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पंडितों ने नहीं, तो किसने बनाईं जातियां?

मोहन भागवत का बयान जाति-व्यवस्था को तोड़ने में कोई मदद नहीं करता। उनके बयान पर ब्राह्मणों की बौखलाहट भी यही साबित करती है कि वे किसी भी कीमत पर जाति-व्यवस्था को खत्म नहीं होने देंगे। उन्होंने इतिहास में जाति के खिलाफ विद्रोह करने वाले लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा है, और उनकी आवाज़ तक को दफन कर दिया है; एक मोहन भागवत उनके लिए क्या मायने रखते हैं? बता रहे हैं कंवल भारती

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) सुप्रीमो मोहन भागवत ने वह कह दिया, जिसे कहने का साहस बहुत कम ब्राह्मण करते हैं। उन्होंने गत दिनों मुंबई के दादर में रैदास जयंती के अवसर पर बोलते हुए कहा कि जातियां भगवान ने नहीं, पंडितों ने बनाई हैं, और भगवान के लिए सब समान हैं। उनका यह बयान ऐसे समय आया है, जब देश में तुलसीदास के रामचरितमानस पर तूफ़ान मचा हुआ है, और उत्तर प्रदेश तथा कई अन्य राज्यों के शहरों में रामचरितमानस के उन अंशों को फाड़कर जलाया गया है, जो शूद्रों के अपमान से संबंधित हैं। अगले लोकसभा चुनावों में कहीं भाजपा को इसका खामियाजा न भुगतना पड़ जाए, इसलिए इस विवाद की जलती आग में पानी के छींटें डालकर उसे ठंडा करने की एक कोशिश मोहन भागवत ने की है।

लेकिन जैसे ही भागवत ने पंडितों को जाति-व्यवस्था के लिए जिम्मेदार ठहराने वाला बयान दिया, वैसे ही देश भर के ब्राह्मण भड़क गए। अब चूंकि आरएसएस ब्राह्मणों को नाराज करना नहीं चाहता, इसलिए तुरंत पंडित शब्द पर आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने बयान देकर स्पष्ट कर दिया कि पंडित से मोहन भागवत का आशय ब्राह्मण से न होकर विद्वानों से है। उन्होंने कहा कि मोहन भागवत मराठी में बोल रहे थे, और मराठी में पंडित का मतलब विद्वान होता है, ब्राह्मण नहीं।

मतलब, आरएसएस में इतना साहस नहीं कि खुलकर कह सके कि पंडित का अर्थ ब्राह्मण ही होता है। लेकिन सच यह है कि पंडित शब्द ब्राह्मण का ही पर्याय है। इस देश में पंडित केवल ब्राह्मणों को ही कहा जाता है, ठाकुरों और वैश्यों को नहीं। ब्राह्मणों के नाम के साथ ही पंडित लगाया जाता है, जैसे, पंडित रामचंद्र शुक्ल, पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी, पंडित माखनलाल चतुर्वेदी, पंडित जवाहर लाल नेहरू और महापंडित राहुल सांकृत्यायन, इत्यादि। कभी भी नामवर सिंह, शुकदेव सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, पुरुषोत्तम अग्रवाल, राममनोहर लोहिया, राजकिशोर, धर्मवीर, तुलसीराम के लिए पंडित शब्द का प्रयोग नहीं किया गया। इसलिए सुनील आंबेकर की सफाई कोई मायने नहीं रखती, क्योंकि ब्राह्मण जानते हैं कि पंडित ही ब्राह्मण है और ब्राह्मण ही पंडित। इसलिए बनारस के ब्राह्मणों ने कोतवाली थाने में मोहन भागवत के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने के लिए तहरीर दे दी। अखिल भारतीय ब्राह्मण एकता परिषद की वाराणसी इकाई के पदाधिकारियों का कहना है कि पंडितों पर मोहन भागवत के दिए बयान से ब्राह्मण समाज अपमानित महसूस कर रहा है। ब्राह्मणों को हर वह बात बुरी लगती है, जो उनके विरोध में जाती है। उन्होंने अपने धर्म में न स्त्रियों का अपमान महसूस किया, और न दलितों का। वर्णव्यवस्था में हजारों साल से शूद्रों को अपमानजनक स्थिति में रखा गया है और कदम-कदम पर आज भी उनको अपमानित किया जाता है, यहां तक कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सरकारी आवास तक को गंगाजल से धुलवाकर उन्हें अपमानित किया गया, लेकिन शूद्रों का सदियों का यह संताप और अपमान ब्राह्मणों को कभी महसूस नहीं हुआ। ब्राह्मणों ने यह क्यों नहीं स्वीकार किया कि शूद्र भी उन्हीं के समान मनुष्य हैं? अगर ब्राह्मणों ने जाति-व्यवस्था नहीं बनाई, तो फिर किसने बनाई? उसे ईश्वरीय विधान बताकर समाज पर किसने थोपा? ब्राह्मणों ने या मुसलमानों ने? सच यही है कि ब्राह्मणों ने ही जाति-व्यवस्था बनाई।

