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जातिगत फंदे से कब निजात पाएगी न्यायपालिका?

पिछले 70 वर्षों से जिस तरह एससी और एसटी समुदाय का प्रतिनिधित्व उच्च न्यायालयों में नगण्य रहा है। इस कारण इस संस्था के प्रति इन समुदायों में तेजी से अविश्वास पैदा हो रहा है, क्योंकि इनकी बेहतरी से जुड़े भूमि सुधार, आरक्षण, एससी/एसटी एक्ट जैसे तमाम मुद्दों पर न्यायपालिका का रुख सकारात्मक नहीं दिखाई दिया। बता रहे हैं स्वदेश कुमार सिन्हा

भंवरी देवी बलात्कार कांड लोग नहीं भूले होंगे। राजस्थान में करीब 30 साल पहले एक अनपढ़ और पिछड़ी जाति की महिला बलात्कार का शिकार हुईं। बलात्कार का आरोप दबंग जाति के उसके पड़ोसियों पर लगा। लेकिन यह मामला आज भी हाई कोर्ट में फैसले का इंतजार कर रहा है। पिछले 27 वर्षों में केवल एक बार ही इस मामले में सुनवाई हुई है। भंवरी देवी का यह मामला इस तथ्य को स्थापित करता है कि किस तरह हमारे देश में न्याय का मंदिर कहे जाने वाले न्यायालयों में उच्च व दबंग जाति के प्रभावशाली तबकों का वर्चस्व है। अगर हम ध्यान से देखें, तो यह पाते हैं कि बाबरी मस्ज़िद-राम जन्मभूमि विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिदिन सुनवाई करके हिंदू पक्षकारों के हक़ में फैसला दे दिया। इसी तरह सवर्ण जाति के कमज़ोर तबकों को आरक्षण देने के मामले में भी हुआ। 

पिछले दिनों केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने भाजपा सांसद सुशील मोदी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति के समक्ष बतलाया कि पिछले पांच वर्षों में उच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति में 75 प्रतिशत सामान्य वर्ग से,11 प्रतिशत अन्य पिछड़े वर्ग से और 2.6 प्रतिशत अल्पसंख्यक से थे। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की हिस्सेदारी क्रमशः 2.8 प्रतिशत और 1.3 प्रतिशत थी। मंत्रालय 20 जजों की सामाजिक पृष्ठभूमि का पता नहीं लगा सका। वर्ष 2018 में कानून मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा सिफारिश किए गए लोगों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के विवरण के लिए उन्हें एक फॉर्म भरने को कहा था। वहीं मार्च 2022 में राज्यसभा में एक ज़वाब में केंद्रीय कानून मंत्री रिजिजू ने कहा था कि सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति में सामाजिक विविधता के लिए प्रतिबद्ध है। कुछ उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए प्रस्ताव भेजते समय अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों तथा महिलाओं से संबंधित उपयुक्त उम्मीदवारों पर उचित विचार करना चाहिए, ताकि उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति में सामाजिक विविधता सुनिश्चित की जा सके। रिजिजू ने तब कहा था कि “उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति संविधान के अनुच्छेद 217 के तहत की जाती है, इसमें कोई कोटा या आरक्षण नहीं है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में दिए गए ऐतिहासिक फैसले में कहा था, “हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली केवल कुलीन तंत्र के लिए नहीं है, बल्कि सभी के लिए है।”

लेकिन वास्तव में न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली भी सभी वर्गों के उचित प्रतिनिधित्व में बाधक है। 30 दिसम्बर, 2018 को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के पहले कार्यकाल के समापन के समय तत्कालीन कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बयान दिया था कि सरकार न्यायापालिका की नियुक्ति में आरक्षण लागू करने की पक्षधर है। उनका कहना था कि सरकार ऑल इंडिया ज्यूडिशियल सर्विस परीक्षा के जरिए न्यायपालिका में नियुक्तियां चाहती है। वह चाहती है कि यह परीक्षा संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) करे। हालांकि अब सरकार के पास इतना समय नहीं बचा है कि सरकार इस मामले में कोई कानूनी पहलकदमी कर सके। 

सुप्रीम कोर्ट, नई दिल्ली

विदित है कि देश में कानून और न्यायिक सुधार को दिशा देने के लिए नीति आयोग ने भी कुछ वर्ष पूर्व ‘स्ट्रेटजी फॉर न्यू इंडिया @75’ नाम से एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन का सुझाव दिया गया था। वर्ष 2018 की शुरुआत में जब सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट में बुनियादी फेरबदल करने वाला फ़ैसला दिया था, तब मनीष छिब्बर ने एक महत्वपूर्ण आलेख में यह टिप्पणी की थी कि, “जिस समय यह फ़ैसला आ रहा था, उस समय सुप्रीम कोर्ट में कोई दलित जज नहीं था। एससी-एसटी एक्ट पर फ़ैसले को देश की प्रमुख कानूनविद और सीनियर एडवोकेट पद पर‌ सुप्रीम कोर्ट द्वारा नामित वकील इंदिरा जयसिंह ने भी जातिवादी करार दिया था। हालांकि सुप्रीम कोर्ट में यह मांग उठ रही थी कि इस टिप्पणी के लिए इंदिरा जयसिंह पर अवमानना का मुकदमा दर्ज किया जाए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस मांग पर ध्यान नहीं दिया। एक अन्य संवैधानिक संस्था राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने सिफारिश की है कि न्यायपालिका में आरक्षण होना चाहिए। आयोग की स्पष्ट मान्यता है, कि बिना आरक्षण दिए न्यायपालिका में तमाम सामाजिक समूहों का प्रतिनिधित्व मुमकिन नहीं है। संसद द्वारा स्थापित दो संसदीय समितियों – कड़िया मुंडा कमेटी और निचिअप्पन कमेटी – ने भी न्यायपालिका में वंचित तबकों का प्रतिनिधित्व न होने पर चिंता जताई है। 

