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ईडब्ल्यूएस आरक्षण लोकतांत्रिक संविधान में जातिगत भेदभाव का आगाज़: प्रोफेसर जी. मोहन गोपाल

हाशियाकृत और प्रतिनिधित्व से वंचित सामाजिक समूहों की गोलबंद होने और सत्ता में अपना जायज़ हिस्सा मांगने की ताकत और क्षमता को समाप्त करना ही ईडब्ल्यूएस आरक्षण का असली उद्देश्य है। पढ़ें, प्रोफेसर जी. मोहन गोपाल से विस्तृत साक्षात्कार का पहला भाग

गत 7 नवंबर, 2022 को उच्चतम न्यायालय की पांच जजों की एक संविधान पीठ ने बहुमत से दिए गए अपने फैसले में 103वें संविधान संशोधन अधिनियम को वैध घोषित कर दिया। इस संशोधन के ज़रिये आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) को आरक्षण प्रदान किया गया था। पीठ ने यह फैसला इस संशोधन को चुनौती देने वाली अनेक याचिकाओं का निपटारा करते हुए दिया। भारत के शीर्ष विधिवेत्ताओं में से एक, प्रोफेसर जी. मोहन गोपाल, जो नेशनल लॉ स्कूल ऑफ़ इंडिया यूनिवर्सिटी (बेंगलुरु) के कुलपति रहे हैं, ने भी पीठ के समक्ष इस संशोधन को रद्द करने के पक्ष में तर्क प्रस्तुत किए थे। बीते 26 नवंबर, 2022 को 73वें संविधान दिवस के अवसर पर फारवर्ड प्रेस के साथ साक्षात्कार में प्रोफेसर गोपाल ने बताया कि इस संशोधन से क्यों और कैसे संविधान को गंभीर क्षति पहुंची है।

  

ईडब्ल्यूएस आरक्षण को चुनौती देना क्या ज़रूरी था? क्या यह संशोधन संविधान पर हमला है? आम आदमी को तो यही लगता होगा कि आखिर इसमें गलत क्या है। क्योंकि संविधान का और समाज को गढ़ने में उसकी भूमिका का आपने गहन अध्ययन किया है, इस बारे में आपका क्या विचार है?

मुझे ऐसा लगता है कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण को स्वीकार्य बनाने के लिए झूठा और भ्रामक प्रचार किया जा रहा है। और यही कारण है कि, जैसा कि आपने भी कहा, बहुत से लोगों को इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता। लेकिन ऐसा है नहीं। इस निर्णय में क्या समस्या है और इसमें क्या गलत है, इसे समझने के लिए चलिए हम कल्पना करें कि ऐसा ही संशोधन संयुक्त राज्य अमरीका में होता तो इस संशोधन का क्या प्रभाव होता? ईडब्ल्यूएस की तरह का संशोधन अगर अमरीका में होता तो वहां सार्वजनिक नियोजन में 10 प्रतिशत पद और सभी सार्वजनिक व निजी शिक्षण संस्थाओं में 10 प्रतिशत सीटें गोरों के लिए आरक्षित कर दीं जातीं। इस आरक्षण का लाभ ‘क्रीमी लेयर’ के गोरों को तो नहीं मिलता, लेकिन यह पक्का है कि इसके सभी लाभार्थी केवल गोरे ही होते। इस तरह के संशोधन से अमरीका में सार्वजनिक नियोजन और निजी व सार्वजनिक शिक्षण संस्थाओं से इस आरक्षण की सीमा तक सभी गैर-श्वेतों को बाहर कर दिया जाता और सार्वजनिक नियोजन व शिक्षण संस्थाओं के एक बड़े हिस्से को केवल गोरों के लिए ब्लाक कर दिया जाता। इस हिस्से में अश्वेतों के लिए कोई जगह नहीं होती। ईडब्ल्यूएस आरक्षण ने हमारे देश में यही किया है। प्रचार चाहे कुछ भी किया जा रहा हो, दरअसल हुआ यही है। एक ऐसा घेरा बना दिया गया है, जिसमें किसी भी ऐसे व्यक्ति का प्रवेश पूर्णतः वर्जित है जो सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से अगड़े वर्गों से नहीं है। सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से अगड़े वर्गों में से अधिकांश वर्चस्वशाली जातियों के हैं। केरल जैसे कुछ राज्यों को छोड़कर, सभी वर्चस्वशाली जातियां, उच्च जातियां हैं। तो इस तरह आपने जो किया है, वह यह है कि आपने सार्वजनिक नियोजन में 10 प्रतिशत पद और सरकारी व निजी शैक्षणिक संस्थाओं में 10 प्रतिशत सीटें केवल अगड़े वर्गों के लिए सुरक्षित कर दी हैं। इस घेरे में पिछड़े वर्गों का प्रवेश वर्जित है। इस घेरे के अंदर कोई विविधता नहीं हैं, कोई प्रतिनिधित्वता नहीं है। 

