीए से गठबंधन तोड़ा तो लालू प्रसद ने तुरंत ही उन्हे समर्थन दे दिया और पुराने गिले-शिकवे भुला दिए। लालू आज के दौर मे सांप्रदायिक और जातिवादी शक्तियों के विरुद्ध सामाजिक न्याय के शक्तियों के सबसे बड़े प्रतीक हैं। उनका गिरता स्वास्थ्य सबके लिए चिंता का विषय था। पता चला कि उनकी दोनों किडनिया खराब थीं और उन्हें किडनी प्रत्यारोपण की जरूरत थी। हम सब जानते है कि कैसे विश्वनाथ प्रताप सिंह की किडनिया खराब होने के कारण उनकी सक्रियता पर असर पडा था। हालांकि 15 वर्षों तक उन्होंने संघर्ष किया और अपनी ही शर्तों पर काम किया। लालू जी के लिए अच्छी बात ये हुई कि उन्हे किडनी ट्रांसप्लांट के लिए छोटी बेटी रोहिणी आचार्य ने राजी कर लिया। सिंगापुर के एक अस्पताल मे रोहिणी ने अपने पिता को अपनी एक किडनी दान दी। 

रोहिणी आचार्य द्वारा अपने पिता को किडनी दान करने पर देश भर में उन्हे शुभकामनाएं संदेश आए हैं और उनके कार्य की बहुत सराहना हो रही है। लेकिन यह हकीकत है कि हमारे रिश्तों मे पिता पुत्री का रिश्ता सबसे खूबसूरत होता है और रोहिणी ने यह बात कही कि अपने पिता के लिए वह कुछ भी करने के लिए तैयार हैं। रोहिणी स्वयं डॉक्टर हैं और वह जानती हैं कि उनके लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा। रोहिणी के इस कदम से एक संदेश यह भी है कि बेटिया किसी से कम नहीं और वो कभी भी जरूरत पड़ने पर कोई भी निर्णय ले सकती हैं। रोहिणी ने यह सारे काम कर सामाजिक न्याय के झंडे को बुलंद किया है। हालांकि उनका यह निर्णय नितांत निजी है और अपने पिता के लिए है, लेकिन हम सब जानते हैं कि उनके पिता का जीवन भी सामाजिक न्याय के संघरशील शक्तियों के लिए बेहद आवश्यक है। 

रोहिणी ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ मिशन की एक अच्छी ब्रांड एम्बेसडर हो सकती हैं। उसका कारण यह है जिस समाज मे लड़कियों को कुछ नहीं समझ और सारे त्योहार और परंपराएं दरअसल महिला विरोधी हों, वहां ऐसे कार्य समाज मे थोड़ा सा बदलाव तो ला सकती है। 

हालांकि एक बात और भी समझने वाली है कि अक्सर ऐसे समय मे सबको लड़कियों की ही याद आती है और सभी उनकी कुर्बानियों को याद करते हैं ताकि अपने बेटों को सुरक्षित रख सके। रोहिणी के इस कदम के सकारात्मक पहलू तो यह है कि बेटियां भी कुछ कर सकती हैं, लेकिन हकीकत यह है कि बेटियां या घर की महिलाएं ही सब कुछ करती हैं और इसलिए उनकी संवेदनाओं का गलत इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। 

लालू जब जेल गए तो अपनी कुर्सी पर अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिठा दिया। वजह यह कि वे जानते थे कि उनके अलावा कोई भी यह कुर्सी उनके लिए सुरक्षित नहीं रखेगा। यानि, राजनीति मे अपनी पत्नी के अलावा और किसी पर भरोसा नहीं होता। आज भी देख लीजिए, जब लालू प्रसाद का बड़ा बेटा तेजप्रताप यदव अपने पिता के स्वास्थ्य के लिए मंदिरों में पूजा कर रहा था और दूसरी तरफ एक बेटी अपने पिता के लिए अपने शरीर के एक महत्वपूर्ण अंग को दान कर रही थी। इस पूरी परिघटना का निहितार्थ यह कि बेटी ‘पराया’ धन नहीं है, वह एक व्यक्तित्व है, जो अपने अच्छे-बुरे को जानती है और इसलिए उन्हे मजबूती देने के लिए संपत्ति में उन्हें हिस्सा दिया जाए ताकि वे समय आने पर किसी भी विपरीत स्थिति मे अपना जीवन यापन सम्मानपूर्वक कर सकें। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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