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बहस-तलब : हल्द्वानी में भूमि विवाद और समाधान

उत्तराखंड हाई कोर्ट ने एक ऐसा प्रशासनिक फैसला दिया, जो तराई में बेहद खतरनाक साबित हो सकता था, क्योंकि पचास हजार से अधिक लोगों को एक रात में ही बेघर करने के परिणाम क्या होंगे, इसकी चिंता शायद उन लोगों को नहीं होती है, जिनकी शब्दावली में लोग नहीं, जमीन का टुकड़ा ज्यादा महत्वपूर्ण है। बता रहे हैं विद्या भूषण रावत

उत्तराखंड हाई कोर्ट के एक निर्णय के कारण हल्द्वानी शहर के करीब 4 हजार से अधिक परिवारों के लगभग पचास हजार लोग आज विस्थापन के कगार पर हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले मे संजीदगी दिखाते हुए फरवरी में अगली सुनवाई तक लोगों के घरों को ध्वस्त कर देने के हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी है। शीर्ष न्यायालय ने कहा है कि जब तक लोगों के रहने-सहने की वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो जाती है, तब तक उन्हें विस्थापित करना उचित बात नहीं होगी।

 

कुल मिलाकर यह लगता है कि यह पूरा मामला अब विस्थापन पर ही केंद्रित हो जाएगा और कोर्ट उसमें थोड़ा नरमी दिखाते हुए पुनर्स्थापन की बात कहेगा। वैसे भी इस तरह के मामलों के अंत मे न्यायालय के फैसले केवल प्रशासन केंद्रित ही होते हैं। जिस प्रकार से व्यवस्थाओं के अंदर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया गया है और फिर उसी आधार पर आगे की कार्यवाही होगी, तो जाहिर तौर पर खतरा बरकरार ही रहेगा। 

इसमें कोई शक नहीं कि किसी भी स्थान पर अतिक्रमण की कार्यवाही पर रोक लगायी जानी चाहिए और इसके लिए स्थानीय प्रशासन के अधिकारियों की जवाबदेही तय हो ताकि कोई भी सरकारी जमीन पर इतनी आसानी से कब्जा नहीं जमा सकता जब तक कि सरकारी बाबुओं का ‘आशीर्वाद’ और सहयोग न हो। 

विदित है कि हल्द्वानी उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में जाने का द्वार है। उससे जुड़ा हुआ काठगोदाम इस क्षेत्र का अंतिम रैलवे स्टेशन है। हालांकि अभी खटीमा, बनबसा और टनकपुर (नेपाल सीमा से लगा छोटा सा कस्बा) तक छोटी रेल-लाइन (मीटर गेज) की व्यवस्था है, लेकिन एक या दो रेलगाड़ियां ही होंगीं, जो वहां तक जाती हैं तथा हल्द्वानी पहुंचने के लिए भी रेलगाड़ियों की संख्या एक या दो होंगी।  

खैर, भारतीय रेल ने तो शायद ही कभी अपने स्वामित्व वाली जमीनों की परवाह कर कोई मुकदमा किया हो, लेकिन यहां पर एक ‘जनहित’ के नाम पर एक याचिका दायर की गई थी कि रेलवे की जमीन का अतिक्रमण हुआ है और पूरी याचिका में लोगों को बिना सुने सुनवाई भी हो गई। 

अब इससे शर्मनाक बात क्या हो सकती है कि राज्य सरकार इस मामले मे बजरंग दल की तरह कार्य कर रही थी? यह तो जांच भी नहीं की गई कि आखिर कुल कितनी जमीन की बात चल रही है और रैलवे की आधिकारिक संपत्ति कितनी है। क्या अतिक्रमण केवल रैलवे की जमीन पर हुआ है या राज्य सरकार की भूमि पर भी हुआ है? यदि सभी लोग अतिक्रमण किए हैं तो सरकारी बैंक, इंटर कॉलेज और अन्य संस्थान इस भूमि पर कैसे बना दिए गए? 

