गत 29 दिसंबर, 2022 से 4 जनवरी, 2023 के दरमियान पड़ोसी बौद्ध मुल्क भूटान की यह तीसरी यात्रा अचानक तय हुई। चूंकि पहले भी दो बार भूटान के विभिन्न जिलों में पर्यटक के नाते घूम चुका था, इसलिए इस बार दर्शनीय स्थल देखने की अपेक्षा मैं भूटान के गांवों और जंगलों में जाने को उत्सुक था। मकसद वहां के उस समाज को देखना था जो पर्यटकीय निगाहों से ओझल रहता है। हमारे गाइड जिग्मे तेनजिन के लिए यह किसी आठवें अजूबे जैसी बात थी, क्योंकि वह तो एक प्रशिक्षित गाइड के नाते हमारी यात्रा में साथ थे, न कि समाजशास्त्री, पर्यावरणविद अथवा कृषि वैज्ञानिक के रूप में। मेरे साथ आयुर्वेद के वैद्य हंसराज चौधरी और लेखक पत्रकार लखन सालवी थे। वैद्य हंसराज चौधरी की रूचि भूटान की पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में थी और पत्रकार सालवी भूटानी मीडिया के बारे में जानने को उत्सुक थे। हम तीनों की अभिरूचियां व दिशाएं भिन्न जरुर थीं, पर मूल ध्येय पर्यटन स्थलों से परे भूटान की लोक संस्कृति, सभ्यता और जल, जंगल, जमीन तथा पारंपरिक ज्ञान के बारे में जानकारी हासिल करना था।
इस बार भूटान काफी बदला-बदला सा नजर आया। पिछली दो यात्राओं में हमने जयगांव से फुनस्लिंग के प्रवेश द्वार के मुख्य दरवाजे से प्रवेश किया, लेकिन कोविड के बाद से व्यवस्थाएं बदल दी गई है। सितंबर, 2022 से भूटान में नई पर्यटन नीति लागू है। इसके बाद से हम जैसे भारतीयों के लिए यह महंगा हो गया है। अब भारत, बंगलादेश और मालदीव से आने वाले पर्यटकों को 1200 रुपए प्रतिदिन की दर से सतत विकास शुल्क चुकाना होता है। यह अन्य देशों के लिए 65 डॉलर प्रतिदिन है। अगर आप पैदल सरहद पार कर रहे हैं तो अब मुख्य प्रवेश द्वार के बजाय नजदीक की गली में बनाये गए द्वार से प्रवेश करना होता है, जहां दस रुपए लिए जाते हैं। सामानों की सुरक्षा जांच के बाद आप इमिग्रेशन ऑफिस में पहुंचते हैं, जहां कई खुशमिजाज स्त्री-पुरुष आपका प्यारी सी मुस्कान के साथ स्वागत करते हैं।
चूंकि नईं पर्यटन नीति में कार चालक और गाइड लेना अनिवार्य कर दिया गया है। इसलिए आपको इन दोनों बंदों से भी यहीं मिलना होता है। अकसर वे आपको एक जगह बिठा कर सारी औपचारिकता स्वयं पूरी कर देते हैं। यह काम फटाफट निपटाया जाता है और इमिग्रेशन दफ्तर की तरफ से एक अधिकारी सभी पर्यटकों को साथ बिठाकर यात्रा संबंधी जानकारियां भी अंग्रेजी भाषा में प्रदान कर देते हैं।
नई पर्यटन नीति के बाद अब आप बजट होटल अथवा अपने मित्रों के घर नहीं रुक सकते हैं, पर्यटकों को तीन सितारा होटल में रुकना अनिवार्य कर दिया गया है तथा ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित मान्यता प्राप्त होम स्टे में रुका जा सकता है। कोविड के बाद पर्यटकों का होटल के किचन में जाना अथवा अपने पसंदीदा भोजन बना पाना संभव नहीं रह गया है, सब कुछ व्यवस्थित रूप से आपकी टेबल पर आएगा। आप जो मर्जी ऑर्डर कर सकते हैं। आप अगर अपनी गाड़ी लाना चाहते हैं तो प्रतिदिन आपको 4,500 रुपए का भुगतान करना होगा। इन नए नियमों का असर साफ दिखाई पड़ता है। पहले असम, बिहार, अरुणाचल और पश्चिमी बंगाल की काफी गाड़ियां आपको भूटान में दिखती थीं,जो कि अब दुर्लभ हैं। भारतीय पर्यटकों की संख्या भी आश्चर्यजनक रूप से कम दिखलाई पड़ने लगी है। उनका स्थान यूरोपियन पर्यटक ले रहे हैं। भारतीय पर्यटकों ने अब गंगटोक, केलिंग्पोंग, मिरीक और दार्जीलिंग में रेलमपेल मचा रखी हैं।