चूंकि 6 अक्टूबर, 1993 के बाद से नियुक्तियां कॉलेजियम प्रणाली से हो रही हैं, इसलिए यह आम धारणा बन रही है कि उक्त समुदायों का प्रतिनिधित्व न होने के लिए सिर्फ सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम यानी सीनियर जज ही जिम्मेदार हैं। यह बात आधी सच है, क्योंकि जब नियुक्तियां बिना कॉलेजियम के हो रही थीं और नियुक्तियों में सरकार की भूमिका थी, तब भी हालत कुछ ऐसी ही थी। मेरे इस कथन को कॉलेजियम सिस्टम का समर्थन न माना जाए। यह कई कारणों से एक समस्यामूलक व्यवस्था है। उच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति में जाति कैसे और किस हद तक काम करती है, इसे समझने के लिए अभिनव चंद्रचूड़ की हाल ही में प्रकाशित किताब ‘सुप्रीम व्हिस्पर्श’ पढ़ी जानी चाहिए। इस दिशा में जीएच गैंग ब्वाइस की किताब जजेज ऑफ द सुप्रीम कोर्ट’ भी एक अति महत्वपूर्ण दस्तावेज है।

बहरहाल, पिछले 70 वर्षों से जिस तरह एससी और एसटी समुदाय का प्रतिनिधित्व उच्च न्यायालयों में नगण्य रहा है, उससे इस संस्था के प्रति इन समुदायों में तेजी से अविश्वास पैदा हो रहा है, क्योंकि इनकी बेहतरी से जुड़े भूमि सुधार, आरक्षण, एससी/एसटी एक्ट जैसे तमाम मुद्दों पर न्यायपालिका का रुख सकारात्मक नहीं दिखाई दिया। यदि थोड़ा अतीत में झांकें तो 1960-70 के दशक में ऐसा लग रहा था कि उच्च न्यायपालिका कानून का राज स्थापित करने के नाम पर जमींदारों के पक्ष में खड़ी हो गई है। उस समय ज़्यादातर न्यायाधीश जमींदार घराने से होते थे। ऐसे ही एक जज पूर्व मुख्य न्यायाधीश के. सुब्बाराव ने 1967 में अपने पद से इस्तीफा देते हुए जमींदारों की स्वतंत्र पार्टी की तरफ से राष्ट्रपति पद का चुनाव भी लड़े। जबकि इस्तीफा देने से पहले वे भूमि सुधार से जुड़े तीन कानूनों को ख़ारिज़ कर चुके थे। इसके अलावा एक अन्य कारण भी है, जिसकी वजह से इस न्यायपालिका ने इन वंचित समुदायों का विश्वास खो दिया है। 

दरअसल इस समय विभिन्न जेलों में 67 प्रतिशत कैदी बिना सजा के ही बंद हैं और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के अनुसार उसमें से 66 प्रतिशत लोग अनुसूचित जाति से हैं।

संविधान निर्माताओं ने यह माना था कि ऐसा नहीं हो सकता कि न्यायपालिका में बैठे लोग पूर्णतः पूर्वाग्रहरहित हो जाएं, क्योंकि वे भी इसी पूर्वाग्रहग्रस्त समाज से आते हैं, इसलिए संविधान निर्माताओं ने न्यायाधीशों की नियुक्ति का मामला केवल प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या फिर मुख्य न्यायाधीश के विवेक पर नहीं छोड़ा था, बल्कि आपसी विचार-विमर्श से नियुक्त करने की अवधारणा पर ज़ोर दिया था। उपरोक्त उदाहरणों से और अध्ययनों से स्पष्ट है कि न्यायिक नियुक्तियों में जाति एक अहम भूमिका निभाती रही है। 

इससे दो बातें निकलकर सामने आती हैं। पहली यह कि जातीय पूर्वाग्रह से ग्रस्त कुछ लोग जज बन जाते हैं। दूसरी यह कि आदिवासी, दलित समाज से जज न बनने का कारण सिर्फ मेरिट का होना या न होना नहीं है, बल्कि जातिगत भेदभाव भी है। किसी भी पूर्वाग्रह को दूर करने का दुनिया भर में एकमात्र तरीका समाज के अलग-अलग समुदायों के प्रतिनिधित्व को माना गया है, यहां तक कि सीमित स्तर पर ही सही। 

भारत का सुप्रीम कोर्ट भी इन‌ सिद्धांतों को लागू कर रहा है, ऐसा कोई समय नहीं हुआ है, जब सुप्रीम कोर्ट में दो प्रमुख अल्पसंख्यक समुदाय (मुस्लिम और ईसाई ) से कोई जज नहीं हो। इसी प्रकार आजकल महिलाओं की संख्या बढ़ाने की बात भी चल रही है। फिर यह समझ से परे है कि आदिवासी, दलित और ओबीसी समाज से जज की नियुक्ति से योग्यता पर प्रभाव कैसे पड़ जाएगा।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

स्वदेश कुमार सिन्हा

लेखक स्वदेश कुमार सिन्हा (जन्म : 1 जून 1964) ऑथर्स प्राइड पब्लिशर, नई दिल्ली के हिन्दी संपादक हैं। साथ वे सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक विषयों के स्वतंत्र लेखक व अनुवादक भी हैं

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