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उत्तर प्रदेश : जातिवार जनगणना को लेकर टूटी सपा की नींद

अब यह मांग लगभग देश के हर हिस्से में जोर पकड़ने लगी है। बिहार सरकार ने तो अपने दम पर जातिवार जनगणना कराने का काम शुरू भी कर दिया है। उत्तर प्रदेश में भी देर से ही सही, लेकिन सबसे बड़े सूबे के मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी ने जातिवार जनगणना की मांग को समझा है। बता रहे हैं सुशील मानव

भारत जैसे जाति आधारित समाज में लोकतंत्र के विकास के लिए जातिवार जनगणना एक अनिवार्य शर्त है। लेकिन साल 1931 के बाद जातिवार जनगणना नहीं हुई और आज 92 साल बाद भी साल 1931 की जातिवार जनगणना के आंकड़ों के सहारे समाजिक न्याय की बैलगाड़ी हांकी जा रही है। भाजपा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा दायर किया कि केंद्र सरकार जातिगत जनगणना कराने में अक्षम है। 

वहीं अब यह मांग लगभग देश के हर हिस्से में जोर पकड़ने लगी है। बिहार सरकार ने तो अपने दम पर जातिवार जनगणना कराने का काम शुरू भी कर दिया है। उत्तर प्रदेश में भी देर से ही सही, लेकिन सबसे बड़े सूबे के मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी ने जातिवार जनगणना की मांग को समझा है। या यूं कहें कि सपा के नेताओं ने पड़ोसी राज्य बिहार से सबक लिया है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का तोड़ और सत्ता का विकेंद्रीकरण सामाजिक न्याय के विमर्श से ही मुमकिन है। इसलिए परशुराम और विष्णु मंदिर से हटाकर अपनी राजनीति को उन्होंने बहुजन राजनीति को पुनर्जीवित करने पर शिफ्ट कर दिया है। 

इस कड़ी में सपा के राष्ट्रीय महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्या ने रामचरित मानस को बैन करने की मांग करते हुए की। लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस मुद्दे पर सपा को ‘हिन्दू विरोधी’ व ‘राम विरोधी’ कहकर काउंटर अटैक किया। तमाम बहुजन बुद्धिजीवियों का कहना है कि रामचरित मानस का मुद्दा भाजपा के लिए ज़्यादा फायदेमंद हो सकता है। भाजपा अगले साल 2024 में लोकसभा चुनाव के मद्देनजर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज करने के लिए जनवरी 2024 में राम मंदिर निर्माण कार्य को पूरा करके इसे जनता के बीच ले जाने और राम मंदिर के नाम पर वोट मांगने की तैयारी में जुटी है। वहीं अब समाजवादी पार्टी ने बिहार की तर्ज़ पर जातिगत जनगणना के मुद्दे पर विधानसभा से लेकर गांव गली सड़क तक उतरने की तैयारी कर रही है। पहले चरण में सपा ने 24 फरवरी से 5 मार्च तक 10 दिवसीय प्रखंड स्तर का कार्यक्रम चलाया है। लखनऊ से प्रभारी सपा के ब्लॉक कार्यालयों पर आ रहे हैं। इन कार्यक्रमों में संगोष्ठी करके ओबीसी सहित अन्य जातियों की जागरुकता के लिए प्रयास किया जा रहा है। 

