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‘रामचरितमानस’ और जातिगत जनगणना के परिप्रेक्ष्य में बौद्धिक और सियासी कूपमंडूकता

जिस तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं, उससे हिंदी क्षेत्र की राजनीति और विमर्शों की संकीर्ण दुनियाओं का अंदाजा लगाया जा सकता है। ये घटनाएं यह साबित करती हैं कि हमारा हिंदी समाज 21वीं सदी में भी अपनी मध्ययुगीन सोच से बाहर आने को तैयार नहीं है। बता रहे हैं अरुण आनंद

जाति जनगणना और ‘रामचरितमानस’ – इन दो विषयों पर बिहार में चर्चा जोरों पर है। हालांकि मीडिया, अकादमिक जगत और अभिजन सियासी पार्टियों के निशाने पऱ जातिगणना पहले से ही थी। अब तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ पर बिहार के शिक्षा मंत्री प्रो. चंद्रशेखर के वक्तव्य ने आग में घी उड़ेलने का काम कर दिया है। इस घटना ने बिहार में सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले बहुजन कोर समूह की राजनीतिक पार्टियों में भी तुर्शी पैदा कर दी है और वे खुलकर मंत्री पर हमलावर हैं। असल में यहां वे सांस्कृतिक तौर पर भाजपा के ही नक्शे कदम पर हैं। इससे भाजपा बेहद सुकून महसूस कर रही है। 

गौरतलब है कि चंद्रशेखर ने अभी हाल ही में नालंदा खुला विश्वविद्यालय के एक दीक्षांत समारोह में ‘मनुस्मृति’ और गोलवलकर कृत ‘बंच आफ थॉटस’ की कड़ी में ‘रामचरितमानस’ की गणना क्या कर दी, मीडिया ने इसे विवादित कहकर उन्हें तिरस्कृत करने का अभियान ही चला दिया। जिस ‘रामचरितमानस’ को हिंदी आलोचना परंपरा का एक बड़ा हिस्सा, प्रतिगामी और भक्तिकाल के अभूतपूर्व जागरण को सामंती, ब्राह्मणवादी और पितृसत्ता के पाले में डालनेवाला काव्य मानता है, इन तमाम बहसों से अनभिज्ञ यह मीडिया औसत दर्जे के जानकारों का विचार सामने उपस्थित कर जिस तरह से शिक्षा मंत्री को ही अपदस्थ करने की साजिशों में लगी है, इससे उनकी मंशा समझी जा सकती है। 

इस प्रकरण में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं, उससे हिंदी क्षेत्र की राजनीति और विमर्शों की संकीर्ण दुनियाओं का अंदाजा लगाया जा सकता है। ये घटनाएं यह साबित करती हैं कि हमारा हिंदी समाज 21वीं सदी में भी अपनी मध्ययुगीन सोच से बाहर आने को तैयार नहीं है। बिहार के शिक्षा मंत्री ने जो बात कही हैं वह रामचरितमानस या उसके अराध्य राम के बारे में हर दौर में कही गई है। लेकिन हिंदी विमर्शों की मुख्यधारा की बौद्धिकता इन तार्किक और वैज्ञानिक बहसों को ढंकने-तोपने का काम करती रही। चूंकि इसके नियंत्रणकर्ता अभिजन समाज से आनेवाले रहे हैं, इसलिए उन्होंने जोतीराव फुले से लेकर आंबेडकर, पेरियार, रामस्वरूप वर्मा, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु और रजनीकांत शास्त्री जैसे बौद्धिकों को सुनियोजित तरीके से विमर्श की मुख्यधारा से अलग रखा। वे डॉ. राम मनोहर लोहिया द्वारा अभिकल्पित ‘रामायण मेला’ को भी उसके वास्तविक परिप्रेक्ष्य से काटकर देखने के आदी रहे हैं। जबकि यह मेला कोई रामायण कथा का वाचन या धर्माचार्यों का समागम नहीं था, बल्कि भारतीय परंपरा में मौजूद तमिल, बांग्ला रामायण समेत अनेक रामायण पर अकादमिक चर्चा होनी थी। यहां तक कि इस मेले में नास्तिकता पर भी एक गोष्ठी प्रस्तावित थी। उपरोक्त सभी विचारक भारतीय नवजागरण के ऐसे विमर्शकार थे, जिन्होंने अपने जीवन को हर तरह की रुढ़ियों और धार्मिक पाखंडों से बाहर करने में होम कर दिया, लेकिन वे चर्चाओं में इसलिए नहीं लाये गए, क्योंकि इससे मुख्यधारा के झंडाबरदार असहज हो जाते। इन बौद्धिकों ने भारत को कूपमंडूकता से बाहर निकालने का जो संघर्ष किया, उसे हमेशा नजरंदाज किया गया। ‘रामचरितमानस’ पर इस समूचे वाद-विवाद को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो हम चीजों को सही ढंग से समझ सकते हैं।