इसका अर्थ यह है कि आपने एक ऐसा घेरा बना दिया है जिसमें, जाति के आधार पर भेदभाव है। क्या इस तरह का संशोधन अमरीकी संविधान में किया जा सकता है? कभी नहीं? एकदम नहीं। एक क्षण के लिए अगर हम मान भी लें कि ऐसा संशोधन हो जाता है तो इसका अमरीका के भविष्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या होगा यदि सार्वजनिक नियोजन और शिक्षण संस्थाओं में 10 प्रतिशत स्थान – जो कि किसी दृष्टि से कम नहीं है – में विविधता समाप्त कर दी जाएगी? इसका जो असर अमरीका के भविष्य पर पड़ेगा, वही भारत के भविष्य पर भी पड़ेगा।

अमरीका में गरीब श्वेतों के लिए, अगर वे व्यक्ति के रूप में गरीब हैं तो, उनकी मदद के लिए कई कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। लेकिन एक समूह के रूप में तो श्वेत ताकतवर हैं। जैसे एंग्लो-सैक्सन प्रोटोस्टेंटों को लें। एक समूह के रूप में वे ताकतवर हैं, समर्थ हैं। लेकिन मान लें कि कोई गरीब एंग्लो-सैक्सन प्रोटोस्टेंट है, तो उसकी मदद के लिए कई कार्यक्रम उपलब्ध हैं। इन कार्यक्रमों के ज़रिये वो अपनी आर्थिक समस्याओं को सुलझा सकता है। उसी तरह हमारे देश में सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से अगड़े वर्ग, एक समूह के रूप में शक्तिशाली और समर्थ हैं। परंतु यदि उनमें कुछ लोग गरीब हैं – और ऐसे लोगों की संख्या काफी है – तो उनके लिए अनेकानेक कार्यक्रम और योजनाएं उपलब्ध हैं, जिनकी मदद वे ले सकते हैं। तो इस प्रकार दोनों देशों में स्थितियां एक सी हैं। सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से अगड़े वर्गों में भी ऐसे समूह हो सकते हैं जो हाशिए पर हों, निर्धन हों या जिन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त न हो और उनके साथ भेदभाव होता हो। इसका एक उदाहरण वे ब्राह्मण हैं, जो मृत्यु और अंतिम संस्कार से संबंधित कर्मकांड संपन्न करवाते हैं। उनके काम को समाज नीची निगाह से देखता है। तो अगर आप ऐसे किसी समुदाय से हैं तो आप अन्य पिछड़ा वर्गों में शामिल हो सकते हैं और आपको आरक्षण का लाभ मिलेगा। जैसा कि मैंने शीर्ष अदालत में भी कहा था, कई ऐसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र समुदाय हैं, जिनके साथ भेदभाव होता रहा है, जो समाज के हाशिए पर हैं और जिन्हें उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है। ऐसे समुदाय पिछड़े वर्गों में शामिल हैं। कहने का मतलब यह कि हमारे देश में यह समस्या नहीं है कि सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से अगड़े वर्गों के कुछ समूह भेदभाव के शिकार हैं, निर्धन हैं और फिर भी उन्हें आरक्षण प्राप्त नहीं है। उन्हें आरक्षण का लाभ मिल रहा है। अगर ऐसे कोई अन्य समूह हैं जिन्हें यह लाभ नहीं मिल रहा है, तो वे इसके लिए मांग कर सकते हैं और उन्हें यह लाभ मिल सकता है। अब चूंकि ऐसे किसी समूह ने उसे आरक्षण दिए जाने की मांग नहीं की है तो हम यह मान सकते हैं कि ऐसे कोई समूह है ही नहीं। तो इस तरह हमारे सामने जो समस्या बचती है, वह केवल सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से अगड़े वर्गों के ऐसे व्यक्तियों या परिवारों की है, जिन्हें आर्थिक समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। उनके लिए अन्य बहुत से कार्यक्रम और योजनाएं उपलब्ध हैं। 

