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गंगा को मल्लाह समझते हैं, उन्हें रखने दें गंगा का ख्याल : विशम्भर पटेल

जैसे इसी दरिया का पानी देख लीजिये, इसे किन मनुष्यों ने गंदा किया है। उनका वर्गीकरण करना पड़ेगा। जो अपद्रव्य इसमें गिराया जा रहा है, उस पर रोक लगाना पड़ेगा। लेकिन अभी वे बेलगाम चल रहे हैं। और झूठा शोर मचाया जा रहा है। पढ़ें, इलाहाबाद नाविक यूनियन एक्टिविस्ट विशंभर पटेल से सुशील मानव की यह बातचीत

इलाहाबाद के संगम तट पर हर साल पौषी पूर्णिमा के साथ शुरु होने वाले माघ मेला, मौनी अमावस्या, मकर संक्रांति व बसंत पंचमी और माघी पूर्णिमा के नहावन पर्वों से होता हुआ फाल्गुन कृष्ण पक्ष की महाशिवरात्रि के साथ संपन्न हो गया। इसके साथ ही गंगा सफाई का मुद्दा अगले माघ मेले तक के लिये शान्त हो गया। दरअसल पिछले दो दशक से एक पैटर्न सा बन गया है कि हर बार नहावन से पहले साधु संत गंगा प्रदूषण व सफाई के मुद्दे पर मुखर होकर आक्रोश व्यक्त करते और अगले दिन गंगा में बांध का पानी छोड़ने की ख़बर स्थानीय अख़बारों में आ जाती थी। लेकिन अबकि बार माघ मेला शुरु होने से पहले गंगा सफाई का मुद्दा साधु संत के अखाड़ों से नहीं, बल्कि इलाहाबाद हाईकोर्ट परिसर से उठा। माघ मेला शुरु होने से ठीक पहले गंगा की सफाई, सीवर ट्रीटमेंट को लेकर सप्ताह भीतर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दो बार राज्य सरकार और संबंधित अधिकारियों को फटकार लगाई। इसके पहले 28 जुलाई, 2022 को गंगा प्रदूषण मामले की सुनवाई के दौरान इलाहाबाद हाईकोर्ट में खुलासा हुआ था कि सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट अडानी की कंपनी चला रही हैं और करार है कि किसी समय प्लांट में क्षमता से अधिक गंदा पानी आया तो शोधित करने की जवाबदेही उनकी नहीं होगी। जिस पर कोर्ट ने कहा था कि जब ऐसी संविदा है तो शोधन की ज़रूरत ही क्या है। तब सरकार और अडाणी समूह की कंपनी के इस करार पर हाईकोर्ट ने सख्त टिप्पणी करते हुये कहा था– “ऐसे करार से तो गंगा साफ होने से रही। जब ऐसी योजना बन रही, जिससे दूसरों को लाभ पहुंचाया जा सके और जवाबदेही किसी की न हो।” सिर्फ़ इतना ही नहीं तब हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा कोई कार्रवाई नहीं करने पर नाराज़गी जाहिर करते हुए कहा था कि बोर्ड साइलेंट इस्पेक्टेटर बना हुआ है। इसकी ज़रूरत ही क्या है, इसे बंद कर दिया जाना चाहिए। 

प्रदूषण से गंगा का पूरा इकोसिस्टम बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। जलशक्ति मंत्रालय के अंतर्गत नमामि गंगे योजना के तहत करोड़ों रुपये खर्च के बाद स्थिति में बदलाव होता नहीं दिख रहा। आखिर गंगा प्रदूषण और सफाई सिर्फ़ माघ मेले के समय ही क्यों गूंजती है। इस मसअले के विभिन्न पहलुओं पर इलाहाबाद नाविक यूनियन एक्टिविस्ट व ‘बहुजनकरण’ हिंदी पाक्षिक के संपादक विशंभर पटेल से सुशील मानव ने बातचीत की है। प्रस्तुत है इसका संपादित अंश

गंगा की मौलिकता से छेड़छाड़ बंद कीजिये : विशंभर पटेल

  • सुशील मानव

आखिर क्या वजह है कि इतने वर्षो का समय और इतना पैसा लगने के बाद भी गंगा अभी तक नहीं साफ हुई? 

