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अमृतपाल प्रकरण : कुछ भी बे-सियासत नहीं

ऐसा भी नहीं है कि भगवंत सिंह मान की सरकार पर कोई दोष मढ़ा नहीं जा रहा, लेकिन इन दोषों की धार इतनी तीव्र नहीं है कि मान सरकार के पैर उखड़ने लगें। लेकिन यदि यही स्थिति किसी चरणजीत सिंह चन्नी जैसे दलित मुख्यमंत्री को झेलनी पड़ती तो उनके पैर कबके उखाड़ दिये गये होते। पढ़ें, द्वारका भारती का नजरिया

इसे सत्ता का स्वभाव कहें या फिर ‘तेल देखो, तेल की धार देखो’ वाली नीति कि जिस ‘वारिस पंजाब दे’ कथित प्रमुख तथा खालिस्तान आंदोलन के समर्थक अमृतपाल को कुछ दिन पहले स्थानीय लोग भी ज्यादा नहीं जानते थे, आज वही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक धमाकेदार व्यक्तित्व का मालिक बनकर पंजाब की सत्ता को तिगनी का नाच नचा रहा है। 

उसे जमीं खा गई या आसमान निगल गया? अस्सी हजार सुरक्षाकर्मियों की चील जैसी नज़रें भी उसे ढूंढ नहीं पा रही हैं। इसे सत्ता की नाकामी कहने के स्वर इतने मद्धिम हैं कि इसे सुनने में कानों को जोर देना पड़ता है। इसी संदर्भ में यह कहना प्रासंगिक होगा कि यदि इस वक्त पंजाब की सत्ता पर चरणजीत सिंह चन्नी जैसा कोई दलित मुख्यमंत्री होता तो अब तक उसकी ढेर-सी नाकामियों का कच्चा चिट्ठा मीडिया व केंद्र सरकार द्वारा कब का उगल दिया गया होता और यह तय कर दिया गया होता कि सत्ता का संचालन सिर्फ ऊंची जाति के लोग ही करते रहे हैं और कर सकते हैं।

ऐसा भी नहीं है कि भगवंत सिंह मान की सरकार पर कोई दोष मढ़ा नहीं जा रहा, लेकिन इन दोषों की धार इतनी तीव्र नहीं है कि मान सरकार के पैर उखड़ने लगें। 

इतिहास हमें खालिस्तान जैसे आंदोलन की एक विशेषता यह बताता है कि इसने सरकारें बनाने में अपनी अहम भूमिका निभाई है तो इससे ज्यादा राजनैतिक गोटियां खेलकर अपना खेल दिखाया है। इसके साथ एक विशेषता यह भी रही है कि जब जब पंजाब में अकाली सरकार सत्ता में होती है तो इस प्रकार के आंदोलन गहरी नींद में उतरते हुए देखे जाते रहे हैं और सरकार बदलने के साथ ही यह खालिस्तानी आंदोलन भी मानो अपनी कमर कस लेता है।

किसके संरक्षण में है अमृतपाल सिंह?

इस आंदोलन में सरकारों का रवैया हमेशा ही ढीला-ढाला देखा जाता रहा है, जैसा कि आज भी देखने में आ रहा है। गत 23 फरवरी, 2023 को यही अमृतपाल सिंह अपने साथियों के साथ अजनाला शहर में एक थाने पर हमला कर देता है तो पुलिस की हालत उस हिरण जैसी देखी जाती है जिस को किसी शेर ने अपने जबड़ों में दबोच रखा हो और अपनी जान बचाने को छटपटा रहा हो। कहने को तो यह कहा जाता है कि इस थाने पर हमला करते समय अमृतपाल गुरुग्रंथ साहिब की आड़ लेता है, जिसके सामने पुलिस बेबस थी।

लेकिन यह पुलिस की यह कारगुजारी बहाना कम, पुलिस की धर्मभीरूता पर ज्यादा सवाल उठा रही है। पंजाब पुलिस का  ऐसा नकारापन देखने में आया है कि 6 जिलों का पुलिस दल जिसमें 600 पुलिसकर्मी इन आंदोलनकारियों के आगे इस तरह भाग खड़े हुए कि वह पुलिस कम, अपनी जान बचाने में लगी कोई हारी हुई भागती सेना ज्यादा लग रही थी।

यह सत्ता का ऐसा दब्बूपन था, जिस पर सिर्फ हंसा ही जा सकता है। वास्तव में ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे कोई, ‘फ्रेंडली मैच’ खेला जा रहा हो।