अब बात यह है कि अगर सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों में आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे व्यक्ति या परिवार हैं भी तो उन्हें एक परिवार के रूप में किसी प्रकार का आरक्षण प्राप्त नहीं है। वे केवल उनके संपूर्ण वर्ग को उपलब्ध आरक्षण का लाभ उठा सकते हैं। अगर आप किसी पिछड़े वर्ग के छोटे समूह से हैं तो शायद आपको पूरे वर्ग को दिए गए 50 प्रतिशत आरक्षण में से 1 या 2 प्रतिशत ही मिल सकता है। और इसे भी आपको 10-15 आपके जैसे पिछड़े वर्ग के छोटे–छोटे समूहों के साथ बांटना पड़ेगा। इसका मतलब यह है कि आपको आरक्षण का लाभ मिलने की संभावना न के बराबर है। लेकिन यदि आप आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से अगड़े वर्गों का परिवार हैं और आपका परिवार आर्थिक दृष्टि से कमजोर है तो आपको इस बात की चिंता करने की जरूरत नहीं है कि आपका समूह अगड़ा है या पिछड़ा। आप किसी समूह से बंधे हुए नहीं हैं। एक परिवार के तौर पर, एक व्यक्ति के तौर पर, आप सीधे 10 प्रतिशत आरक्षण कोटे का लाभ उठा सकते हैं, जबकि आप कुल आबादी का बहुत छोटा सा हिस्सा हैं। अब यदि जिस परिदृश्य की कल्पना हमने पहले की थी, उसी पर हम वापिस जाएं तो श्वेत लोग, अश्वेतों और लातिन अमरीकियों के लिए जो सकारात्मक भेदभाव की नीति बनाई गई है ,उसका लाभ उठा सकते हैं। लेकिन अश्वेत और लातिन अमरीकी केवल श्वेतों के लिए निर्धारित क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकते। आप पिछडे़ वर्गों व एससी-एसटी परिवारों को ईडब्लूएस आरक्षण का लाभ उठाने का विकल्प नहीं दे रहे हैं। उन्हें चाहे-अनचाहे केवल उनके संपूर्ण समूह के लिए निर्धारित आरक्षण का ही लाभ लेना होगा। तो इस तरह आप मूलतः सार्वजनिक क्षेत्र में नियोजन और शिक्षा में जातिगत भेदभाव कर रहे हैं। 

यह ऐसा ही है मानो किसी लोकतांत्रिक संविधान में एक बम फिट कर दिया जाए। जातिगत भेदभाव का बम लोकतांत्रिक संविधान में फिट कर दिया गया है और यह संविधान के चीथड़े उड़ा देगा, क्योंकि लोकतांत्रिक संविधान और जातिगत भेदभाव एक-दूसरे से पूरी तरह असंगत हैं। यही कारण है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश (जस्टिस यू. यू. ललित) एवं हमारे सुप्रीम कोर्ट के अत्यंत विद्वान और सम्मानित विधिवेत्ता, जस्टिस रवींद्र भट्ट, अपने निर्णयों में इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ईडब्लूएस आरक्षण संविधान के मूलभूत ढ़ांचे पर प्रहार करता है और सामाजिक समानता को क्षति पहुंचाने वाला है। यह बात किसी भी ऐसे व्यक्ति को आसानी से समझ में आ जाएगी, जो इस बात को जानता है कि संविधान मूलतः कुलीन तंत्र को समाप्त कर प्रतिनिधिक राज्य का निर्माण करना चाहता है, जो कि एक ऐसे लोकतंत्र की ओर पहला कदम होगा, जिसमें सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व प्राप्त हो। ऐसे में सार्वजनिक नियोजन और शिक्षा में एक ऐसा घेरा बना देना, जिसमें केवल उच्च जातियों के सदस्य प्रवेश कर सकते हैं, दरअसल, चारवर्णी व्यवस्था के काल में वापस लौटना है। और इसलिए यह आरक्षण संविधान पर हमला है। 

