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उच्च शिक्षा सिर्फ सवर्णों के लिए क्यों?

दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग की जातियों के बच्चे बड़े सपने लेकर आईआईटी, आईआईएम, आईआईएससी और एम्स जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में दाखिला लेते हैं। उनकी समझ है कि समानता और वैचारिक गहराई की मजबूत नींव रखनेवाली संस्थाएं उन्हें ऊंचा उड़ना सिखाएंगीं। लेकिन अनुभव इसके विपरीत दिखता है। बता रहे हैं बापू राऊत

हाल ही में अमेरिकी शहर सिएटल की नगर परिषद ने जातिगत भेदभाव के खिलाफ कानून को सहमति प्रदान की। इससे उम्मीद है कि वहां जाति के आधार पर भेदभाव पर रोक लगेगी। लेकिन सन् 1950 में गणतंत्र स्थापित होने के सत्तर साल बाद भी भारतीय समाज जाति आधारित भेदभाव और दुर्व्यवहार की समस्याओं को दूर करने में विफल रहा है। अब भी यह देखने में आ रहा है कि भारतीय उच्च शिक्षा संस्थान संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 में वर्णित क्रमश: समता, अवसरों में समानता व वैयक्तिक स्वतंत्रता संबंधी प्रावधानों को अमल में न लाकर उनकी प्रतिष्ठा को धूमिल कर रहे हैं। इन संस्थानों में आईआईटी, आईआईएम, एम्स और आईआईएससी जैसे संस्थान शामिल हैं। एक उदाहरण हाल ही में आईआईटी, मुंबई में अहमदाबाद निवासी बीटेक (प्रथम वर्ष) के दलित छात्र दर्शन सोलंकी द्वारा हॉस्टल की आठवीं मंजिल से कूदकर की गई खुदकुशी है। 

आये दिन सवर्ण कहते हैं कि पिछड़ी जातियां ही हिंदू समाज की रीढ़ हैं। लेकिन जमीनी स्तर पर ऊंची जातियां उनके ही पैर खींचने में सबसे आगे हैं। भारत में सवर्ण लोग स्वयं को देश और धर्म का रक्षक मानते रहे हैं। वे ऐसा इसलिए मानते रहे हैं, क्योंकि शिक्षण संस्थानों पर उनका कब्जा रहा है। 

सनद रहे कि उच्च शिक्षा ही व्यक्ति में आत्मसम्मान और जागरूकता का निर्माण करता है। सवर्ण समाज यह जानता है कि दलित-बहुजनों को उच्च शिक्षित बनने की प्रक्रिया को अवरुद्ध करने से परिवर्तन की प्रक्रिया को रोका जा सकता है।

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (आईआईएससी, बेंगलुरु), बिट्स पिलानी और क्राइस्ट यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु के शोधकर्ताओं के एक समूह द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, कई विश्वविद्यालयों ने अभी तक यूजीसी द्वारा जाति-आधारित भेदभाव को समाप्त करने के लिए की गई निर्देशों को लागू नहीं किया है। 

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि किस तरह उच्च शिक्षण संस्थानों में दलित और आदिवासी छात्रों के ऊपर ऊंची जातियों के छात्रों व शिक्षकों द्वारा मानसिक दबाव डाला जाता है। जबकि यूजीसी द्वारा जाति आधारित भेदभाव के मद्देनजर जारी निर्देशों के अनुसार हर संस्थान को इसके लिए प्रावधान किया जाना अनिवार्य है ताकि कोई छात्र जातिगत भेदभाव का शिकार न हो। वहीं संस्थानों को स्टूडेंट वेलनेस सेंटर भी स्थापित करने का निर्देश है ताकि यदि कोई छात्र मानसिक दबाव महसूस करे तो उसकी मदद की जा सके। दर्शन सोलंकी के मामले में ये सारे निर्देश आईआईटी, मुंबई में नजर ही नहीं आए।

विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ के जनवरी, 2023 के अंक में अंकुर पालीवाल के आलेख के अनुसार, भारत के विज्ञान क्षेत्र में ऊंची जातियों का वर्चस्व है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) और भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) जैसे उच्च संस्थानों में आदिवासी और दलित समुदायों के छात्रों और शिक्षकों का प्रतिनिधित्व कम है। इस आलेख में दिये गये आंकड़ों के अनुसार, सरकारी अनुसंधान और शिक्षा संस्थानों में पीएचडी शोधार्थियों में उच्च जाति के 66.34 प्रतिशत, 8.9 प्रतिशत दलित व अन्य 24.76 प्रतिशत अन्य यानी अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के शोधार्थी शामिल हैं। सहायक प्रोफेसरों में सवर्णों की हिस्सेदारी 89.69 प्रतिशत है। वहीं दलित व अन्य क्रमश: केवल 3.51 प्रतिशत और 6.8 प्रतिशत है। इसी तरह एसोसिएट प्रोफेसरों में सवर्ण 92.65 प्रतिशत, दलित 2.88 प्रतिशत व अन्य 4.47 प्रतिशत हैं। जबकि प्रोफेसर श्रेणी में उच्च जातियों की हिस्सेदारी 98.59 प्रतिशत है। इस संवर्ग में दलितों की हिस्सेदारी 0.78 प्रतिशत ) और अन्य केवल 0.63 प्रतिशत हैं। 


