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उत्तर प्रदेश : आशा बहुओं के शोषण में निहित है उनका दलित-बहुजन होना

एक्टू, उत्तर प्रदेश के राज्य सचिव अनिल वर्मा बताते हैं कि आशा कार्यकर्ता अथवा आशा बहुओं के पदों पर 80 प्रतिशत दलित-बहुजन जातियों की स्त्रियां कार्यरत हैं। जबकि आशा संगिनी के पद पर दलित-बहुजन महिलाओं की भागीदारी केवल 20 प्रतिशत है। पढ़ें, सुशील मानव की यह खबर

आर्थिक पैकेज, पद और कार्य की प्रकृति भी जातीय फैक्टर को प्रभावित करती हैं। यह समाज के छोटे से छोटे स्तर पर भी दिखायी देती है। उत्तर प्रदेश में जन-स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करनेवाली आशा बहुएं और आशा संगिनियां अपने बकाये वेतन भुगतान की मांग को लेकर पिछले दो महीनों से आंदोलनरत हैं। 

आशा बहुओं ने गत एक मार्च, 2023 को मुख्य स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी), प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) पर, 3 मार्च, 2023 को तहसील व ब्लॉक मुख्यालयों पर, 13 मार्च, 2023 को जिलाधिकारियों के दफ़्तर के बाहर और 17 मार्च, 2023 को मंडलआयुक्त के आवास के बाहर प्रदर्शन किया। 

बताते चलें कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा विधानसभा चुनाव से ठीक पहले घोषित किया गया था कि आशा बहुओं और आशा संगिनियों को वेतन के अतिरिक्त अन्य कार्यों के लिए प्रोत्साहन राशि के रूप में क्रमश: 6700 रुपए और 11 हजार रुपए से अधिक की राशि प्रदान की जाएगी।

आशा बहुएं बकाया वेतन की भुगतान मांग लेकर कौशांबी जिले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) से कहती हैं कि उनकी घर-गृहस्थी की गाड़ी नहीं चल पा रही है। बच्चों की फीस, दवाई, बिजली बिल आदि बकाया है, परिवार भुखमरी के कगार पर है। जवाब में कौशांबी के सीएमओ सवाल पूछते हैं कि क्या तुम लोगों की कमाई से ही तुमलोगों का घर चलता है? पति क्या करते हैं तुम लोगों के? जब आशा बहुएं उन्हें बताती हैं कि पति नहीं कमाते तो वो कहते हैं कि पति नहीं कमाते तो उन्हें तलाक़ दे दो। 

प्रदर्शन करतीं आशा बहुएं

यह सत्य है कि संविदा पर नियोजित आशा बहुओं को गांव-समाज में वह सम्मान नहीं मिलता, जो एक नियमित स्वास्थ्यकर्मी को मिलता है। वहीं, पत्रकार व एनजीओ से जुड़े लोग आरोप भी लगाते हैं कि आशा बहुएं कमीशन लेकर गांवों में प्रसूति के मामले स्थानीय निजी अस्पतालों में पहुंचाती हैं। 

यहां दो बाते हैं जो परपस्पर विरोधाभासी और विडंबनापूर्ण है। आशा बहुएं कह रही हैं कि उन्हें जो भी वेतन (मात्र 2000 रुपए) और अल्प प्रोत्साहन राशि मिलती है, जिसमें गुज़ारा करना मुश्किल होता है। वहीं दूसरी ओर वे कहती हैं कि पिछले 6-7 महीने से वेतन बकाया होने से उनके घर का खर्चा नहीं चल रहा है। यह दो परस्पर विरोधाभासी बातें इस बात की तस्दीक करती हैं कि आशा कार्यकर्ता के पदों पर कार्य करने वाली स्त्रियां बेहद निम्न और पिछड़े आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक पृष्ठभूमि से संबंध रखती हैं, जो बेहद निम्न आय में जीवनयापन करने को अभिशप्त हैं। 