प्रोफेसर जी. मोहन गोपाल

अपने पूर्व के साक्षात्कारों में आपने इस धारणा कि संविधान में आरक्षण की जो व्यवस्था की गई है वह जाति पर आधारित है, को गलत बताया था और उसकी निंदा की थी। परंतु क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि समस्या की जड़ यही है, क्योंकि हमने पिछड़े वर्गों की पहचान की, पिछड़ी जातियों की नहीं और एक तरह से इसका ही लाभ उठाते हुए आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की अवधारणा विकसित की गई? 

ई.एम.एस. नंबूदरीपाद (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व महासचिव और केरल के प्रथम मुख्यमंत्री) और उनकी प्रशासनिक सुधार समिति की रपट, जो 1950 के दशक में प्रस्तुत की गई थी, तभी से संविधान में पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण के प्रावधान का विरोध इस आधार पर किया जाता रहा है कि देश को जाति नहीं वरन् आर्थिक आधारों पर आरक्षण की जरूरत है। अब यहां हमें दो चीजें समझने की जरूरत है। 

हम शुरूआत संविधान के अनुच्छेद 16(4) की पृष्ठभूमि से करते हैं। यह अनुच्छेद कहां से आया, जब हम यह समझ लेंगे तभी हमें समझ में आएगा कि आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग क्यों हो रही है और तभी हम उस प्रश्न का उत्तर दे सकेंगे, जो कि आपने पूछा है – कि हमने क्या गलती की है। तो सवाल है कि अनुच्छेद 16(4) कहां से आया? इसकी उत्पत्ति को जानने के लिए आपको 1930 में जाना पड़ेगा। उस साल प्रथम गोलमेज सम्मेलन में अपने भाषण में डॉ. आंबेडकर ने अंग्रेजों से कहा कि यदि और जब वे देश से जाएंगे तब देश में कुलीन तंत्र स्थापित हो जाएगा। कुलीन तंत्र का मतलब है एक छोटे से समूह का शासन। और कुलीन तंत्र से आंबेडकर का आशय था हिंदू उच्च जातियां। तो उन्होंने एक ऐतिहासिक मांग उठाई और जहां तक मेरी जानकारी है, दुनिया में किसी राजनैतिक आंदोलन में ऐसी मांग पहले इस तरह से कभी नहीं उठाई गई थी। ऐसा इसलिए क्योंकि आंबेडकर अत्यंत दमित लोगों की तरफ से बोल रहे थे – ऐसे दमितों की तरफ से जिन्हें अत्यंत अमानवीय और बर्बर तरीके से कुचला गया था। अमरीकी गृहयुद्ध में अश्वेतों की मांग क्या थी? वे समानता चाहते थे और श्वेतों के समकक्ष मताधिकार चाहते थे। परंतु आंबेडकर ने क्या मांग की? उन्होंने प्रतिनिधिक सरकार की मांग की। उन्होंने उन वर्गों के लोगों को प्रतिनिधित्व दिए जाने की मांग की, जिन्हें प्रतिनिधित्व हासिल नहीं था। यही कारण है कि उन्होंने हर समुदाय के पृथक निर्वाचन मंडल की मांग की, क्योंकि वे चाहते थे कि प्रत्येक समुदाय को प्रभावी प्रतिनिधित्व मिले।