हाल ही में उत्तर प्रदेश विधानसभा में प्रश्नकाल के दौरान सपा नेता डॉ. संग्राम यादव द्वारा योगी सरकार से पूछा गया कि क्या उत्तर प्रदेश सरकार बिहार सरकार की तर्ज़ पर जातिगत जनगणना कराएगी? जवाब में योगी सरकार ने जातिगत जनगणना से इंकार कर दिया है। जबकि एनडीए सरकार में भाजपा की सहयोगी अपना दल (एस) के कार्यकारी अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश में प्राविधिक शिक्षा मंत्री आशीष सिंह पटेल, निषाद पार्टी के नेता और प्रदेश सरकार में मत्स्य मंत्री डॉ संजय निषाद ने भी जातिगत जनगणना का समर्थन किया है। खुद डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्या ने जातिगत जनगणना का समर्थन किया है। बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने राष्ट्रीय स्तर पर जनगणना का समर्थन किया है। उनके अलावा सपा सहयोगी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर ने भी जातिवार जनगणना का समर्थन किया है। इससे पहले साल 2011 में संप्रग (यूपीए) सरकार के समय मुलायम सिंह यादव, शरद यादव, लालू यादव व दक्षिण भारत के कई नेता जातिवार जनगणना के लिए कांग्रेस के पास गए थे। तब जातिगत सर्वेक्षण हुई भी थी, लेकिन उसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किये गये। 

विधानसभा में जातिवार जनगणना की मांग करते अखिलेश यादव

रिहाई मंच के संस्थापक, समाजिक एक्टिविस्ट औऱ खिरिया बाग़ आंदोलन में सक्रिय भागीदार राजीव यादव कहते हैं ओबीसी की जनगणना होगी तो हिस्सेदारी का सवाल आएगा। लेकिन किसी भी राजनीतिक पार्टी ने कभी भी इसे गंभीरता से नहीं लिया। आज भाजपा है, पहले कांग्रेस और समाजिक न्याय वाली पार्टियां यूपी और बिहार में सत्ता में थी। आज सामाजिक न्याया आंदोलन की जो पार्टियां हैं, जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी का जो सवाल था या ज़मीन की हक़दारी का सवाल था, उन सवालों को हल ही नहीं किया गया। 

राजीव यादव ‘इंडिया टूडे’ के एक आंकड़े का हवाला देकर कहते हैं कि 21 प्रतिशत हिंदू सवर्ण जातियों के पास 42 प्रतिशत, 60 प्रतिशत ओबीसी के पास 31 प्रतिशत और दलितों के पास 11 प्रतिशत ज़मीन है। मुस्लिम के पास 8 प्रतिशत ज़मीन है। वो ज़ोर देकर कहते हैं कि ज़मीन आज मान-सम्मान-स्वाभिमान से जुड़ा हुआ सवाल है। आज़ाद होने के बाद हम उनको ज़मीनें नहीं दे पाए जो वंचित तबके के लोग थे। ज़मीन के मसअले को लेकर सबसे ज़्यादा दलित-ओबीसी ही कोर्ट कचहरी में दिखेंगे। उनकी पास छोटी ज़मीनें हैं तो भाई से भाई ज़्यादा झगड़ा करता है। ओबीसी दलित का हक अधिकार छीना गया है, इसलिए जातिगत जनगणना के सवाल से ये (भाजपा के लोग) भाग रहे हैं। पिछले चुनाव से पहले इन्होंने सीएए, एनआरसी, एनपीआर खड़ा कर दिया। इनके लिए नागरिकता बड़ा सवाल है। जातिगत जनगणना क्यों नहीं है तो इसके पीछे कारण यही कि जातिवार जनगणना होने पर सब साफ हो जाएगा तो इनको सबको सबका हक़ देना पड़ेगा। 

