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बहस-तलब : ‘रामचरितमानस’ की आलोचना मात्र से समाज नहीं बदलेगा

हम जानते हैं कि जातिवादी समाज में भगवानों की भी जातिया हैं और जो राम की कटु आलोचना करते हैं, वे कृष्ण के मामले में चुप हो जाते हैं। डॉ. आंबेडकर ने तो बहुत पहले इन प्रश्नों पर अपनी बात रखकर जब यह देख लिया कि बहुत ज्यादा बहस करके भी इस वर्णवादी समाज मे कोई सुधार नहीं आ सकता तो उन्होंने बुद्ध के नव्यान का रास्ता चुन लिया और वही आज की जरूरत है। बता रहे हैं विद्या भूषण रावत

धर्म के सवाल को लेकर दुनिया भर में बहुत बहसें हुई हैं। अनेक समाजों मे ‘राइट टू अफेन्ड’ मूलतः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा हैं और समाज वहां पर इस तरह से विकसित हुआ है कि यदि आप धर्मग्रंथों और धर्म की आलोचना करते हैं तो लोगों पर कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि जिन्हें जो मानना है, वे उसे मानते हैं और जो नहीं मानना चाहते हैं, वे नहीं मानते। यूरोप, इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि ऐसे राष्ट्र हैं, जहां आप दूसरे देशों की तुलना मे अभिव्यक्ति और निजता के विषय मे बहुत आगे हैं। इनके उलट, दूसरे वे राष्ट्र हैं, जहां राज्य धर्म की आलोचना नहीं कर सकते, चाहे दूसरे धर्मों की चाहे आलोचना कर लें। ये देश वे हैं, जहां इस्लाम राज्य धर्म है, और इन देशों मे इस्लाम की आलोचना करना या पैगंबर मोहम्मद के विषय में कोई भी नकारात्मक या आलोचनात्मक बात आपको सीधे जेल और फांसी के फंदे तक पहुंचा सकती है।

तीसरे, वे राष्ट्र हैं, जो अपने को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, लेकिन धर्मनिरपेक्षता की उनकी परिभाषा किसी भी धर्म में हस्तक्षेप करने की नहीं, अपितु सभी धर्मों को बराबर समझने की है। इस धारणा की समस्या यह है कि धर्म को लेकर जो कानून इस्लामिक राष्ट्रों में है, वह ऐसे राष्ट्रों में भी है। धर्म को चुनौती देना या धर्म ग्रंथों पर सवाल करने को सीधे-सीधे समाज विरोधी या आज के दौर मे राष्ट्र विरोधी मान लिया जाता है। भारत इसका एक उदाहरण है।

भारत में धर्म के सवाल को लेकर बहुत कुछ लिखा गया है और बहुत-सी विचारधाराएं भी विकसित हुईं। मसलन, वैदिक व्यवस्था के विपरीत लोकायत की व्यवस्था भगवान और भाग्यवाद की परंपरा के विरुद्ध थी। कहना अतिशयोक्ति नहीं कि भारत में जो भी वैकल्पिक धाराएं उठ खड़ी हुईं, वे सभी भाग्यवाद और ब्रह्मणवाद के विरुद्ध थीं। 

यह तो सत्य है कि समाज में भेदभाव था और वह कबसे था, इस पर चर्चा न भी करें तो सवाल यह उठता है कि जातिगत घृणा और भेदभाव के विरुद्ध क्या-क्या आंदोलन हुए और उन्हें किन तबकों का विरोध झेलना पडा। बुद्ध ने जातिवाद, पुरोहितवाद और अंधविश्वास के विरुद्ध अलख जगाया और दुनिया के सामने एक विकल्प रखा। बुद्ध के मानववादी विकल्प को बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने अपनाया, जिसके कारण पुरोहितवादियों की व्यापक हिंसात्मक प्रतिक्रिया हुई। 

बाद के युग मे बुद्धिवादी धारा के लोगों द्वारा लगातार हिंसा, जातिवाद और छुआछूत का जमकर विरोध किया गया। इनमें प्रमुख थे– कबीर, रैदास, नानक, तुकाराम, बासवा के अलावा अनेकानेक सूफी संत, जो प्रेम, भाईचारे और समानता की बात करते रहे। ये पूरी तरह से नास्तिक तो नहीं थे, लेकिन फिर भी तर्कवादी थे या साधारण भाषा में कहें तो मानववादी थे। 