प्रत्येक समुदाय के लिए प्रतिनिधित्व की मांग एक असाधारण मांग थी। चूंकि उन्होंने यह मांग की और उस पर जोर दिया तथा दमित वर्गों के आंदोलन के कारण भी अनुच्छेद 14 में प्रत्येक व्यक्ति की समानता और प्रत्येक व्यक्ति को विधि के समान संरक्षण की बात कही गई है और अनुच्छेद 15 में भेदभाव न करने की बात कही गई है। उन्होंने 1930 में ऐसी मांग वर्गों (समूह) के प्रतिनिधित्व के लिए की थी, जिन्हें प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं था। वे पृथक निर्वाचक मंडल के जरिए राजनैतिक प्रतिनिधित्व और शासकीय सेवाओं में प्रतिनिधित्व दोनों की बात कर रहे थे। सन् 1930 में उन्होंने माईनारिटीज कमेटी को ज्ञापन सौंपा था। इस कमेटी के अध्यक्ष ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री थे। यह प्रथम गोलमेज सम्मेलन की बात है। इस ज्ञापन में उन्होंने आठ शर्तों की बात कही थी। उन्होंने कहा था कि जब अंग्रेज भारत छोडें तब उच्च जातियों से उनकी रक्षा के लिए दमित वर्गों को यह आठ तरह की सुरक्षा दी जानी चाहिए। अगर मेरी याददाश्त मुझे धोखा नहीं दे रही है तो बिंदु क्रमांक 4 विधानमंडलों के संबंध में था और बिंदु क्रमांक 5 सेवाओं में प्रतिनिधित्व के बारे में था। 

इस प्रकार अनुच्छेद 16(4) का इतिहास यहीं से शुरू होता है। डॉ. आंबेडकर की मांग थी कि सार्वजनिक सेवाओं में सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए और शिक्षा में भी क्योंकि आखिर शैक्षणिक संस्थाओं से निकलकर ही लोग सार्वजनिक सेवाओं में आते हैं। उन्होंने विधानमंडलों और सार्वजनिक सेवाओं की बात कही। जबकि उस समय तक देश में विधानमंडल थे ही नहीं। उन्होंने कहा कि कांग्रेस जवाबदेह सरकार की मांग कर रही है। उस समय कांग्रेस इसी शब्द का इस्तेमाल करती थी। वह लोकतांत्रिक सरकारकी बात नहीं करती थी, बल्कि जवाबदेह’ सरकार की बात करती थी। मतलब ऐसी सरकार जो जनता के प्रति जवाबदेह हो या जनता द्वारा चुनी गई हो। आंबेडकर का कहना था कि सरकार जवाबदेह तो होनी ही चाहिए, साथ ही वह प्रतिनिधिक भी होनी चाहिए। केवल जवाबदेह होना काफी नहीं है– हम प्रतिनिधिक सरकार चाहते हैं, जिसमें सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व हो।” और इसीलिए पृथक निर्वाचन मंडल की बात हुई। 