इस मसले को और बेहतर तरह से समझने में ऑल इंडिया सेंटर ऑफ ट्रेड यूनियंस (एक्टू), उत्तर प्रदेश के राज्य सचिव अनिल वर्मा मदद करते हैं। अनिल वर्मा बताते हैं कि आशा कार्यकर्ता अथवा आशा बहुओं के पदों पर 80 प्रतिशत दलित-बहुजन जातियों की स्त्रियां कार्यरत हैं। जबकि आशा संगिनी के पद पर दलित-बहुजन महिलाओं की भागीदारी केवल 20 प्रतिशत है।   

बता दें कि 20 आशा बहुओं का एक क्लस्टर बनाकर एक आशा संगिनी की नियुक्ति की जाती है। संगिनी का काम आशा कार्यकर्ताओं के कामों की निगरानी करना है। उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में 6,799 संगिनी हैं। जबकि आशा कार्यकर्ताओं की संख्या 1,63,407 है। वहीं देश में कुल 10.4 लाख आशा कार्यकर्ता है। उत्तर प्रदेश में आशा कार्यकर्ताओं को आशा बहु की संज्ञा दी गई है।

अनिल वर्मा, राज्य सचिव, ऐक्टू, उत्तर प्रदेश

अनिल वर्मा आगे बताते हैं कि जब साल 2005 में आशा कार्यकर्ता के पदों का सृजन किया गया था तब जननी सुरक्षा के लिए खास करके इनकी नियुक्ति की गई थी और जच्चा-बच्चा की सुरक्षा के पांच तरह के मुख्य काम इनके जिम्मे थे। आज के समय में इनके जिम्मे 50-55 काम सौंप दिए गये हैं। इसमें डाटा इंट्री के वे काम हैं, जिनके लिए कंप्यूटर ऑपरेटर होते थे, अब यह काम भी इन लोगों से मोबाइल के जरिए करवाया जाता है। जनगणना, पेड़-गणना, जानवर-गणना, कुष्ठ रोग का सर्वे, टीबी के सर्वे से लेकर तमाम ऐसे काम करने पड़ रहे हैं, जो इनके काम नहीं है। इन कामों के लिए अलग विभाग हैं। जैसे कुष्ठ रोग उन्मूलन विभाग और टीबी रोग से संबंधित विभाग अलग हैं। जो काम इन विभागों को करने चाहिए, वे काम भी आशा बहुओं से करवाया जा रहा है। वे आगे बताते हैं कि सन् 2013 में यूपीए-2 सरकार के समय हुए 45वें श्रम सम्मेलन ने इस प्रस्ताव को पास किया था कि आशा कार्यकर्ताओं को कर्मचारी माना जाय और कर्मचारी की सारी सुविधाएं उन्हेंदी जाय, जो एक सरकारी कर्मचारी को मिलती है। साल 2017 में स्वयं नरेंद्र मोदी ने 46वें श्रम सम्मेलन में इसकी संस्तुति की थी कि आशाकर्मियों को कर्मचारी माना जाये। 

अनिल वर्मा बताते हैं कि आशा कार्यकर्ताओं को यह कहकर बदनाम किया जा रहा है कि वे निजी अस्पताल और नर्सिंग होम के संचालकों से कमीशन लेती हैं। होता यह है कि इन निजी अस्पतालों के जनसंपर्क अधिकारियों के जरिए उन्हें आमंत्रित किया जाता है और गिफ्ट देकर दबाव बनाते हैं कि प्रसूति के मरीजों को हमारे नर्सिंग होम में लेकर आएं। अनिल वर्मा इसे सरकार और प्राइवेट प्लेयर्स की साजिश करार देते हैं।    

आशा कार्यकर्ता को जिले के मुख्य चिकित्साधिकारी द्वारा राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत डिस्ट्रिक्ट अर्बन डेवलेपमेंट एजेंसी (डूडा) के तहत आने वाली मलिन बस्तियों और ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में आशा बहुओं के रूप में नियुक्ति की जाती है। 

