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स्वतंत्र भारत में आज़ादी तलाशतीं राजेश पाल की कविताएं

आरएसएस के लोग यह कहकर दलित-बहुजनों को प्रभावित करते हैं कि डॉ. भीमराव को आंबेडकर नाम एक ब्राह्मण शिक्षक ने दिया था। पर कवि इस संबंध में सही सवाल उठाता है कि क्या उस ब्राह्मण ने दलितों के हकों की लड़ाई भी लड़ी? राजेश पाल की कविताओं का पुनर्पाठ कर रहे हैं कंवल भारती

राजेश पाल के कविता-संकलन का नाम है– ‘आज़ादी में आज़ादी’। इसके कई अर्थ हैं। जैसे कि आज़ादी से अभिप्राय क्या है? या, जो आज़ादी देश को मिली है, उसमें आज़ादी की स्थिति क्या है? या, आजाद देश के क्या लोग भी आजाद हैं? या, क्या कोई ऐसा वर्ग भी है, जिसके लिए अभी भी आज़ादी दूर का सपना है? या, क्या बोलने की आज़ादी है? क्या रोजगार की आज़ादी है? ये तमाम अर्थ ‘आज़ादी में आज़ादी’ के संदर्भ में हो सकते हैं।

हालांकि, कुछ लोग तब भी आजाद थे और आज़ादी का पूर्ण उपभोग करते थे, जब देश आजाद नहीं था, भले ही वे कानून बनाने और शासन की नीतियां निर्धारण करने के लिए आजाद नहीं थे। लेकिन उस समय भी बहुत से लोग, यानी भारत के नब्बे प्रतिशत लोग आजाद नहीं थे, और हर किस्म की गुलामी में जकड़े हुए थे। दुखद यह कि वे लोग आज भी, जब देश आजाद है, आजाद नहीं हैं। उनकी आज़ादी पर केंद्र और राज्यों की सरकारें और छोटी-बड़ी अदालतें समय-समय पर रोक लगाती रहती हैं। राजेश पाल के कविता संग्रह का नाम ‘आज़ादी में आज़ादी’ इसी अर्थ में हमारा ध्यान आकर्षित करता है।

संग्रह की जिन कविताओं ने मेरा बरबस ध्यान आकर्षित किया, वे प्रारंभ की दो कविताएं हैं। मैं यहां विचार के लिए दूसरी कविता को पहले लेता हूं। इसका शीर्षक है– ‘गर्म राख को ठंडा होने में वक्त लगता है’। इस कविता में ‘गर्म राख’ का प्रयोग जिस अर्थ में हुआ है, उसे कवि ने आरंभ में ही स्पष्ट कर दिया है। यथा–

जब तुमने लगाई थी आग
हमारी तमाम खुशियों में
पैरों तले रौंदी थी
हमेशा मिट्टी हमारी अस्मिता की
नोचे थे फूल तमाम हमारी इच्छाओं की कलियों के
हमारी आंखों में पलने से पहले
जला दिए थे सपने सारे।

निस्संदेह यह दलित-बहुजनों के भीतर हजारों सालों से जल रही आग है। सवाल यह है कि कोई आग निरंतर क्यों जलती है? वह बुझती क्यों नहीं? आग कोई भी हो, वह तभी बुझती है, जब उसे बुझाने का प्रयास किया जाता है। यह प्रयास अगर आधा-अधूरा होता है, तो आग कभी नहीं बुझती, फिर वह सुलगती ही रहती है। दलित-बहुजनों के साथ यही स्थिति है। उनके साथ न अस्पृश्यता खत्म हुई, न उन्हें नीच समझने की मानसिकता खत्म हुई, न उनके साथ सवर्णों के जुल्म खत्म हुए, और न उनको गुलाम बनाए रखने के तौर-तरीके खत्म हुए। ऐसी परिस्थिति में हजारों साल से जल रही आग कैसे ठंडी हो सकती है? इसलिए कवि सही कहता है कि यह आग तभी शांत हो सकती है, जब पुन: आग न लगाई जाए। यथा–

समाज के एक विशाल तने में
जो आग तुमने लगाई थी
आधी-अधूरी आज़ादी में जलकर
वह कोयला बन गई है
कोयले से राख बनने में जलना पड़ता है
गर्म राख को ठंडा होने में तब वक्त लगता है
शर्त तब भी यह है
कि तुम फिर आग न लगाओ।

वहीं पहली कविता उन सामाजिक संघर्षों को याद करती है, जिन्होंने दलित-बहुजनों के बेहतर भविष्य के लिए दबाव का काम किया। उन्हें अपने अधिकार सहज नहीं मिले, बल्कि उन अनगिनत सामाजिक आंदोलनों के कारण मिले, जिन्हें अंजाम देने में असंख्य लोग मर-खप गए। वे नहीं जानते कि उनके सुख के लिए कितने लोगों ने कितना संघर्ष किया और उन्होंने कितनी यातनाएं झेलीं? यथा–