कांग्रेस ने पहले गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया। उसने दूसरे और तीसरे सम्मेलनों में भाग लिया। आंबेडकर की इस मांग पर गांधीजी की प्रतिक्रिया बहुत महत्वपूर्ण थी। उन्होंने कहा कि मैं सबका प्रतिनिधित्व करता हूं। दलित वर्गों का, दमित वर्गों का, हरिजनों का और मिस्टर जिन्ना के मुसलमानों का भी। मिस्टर आंबेडकर आप मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते, मिस्टर आंबेडकर आप दमित वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। मैं गांधी, पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करता हूं।” जो वे कह रहे थे, वह यह था कि केवल हिंदू वर्चस्वशाली वर्ग ही भारत का नेतृत्व कर सकते हैं और कोई भी समुदाय प्रतिनिधित्व की मांग नहीं कर सकता। प्रतिनिधित्व के लिए क्या चाहिए? प्रतिनिधित्व के लिए ज़रूरी होता है एक समुदाय के रूप में संगठन और गोलबंदी। समुदाय के रूप में गोलबंद होने के लिए ज़रूरी है समुदाय के रूप में पहचान। तो आप पहचान से शुरू करते हैं और संगठन और गोलबंदी के रास्ते प्रतिनिधित्व तक पहुंचते हैं – आप यह तय करते हैं कि आपका प्रतिनिधि कौन हो। तो वे आपको इन सभी चीज़ों से वंचित करना चाहते हैं। वे कहते हैं कि तुम्हारी अलग पहचान नहीं होगी, तुम संगठित नहीं होगे, तुम प्रतिनिधित्व नहीं करोगे। हम तुम्हारा प्रतिनिधित्व करेंगे। हमारे लिए तुम व्यक्तियों का एक झुंड हो। अगर व्यक्ति के तौर पर तुम्हें आर्थिक कष्ट होगा तो हम तुम्हें आर्थिक मदद उपलब्ध करवाएंगे। हम तुम्हें आरक्षण भी देंगे। तुम्हारी आर्थिक बेहतरी के लिए हम तुम्हें नौकरी भी देंगे। तुम्हारी आर्थिक बेहतरी के लिए हम तुम्हें कॉलेजों में दाखिला भी देंगे। लेकिन यह सब व्यक्ति के रूप में होगा। परन्तु प्रतिनिधित्व की राजनैतिक मांग – गरीबी उन्मूलन की नहीं, प्रतिनिधित्व की – जो देश के अनेकानेक अलग-अलग सामाजिक समूहों द्वारा की जा रही है, चाहे उनका कोई भी धर्म हो, चाहे उनकी कोई भी जाति हो, यह हमें मंज़ूर नहीं है।

पता नहीं क्यों उस समय लोगों का ध्यान केवल उस सुरक्षात्मक उपाय पर गया, जिसका संबंध पृथक निर्वाचक मंडलों से था। यह अच्छा ही हुआ कि इस सुझाव पर ध्यान नहीं दिया गया कि दमित वर्गों को सार्वजनिक नियोजन में प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए और गांधीजी ने इसके खिलाफ अनशन नहीं किया। आंबेडकर को विधानमंडलों हेतु पृथक निर्वाचन की मांग को इसलिए छोड़ना पड़ा क्योंकि अगर अनशन के दौरान गांधीजी की मृत्यु हो जाती तो पूरे देश में दमित वर्गों की शामत आ जाती। परंतु आंबेडकर ने गोलमेज सम्मेलन में दमित वर्गों की सुरक्षा के लिए जो पांचवां सुझाव दिया था, उसे उन्होंने अनुच्छेद 16(4) के रूप में संविधान में शामिल कर लिया। यह अनुच्छेद एक तरह का संवैधानिक सिद्धांत है और सिद्धांत यह है कि सभी वर्गों को समान प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। मेरी जानकारी में इस तरह का सिद्धांत दुनिया के किसी अन्य संविधान में नहीं है। आंबेडकर ने इस सिद्धांत को मूलाधिकारों से संबंधित अध्याय का हिस्सा बनाया और इस तरह सार्वजनिक नियोजन में – अर्थात न्यायपालिका और कार्यपालिका में – ऐसे सभी वर्गों को, जिन्हें प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है, प्रतिनिधित्व दिया जाना जनता का मूल अधिकार बन गया।

‘पिछड़े’ से आशय है प्रतिनिधित्व से वंचित। इस प्रावधान के जरिए आंबेडकर ने यह सुनिश्चित किया कि भारत कुलीन तंत्र न बन जाए। क्योंकि कुलीन तंत्र में कार्यपालिका एवं न्यायपालिका पर चंद वर्गों या समुदायों का नियंत्रण होता है। अगर आप इनमें सभी को प्रतिनिधित्व दे देते हैं तो इससे कुलीन तंत्र अपने-आप समाप्त हो जाता है। अब, वर्चस्वशाली जातियां यह नहीं चाहती थीं कि भारत एक प्रतिनिधिक राज्य बने, जिसमें देश के सभी विविध समुदायों को प्रतिनिधित्व मिले और इस तरह देश का लोकतांत्रिकरण हो। और इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वर्चस्वशाली जातियों ने व्यक्तियों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की अवधारणा प्रस्तुत की। यह आरक्षण समूह के रूप में नहीं दिया जाना था। यह आरक्षण निर्धन समूहों या समुदायों को नहीं दिया जाना था, बल्कि निर्धन परिवारों को दिया जाना था। परंतु वे यह खुलकर कह नहीं रहे हैं कि वे निर्धन समूहों या समुदायों को नहीं बल्कि केवल निर्धन परिवारों को आरक्षण देंगे। ऐसा क्यों? 