न्याय की आस

सवाल यह है कि क्या केवल मामला गफ़ूर बस्ती का था, जिसमें मुसलमानों की संख्या निस्संदेह अधिक है, लेकिन इलाके में तो अनेक मंदिर और गुरुद्वारे भी हैं। 

नैनीताल में उत्तराखंड हाई कोर्ट ने जिस तल्खी मे पुलिस बल का इस्तेमाल करने की बात कही, वह बेहद ही असंवेदनशील था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी गलत ठहराया है। यदि सोशल मीडिया में सरकारी पार्टी (भाजपा) के आईटी सेल की बात मानें तो पूरे इलाके में रोहिंग्या मुसलमान जिसे अतिसाधरणीकृत करके अब बांग्लादेशी कह दिया जाता है, आ गए है और हमारी सुरक्षा को खतरा है। 

वास्तिवकता समझने के यह जरूरी है कि हम पूरे हल्द्वानी और तराई क्षेत्र की भौगोलिक और सामाजिक स्थितियों को समझें, तभी हम इस प्रश्न को ईमानदारी से देख सकेंगे। नहीं तो यह केवल लोगों की समस्याओं के समाधान में नहीं, केवल व्यवधान मे यकीन करते रहने जैसा होगा। वैसे भी न्यायपालिका का काम केवल प्रशासन को ‘सख्ती’ से ‘कानून’ लागू कराने का नहीं होता, अपितु मानवीय पहलुओं को ध्यान में रख कर उनका समाधान करने का भी होता है। 

यह बात भी समझने की होती है कि पहले जब लोग रहते थे तब सभी के पास जमीन की मिल्कियत नहीं होती थी। कागजों-दस्तावेजों का सिलसिला तो अब डिजिटल युग मे होना शुरू हो गया है, जब जमीनों पर माफियाओं की नजर पड़ने लगी। जबसे कानूनों का इस्तेमाल जाति और धर्म की बुनियाद पर होने लगा तो दस्तावेज लोगों की जरूरत बन गए। 

ऐसा नहीं है कि हल्द्वानी के लोग चार-पांच साल पहले यहा आकर स्थानीय लोगों को निकाल कर खुद मालिक बन बैठे। वैसे भी रैलवे की पटरियों के आसपास रहने वाले लोगों में बहुलांश गरीब ही होते हैं, जो मेहनत-मजदूरी करके किसी तरह अपने लिए जमीन का एक टुकड़ा खरीदते हैं और मकान बनाकर रहते हैं। ये लगातार गृह कर, पानी शुल्क, बिजली बिल आदि का भुगतान कर रहे हैं। सोशल मीडिया के जरिए ऐसे नॅरटिव फैलाए जाते हैं ताकि एक वर्ग के लोगों को आततायी बताकर उनकी उपस्थिति को ही शांति व्यवस्था के लिए खतरा बता दिया जाय। 

सबसे दुखद बात यह कि जिस राजस्व विभाग ने यहा लोगों को पहले बसने दिया या उनके घरों की रजिस्ट्री या सेल डीड बनाई या घर कर, बिजली कर आदि के बिल मांगे होंगे, वह यह बताने मे नकामयाब रहा कि क्या कब्जा हुई सारी जमीन रैलवे की है या राज्य सरकार की भी कोई भूमि है? 

दुखद यह कि उत्तराखंड हाई कोर्ट ने एक ऐसा प्रशासनिक फैसला दिया, जो तराई में बेहद खतरनाक साबित हो सकता था, क्योंकि पचास हजार से अधिक लोगों को एक रात में ही बेघर करने के परिणाम क्या होंगे, इसकी चिंता शायद उन लोगों को नहीं होती है, जिनकी शब्दावली में लोग नहीं, जमीन का टुकड़ा ज्यादा महत्वपूर्ण है। अब सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि पुनर्वास एक महत्वपूर्ण सवाल है तो यह देखना होगा कि सुप्रीम कोर्ट का अंतिम आदेश क्या कहता है?

यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि जब उत्तराखंड आंदोलन मजबूत हो रहा था तो उस समय तराई क्षेत्र को उत्तराखंड से अलग करने की बात भी कही जा रही थी और बहुत से लोगों ने इस विषय में बाकायदा सरकार को लिखा भी कि तराई की संस्कृति पहाड़ों से नहीं मिलती-जुलती है। यह सांस्कृतिक संकट तो आने वाले दिनों में और भी खतरनाक मोड लेगा क्योंकि आबादी के अनुसार उत्तराखंड के मैदानी इलाके पहाड़ी इलाकों से कहीं अधिक बड़े होंगे। केवल हरिद्वार, उधमसिंह नगर जैसे जिले ही उत्तराखंड की बाकी आबादी से अधिक होंगे और फिर जब विधानसभा की सीटों के नए मूल्यांकन या सीमांकन होंगे तो पहाड़ों की आबादी के आधार पर सीटें कम होंगी। वही बात जिसके लिए केरल, तमिलनाडु और दक्षिण के अन्य राज्यों मे चिंता व्याप्त है और उत्तर प्रदेश और बिहार में खुशी है, क्योंकि यहां सीटों की संख्या खूब बढ़ेगी, क्योंकि आबादी बढ़ रही है।

उत्तराखंड का तराई अंचल असल मे बाहर से बसाये गए लोगों का अंचल है। यहां के मूलनिवासी थारु और बोकसा जनजाति के लोग अपनी ही भूमि पर अल्पसंख्यक हो गए हैं। देश के विभाजन के बाद सरकार ने पंजाबी और बंगाली शरणार्थियों को इन इलाकों मे बसाया था। हल्द्वानी मे जिन बस्तियों को उजड़ने की बात हो रही है, उसमें बहुत से लोग 1907 के बसे हैं। अब जिन लोगों को नगरपालिका और राजस्व ने पट्टा दिया हो, उन्हें हटाने का क्या मतलब? अगर कागज के आधार पर लोगों को घरों से बाहर करना शुरू कर देंगे तो भारत के अंदर ऐसी स्थिति पैदा हो जाएगी कि अधिकांश लोगों को गैर-कानूनी बना दिया जाएग।

हम पाते हैं कि तराई एक ज्वालामुखी के मुहाने पर खड़ा है, जहां भूमि प्रबंधन अभी तक ईमानदारी से नहीं हुआ और पूरे उधम सिंह नगर क्षेत्र में बड़े-बड़े फार्म हाउस बने हुए हैं तथा अधिकांश थारु व स्थानीय समुदाय के लोगों की जमीन अतिक्रमित है। जमीन के सवाल को उठाने पर आपको यहां जीवन का खतरा भी बन सकता है। तराई और उत्तराखंड के पहाड़ी अंचलों के मध्य एक बड़ी सांस्कृतिक खाई बनी हुई है और इसका कारण है तराई में बसाई गई अधिकांश आबादी का बाहरी होना। वजह यह कि इस क्षेत्र में जमीनें काफी थीं और आदिवासियों ने इसे बनाया था। लेकिन आजादी के बाद सरकार ने पहले सिख और फिर बंगाली शरणार्थियों को यहां बसाया। इसके बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोग भी यहां बसाये गए। जब पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों को इस बात का पता चला तो वहां से भी बहुत से लोग यहां आकर बस गए। 

आज लखीमपुर खीरी और पीलीभीत (दोनों उत्तर प्रदेश में हैं), शहीद उधम सिंह नगर (उत्तराखंड) में स्थितियां एक जैसी हैं। यहा सीलिंग कानून कभी ईमानदारी से लागू ही नहीं हुआ और चकबंदी की पूरी प्रक्रिया के खिलाफ ही बड़े किसान एकजुट हो जाते हैं। 