ध्यातव्य है कि आशा कार्यकर्ताओं को आशा बहू की उपमा से भी बुलाया जाता है, क्योंकि यह जिस गांव की आशा कार्यकर्ता होती हैं, उसी गांव की बहू होती हैं। नियुक्ति की तमाम अहर्ताओं में से एक यह भी होती है कि आशा कार्यकर्ता उसी गांव की निवासी होनी चाहिए। आशा कार्यकर्ताओं को समुदाय और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के बीच एक इंटरफेस के रूप में काम करने के लिए चुना जाता है। पिछले साल विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ग्लोबल हेल्थ लीडर के तौर पर मान्यता दी है।

ज़मीन पर क्या है आशा कार्यकर्ताओं की स्थिति 

मेजा ब्लॉक के बरसैता गांव की आशा बहू ममता कहती हैं– “एक तो वैसे ही जीने लायक मानदेय नहीं मिलता, वो भी छः महीने का बकाया है। सरकार ने आशा बहुओं को बंधुआ मज़दूर बना लिया है।” 

सैदाबाद ब्लॉक के फतुआं गांव की बानो देवी के पति  ब्रेन हैमरेज के बाद से विकलांग जीवन बिता रहे हैं। घर में दो बिन ब्याही बेटियां हैं। घर परिवार का गुज़ारा बानो देवी के कंधों पर है। 

घूरेपुर गांव की प्रमिला खाली समय निकालकर कृषि मज़दूरी करती हैं ताकि परिवार का गुज़ारा हो सके। प्रमिला के जीवनसाथी भी कृषि मज़दूर हैं। प्रमिला के तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं। बड़ा बच्चा पहली कक्षा में पढ़ता है।

गोविंदपुर तेवार की आशा बहू सुनैना के पति किसान हैं। उनके पास दो बीघा ज़मीन है, जिसमें धान-गेहूं के सिवाय कुछ नहीं होता। लेकिन खेती से नगदी का सृजन नहीं होता, जिससे महीने का खर्च चल सके। सुनैना के तीन बच्चे हैं। उनके पास अपने बच्चों की फ़ीस भरने के भी पैसे नहीं हैं।

बमरौली की आशा कार्यकर्ता रेखा मौर्या के पति को रीढ़ की हड्डी में जख्म है और इस कारण वे कुछ कर नहीं सकते। हर महीने 1200-1700 रुपए उनकी दवाई का खर्चा है। उनकी बेटी नौवीं कक्षा में है और बेटा 12वीं कक्षा में। फ़ीस और बिजली बिल तो समय पर जमा करना होता है। रेखा मौर्या हर महीने कर्ज़ लेकर पति की दवा ले आती हैं। वह बताती हैं कि 6 महीने के बकाया वेतन के लिए प्रदर्शन करती हैं तो कौशांबी के सीएमओ कहते हैं कि पति कुछ नहीं करते तो उन्हें तलाक़ दे दो। 

आशा कार्यकर्ताओं की 12 सूत्रीय मांग

बकाया वेतन के भुगतान समेत आशाकार्यकर्ताओं की 12 सूत्री मांगें हैं, जिनमें वेतनमान 2000 रुपए से बढ़ाकर 21,000 रुपए करना, आशा कार्यकर्ताओं और आशा संगिनियों का स्थायीकरण करना, आशाकर्ताओं पर यौन हिंसा को रोकने के लिए महिला सेल का गठन करना, आशा कार्यकर्ताओं को इंप्लॉयज स्टेट इंश्योरेंस स्कीम (ईएसआईएस) का लाभ देना, दस लाख का स्वास्थ्य बीमा तथा 50 लाख रुपए का जीवन बीमा की गारंटी सुनिश्चित करना आदि शामिल है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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