दरअसल हमें पता ही नहीं होता
इन हवाओं के लिए दबाव कहां से है?
हमें पता ही नहीं होता कौन कितना मर रहा है
उमस भरे मौसम में
हवा खा रहे लोगों को
नहीं पता होती है हवा की वजह।

देश में आज़ादी के लिए दो लड़ाईयां लड़ी गईं। एक देश की आज़ादी की लड़ाई, जो गांधी के नेतृत्व में सवर्ण हिंदुओं द्वारा लड़ी गई थी। वे स्वराज चाहते थे, यानी ‘अपना राज’। लोगों की आज़ादी उनका लक्ष्य नहीं था। वे बस अंग्रेजों के स्थान पर सत्ता और संसाधनों पर अपना प्रभुत्व चाहते थे। आज़ादी की दूसरी लड़ाई लोगों की आज़ादी के लिए लड़ी गई थी। यह उन लोगों की आज़ादी की लड़ाई थी, जो हजारों साल से सवर्ण हिंदुओं की अधीनता में गुलाम बनकर जी रहे थे। इस लड़ाई के नायक डॉ. आंबेडकर थे। 

राजेश पाल के काव्य संग्रह ‘आजादी में आजादी’ का मुख पृष्ठ

यह डॉ. आंबेडकर के संघर्ष का ही परिणाम था कि हजारों साल की गुलामी की जंजीरें टूटीं, और दलित-बहुजनों को इंसानी हक मिले। लेकिन जैसे ही शासन-सत्ता ब्राह्मणों के हाथों में आई, उन्होंने दलित-बहुजनों पर अपने प्रभुत्व का शिकंजा लगातार मजबूत करना शुरू कर दिया। इसलिए दलित-बहुजनों को राजनीतिक आज़ादी में भी सामाजिक आज़ादी नहीं मिली। राजेश पाल की तीसरी कविता ‘तुम्हारे सवाल छद्म हैं’ में इसी सत्य की अभिव्यक्ति है। यथा–

तुम्हें नहीं हुआ सहन हमारा आंखें मिलाकर बात करना
आज़ादी में भी नहीं मिली आज़ादी हमें
तुम ही पूछते हो
पिछ्हत्तर साल की आज़ादी में भी
क्यों नहीं आए तुम बराबर?
दरअसल तुम्हारे सवाल छद्म हैं
सामाजिक आज़ादी के बिना
नहीं मिल सकती है कोई भी आज़ादी।
सामंती लोग निरंतर कोशिश में हैं
हजारों साल पुराना यह पिंजरा
मजबूत बना रहे
कभी टूट ना पाए।

इस कविता का अर्थ कवि की चौथी कविता में खुलता है। इस कविता का शीर्षक है– ‘तुम्हारी आज़ादी में’। इस कविता को पढ़कर सामाजिक आज़ादी का भ्रम और गुलामी के पिंजरे को मजबूत करने की सामंतों की ब्राह्मणवादी कोशिशें– सब स्पष्ट हो जाती हैं। यथा–

तुम्हारी आज़ादी में
तुम्हें डर लगता है आज़ादी बोलने से
सच यह है
तुम्हारी आज़ादी में
तुम्हें सबकी आज़ादी होने में डर लगता है।

और यह ‘डर’ अगली कविता ‘आज़ादी’ में और भी पूरी तरह खुल जाता है। यथा–

तुम्हारी आज़ादी हमारी आज़ादी नहीं है
तुम्हारी आज़ादी में नहीं है हमारी आज़ादी का देश।

आगे की कविताओं में आज़ादी का अर्थ धीरे-धीरे और भी खुलता जाता है। यह भी पता चलता है कि आज़ादी का संघर्ष तभी से है, जब से आज़ादी पर पहरा बिठाया गया। जब मनु ने गुलामी के कठोर कानून बनाए, तब भी उसके खिलाफ आवाजें उठी थी, और लोगों ने अपनी जुबानें कटवाई थीं और वे शहीद हुए थे। दलितों के पुरखे चुपचाप सहन करने वाले मूक प्राणी नहीं थे। उनका संघर्ष बकायदा धर्मशास्त्रों और मनुस्मृति में पन्ना-दर-पन्ना दर्ज है। और यह संघर्ष रुका नहीं है, एक क्षण को भी नहीं रुका है, जारी है। इसी संघर्ष को कवि ‘जागो, तुम्हारे लिए लोग लड़ रहे हैं’ कविता में रेखांकित करता है। यथा–

जागो, तुम्हारे लिए लोग लड़ रहे हैं।
बुद्ध तुम्हारे लिए घर छोड़ गए
कबीर और रैदास कवि हो गए
कवि रात-रात भर मरता है
लड़ता है, खुद से भी, दुनिया से भी।
फुले, शाहू, आंबेडकर, पेरियार सब तुम्हारे लिए लड़ रहे थे
ललई, रामस्वरूप, कांशीराम तुम्हारे लिए लड़े।
कितने ही प्रोफेसर, पत्रकार, वकील, एक्टिविस्ट लड़ रहे हैं
कितने बेनाम लोग लड़ रहे हैं।