दरअसल, सीलिंग से फााजिल (अतिरिक्त) भूमि को दलितों में वितरित करने के लिए एक लंबी कानूनी लड़ाई लगभग 25 वर्षों से अधिक निचली अदालतों से लेकर हाई कोर्ट तक लड़ी गई। अंतिम लड़ाई हाई कोर्ट में लड़ी गई, जिसमें कोर्ट से सरकार से कानून को लागू करवाने की बात कही थी। जिन लोगों के कब्जे को सुप्रीम कोर्ट ने गैर कानूनी कहा, उन्हें तो सरकार ने नहीं हटाया और अंत तक सत्य छिपाती रही। 

यह तो सर्वविदित है कि अदालतें भी एक सीमा के बाद थक जाती हैं और वे सूचना के लिए पूरी तरह सरकार पर निर्भर होते हैं। इसलिए यदि अधिकारियों ने बता दिया कि कानून का पालन हो गया तो अमूमन उसे स्वीकार कर लिया जाता है। मैंने इसे स्वयं एक अपने मामले में अनुभव किया है कि अक्सर सरकारी बातें स्वीकार कर ली जाती हैं। हालांकि मेरी याचिका पर राजस्व सचिव को अदालत में व्यक्तिगत तौर पर उपस्थित होना पडा था और उनके ऊपर कोर्ट की अवमानना के आरोप मे पांच हजार रुपाए का आर्थिक दंड भी लगा। 

अब यदि हल्द्वानी के मौजूदा भूमि-विवाद के विषय में देखा जाय तो उत्तराखंड सरकार का रवैया कई सवाल खड़े करता है, क्योंकि 1167 एकड़ जमीन वाले एस्कॉर्ट फार्म के मामले मे प्रदेश सरकार ने कभी भी ईमानदारी से न्यायालय के आदेश को नहीं माना और अंत मे घुमा-फिरा कर सूचनाए दी और कह दिया कि कोर्ट की कोई अवमानना नहीं हुई है। हकीकत यह है कि आज से 15 वर्ष पूर्व मेरी याचिका पर उत्तराखंड के लोकायुक्त ने सरकार के अनेक उच्चाधिकारियों को कटघरे मे खड़ा किया था, लेकिन सरकार ने उनकी नहीं सुनी और अतिक्रमण करने वालों पर कोई कार्यवाही नहीं की। चिंतनीय बात यह कि कि जिन 150 दलित परिवारों के मामले को मैंने उठाया था, उन्हे कोई सहायता नहीं दी गई। सीलिंग से फाजिल उस भूमि पर, जिसमें सरकार पहले कभी दिलचस्पी नहीं दिखा रही थी, आज वहां सिड़कुल, आईआईएम जैसे संस्थान और अन्य कारखाने हैं तथा रुद्रपुर में निवेशक आ रहे हैं। लेकिन सरकार ने दलितों को जमीन देने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। आज भी रुद्रपुर, हल्द्वानी, काशीपुर, खटीमा में अनेकानेक फार्म होंगे, जिनके उपर सीलिंग कानून को ईमानदारी से लागू नहीं किया गया है। यदि ऐसा नहीं होता तो हजारों भूमिहीन लोगों को जमीन मिल सकती थी। यही हाल पड़ोस के लखीमपुर और पीलीभीत जनपदों का है। प्रदेश बदलने से भी इन सभी जनपदों के सामाजिक व राजनीतिक हालात नहीं बदले हैं। 

बहरहाल, उत्तराखंड सरकार को चाहिए कि तराई में वह भूमि की स्थायी बंदोबस्ती कराये। हल्द्वानी मे लोगों को तंग करने के बजाए उनका ईमानदारी से सर्वेक्षण करवाकर लोगों के पुनर्वास के बारे मे सोचे, तभी इस समस्या का स्थाई समाधान होगा। जबरन लोगों को हटाने से कानून और व्यवस्था की स्थिति और खराब होगी। कानूनों के अनुपालन में ये देखना जरूरी है कि लोगों के अधिकारों का सम्मान हो, ना कि कोई अप्रिय स्थिति पैदा हो। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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