बिहार आज भी हिंदी पट्टी में मंडलवादियों का लगभग अपराजेय गढ़ सा रहा है, जिस पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) निर्णायक कब्जा करना चाहती है। वह मंडल धारा के ही एक राजनेता नीतीश कुमार के कंधे पर सवार होकर ताकत बढ़ाने में कामयाब हुई। लेकिन, भाजपा के साथ रहते हुए भी नीतीश कुमार उसके लिए अंतिम तौर पर अवरोध के बतौर ही थे।
भाजपा नीतीश कुमार को अपने रास्ते से हटाने के लिए लगातार साजिशें भी रच रही थी। लेकिन जातिवार जनगणना के सवाल पर ही तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार की नजदीकियां बढ़ी और मंडल की दो शक्तियां एकजुट हुईं। इस एकजुटता ने भाजपा को राजनीतिक अलगाव में डाल दिया। इसकी धमक राष्ट्रीय स्तर पर भी सुनी गई और सियासी गलियारे में 2024 के लिए भाजपा की चुनौतियों के बढ़ने के कयास लगाए जाने लगे।
खैर, अब जाति आधारित जनगणना के जरिए बिहार में मंडल आंदोलन के दूसरे दौर का आगाज हो रहा है। नतीजतन कड़ाके की ठंड के बीच बिहार में शुरु हुए जाति आधारित जनगणना ने यहां के राजनीति के तापमान को बढ़ा दिया है। इसका असर राष्ट्रीय राजनीति पर भी पड़ने की संभावना दिखाई पड़ रही है। मसलन, महाराष्ट्र से इस पहल के समर्थन में आवाज भी आयी है। एनसीपी नेता शरद पवार ने नीतीश कुमार का समर्थन करते हुए कहा है कि हम भी कई वर्षों से राज्य में जाति आधारित जनगणना की मांग करते आ रहे हैं। उधर छगन भुजबल ने तो बिहार की तरह ही महाराष्ट्र में भी जाति आधारित गणना की मांग भी कर डाली है।
इस बीच खबर यह आई है कि केंद्र में सत्तासीन भाजपा सरकार ने 2021 में होने वाली जनगणना की तारीख पांचवीं बार बढ़ा दी गयी है। यह पहला मौका है जब जनगणना को विलंबित रखा गया है और अनुमानित तौर पर यह 2024 से पहले होना मुश्किल है। जाहिर तौर पर केंद्र की यह पहल जातिवार जनगणना के सवाल को टालने के लिए ही उठाई गई है। केंद्र की चुनौतियों का आलम यह है कि जनगणना में जाति का कॉलम जोड़ने की मांग देशभर से लगातार उठ रही है। इन आवाजों को बिहार में शुरू हुई जातिवार जनगणना मजबूती देगी।
हाल के इतिहास पर मनन करें तो कहना अतिशयोक्ति नहीं कि सामाजिक न्याय की शक्तियां लंबे समय से जातिवार जनगणना कराने की मांग सड़क से संसद तक उठाती रही है। बिहार इस मामले में अग्रणी राज्य रहा है। सभी दलों की सहमति से 18 फरवरी, 2019 और फिर 27 फरवरी, 2020 को बिहार विधानसभा और विधान परिषद ने जातीय जनगणना कराने से संबंधित प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पारित करने के उपरांत केंद्र सरकार को भेजा था। हालांकि, कई अन्य राज्यों ने भी इस तरह का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा है।
गौर तलब है कि 2019 में लोकसभा चुनाव से पहले 2018 में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने 2021 की जनगणना में ओबीसी की गणना की घोषणा की थी। लेकिन, 2019 में लोकसभा चुनाव बाद सरकार का रवैया बदल गया। पहले राज्यसभा में एक सवाल पर केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने 2021 की जनगणना को जाति के आधार पर करने से इंकार किया तो बाद के दिनों में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दायर एक हलफनामे में भी जाति आधारित जनगणना को जटिल व कठिन बताते हुए असंभव बताया।
सनद रहे कि बिहार सरकार इस मामले में केवल प्रस्ताव भेजने तक ही नहीं रूकी रही। 23 अगस्त, 2021 को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की और जातिवार जनगणना कराने का अनुरोध किया। लेकिन तब केंद्र सरकार ने जातिवार जनगणना से इंकार करते हुए कहा कि राज्य अगर चाहें तो अपने स्तर से करा सकते हैं। नीतीश कुमार ने बिहार में जाति आधारित गणना की दिशा में कदम बढ़ाया और अंतत: सभी दलों की सहमति से फैसला लिया गया। 1 जून, 2022 को जातिवार जनगणना पर सहमति बनी और 2 जून, 2022 को कैबिनेट से मंजूरी मिल गई।जाति आधारित गणना का फैसला बिहार की एनडीए सरकार ने ही लिया था, लेकिन, भाजपा ने कई सवालों को उठाते हुए हिचकिचाहट के साथ समर्थन दिया था। जाहिर तौर पर यह उसके लिए राजनीतिक मजबूरी ही थी।