यह भी पढ़ें – दर्शन सोलंकी आत्महत्या : जाति ही समस्या, पहले स्वीकारें तभी निदान संभव


यह असमानता की बड़ी खाई है। दूसरा, 2016 और 2020 में विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय, भारत सरकार के ‘इंस्पायर फैकल्टी फैलोशिप’ के डेटा से पता चलता है कि 80 प्रतिशत लाभार्थी विशेषाधिकार प्राप्त उच्च जातियों से थे, जबकि केवल 6 प्रतिशत अनुसूचित जाति से और 1 प्रतिशत से कम अनुसूचित जनजाति से थे।

मानव संसाधन विकास मंत्रालय की 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार भी देश भर के आईआईटी संस्थानों में केवल 2.81 प्रतिशत एससी और एसटी शिक्षक हैं। 

उपरोक्त आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि उच्च शिक्षण संस्थानों में किस तरह का जातिवाद है। समानुपातिक हिस्सेदारी नहीं होने के कारण न केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्र बल्कि प्रोफेसर भी भेदभाव का शिकार हुए हैं। उदाहरण के लिए वर्ष 2019 में पश्चिम बंगाल के रवींद्र भारती विश्वविद्यालय में आदिवासी प्रोफेसर सरस्वती केरकेट्टा को उनकी जाति और त्वचा के रंग के आधार पर प्रताड़ित किया गया। वहीं 2021 में जब मुकुंद बिहारी मल्लिक, एक नामशूद्र, को कोलकाता विश्वविद्यालय में पालि भाषा के प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया गया था। तब ऊंची जातियों ने शूद्रों के शिक्षक बनने की प्रक्रिया का विरोध करते हुए अभियान चलाया था कि “अब कोलकाता विश्वविद्यालय चांडाल की पूजा करने लगा है।” 

ऐसे ही पिछले साल सितंबर, 2022 में एक घटना उत्तर प्रदेश के बाराबंकी शहर में घटित हुई। शहर के सरकारी इंटर कॉलेज में दलित समुदाय के अभय कुमार कोरी, संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त एक संस्कृत शिक्षक थे। उन्हें संस्कृत पढ़ाने से रोककर कहा गया कि “हमारे बराबर बनने की कोशिश मत करो”। सवाल उठता है कि संस्कृत पढ़ाना केवल ऊंची जातियों का अधिकार है? इसके पहले वर्ष 2021 में आईआईटी, मद्रास के सहायक प्रोफेसर विपिन वीटिल ने आरोप लगाया था कि उनके साथ जाति के आधार पर भेदभाव किया जा रहा है।

नई दिल्ली के नार्थ ब्लॉक में शिक्षा मंत्रालय के परिसर में केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान का नेम प्लेट लगाता एक कर्मी

ध्यातव्य है कि केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने 2021 में लोकसभा में कहा था कि 2014 से 2021 के बीच देशभर के आईआईटी, आईआईएम, एनआईटी और केंद्रीय विश्वविद्यालयों समेत देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में 122 से ज्यादा छात्रों ने आत्महत्या की है। इनमें से 68 छात्र आरक्षित वर्ग के थे, जिनमें 24 छात्र अनुसूचित जाति के, 41 छात्र ओबीसी और 3 छात्र अनुसूचित जनजाति के थे। 

दुखद है कि उच्च शिक्षण संस्थानों में भी दलित, आदिवासी और पिछड़े छात्रों को अपमान और बदनामी जैसी घटनाओं का सामना करना पड़ता है। आईआईटी, मुंबई में ही दर्शन सोलंकी द्वारा खुदकुशी के पहले अनिकेत अंभोरे नामक छात्र ने 2014 में आत्महत्या कर ली थी। दोनों के माता-पिता ने उन्हें प्रताड़ित किए जाने की शिकायत दर्ज कराई थी। लेकिन, उनकी शिकायतें बस शिकायतें ही रहीं। कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई। 

ऐसे ही मुंबई के नायर हॉस्पिटल में पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रही डॉ. पायल तड़वी ने 22 मई, 2019 को प्रताड़ना से तंग आकर आत्महत्या की थी। और 17 जनवरी, 2016 को रोहित वेमुला ने जाति आधारित भेदभाव के कारण आत्महत्या कर ली, जिससे पूरे देश में विवाद पैदा हो गया। लेकिन दोषियों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। यह सत्य भी हमारे सामने ही है।