गंगा कैसे साफ होगी? यह बेवकूफी वाली बात है। जब पानी ही नहीं आएगा तो गंगा कैसे साफ होगी? बात करनी है तो आप यहां से शुरु कीजिये कि गंगा गंदी कब हुई और यह गंदी कैसे हुई। सवाल तो यहां से आएगा ना।

ठीक है, यहीं से शुरु करते हैं। बताइये कि गंगा गंदी कैसे हुई? 

गंगा या कोई भी बहता हुआ दरिया का पानी तब गंदा होता है जब उसमें बाहरी द्रव्य उस बहते हुए पानी में ज़्यादा तादात में शामिल हो जाता है। जब यह होगा तो गंगा कैसे साफ रहेगी? गंगा को साफ रखना है तो उसकी मौलिकता से छेड़छाड़ बंद करना होगा। लेकिन उनका एजेंडा ही नहीं है गंगा साफ करना। गंगा कैसे गंदी हो रही है, उन संसाधनों को जान लीजिये और उसपर रोक लगा दीजिये, गंगा अपने-आप अपने स्वाभाविक स्वरूप में आ जाएगी। लेकिन टिहरी में बांध बना दीजियेगा, जहां से गंगा में पानी आता है तो क्या खाक गंगा साफ होगी? 

 

वे कौन लोग हैं, जो गंगा को गंदा कर रहे हैं?

मूलनिवासी/स्थानीय) समुदाय और दरिया के किनारे सभ्यताओं का इतिहास है दुनिया भर का। आज गंगा किनारे दो तरह का समाज है, एक जो सांस्कृतिक औचित्य का समाज है और दूसरा है आर्टिफिशयल समाज। जो कृत्रिम समाज है, वह सांस्कृतिक औचित्य के समाज में दुराग्रह पैदा करता है। वे पहले हालात खराब करते हैं और फिर उस हालात को सुधारने की बात करते हैं तथा एक नई रेमेडी लेकर चले आते हैं। लेकिन उसके सांस्कृतिक परिवेश को नहीं सुधारते हैं। संगम और गंगा का महत्व वहां पर रहने वाले, निजता के साथ जीवन जीने वाले, सामूहिक समुदाय का उनसे तालमेल है। यही उनका सांस्कृतिक सौंदर्य है। जब सांस्कृतिक सौंदर्य ठीक रहेगा तब गंगा भी ठीक रहेगी। 

तो गंगा सफाई का हल्ला क्या झूठ है?

हां, इन्होंने तो पूंछ पकड़ लिया है, इसलिए लगे हुए हैं। ये सरकार बनावटी मसअले बना रही है। जैसे सरकार कहती है कि फलां व्यक्ति भूख से नहीं मरा, उसके घर में तो दो किलो अनाज था। डीएम रिपोर्ट लगाएगा और पढ़ा-लिखा समाज डीएम की रिपोर्ट को स्वीकार कर लेगा। क्योंकि लोगों को लगता है कि डीएम ग़लत रिपोर्ट नहीं बनाएगा। आदमी मरता कुपोषण से है, न कि भूख से। बाबा साहेब कहते थे कि दया इंसान को हक़ से दूर करती है। तो दया और परोपकारी योजनायें, वह हक़ नहीं देतीं बल्कि बेबस बनाती हैं। कमज़ोर बनाती हैं। गंगा को दया नहीं चाहिए।

इलाहाबाद नाविक यूनियन एक्टिविस्ट विशंभर पटेल व इलाहाबाद में गंगा नदी में नाव परिचालन करते मल्लाह

फिर आपकी नज़र में गंगा सफाई प्रोजेक्ट क्या है?