अब बीते 7 जनवरी, 2023 से जाति आधारित गणना की शुरुआत हुई है। इस शुरुआत ने ही भाजपा की बेचैनी बढ़ा दी है। भाजपा के वरिष्ठ नेता व सांसद सुशील मोदी महागठबंधन के श्रेय लेने पर सवाल खड़ा करते हुए कह रहे हैं कि यह एनडीए सरकार का फैसला था तो प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल सभी दलों को गणना की प्रक्रिया की जानकारी नहीं देने और उपजाति को गणना में शामिल नहीं करने पर आक्रोश व्यक्त कर रहे हैं। वे जाति के बतौर वैश्य को चिन्हित करते हुए उपजाति का जिक्र करने के पक्ष में हास्यास्पद तर्क दे रहे हैं। पूर्व उपमुख्यमंत्री तारकिशोर प्रसाद इससे समाज के विकास की जगह जातीय तुष्टिकरण की राजनीति को बढ़ावा मिलने की बात कर रहे हैं। लेकिन, विधानसभा में नेता विपक्ष विजय कुमार सिन्हा ने नीतीश कुमार पर लालू प्रसाद के रास्ते पर चलकर बिहार में जातीय उन्माद फैलाने की कोशिश करने का आरोप लगाते हुए जाति आधारित गणना के औचित्य पर सवाल खड़ा किया है। उन्हें बिहार में हुए जातीय जनसंहार की याद आ रही है तो फिर से राज्य में अशांति लाने की कोशिश दिख रही है।
कुल मिलाकर भाजपा की घबराहट और परेशानी साफ तौर पर सामने आ रही है और यह साफ है कि जाति आधारित गणना ने बिहार में उसकी राजनीति को उलझा दिया है। उसे मंडल उभार के दिनों की यादें सताने लगी हैं। हालांकि हिंदुत्व के साथ सोशल इंजीनियरिंग के जरिए वह मंडल की जमीन पर अभी तक काबिज हुआ है, वह नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के एक साथ आने के बाद भी कारगर होने का संकेत दे रही थी। हाल में संपन्न तीन विधानसभा क्षेत्रों में हुए उपचुनाव में भाजपा ने दो पर और एक पर महागठबंधन के सबसे बड़े घटक दल राजद की जीत हुई। मोकामा और गोपालगंज के दोनों सीटों पर राजद लड़ी, लेकिन उसे जीत मोकामा सीट पर ही मिली। वहां भी भाजपा ने पिछले चुनाव में राजद के खिलाफ जदयू की अपेक्षा काफी बेहतर प्रदर्शन किया है। गोपालगंज से भाजपा ने जीत हासिल की। अभी अंतिम उपचुनाव कुढ़नी विधानसभा का हुआ, जहां भाजपा की जीत मिली। महागठबंधन बनने के बाद उपचुनावों के नतीजों से जो ट्रेंड उभरता है, वह भाजपा के पक्ष में जाता दिखता है। लेकिन अब भाजपा को जाति आधारित जनगणना से हिंदुत्व के साथ सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला बिगड़ता दिख रहा है।
बिहार में जाति आधारित जनगणना शुरु होने से ही जातिवार जनगणना के सवाल को राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक विमर्श में जगह मिलने लगी है और यह 2024 के चुनाव के महत्वपूर्ण एजेंडा के बतौर मजबूती से उभर कर आता हुआ दिख रहा है। नीतीश कुमार ने जाति आधारित गणना का आगाज करते हुए जातीय गणना राज्यों के साथ ही देशभर के लोगों की तरक्की और उनके आर्थिक विकास के लिए जरूरी बताते हुए नरेंद्र मोदी की तरफ सवाल उछाल भी दिया है। जाति आधारित जनगणना की रिपोर्ट केंद्र को भी भेजने की बात करते हुए उन्होंने कहा है कि केंद्र की जिम्मेदारी पूरे देश को विकसित करने की है। बहरहाल, नीतीश कुमार पहले ही भाजपा को 2024 में हराने के लिए विपक्षी पार्टियों को गोलबंद करने के लिए राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हो चुके हैं। बिहार में जाति आधारित गणना कराने से राष्ट्रीय स्तर पर 2024 का चुनावी एजेंडा बनाने में उन्हें ताकत मिलेगी।
इसका संकेत उन्होंने पहले ही दे दिया है। आर्थिक आधार पर कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) आरक्षण के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट के फैसला आने के बाद ही नीतीश कुमार ने आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूर्व में लगाये गये 50 प्रतिशत की सीलिंग टूटने पर ओबीसी का आरक्षण बढ़ाने का सवाल उठाकर संकेत दे दिया है। ऐसे में नीतीश कुमार वर्तमान में उत्तर भारत में ओबीसी के सबसे बड़ा राजनीतिक चेहरा बनने की पूरी संभावना रखते हैं। वजह यह कि जातिवार जनगणना का सवाल सीधे ओबीसी पहचान के साथ जुड़ता है। इस सवाल के साथ ही जाति का सवाल उभर कर आता है। वहीं बिहार के बाद उत्तर प्रदेश में भी मंडल की जमीन अब भी बची हुई है। नीतीश अगर पहल करें तो वे सामाजिक न्याय के मुद्दों के साथ भाजपा के लिए घातक साबित हो सकते हैं।
वैसे भी मंडल-2 अगर परवान चढ़ता है तो 2024 में खासतौर पर बिहार-यूपी भाजपा को गद्दी से उतारने में निर्णायक हो सकता है। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।
(संपादन : नवल/अनिल)