खुदकुशियों की कड़ी में जेएनयू के शोधार्थी मुथुकृष्णन जीवनथम द्वारा मार्च 2017 में खुदकुशी भी शामिल है। ऐसे एम्स, दिल्ली के छात्र व आदिवासी परिवार के अनिल मीणा ने 2012 में खुदकुशी कर ली थी। खुदकुशी से पहले उन्होंने प्रबंधन व शिक्षकों से प्रताड़ना संबंधी शिकायत की थी, लेकिन उनकी शिकायत को संज्ञान में नहीं लिया गया। इसके पहले एम्स, दिल्ली के ही छात्र बाल मुकुंद भारती जातिगत भेदभाव का एक और शिकार थे। उन्होंने 30 मार्च, 2010 को आत्महत्या कर ली जब उनके प्रोफेसर ने उन्हें बार-बार कहा कि हरिजन या आदिवासी चिकित्सा का अध्ययन करने के लायक नहीं होते। सेंथिल कुमार ‘पन्नियांडी’ दलित जाति के थे। वे अपने समुदाय के पहले डॉक्टरेट की डिग्रीधारक थे। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में संस्थागत भेदभाव के कारण 2008 में उन्होंने आत्महत्या कर ली थी।

आईआईटी, रूड़की में मनीष कुमार गुड्डोलियन ने कंप्यूटर विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के छात्र थे। सहपाठियों और वार्डन द्वारा लगातार प्रताड़ित किए जाने के कारण उन्हें परिसर छोड़ना पड़ा। इस अन्याय को सहन न कर पाने के कारण उन्होंने 2011 में आत्महत्या कर ली। इसी तरह जसप्रीत सिंह गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज, चंडीगढ़ की छात्र थीं। प्रोफेसर एन.के. गोयल ने धमकी दी कि वे उन्हें डॉक्टर की डिग्री नहीं लेने देंगे। जसप्रीत ने 2008 में अपने सुसाइड नोट में प्रोफेसर का नाम तक लिखा था। 

बहरहल, उपरोक्त घटनाएं वे घटनाएं हैं, जो मीडिया के माध्यम से लोगों के बीच आए। ऐसी अनेकानेक घटनाएं अब भी अनकही होंगी। इस प्रकार के भेदभाव के कारण दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों को भारी नुकसान पहुंचता है और उनका प्रतिनिधित्व स्वत: ही कम हो जाता है। ऐसे भी अनेक छात्र होते हैँ जो आत्महत्या तो नहीं करते, लेकिन अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। 

शिक्षण संस्थानों के परिसरों में, जहां सभी छात्रों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए, जाति और धर्म आधारित अन्याय बहुत भयावह है। भारत में हजारों सालों से चली आ रही सामाजिक और आर्थिक विषमता को खत्म करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था बनाई गई थी। इस व्यवस्था को लागू कर समानता स्थापित करनी थी। लेकिन समता के इस मार्ग पर कांटे बिछाकर एक स्वार्थी मानसिकता का निर्माण किया गया। इसलिए, समाज के विभिन्न क्षेत्रों में, विशेषकर शिक्षा और रोजगार में समानता अब तक स्थापित नहीं की जा सकी है।

दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग की जातियों के बच्चे बड़े सपने लेकर आईआईटी, आईआईएम, आईआईएससी और एम्स जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में दाखिला लेते हैं। उनकी समझ है कि समानता और वैचारिक गहराई की मजबूत नींव रखनेवाली संस्थाएं उन्हें ऊंचा उड़ना सिखाएंगीं। लेकिन अनुभव इसके विपरीत दिखता है। इसे इन संस्थानों में होने वाली आत्महत्याओं से समझा जा सकता है। उच्च शिक्षण संस्थानों में दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के छात्रों के साथ हो रहे अन्याय की ओर इशारा करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने गत 26 फरवरी, 2023 को कहा कि भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों में दलित या आदिवासी छात्रों के उत्पीड़न की समस्या पर ध्यान केंद्रित करके उनकी आत्महत्या की प्रकृति पर सवाल उठाया जाना चाहिए। लेकिन जब सत्ता खामोश है तो असमानता की इस व्यवस्था को कौन सुधारेगा? यह मुख्य प्रश्न है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

बापू राउत

ब्लॉगर, लेखक तथा बहुजन विचारक बापू राउत विभिन्न मराठी व हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लिखते रहे हैं। बहुजन नायक कांशीराम, बहुजन मारेकरी (बहुजन हन्ता) और परिवर्तनाच्या वाटा (परिवर्तन के रास्ते) आदि उनकी प्रमुख मराठी पुस्तकें हैं।

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