भूटान में हवाई मार्ग से पहुंचना उतना सस्ता नहीं है, जितना भारत में हवाई यात्रायें करना है। चूंकि पारो एयरपोर्ट के लिए दिल्ली, गुवाहाटी और कोलकाता से ड्रुक एयर और ड्रुक एयरलाइंस की सीमित उड़ानों का ही एकाधिकार है, इसलिए अधिकांश लोग भारत के पश्चिमी बंगाल में सिलिगुड़ी के समीप स्थित बागडोगरा मिलिट्री एयरबेस तक पहुंचकर वहां से जयगांव तक के लिए गाड़ी लेते हैं।
हमने भी यही किया। कुछ लोग न्यू जलपाईगुड़ी तक ट्रेन के ज़रिये भी पहुंचते है और वहां से निजी वाहनों से सरहद तक पहुंच कर भूटानी गाड़ियां किराए पर ले लेते हैं।
भूटान बहुत तेज़ी से बदल रहा है। शहर विकसित हो रहे हैं। थिम्पू हो अथवा पारो, चारों तरफ निर्माणाधीन इमारतें दिखती हैं, जिनमें निर्माण मजदूर मुख्यतः बंगाली मुसलमान हैं। वे शहर के बाज़ारों में समूहों में बांग्ला बोलते हुए इधर-उधर विचरते हुए आसानी से मिल जाते हैं।
थिम्पू में घूमते हुए मेरा ध्यान एक मोची की दुकान पर गया, जिसका नाम सोनालाल राम लिखा हुआ था। मैं अपनी उत्कंठा दबा नहीं पाया तो सोनालाल की दुकान ढूंढते हुए उनकी थडीनुमा दुकान जा पहुंचा। प्रथम दृष्टया मुझे समझ में आ गया कि व्यक्ति या तो नेपाली है अथवा भारतीय, क्योंकि उनका चेहरा-मोहरा भूटानी शक्लों से नहीं मिलता। हाय-हेलो के बाद उनसे जब हिंदी में पूछा कि भारत से हो तो वो बोल पड़े– छपरा,बिहार से हैं। मेरा अगला प्रश्न था– कितने सालों से इधर हो?
इस बार उन्होंने टुकड़े-टुकड़े में जवाब देना उचित नहीं समझा। जूतों पर ब्रश चलाते हुए विस्तृत जानकारी दे डाली– “लगभग तीस साल से यहां काम कर रहा हूं, मेरे ही कुनबे से तक़रीबन सात और लोगों की दुकाने हैं। साल में एक बार घर हो आते हैं।”

भूटान के लोग अपनी राष्ट्रीय पोशाक पहनते हैं। पुरुष पोशाक ‘घो’ कहलाती है और महिलाएं ‘किरा’ पहनती हैं। पुरुष लंबे मोजे और काले जूते धारण करते हैं, जो कि चमड़े के होते हैं। इन जूतों पर पॉलिश और देख-रेख की भी जरुरत होती है। इसलिए सोनालाल राम और उनके परिजनों की दुकान पर अच्छी-खासी भीड़ रहती है। ये लोग यहां वर्क परमिट पर आते हैं और साल भर कमाकर अपने घर ले जाते हैं। मैंने उनसे जानना चाहा कि क्या यहां किसी तरह का भेदभाव होता है यहां इस काम की वजह से? उनका जवाब था– यहां किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई नहीं पूछता। उनको काम से मतलब होता है। बस काम करवाते हैं और पैसा देकर आगे बढ़ जाते हैं।
भारत से दूर अपना पुश्तैनी काम करते हुए भी सोनालाल राम जैसे भारतीय दलित यहां खुश हैं। ,उनको किराये का मकान मिलने और दुकान मिलने में जाति या उनका जातिगत व्यवसाय आड़े नहीं आता है। हालांकि हर होटल में पॉलिश करने की स्वचालित मशीनें भी लगी हुई दिखाई दीं। साथ ही अपने अपने घरों में भी भूटानी लोग खुद भी जूते मरम्मत तथा पॉलिश करते हैं। यहां यह किसी एक समुदाय का व्यवसाय नहीं हैं, लेकिन सोनालाल राम जैसे भारतीय यहां पर ससम्मान अपनी रोजी-रोटी कमा पा रहे है।
यह जानना भी रोचक है कि भूटान जैसे देश ने जाति की बीमारी से कैसे निज़ात पाई, पहले यहां बहुत सारे कबीले थे, वे एक-दूसरे से लड़ते रहते थे। बौद्ध धम्म के आगमन के बावजूद भी उनमें आपसी सामंजस्य का अभाव था, लेकिन वर्तमान वांगचुक राजवंश के एक राजा की दूरदृष्टि के चलते ये जातीय कबीले न केवल समाप्त हुए, बल्कि सभी नागरिक बराबरी से रहने भी लगे हैं।