इस खालिस्तानी आंदोलन के इतिहास को खंगालें तो हमें आश्चर्य होता है कि इसके संस्थापक कहे जाने वाले जगजीत सिंह चौहान डॉ. आंबेडकर द्वारा गठित राजनैतिक दल रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) में रहते हुए 1969 में पंजाब में विधानसभा का चुनाव लड़ते हैं और हार जाते हैं। इस संदर्भ में हम और पीछे जाएं तो हमें यह जानकर हैरानी होगी कि ‘खालिस्तान नेशनल काउंसिल’ नाम से इसका गठन भारत में नहीं, 1979 में विदेश (ब्रिटेन) में होता है। तबसे लेकर आज तक इसका संचालन केंद्र विदेशों में ही रहा है।

यह भी आश्चर्य का विषय है कि विदेशी सरकारें इस आंदोलन के प्रति इस प्रकार उदासीन होती हैं, मानो यह भी अन्य सांस्कृतिक आयोजनों की भांति ही एक सांस्कृतिक आंदोलन हो, जिससे वहां की सरकारों को कोई लेना-देना न हो।

यह भी हैरानी का सबब है कि करोड़ों का यह लेन-देन उस केंद्र सरकार की नाक के नीचे बिना रोक हो रहा है, जो सरकार अपने राजनैतिक विरोधियों तथा मुस्लिम संगठनों की तमाम फंडिंग को अति महीन दृष्टि से देखती आई है।

खालिस्तान आंदोलन को जिस कांग्रेस सरकार ने कभी जरनैल सिंह भिंडरावाला के द्वारा अपनी राजनैतिक गोटियों का मोहरा बनाकर आगे धकेला था, उसी के कारण ऑपरेशन ब्लू स्टार झेलना पड़ा। यह भी एक काला अध्याय था कि इसी ऑपरेशन के परिणामस्वरूप इंदिरा गांधी को अपनी जान खोनी पड़ी थी और बाद में देश के हजारों सिखों को आपनी जानें गंवानी पड़ी थीं।

इसी तर्ज पर आगे बढ़ाया गया यह मोहरा भी रातों-रात नही पनपा है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह सब राजनीति का हिस्सा है, जिसके जरिए इस अमृतपाल को आगे बढ़ाया जा रहा है। वजह यह कि उससे जुड़ी खबरें राज्य सरकार के लिए कभी चिंता का सबब नहीं बनीं। मसलन, यह अमृतपाल अपने गांव में ही आनंदपुर खलिस्तान फौज (एएफके) नाम से फौज का गठन कर रहा था तथा बंदूक चलाने की ट्रेनिंग दे रहा था। वह भी तब जब यह सब रात के अंधेरे में नहीं, दिन के समय होता रहा था।

हमारे पास इसके पुख़्ता सबूत भले ही न उपलब्ध हों, लेकिन इसे झुठलाना भी आसान नहीं है कि अमृतपाल जिसे ‘वारिस पंजाब दे’ नामक संगठन का प्रमुख बताया जा रहा है, तथा खालिस्तान आंदोलन का सर्वेसर्वा बताया जा रहा है, बिना किसी राजनैतिक संरक्षण के इतना ताकतवर बन सकता है और वह किसी को कहीं भी ढूंढे न मिले तथा राज्य से लेकर केंद्र की तमाम सुरक्षा एजेंसियां एकदम मुंह बाए खड़ी रहें। 

बहरहाल, हम इस भनक को सिरे से खारिज नहीं कर सकते कि देश का एक कथित सांस्कृतिक संगठन भी इस अमृतपाल को पैदा करने में अपनी अहम भूमिका निभा रहा है। उसका मकसद केवल पंजाब जेसे राज्य में अपना राजनैतिक प्रभुत्व जमा कर सत्ता हथियाना है। निस्संदेह यह देश की सेहत और पंजाब की सेहत के लिए खतरनाक माना जाना चाहिए। 

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

द्वारका भारती

24 मार्च, 1949 को पंजाब के होशियारपुर जिले के दलित परिवार में जन्मे तथा मैट्रिक तक पढ़े द्वारका भारती ने कुछ दिनों के लिए सरकारी नौकरी करने के बाद इराक और जार्डन में श्रमिक के रूप में काम किया। स्वदेश वापसी के बाद होशियारपुर में उन्होंने जूते बनाने के घरेलू पेशे को अपनाया है। इन्होंने पंजाबी से हिंदी में अनुवाद का सराहनीय कार्य किया है तथा हिंदी में दलितों के हक-हुकूक और संस्कृति आदि विषयों पर लेखन किया है। इनके आलेख हिंदी और पंजाबी के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इनकी प्रकाशित कृतियों में इनकी आत्मकथा “मोची : एक मोची का अदबी जिंदगीनामा” चर्चा में रही है

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