ऐसा इसलिए क्योंकि वे नहीं चाहते कि निर्धन लोग सामाजिक समूहों के रूप में संगठित हों, क्योंकि अगर वे समूहों के रूप में संगठित हो जाएंगे तो वे कुलीन तंत्र को उखाड़ फेंके देंगे। कुलीन तंत्र में सत्ता केवल मुट्ठी भर सामाजिक समूहों के हाथों में होती है और ये समूह नहीं चाहते कि अन्य नए समूह गोलबंद हों और समूहों के रूप में गोलबंद हुए बिना व्यक्ति कभी भी वर्चस्वशाली समूहों से मुकाबला कर सामाजिक परिवर्तन नहीं ला सकता।

तो इस प्रकार, आर्थिक आरक्षण, सामाजिक समूहों के बीच सामाजिक समानता स्थापित न होने देने की चाल है। जबकि संविधान यह कहता है कि न केवल व्यक्तियों, वरन् समूहों के बीच भी समानता स्थापित होनी चाहिए। यह बात राज्य के नीति-निदेशक तत्व का हिस्सा है। लेकिन ऐसा न होने पाए, इसलिए उन्होंने यह चाल चली कि वे केवल ऐसे व्यक्तियों को आरक्षण देंगे, जो निर्धन हैं। 

चलिए, ऐसा ही सही। लेकिन बात यह है कि वे आर्थिक आरक्षण का प्रयोग, प्रतिनिधित्व से वंचित समूहों के लिए आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त करने के लिए करेंगे। यह विशुद्ध रूप से राजनीति है, जिसका गरीबों का भला करने से कोई लेना-देना नहीं है। तो इस तरह, एक लोकतांत्रिक, प्रतिनिधिक राज्य के एक राजनैतिक कार्यक्रम – जिसका उद्देश्य सभी सामाजिक समूहों को प्रतिनिधित्व देना है – को समाप्त करने के लिए वे एक गरीबी-उन्मूलन कार्यक्रम लेकर आए हैं, जिसके अधीन ऐसे लोगों को, जो आर्थिक परेशानी में है, रोज़गार दिया जाना है। और ऐसे लोगों को वे आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) कह रहे हैं। हाशियाकृत और प्रतिनिधित्व से वंचित सामाजिक समूहों की गोलबंद होने और सत्ता में अपना जायज़ हिस्सा मांगने की ताकत और क्षमता को समाप्त करना ही ईडब्ल्यूएस आरक्षण का असली उद्देश्य है। वे ईडब्ल्यूएस आरक्षण का विस्तार करते जाएंगे और धीरे-धीरे वंचित सामाजिक समूहों को नष्ट कर देंगे। 