उत्तर भारत की आज की हिंदी पट्टी में रैदास और कबीर दो ऐसे नाम हैं, जिन्होंने पुरोहितों के कर्मकांडों का न केवल विरोध किया, अपितु लोगों को एक बेहतरीन मानववादी विकल्प दिया। दोनों का काशी से संबंध था। काशी से बुद्ध का भी संबंध था, लेकिन इसलिए यह सोचना आवश्यक है कि काशी ब्राह्मणवाद की इतनी बड़ी स्थली के रूप मे कैसे विकसित कर दिया गया? तुलसीदास का जन्म रैदास और कबीर के बाद हुआ और हिंदी पट्टी मे दोनों के द्वारा पैदा की गई चेतना को कुंद करने में उनका बड़ा योगदान है। खैर, यह भी हकीकत है कि ‘रामचरितमानस’ एक बेहद लोकप्रिय ग्रंथ बना, लेकिन कुल मिलाकर तुलसीदास उत्तर भारत के लिए एक नई ‘नैतिकता’ निर्धारित कर रहे थे, जो पुरोहितवादी कर्मकांडों पर आधारित थी, जिसके ठीक उलट रैदास और कबीर बुद्धिवादी नैतिकता को स्थापित करने की बात कर रहे थे। 

अंग्रेजों के आने के बाद भारत में वर्णवादी व्यवस्था के विरुद्ध व्यापक आंदोलन हुए, जो कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन के समानांतर चल रहे थे। ये सभी आंदोलन प्रभुत्ववादी पुरोहितवादी व्यवस्था के खिलाफ थे, लेकिन मात्र उनके विरोध तक सीमित नहीं थे। अधिकांश आंदोलनों मे विकल्प पर बहुत जोर दिया गया। चाहे फुले का सत्यशोधक समाज हो या पेरियार का आत्मसम्मान आंदोलन सभी लोगों को अंधविश्वास, धार्मिक आडंबरों से मुक्त कराना चाहते थे। 

फुले ने ‘गुलामगिरी’ और ‘किसान का कोड़ा’ के जरिए लोगों को शोषक, शोषण और शोषित की पूरी व्यवस्था के विषय मे बताया। शायद सेठजी-भटजी का जो बेहतरीन उदाहरण उन्होंने दिया, वह आज के परिपेक्ष्य में बिल्कुल सही उतरता है, जहां पूंजीवाद और पुरोहितवाद का गंठजोड़ भारत के आम जनमानस के विरुद्ध खुले तौर पर सामने आ चुका है। पेरियार ने भी लोगों को गैर-ब्राह्मण आंदोलन से जोड़कर मजबूत किया। साथ ही, उन्हें भाषा से लेकर संस्कृति के विकल्पों के साथ जोड़ा। 

डॉ. आंबेडकर ने तो प्रबुद्ध भारत की अपनी परिकल्पना इसी आधार पर की, जहां सभी लोग एक-दूसरे का सम्मान करें और बंधुत्व की भावना हो। उन्होंने 1927 में महाड़ में पानी पर अधिकार के लिए आंदोलन किया। उसी वर्ष उन्होंने महिलाओं के एक बड़े सम्मेलन को भी संबोधित किया। वे मानते थे कि महिलाओं की भागीदारी और बराबरी के बिना कोई भी आंदोलन सफल नहीं हो सकता। 25 दिसंबर, 1927 को जब उनकी उपस्थिति मे उनके साथियों और समर्थकों ने मनुस्मृति का दहन किया तो इसका कारण साफ था कि जातिवादी हिंदू डॉ. आंबेडकर को महाड़ मे नहीं घुसने देना चाहते थे। 

मनुस्मृति का दहन एक बहुत बड़ी घटना थी। हालांकि यह भी हकीकत है कि बाबा साहब जैसे व्यक्ति यह जानते थे कि मनुस्मृति को जला देने मात्र से मनुवाद का खात्मा नहीं हो सकता था, लेकिन यह मनुवादी तंत्र के लिए बहुत बड़ी चुनौती थी और इसलिए मनुस्मृति का दहन दरअसल जी. एन. सहश्रबुधे ने किया। 

डॉ. आंबेडकर ने शुरूआती दिनों मे हिंदू धर्म में सुधार के प्रयास भी किए। गांधी के साथ जाति के प्रश्न पर पूरा विमर्श इसी का हिस्सा है। बाद में नासिक में कलाराम मंदिर में दलितों के प्रवेश को लेकर उन्होंने एक बार प्रयास किया था, लेकिन इसका भी जमकर विरोध हुआ। अक्टूबर 1935 में येवला के ऐतिहासिक सम्मेलन में उन्होंने यह घोषणा कर दी कि हालांकि मैं हिंदू पैदा हुआ, जो मेरे बस में नहीं था, लेकिन मैं हिंदू रहकर नहीं मरूंगा। ओर फिर 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर के विशाल दीक्षा कार्यक्रम में लाखों की संख्या में अपने समर्थकों के साथ धम्म की दीक्षा ली। आज भी जिनलोगों ने जातिवादी व्यवस्था से अपना नाता तोड़ दिया है, वे इसकी आलोचना करने में अपना समय बर्बाद नहीं करते।