सदियां बीत गईं, पर ब्राह्मण अभी भी अपना अपराध स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। और जब मोहन भागवत ने, जो स्वयं भी ब्राह्मण हैं, ब्राह्मणों को उनके अपराध का बोध करा दिया, तो यह उन्हें बर्दाश्त नहीं हो रहा है।

मोहन भागवत, प्रमुख, आरएसएस

अगर मोहन भागवत ने झूठ बोला है कि जातियां पंडितों ने बनाईं, तो ब्राह्मणों द्वारा इसका खंडन किया जाना चाहिए, और पुष्ट प्रमाणों के साथ उन्हें बताना चाहिए कि चारों वर्णों का निर्माण किसने किया? हालांकि, चार वर्णों में ब्राह्मण पहले स्थान पर आते हैं, जो स्वयं में एक बड़ा प्रमाण है कि वर्णव्यवस्था का निर्माण ब्राह्मणों ने किया था। अगर जातियों का निर्माण क्षत्रिय करते, तो वे पहले स्थान पर क्षत्रियों को रखते; और अगर वैश्य जातियां बनाते, तो उनकी व्यवस्था में वैश्यों का स्थान सबसे पहला होता। क्षत्रिय या वैश्य अगर जातियां बनाते, तो वे कभी भी ब्राह्मण को अपने से पहला या बड़ा दर्जा नहीं देते। लेकिन यह केवल कयास है, क्योंकि वास्तव में, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सब ब्राह्मण के ही दिमाग की उपज हैं। अगर ब्राह्मण जाति-व्यवस्था नहीं बनाता, तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की श्रेणियां ही नहीं होतीं। सिर्फ व्यवसाय के आधार पर वर्ग होते, जन्म के आधार पर जातियां नहीं होतीं।

भगवद्गीता का हवाला देकर यह कहा जा सकता है कि जातियां कृष्ण ने बनाईं। क्योंकि उसके चौथे अध्याय में कृष्ण कहते हैं, “इस चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का कर्ता मैं ही हूं।” कृष्ण ब्राह्मण नहीं थे। इस तर्क से अगर कृष्ण को निर्माता माना जाए, तो वह अहीर थे। तब क्या एक अहीर ने जाति-व्यवस्था बनाई? इस तर्क में इसलिए जान नहीं है, क्योंकि एक अहीर अपनी बनाई हुई जाति-व्यवस्था में ब्राह्मण को श्रेष्ठ और सर्वोच्च श्रेणी में क्यों रखेगा? एक और तर्क से कृष्ण के दावे का खंडन हो जाता है। वह यह कि ब्राह्मण काल के अनुसार कृष्ण द्वापर में हुए, जबकि उनसे पहले त्रेता युग हुआ, जिसमें राम का अवतरण हुआ था, और राम ने वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध आचरण करने पर एक शूद्र तपस्वी शंबूक की हत्या कर दी थी। इसका मतलब यह हुआ कि वर्ण-व्यवस्था त्रेता काल में भी अस्तित्व में थी। तब यह बात मिथ्या साबित हो जाती है कि वर्ण-व्यवस्था के कर्ता कृष्ण थे। हालांकि, भगवद्गीता का लेखक एक ब्राह्मण ही है और उस ब्राह्मण ने ही कृष्ण के मुंह में यह बात डलवाई है कि चारों वर्णों का कर्ता मैं ही हूं। इस दृष्टि से भी जातियों का निर्माता ब्राह्मण ही हुआ।