पटना के गांधी मैदान में रावण वध हेतु तैयार पुतले (फाइल फोटो)

यहां तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ पर थोड़ी चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं होगा। यह ग्रंथ शूद्रों, अतिशूद्रों और स्त्रियों की गुलामी को स्थापित करनेवाला वर्णव्यवस्था सापेक्ष दर्शन से भरा है। समाज के एक बड़े हिस्से को नीच, पापी और विकृत बतलाने वाली मनासिकता का पृष्ठपोषण कौन लोग कर रहे हैं, वे क्या चाहते हैं – इसे बहुत स्पष्ट रूप में समझने की जरूरत है। कबीर और रैदास सरीखे कवियों ने पुरोहितवाद के धुंध से जिस भक्तिकाल को मुक्त करते हुए एक समानता पर आधारित दर्शन की जमीन प्रदान की थी, तुलसीदास ने उसे पुनः ‘रामचरितमानस’ के माध्यम से पंडावाद में गर्क कर दिया।

अपने यहां स्त्री, शूद्र और उंच-नीच और जाति-पाति आधारित जीवन दर्शन को रामचरितमानस और इस तरह के धार्मिक ग्रंथों ने ही खाद-पानी प्रदान किया। यह विडंबनापूर्ण है कि कई शताब्दियों की यात्रा पूरी करने के बाद भी हमारा समाज इन रुढियों से मुक्त नहीं हो सका। जिन दिनों दुनिया के अन्य देशों ने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में तरह-तरह के आविष्कारों की खोज करके एक सुनहरे जीवन की रौशनी भरी, हमारा समाज उस दौर में भी धार्मिकता की अंधी खोह में पौराणिकता की इस व्याख्या में लगा था कि हमारे रामायण, महाभारत में वायुयान और शल्य चिकित्सा का आविष्कार बहुत पहले हो चुका था। ‘रामचरितमानस’ और जाति जनगणना के सवाल पर भारत की मुख्यधारा की बौद्धिकता और सियासत आज भी उन्हीं पुरानी रुढ़ियों को मजबूत करने में लगी है जो हमें कई शताब्दी पीछे ले जानी वाली है।

जाति जनगणना के सवाल पर भी अभिजन बौद्धिकता इसी तरह की प्रतिक्रिया में रत्त है। उसकी पूरी कोशिश है कि किसी तरह इसे बाधित किया जाए। बिहार सरकार द्वारा जाति जनगणना के इस निर्णय को कुछ भाजापरस्त संगठन एवं व्यक्तियों ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए उनकी अर्जी पर विचार करने से इंकार कर दिया कि अगर जाति की सही गणना ही नहीं होगी तो अलग-अलग सामाजिक समूहों के लिए आरक्षण का सही-सही निर्धारण कैसे किया जाएगा? कोर्ट के इस निर्णय से भाजपा बैकफुट पर आ गई है। इस मुद्दे पर बिहार भाजपा के अलग-अलग नेताओं के अलग-अलग बयान दर्शाते हैं कि वह कितनी असहज है? कोई इसका श्रेय लूट रहा है तो कोई इसे जातिवाद फैलाने वाला कृत्य बतला रहा है। सुशील कुमार मोदी का बयान है कि बिहार में जाति गणना का निर्णय एनडीए सरकार ने लिया था। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल का जोर है कि इस गणना में बिहार की उप जातियों की भी गणना की जाए और नेता प्रतिपक्ष विजय सिन्हा का तर्क है कि इससे जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा।