अब जो उच्च जातियां और उच्च वर्ग हैं, वे आरक्षण के खिलाफ नहीं है। उन्हें तो आरक्षण बहुत भाता है। मैंने कुछ समय पहले इस बारे में लिखा भी था। आखिर चातुर्यवर्ण व्यवस्था भी तो मूलतः आरक्षण की व्यवस्था ही है। आरक्षण का अविष्कार ही सवर्णों ने किया है। उन्होंने कहा यह काम अमुक जाति के लिए आरक्षित है, यह काम दूसरी अमुक जाति के लिए आरक्षित है – व्यक्ति के रूप में नहीं, अपितू समूह के रूप में। स्वतंत्रता के बाद उन्होंने केंद्रीय विद्यालयों में केंद्र सरकार के कर्मचारियों के बच्चों को आरक्षण दिया। उन्होंने मूलवासियों के लिए, खिलाड़ियों के लिए, आरक्षण की व्यवस्था की। उन्होंने तरह-तरह के आरक्षण लागू किए। लेकिन ये सब आरक्षण उन मामलों में लागू किए गए जहां प्रतिनिधित्व से वंचना या हाशियाकरण या सामाजिक भेदभाव मुद्दे नहीं थे। उन्होंने कहा, “देखो, ये काम केवल हम करेंगे, क्योंकि हम इसे करते आए हैं, हम इसके आदी हैं। हम स्पर्द्धा और प्रतियोगिता के आदी नहीं हैं। हम दूसरे लोगों से मुकाबला नहीं करते, उन्हें बाहर कर देते हैं। वे इस काम के लिए हैं ही नहीं। उन्हें यह काम आता ही नहीं है। तो इसलिए सबसे अच्छे अवसर हम अपने लिए सुरक्षित कर लेते हैं। यही चातुर्यवर्ण व्यवस्था है और हम उसे वापिस लाना चाहते हैं। हम ऐसी व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं, जिसमें सबसे अच्छे मौके केवल हमारे लिए हों। दूसरे इसके लिए योग्य ही नहीं हैं। हम हमारे लिए एक शुद्ध और पवित्र क्षेत्र सुरक्षित कर देना चाहते हैं।” इस तरह ईडब्ल्यूएस एक तरह से सार्वजनिक नियोजन और शिक्षा में अछूत प्रथा का आगाज है। 

मेरी दृष्टि में ईडब्ल्यूएस आरक्षण से आशय है केवल और केवल सवर्णों के लिए आरक्षण। हम किसी के खिलाफ नहीं हैं। हम सभी सामाजिक समूहों को एक बराबर मानते हैं और इनमें तथाकथित उच्च जातियां और उच्च वर्ग भी शामिल हैं। जैसा कि अनुच्छेद 29 में कहा गया है कि सभी वर्गों और समुदायों को अपनी लिपि, भाषा और संस्कृति को संरक्षित करने का अधिकार है, उन्हें सामाजिक समूहों के रूप में संगठित होने का अधिकार है – ऐसे समूहों के रूप में जो वे स्वयं बनाएंगे, जिनमें लगातार परिवर्तन होते रहेंगे, रूपांतरण होते रहेंगे और जो किसी कानून या किसी प्रकार के बल या राज्य द्वारा नियंत्रित नहीं होंगे। हम चाहते हैं कि वे सभी संगठित हों, रूपांतरित हों, परिवर्तित हों, राज्य में अपने लिए प्रतिनिधित्व की मांग करें और यह प्रतिनिघित्व उन्हें मिले ताकि हम ऐसा प्रतिनिधिक और लोकतांत्रिक राज्य बना सकें, जो लोगों के सभी समूहों का प्रतिनिधित्व करता हो और उन लोगों का भी जो किसी समूह का भाग बनना नहीं चाहते। उन्हें संसद में जाने का अधिकार है, उन्हें कार्यपालिका और न्यायपालिका में जाने का अधिकार है, उन्हें अपने विचार लोगों के सामने रखने का अधिकार है। यही तो लोकतंत्र है। लोकतंत्र यह नहीं है कि कोई कहे कि देखो, ये जो थोड़े से समूह हैं, वे अच्छे हैं। अन्य सभी समूह खतरनाक और राष्ट्रविरोधी हैं और हम इन चंद अच्छे समूहों के अलावा किसी भी अन्य समूह को न तो अस्तित्व में बने रहने देंगे, न शासन करने देंगे और न अपना वर्चस्व स्थापित करने देंगें।” वे न केवल यह चाहते हैं कि कोई अन्य समूह अपना वर्चस्व स्थापित न कर सके बल्कि वे अन्य समूहों का अस्तित्व ही समाप्त कर देना चाहते हैं। यह तो लोकतंत्र नहीं है। पूरी स्थिति को मैं इस रूप में देखता हूं।

क्रमश: जारी

(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

अनिल वर्गीज

अनिल वर्गीज फारवर्ड प्रेस के प्रधान संपादक हैं

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