यह सब खाने-कमाने का ज़रिया है। इस प्राकृतिक संसाधन और उसके ऊपर आश्रित समाज की क़ीमत पर वंचितीकरण करने वाली ताकतें कुछ अपने खास लोगों को जीने-खाने का अवसर दे रही हैं। यही है गंगा सफाई प्रोजेक्ट। इससे गंगा की सेहत में सुधार नहीं होना है, बल्कि सुधारने वाले लोगों को जीवन में तरक्की पाना है। इलाहाबाद में गंगा के किनारे सबसे ज़्यादा संख्या में जो जमात रहता है, वह मल्लाहों की है। अभी क्या होता है कि लोग भक्ति और श्रद्धा भाव के कारण फूल, दूध,सिक्के और गहने आदि फेंकते हैँ। यह बहुत दिनों से चला आ रहा है। मल्लाह उसे साफ करता है और उससे उसका गुज़ारा होता है। दूसरा कुदरती साधनों से मानवीय जीवन का जो माहौल बना हजारों सालों का, दरिया पार कराना, दरिया में आखेट करना, पर्यटन का काम करना, दरिया में जीवनयापन में जी रहे लोगों की जिंदगी का लुत्फ उठाना और आपसी तालमेल दिखाना कि जैसे कुदरत मिल करके आगे बड़ी धारा बना लेती है। वैसे हम आप मिल करके भी जीवन की एक धारा बना सकते हैं। जिसको साझी संस्कृति कहते हैं। यहां के मल्लाह उसकी ज़मीन तैयार करते हैं।  दरिया पर जीवनयापन करने वाले मल्लाहों को इन लोगों (सरकारी तंत्र) ने टोपी पहना दिया है। 

जो गंगा जनआस्था का केंद्र है क्या उससे जुड़ा इतना बड़ा प्रोजेक्ट जनभागीदारी के बिना संभव है?

जो जनता की भावना है वो जीवन से जुड़ा हुआ मसअला है। जो यहां का स्टेकहोल्डर है, जैसे कि माली, नाई, मल्लाह, दुधहा, नाविक आदि। यह जो समाज है ,लगभग चार से पांच हजार की संख्या में रोज़ाना गंगा के किनारे रहते हैं। मेले के अलावा भी। लेकिन इनके कहीं बैठने की जगह नहीं है जबकि ये लोग यहां आकर लोगों की सेवा करते हैं। इसे ये लोग गंगा की मुखालफ़त समझते हैं। इलाहाबाद सैन्य छावनी क्षेत्र में आता है। इसके अधिशासी अधिकारी यहां की सारी ज़मीनो की नीलामी करता है। और जो यहां के बाशिंदे हैं, जो रोटी कमाते हैं, उनका कोई पुख्ता इंतजाम नहीं है। जबकि गंगा की देखरेख यही लोग करते हैं। बाहर से जो लोग कर रहे हैं, वो तो कभी-कभार ही करते हैं ,लेकिन जो यहां के लोग हैं, जो यहां लगातार रहते हैं, वे ज़्यादा बेहतर तरीके से गंगा की देख-रेख कर सकते हैं। उनको न शामिल करके सरकार दूसरों को ठेका देती है, क्योंकि इन लोगों को शामिल करेंगे तो इनका हक़-अधिकार देना पड़ेगा। तो गंगा के किनारे रहने वाले लोग जो हैं, उसमें जो वर्चस्व बनायी हुई शक्तियां हैं, उनके मार्फत गंगा को कवर कर लिया जाय। जिससे यह संतुष्टि भी बनी रहेगी और जो इससे जुड़ा समुदाय है, जोकि बहुजन समाज है, जो हक़-अधिकार से वंचित है, उसमें एक आस्था का प्रवाह नियमित तौर कंट्रोल करती रहेंगी सरकारी शक्तियां। यही असली मक़सद है इनका। 

गंगा प्रदूषण के मसअले पर सरकार कहां चूक रही है?

गंगा के मसअले पर जो सरकारी प्रयास चल रहा है, सरकार उसके ऊपर अनुश्रवण नहीं कर रही है। जैसे इसी दरिया का पानी देख लीजिये, इसे किन मनुष्यों ने गंदा किया है। उनका वर्गीकरण करना पड़ेगा। जो अपद्रव्य इसमें गिराया जा रहा है, उस पर रोक लगाना पड़ेगा। लेकिन अभी वे बेलगाम चल रहे हैं। और झूठा शोर मचाया जा रहा है। एक छोटा सा उदाहरण दूं कि गंगा सफाई के लिये इलाहाबाद नगर निगम कई मशीनें लायी है। ताकि नीचे पन्नी न इकट्ठा हो, जो लोग गंगा में फेंक दे रहे थे, वह कचरा न जाये, और वो सारी पन्नियां मशीन छान ले। लेकिन सवाल तो यह है कि आप गंगा किनारे पन्नियों में सामान क्यों बेंचने दे रहे हैं। शहरों में पन्नियों की फैक्ट्री चल रही है। बाजार का सामान जब पन्नियों में बिकेगा, तो पन्नियां कहां जाएंगीं? नालियों, सीवरों और हवाओं के साथ गंगा में ही जायेंगी ना। 

क्या इसका कोई समाजार्थिक पहलू भी है?