14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में बौद्ध धम्म दीक्षा लेने के बाद सम्बोधित करते डॉ. आंबेडकर

दरअसल, जिन बातों का विश्लेषण इतने वर्षों में करके लोग उसे छोड़ कर अपनी नई विचारधारा में गए हैं, वही बहुत से लोग अभी भी उन्ही पुराने सवालों को चर्चा का विषय बनाकर विषय से भटकते हैं। इन धर्मग्रंथों की आलोचना आंबेडकरवादियों ने भी बहुत की लेकिन उन्होंने अपना नया रास्ता भी ढूंढ लिया। हम पुरोहितवादी व्यवस्था की आलोचना कर उसी व्यवस्था में यदि बने रहते हैं तो अपना समय ही बर्बाद करते हैं। 

आवश्यकता इस बात की है कि जोतीराव फुले, डॉ. आंबेडकर, औरपेरियार के विकल्पों को अपनाकर सकारात्मक तौर पर अपने समाज को मजबूत करें। 

मैं तुलसीदास या रामायण पर आज की बहस को निरर्थक मानता हूं और यह कि ये उन्हीं पुरोहितवादी शक्तियों के एजेंडे मे फंसने का सवाल है। हम जानते हैं कि जातिवादी समाज में भगवानों की भी जातिया हैं और जो राम की कटु आलोचना करते हैं, वे कृष्ण के मामले में चुप हो जाते हैं। डॉ. आंबेडकर ने तो बहुत पहले इन प्रश्नों पर अपनी बात रखकर जब यह देख लिया कि बहुत ज्यादा बहस करके भी इस वर्णवादी समाज मे कोई सुधार नहीं आ सकता तो उन्होंने बुद्ध के नव्यान का रास्ता चुन लिया और वही आज की जरूरत है। जो लोग यह सोचते हैं कि वे इन धार्मिक मामलों को उठाकर कोई जनता का भला कर देंगे, वे दलित-बहुजन समाज के मूल प्रश्नों से अपना भटकाव कर रहे हैं। आज भी भूमि सुधार के प्रश्न सरकारों के एजेंडे से गायब हैं और निजीकरण ने आरक्षण की व्यवस्था को पिछले दरवाजे से खत्म कर दिया है। शिक्षा का रास्ता आज भी बंद है। सवाल इस बात का है कि ये सभी महान नेता इन प्रश्नों पर कार्यवाही क्यों नहीं करते? दलितों पर हिंसा सवर्णों के साथ पिछड़े वर्ग की उच्च जातियों के लोगों द्वारा भी जारी है। तमिलनाडु में पानी की एक बड़ी टंकी में मलमूत्र डालने वालों के खिलाफ आज भी तमिलनाडु सरकार कार्यवाही नहीं कर सकी है और जो कार्यवाही हो रही है, वह दलितों पर हो रही है। इसलिए आवश्यक है कि एक कविता और कहानी से पूरी बहस को न मोड़ा जाय। दुनिया के अंदर कोई भी ऐसा धर्म नहीं है, जिसमें खामी न हो और जिसमें समय के साथ कोई बदलाव न लाया हो। लेकिन लोग धर्म की किताबों पर बहस करने की बजाए अब अपने नए रास्तों पर चल रहे हैं। 

आज पूरे तुलसीदास और ‘रामचरितमानस’ की चर्चा है। क्या हम नहीं जानते कि भारत के गांव-गांव में बाबाओं का जाल आज पूजा-पाठ मे लोगों को और धकेल रहा है? इसका प्रतिकार कैसे करेंगे? क्या भगवानों को गाली देकर या इन पुस्तकों को जलाकर आप मनुवाद का मुकाबला कर पाएंगे? 

सनद रहे कि यह आसान तरीका जरूर है, क्योंकि ऐसा कर आप मीडिया में तुरंत जगह पा जाते हैं, लेकिन आप विरोधियों को मौका भी दे देते हैं। आवश्यकता है कि हमलोगों के मध्य सकारात्मक कार्य करें और लोगों को स्वयं निर्णय लेने की ताकत दें ताकि उन्हें पता चल सके कि उनके लिए कौन-सा मार्ग सही है। धर्मग्रंथों की आलोचना मात्र से कोई लाभ नहीं है। जरूरत है उनके मकड़जाल से बाहर आने की। डॉ. आंबेडकर ने तो 1956 में रास्ता दिखा दिया था। अब उस रास्ते पर चलने से कौन रोक रहा है? यदि आप ऐसा नहीं कर पा रहे तो वर्णवादी व्यवस्था के ढांचे मे रहकर इस नूराकुश्ती से समाज को कोई लाभ नहीं मिलनेवाला।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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