जाति हमेशा भारतीय लोकतंत्र का एक आंतरिक घटक रही है। आज़ादी के बाद, जब हमारा संविधान बन रहा था, हमारे राष्ट्र निर्माताओं, जिन्होंने भारत के सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों पर हिंदू जाति व्यवस्था के भयानक प्रभाव को देखा था, ने इसे मिटाने और भारत के नागरिकों के लिए एक आधुनिक राष्ट्रवादी पहचान बनाने का फैसला किया।  हालांकि, संविधान लागू होने के इतने सालों बाद भी, भारत ‘उच्च’ जाति की पहचान से जुड़ी शक्तियों और विशेषाधिकारों का लोकतांत्रिकरण करने में विफल रहा है।  पारंपरिक सामाजिक अभिजात वर्ग राजनीतिक सत्ता पर काबिज हैं और आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में प्रमुख संपत्ति को नियंत्रित करते हैं।  सामाजिक रूप से हाशिए पर रहने वाले समुदाय सत्ता के गलियारों से दूर रहते हैं और केवल राज्य की कल्याणकारी नीतियों के निष्क्रिय प्राप्तकर्ता के रूप में जीवित रहते हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता व बहुजनकरण (पाक्षिक) के संपादक विशंभर पटेल कहते हैं कि जातिगत जनगणना से भारतीय गणतंत्र को टास्क निकलेगा। आप संविधान के अनुरूप देश का संचालन तब तक नहीं कर सकते जब तक जातिवार जनगणना नहीं होगी। जातिवार जनगणना से सिर्फ़ पिछड़ों की संख्या ही नहीं सामने आएगी, उनके शैक्षणिक, समाजिक, जीविका, रहन-सहन, महिला व पुरुष सभी की स्थिति, आवास, ज़मीन, नौकरी आदि में क्या स्थिति है, इसकी भी स्पष्ट तस्वीर सामने आएगी। 

विशंभर आगे कहते हैं कि भारत में जातिगत अंतर्द्वंद्व है और जब तक जातीय समाज बना रहेगा तब तक सामाजिक न्याय बिना जातियों की भागीदारी के सुनिश्चित नहीं हो सकता है। वे सवाल उठाते हैं कि 1931 के बाद जातिवार जनगणना क्यों नहीं हुआ? इस पर विचार किया जाना चाहिए। वे कहते हैं कि बिहार में नीतीश सरकार के फैसले के बाद पूरे देश में नॅरेटिव बदल रहा है। बिहार की जनगणना मई में जिस दिन फाइनल होगी, उससे देश में बड़े आंकड़े मिलेंगे। किसी देश के भौगोलिक और समाजिक लोकेशन के जो समाज हैं, उनके 10 प्रतिशत लोगों को जानकारी भी आ जाए तो वो वहां के पूरे हालात को बयां कर देता है। बिहार जनगणना पूरे भारत की असली शक्ल लेकर आएगा कि आज़ादी के बाद महिला, दलिता, आदिवासी की क्या स्थिति है। उत्तर प्रदेश में जातिवार जनगणना के सवाल पर विशंभर कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में जो एजेंडा तय हो रहा है, वह नये मायनों में भारत में लोकतंत्र के विकास समाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, चिकित्सयीय प्रशासनिक और न्यायिक सारे सोपानों का एक रास्ता बनाएगी कि जातिवार जनगणना के बाद कैसे समाजिक अन्याय से भुक्तभोगी जमातें अब अपना दावा करेंगीं।

जातिगत जनगणना संयुक्त मोर्चा के माध्यम से जातिगत जनगणना के लिए पिछले एक साल से जनअभियान चला रहे हैं। 2022 विधानसभा चुनाव के समय वो लोग सपा, बसपा, कांग्रेस, रालोद के पास गये। इस दौरान अलग-अलग जिले में उन्होंने 40-50 सम्मेलन भी किए। समाजसेवी एक्टिविस्ट मनीष शर्मा इस मसअले पर कहते हैं कि जाति जनगणना इस दौर का सबसे बड़ा प्रश्न है। इसे एड्रेस किए बगैर आगे किसी भी तरह की कोई योजना कोई नीति नहीं ले सकते। जो भी सरकार कोई योजना या नीति बना रही है, खासकर ओबीसी को लेकर जो भारतीय समाज का बहुत बड़ा हिस्सा है, लेकिन सत्ता, समाज और राजनीतिक दल उसके बारे में अंधेरे में हैं। उनके बारे में तथ्यगत कोई जानकारी नहीं है। तो किस आधार पर योजना बना सकते हैं। इतने बड़े समाज को अंधेरे में रखकर और उनके हितों को नकार कर आप देश को ही कैसे आगे बढ़ा सकते हैं। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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