मोहन भागवत के बयान के बाद ऋग्वेद का दसवां मंडल भी झूठा हो जाता है, क्योंकि उसका सूक्त 90 कहता है कि “आदि पुरुष से ब्रह्म उत्पन्न हुआ और ब्रह्म के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, उदर से वैश्य, और पैर से शूद्र उत्पन्न हुए।” ब्रह्म कोई और नहीं, ब्राह्मण ही है। ब्रह्म और ब्राह्मण दोनों एक ही शब्द हैं। उपनिषदों में बार-बार बताया गया है कि ब्राह्मण ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही ब्राह्मण है। मुद्रा राक्षस ने अपनी खोजपूर्ण पुस्तक ‘धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ’ में एक जगह लिखा है, “दरअसल ब्राह्मण विचारक तर्क और विज्ञान बुद्धि को खारिज करके ब्रह्म-ज्ञान सिद्ध करने की एक असंभव कोशिश करता है। यह कोशिश वह अपनी कुछ खास जरूरतों को पूरा करने के लिए करता है। उसकी एक जरूरत थी, ब्राह्मण को सीधा ब्रह्म से संबद्ध करना, बल्कि ब्रह्म के ही प्रतिरूप सिद्ध करना। फिर वह बताना चाहता था कि जो कुछ वह करता है, वही ब्रह्मज्ञान है। ब्रह्म की महानता सिद्ध करने के लिए ब्राह्मण यह भी कहना जरूरी समझता था कि उसके ब्रह्म से ही सब कुछ पैदा हुआ, उसी के कारण सब कुछ है और आखिर में उसी में लुप्त होगा। इसलिए उसने तैत्तिरीय उपनिषद में ये बातें लिखीं– नमो ब्रह्मणे, त्वमेव प्रत्यक्ष ब्रह्मासि। यही नहीं जब भी ब्रह्मज्ञान की बात उठी, उसने ब्राह्मण को ही ब्रह्मज्ञानी बताया। ऐसी स्थिति में ब्रह्म को निराकार, निर्विकार और निर्गुण सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि बीच-बीच में ब्राह्मण याद दिला देता है कि ब्रह्म वह खुद है।”[1]

जब ब्राह्मण ही खुद को ब्रह्म और ब्रह्मज्ञानी कहता है, तो जाति-व्यवस्था का निर्माता भी ब्राह्मण ही हुआ।

मोहन भागवत के बयान से मनुस्मृति भी झूठी साबित हो जाती है, क्योंकि उसके भी पहले ही अध्याय में बताया गया है कि चारों वर्णों का निर्माण ब्रह्म ने किया है। यहां ब्रह्म भगवान नहीं है, बल्कि ब्राह्मण द्वारा इसे अपने प्रतिरूप में ही गढ़ा गया था और उसके मूल में ब्राह्मण ही स्वयं है। इसीलिए ब्राह्मण-हत्या को भी ब्रह्म-हत्या कहा जाता था। मनुस्मृति के ग्यारहवें अध्याय में और भी स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ब्रह्म ही ब्राह्मण है और ब्राह्मण ही वेद है। इस आधार पर मोहन भागवत का कथन गलत कैसे हो सकता है कि जातियां ब्राह्मणों ने ही बनाई हैं।

अब इस बात को लेते हैं कि भगवान ने जातियां नहीं बनाईं। क्या भगवान जातियां बना सकते हैं? उत्तर है – भगवान जातियां बना ही नहीं सकते। क्योंकि कुछ भी निर्माण करने से भगवान निराकार, निर्गुण और निर्विकार नहीं रह जाता, बल्कि सगुण हो जाता है। हालांकि ईसाई और इस्लाम धर्मों का ईश्वर भी सगुण ही है। वह सृष्टि का निर्माता माना जाता है, पर अल्लाह या गॉड ने ऐसे मानव-समाज की रचना नहीं की, जिसमें छोटे-बड़े या ऊंच-नीच का भेद हो। उसने सबको समान पैदा किया है। यह एक आदर्श ईश्वर का गुण है, जो होना भी चाहिए। लेकिन, हिंदू धर्म ऐसे किसी ईश्वर की अवधारणा में विश्वास नहीं करता, जिसके लिए सब समान हों। इसलिए भारत की जनता में इस्लाम और ईसाईयत के एकेश्वरवाद के प्रभाव को कम करने के लिए ब्राह्मणों ने ब्रह्म को स्थापित किया, और आचार्य शंकर ने सूत्र दिया कि ब्रह्म एक है, और दूसरा कोई नहीं, वह सत्य तथा सर्वव्यापी है। पर, समाज में शंकर ने वर्ण-व्यवस्था को ही स्वीकार किया। इस प्रकार ब्राह्मणों ने ब्रह्म को सर्वव्यापी मानकर भी अपनी वर्ण-व्यवस्था नहीं छोड़ी। इसका बहुत ही विस्तृत और रोचक वर्णन डॉ. आंबेडकर ने अपने ग्रंथ ‘रिडिल्स इन हिंदुइज्म’ की बाईसवीं पहेली में किया है। पाठक उसे जरूर पढ़ें।