बिल्कुल है। आप जानिए कि लगभग चार-पांच हजार रेहड़ी पटरी वाले वहां दुकाने लगाते हैं। और सारा सामान पॉलीबैग में ही बिकता है। तो केवल एक मसअला उठा लीजिये कि सरकार कह रही है पॉलीथिन से गंगा में कचरा पहुंच रहा है तो पॉलीथिन की छोटी फैक्ट्रियां जब सरकार बंद करेगी तभी यह बंद होगा। लेकिन सरकार टर्म एंड कंडीशन्स लगाकर हीलाहवाली करती है। कहती है कि इतने एमएम से कम की पन्नी बनेगी तो ठीक है, इतने एमएम से ज़्यादा की बनेगी तो बंद करेंगे। ये तो दोहरापन है। अगर पन्नी अहितकारी है तो उसका प्रयोग सर्वथा निषिद्ध होना चाहिये। लेकिन ये लोग पॉलीथिन का उत्पादन नहीं बंद कर सकते। क्योंकि पेट्रोलियम की खपत से पैदा हो रहे अपद्रव्य से ही पन्नी बन रही है। जितना सिंथेटिक रेयॉन है, वह पेट्रोल का कचरा है। यदि आप पूरी अर्थव्यवस्था को पोलिटिकल नज़रिये से नहीं देखेंगे तो ये आधी अधूरी बात होगी। 

क्या गंगा प्रोजेक्ट का कोई सांप्रदायिक पहलू भी है?

अभी आप मूर्ति विसर्जन का मसअला ले लीजिये। कहने को तो ये कह देंगे कि गंगा में हम नहीं विसर्जित करने देते। इलाहाबाद का डीएम गंगा किनारे ज़मीन खुदवा देता है कि गंगा के पानी में मत डालिये, मूर्तियों का विसर्जन गड्ढे में कीजिये। लेकिन फिर बाढ़ आता है या कटान करके गंगा उधर आती है तो मूर्तियों का सारा मलबा सारा केमिकल गंगा में ही तो जाता है। मूर्ति स्थापना के इस तरह के सांस्कृतिक परिवेश को भारतीय जनता पार्टी ने विकसित किया, गांव-गांव घर-घर फैलाया। इसके लिये चोरी-चुपके फंडिंग भी की। महाराष्ट्र के देवी-देवताओं की पूजा और मूर्ति स्थापना अब इलाहाबाद में भी होने लगा है। कन्नड़ उड़िया वाले भी करने लगे हैं। चूंकि हर राज्य ग्लोबल हो गया हैं और कोई राज्य ऐसा नहीं है, जो अखिल भारतीय स्वाभाव में नहीं हैं। तो एक तरफ तो ये लोग ऐसा वातावरण पैदा करते हैं। गंगा किनारे पूजा-पाठ का प्रचलन शुरु हुआ तो कचरा तो जाएगा ही गंगा में और दूसरी ओर गंगा सफाई का ढोंग भी किया जा रहा है। जबकि हक़ीक़त में ये लोग सिवाय प्रचार के और कुछ नहीं कर रहे।  

गंगा प्रोजेक्ट की असली मंशा क्या है?

जब कोई राज्य अपनी विचारधारा स्थापित करता है तो शब्दालियां गढ़ता है। यहां भी यही हो रहा है। इन्होने ‘प्रोजेक्ट’ शब्द को ऐसे फैलाया है कि चारों ओर प्रयुक्त हो रहा है। चालबाज लोग सीख जाते हैं। बाकी आम लोग देखते रहते हैं। गंगा परियोजना में अभी बीस साल लगेगा। असल में ये लोगों को यहां से बाहर करना चाहते हैं। इसके लिए इंटरनेशनल प्रोजेक्ट चलाई जा रही है। बनारस के रामघाट की तर्ज़ पर जिस दिन बोली लग जाएगी, पंडे मालिक बन जाएंगे। ठेकेदारी पर काम चला देंगे। शेष आबादी संविदा पर चाकरी करेगी। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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