जाति आधारित भारत की सामाजिक संरचना में कुछ खास जातियों का यहां की शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सार्वजनिक संस्थाओं के साथ ही मीडिया और रोजगार के दूसरे सेक्टरों में भी प्रभुत्व रहा है। जाति जनगणना सभी जातियों की वास्तविक स्थिति का वह आईना होगी जिसमें समाज में व्याप्त यह असंतुलन सामने आएगा और मंडल की अनुशंसा के अनुरूप ऐतिहासिक रूप से वंचना की शिकार इन जातियों को सरकार का संरक्षण प्राप्त हो सकेगा। 

सुप्रीम कोर्ट में केंद्र की मोदी सरकार ने हलफनामा दिया था कि जाति जनगणना व्यावहारिक नही है। उनकी इन तमाम कवायदों का सार यही है कि जातीय विषमता और वंचना को एड्रेस न किया जाए और पहले से जारी जातीय वर्चस्व को बनाये रखा जाए। इसके अलावा, जाति जनगणना उनके हिंदू राष्ट्र एजेंडे में सबसे बड़ा रोड़ा है। जाति जनगणना से उपजे विमर्श से सामाजिक-आर्थिक विकास के एजेंडा को सही दिशा मिलेगी जबकि हिन्दू राष्ट्र एजेंडा ऐसे सरोकारों से रहित एक छलावा परोसता है।

बिहार में जाति गणना का पहला चरण जिसमें घरों की गिनती होनी थी, समाप्त हो चुका है और दूसरा चरण आरंभ होने वाला है। पहले चरण की सफलता बड़ी उपलब्धि है। दूसरा चरण काफी महत्वपूर्ण है, इसमें जाति के अलावे सामाजिक और आर्थिक स्थिति की गणना होनी है। बिहार में जाति गणना की विरोधी शक्तियां राजनीतिक क्षेत्र से ब्यूरोक्रेसी तक – सभी क्षेत्रों में जड़ जमाये बैठी हैं। उनकी कोशिश होगी कि किसी-न-किसी तरीके से इसे बाधित किया जाए और पूरी प्रक्रिया को ठप्प कर दिया जाए। इसीलिए जाति जनगणना समर्थकों को चाहिए कि इनकी साजिशों के प्रति सतर्क रहें। लोगों को चाहिए कि अपनी जाति समेत अन्य जानकारियां सही-सही दें। अपनी सूचीबद्ध जाति का ही उल्लेख करें, उपजाति के उल्लेख से परहेज करें।

बहरहाल, किसी भी जनगणना में डाटा का संग्रहण और समेकन का गुणवत्तापूर्ण होना सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है ताकि त्रुटियों से बचा जाए, या फिर उन त्रुटियों का समय पर निराकरण हो। हमें याद रखना चाहिए कि विरोधी शक्तियों ने किस प्रकार त्रुटियों के नाम पर सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना की रिपोर्ट को आज तक जारी नहीं किया। लिहाजा राज्य सरकार को चाहिए कि हर स्तर पर पूरी चौकसी बरती जाए और पूरी प्रक्रिया की पर्याप्त मानिटरिंग और सुपरविजन हो और तय समय सीमा में इसकी रिपोर्ट प्रकाशित हो। यह रिपोर्ट राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना की मांग को आवेग प्रदान करेगी और बिहार के चहुंमुखी विकास के एजेंडा को नये सिरे से सूत्रबद्ध करने का आधार प्रदान करेगी।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अरुण आनंद

लेखक पटना में स्वतंत्र पत्रकार हैं

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