मध्यकाल में, जिसे भक्ति काल भी कहा जाता है, निर्गुण और सगुण का दर्शन बहुत साफ-साफ देखा जा सकता है। निर्गुणवाद का प्रवर्तक और प्रचारक शूद्र वर्ग था, और सगुणवाद के अनुयाई ब्राह्मण थे। कबीर साहेब ने निर्गुण ईश्वर की व्याख्या करते हुए कहा कि किसी जीव को जन्म देने, मृत्यु देने, सृष्टि रचने और सृष्टि का विनाश करना उसका गुण नहीं है। उसका न कोई वर्ण है, न जाति है, न कुल है और न गोत्र है। उसका कोई लोक नहीं है, वह सर्वत्र है। इसलिए परलोक भी नहीं है, जहां वह रहता है। इस प्रकार, एक ऐसा परमात्मा, जो जीवों को ही उत्पन्न नहीं करता, वह जातियां कैसे बना सकता है? अगर यह मान भी लिया जाए कि कोई ईश्वर निर्माता-नियंता है, तो वह किस मकसद से जातियां बनाएगा? बिना कारण के तो कार्य होता नहीं, फिर जातियों के निर्माण का कारण क्या हो सकता है? क्या इस तरह के अनैतिक कार्य से ईश्वर स्वयं में एक अनैतिक चरित्र का नहीं हो जाएगा? इससे यह तो तय है कि जातियों के निर्माता ब्राह्मण हैं और वे नहीं चाहते कि जातियां खत्म हों। इसलिए वे जातियों को बनाए रखने के लिए सदैव जागरूक रहते हैं। ब्राह्मण जातियों को इसलिए सुरक्षित रखना चाहते हैं, क्योंकि यह उनके लिए लाभ की व्यवस्था है। यही वह व्यवस्था है, जो उन्हें शासक वर्ग बनाकर रखती है। वे ऐसी व्यवस्था को कभी खत्म नहीं करेंगे। इस व्यवस्था को मजबूत रखने के उद्देश्य से ही वे दलितों और ओबीसी के आरक्षण का न सिर्फ विरोध करते हैं, बल्कि उसे खत्म करने के लिए सरकार पर दबाव भी बनाते हैं।

इसलिए मोहन भागवत का बयान जाति-व्यवस्था को तोड़ने में कोई मदद नहीं करता। उनके बयान पर ब्राह्मणों की बौखलाहट भी यही साबित करती है कि वे किसी भी कीमत पर जाति-व्यवस्था को खत्म नहीं होने देंगे। उन्होंने इतिहास में जाति के खिलाफ विद्रोह करने वाले लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा है, और उनकी आवाज़ तक को दफन कर दिया है; एक मोहन भागवत उनके लिए क्या मायने रखते हैं?

मोहन भागवत का यह कहना भी ब्राह्मणों के लिए कोई मायने नहीं रखता कि भगवान के लिए सब समान हैं। क्योंकि भारत के ब्राह्मण सगुणवादी हैं। वे उस भगवान को मानते ही नहीं हैं, जिसके लिए सब समान हैं। वे अवतारों को मानते हैं, वे राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा, हनुमान आदि देवी-देवताओं को मानते हैं, जिनके लिए सब मनुष्य समान नहीं हैं। वे असल में वर्ण और जातियों को मानने वाले भगवानों को मानते हैं।

अंत में मोहन भागवत के बयान पर इस नजरिए से भी विचार किए जाने की जरूरत है कि उन्होंने यह तो कहा है कि जातियां पंडितों ने बनाई हैं, पर जाति-व्यवस्था को खत्म करने पर उन्होंने जोर नहीं दिया है। अगर वह जाति-व्यवस्था को खत्म करने की बात करते, और इसके लिए उन हिंदू धर्मग्रंथों को नष्ट करने पर जोर देते, जो जाति-व्यवस्था में विश्वास सिखाते हैं, तो लग सकता था कि वह वाल्तेयर होना चाहते हैं। लेकिन, ऐसा उन्होंने कुछ नहीं कहा, और उन धर्मग्रंथों को नष्ट किए बिना, जो जाति का समर्थन करते हैं, जाति-व्यवस्था को खत्म नहीं किया जा सकता।

[1] मुद्रा राक्षस, धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ, 2004, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ 84-85

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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