भूटान के तृतीय सम्राट जिग्मे दोरजी वांगचुक, जिन्हें आधुनिक भूटान का स्वप्न दृष्टा माना जाता है, जिन्होंने 1952 से लेकर 1972 तक शासन किया। उन्होंने जाति-प्रथा और दास-प्रथा का अंत किया। एक ही परिवार में अलग-अलग सरनेम की परंपरा शुरू की तथा यह अनिवार्य किया कि एक ही परिवार के लोग एक तरह का सरनेम उपयोग नहीं करेंगे। इससे यह हुआ कि एक परिवार में बड़ा भाई वांगचुक है तो छोटा नामग्येल, पिता तेनजिन है तो दादा संगेय। महिलाओं में भी इसी तरीके से नाम रखे जाते हैं।
सोनम यहां की महिलाओं में बहुत ही लोकप्रिय नाम है। अगर किसी बाज़ार में आप सोनम नाम पुकारें तो हो सकता है कि दस युवतियां आपकी तरफ मुखातिब हो जाएं। महिला सशक्तिकरण की भूटान बेहतरीन मिसाल पेश करता है। यहां पर नारी को देवी अथवा पूज्य नहीं, बल्कि समान अधिकार संपन्न नागरिक माना जाता है। हर दफ्तर में महिलाओं को सबसे प्रमुख स्थान पर देखा जा सकता है, भूटान प्रवेश के द्वार से लेकर हर व्यापारिक प्रतिष्ठान पर और हरेक दफ़्तर में महिलाओं की उपस्थिति देखी जा सकती है। मैंने तो साफ नोटिस किया कि होटल हो, स्पा हो, रिसोर्ट हो, होम स्टे हो अथवा रेस्टोरेंट, सब जगह महिलाओं का ही आधिपत्य दिखाई पड़ा।

होटल में सारे काम महिलाएं निपटाती हैं। आपकी गाड़ी के रुकते ही वे सामान उठाने आ जाती है और कमरों में पानी पहुंचाना हो या खाना, वे बेधड़क आ पहुंचती हैं। ऐसा आत्मविश्वास और सुरक्षित माहौल दे पाना उल्लेखनीय बात ही मानी जाएगी। यहां अब कोई भी अरेंज मैरिज नहीं नहीं करता, सब लोग प्रेम विवाह ही करते हैं। अपने साथी का चयन, उसके साथ वक़्त गुजारना और एक-दूसरे को अच्छे से समझने के बाद सहजीवन हेतु प्रतिबद्ध होना, यहां के विवाहों की ख़ासियत मानी जा सकती है।
भारत से विपरीत यहां लड़के शादी करके लड़कियों के घर चले जाते हैं, लड़कियां अपने माता पिता के घरों में रहती हैं। दामाद घरजमाई बन जाते हैं। संपत्ति लड़कियों के नाम पर होती है। इस तरह की मातृसत्तात्मक व्यवस्था का फायदा यह है कि स्त्री सशक्तिकरण के लिए अलग से कोई अभियान नहीं चलाना पड़ता है और ना ही महिलाओं में असुरक्षा का बोध पनपता है। उनके प्रति हिंसा, यौन अपराध के मामले तो नगण्य ही सामने आते हैं।
स्त्री पुरुष संबंधों में सहजता साफ परिलक्षित होती है। एक खुलापन भी है, लेकिन उसका कारण देश और समाज का सुरक्षित वातावरण है। बलात्कार जैसे अपराधों के लिए यहां कोई स्थान नहीं है, क्योंकि यहां के लोग यौन कुंठित नहीं हैं। हत्या जैसा भयंकर अपराध कहीं कभी घटित होता है तो वह बहुत बड़ी बात बन जाती है। यहां की अदालतें खाली पड़ी हैं और वकील बेरोजगार हैं। न्यायाधीश तलाक आदि मामले का फैसला करते हैं अथवा छोटी-मोटी लड़ाइयों में निर्णय करते हैं। पुलिस हो अथवा सेना उनके पास ज्यादा काम नहीं है। हालांकि इन बरसों में ड्रग के मामले बढे हैं और संपत्ति संबंधी विवाद भी, लेकिन इन सबके बावजूद भी भूटान एक खुशहाल देश है।
आखिर यह खुशहाली आती कहां से है और इसके पीछे के कारण क्या हैं …
(संपादन : नवल/अनिल)
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