इसी लड़ाई के संदर्भ में कवि ‘तुम्हारे हिस्से की लड़ाई’ कविता में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कहता है–

जो तुम्हारे हिस्से की लड़ाई लड़ रहे हैं
उनकी वजह से तुम सुरक्षित हो।

आगे, कवि उन लोगों की निंदा करता है, और उन्हें चेताता है कि अगर वे मौन या तटस्थ बने रहेंगे, तो उनकी यह कमजोरी आज़ादी की सारी लड़ाई को हरा सकती है। इसलिए कवि उन्हें इस लड़ाई में भागीदार बनने को कहता है–

तुम मौन या तटस्थ रहकर
कर रहे हो खुद को कमजोर
तुम्हारी कमजोरी हरा सकती है सारी लड़ाई
अपने हिस्से की लड़ाई में
अपने मोर्चे पर खड़े रहो।

संग्रह की कुछ अन्य कविताओं में ‘अच्छे आंबेडकर’, ‘वैचारिक दरिद्र’, ‘थप्पड़’, ‘भेदभाव’ और ‘अच्छे दिनों के बुरे दिन’ कविताएं ऐसी हैं, जो मुझे विशेष चर्चा योग्य लगती हैं। इनमें सबसे पहले ‘थप्पड़’ को लेता हूं, जो आज़ादी के अमृत महोत्सव के दौर में दलित प्रोफेसर की आज़ादी पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। यह कविता दिल्ली विश्वविद्यालय में दलित जाति की प्रोफेसर डॉ. नीलम के साथ सवर्ण प्रोफेसर की बदसलूकी पर आधारित है। संवेदना के स्तर पर इस कविता में कुछ खास नहीं है, पर विचार के स्तर पर यह कुछ सवाल जरूर उठाती है। यथा–

पढ़-लिखकर भी तुम नहीं छू पाए
मनुष्यता की ऊंचाई
चाहते तो थे तुम
कि तुम्हारी पांत में कोई आ ही न पाए
पर अगर संविधान के रास्ते आ ही गए कुछ
तो वे झुककर ही रहें, चुप रहें
और जो अंधा लेखा चल रहा है
उसे चुपचाप चलने दें
तुम्हें नहीं सहन होता तुम्हारे आगे कोई सवाल उठाए
तुम्हारे लिखे पर कोई कलम चलाए
इसलिए डाक्टर नीलम पर तुमने चला दिया थप्पड़।

‘अच्छे आंबेडकर’ कविता एक ऐसी धारणा पर आधारित है, जिसके तहत ब्राह्मण और खास तौर से आरएसएस के लोग यह कहकर दलित-बहुजनों को प्रभावित करते हैं कि डॉ. भीमराव को आंबेडकर नाम एक ब्राह्मण शिक्षक ने दिया था। पर कवि इस संबंध में सही सवाल उठाता है कि क्या उस ब्राह्मण ने दलितों के हकों की लड़ाई भी लड़ी? यथा–

कुछ अच्छे आंबेडकर भी हैं
जिन्होंने भीमराव को दिया अपना नाम
आज के उन अच्छे आंबेडकर से कहना है
कि दलितों का पक्ष दलितों में आकर ही नहीं
ब्राह्मणों में जाकर भी रखोगे
तो बात ज्यादा मजबूत होगी।
इसलिए अच्छे आंबेडकर
तुम्हारी कोरी सहानुभूति नहीं
अधिकार के पक्ष में लड़ाई चाहिए
हमें अब अपना अधिकार चाहिए।

‘वैचारिक दरिद्र’ कविता में कवि वैचारिक रूप से उन व्यक्तियों को दरिद्र कहता है, जो न अपना इतिहास जानते हैं और न अन्याय-शोषण को पहचानते हैं। कवि कहता है–

वैचारिक दरिद्र मानसिक गुलाम हो जाता है।
मानसिक गुलाम चेतना खो चुका होता है
चेतना-विहीन नहीं रच सकते कोई परिवर्तनकारी इतिहास।

‘अच्छे दिनों के बुरे दिन’ कविता आज के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य पर आधारित कविता है, जिसमें वर्तमान शासन की अभिव्यक्ति-विरोधी फासीवादी नीतियों पर प्रहार किया गया है। यथा–

इस क्रूर वक्त में विचार की ताकत से डरकर
विचारशील लोगों की पहचान कर ली है
उन्हें घोषित कर दिया अर्बन नक्सल
बंद कर दिया काल कोठरी में
ताकि सोचने वाले डरकर, बंद कर दें सोचना।

इन अच्छे दिनों के नारे वाले शासन में क्या-क्या आया, इसे कवि ने इस तरह व्यक्त किया है–

अच्छे दिनों में
भक्तों की बाढ़ आई
चौकीदारों की बाढ़ आई
रोमियो स्क्वायड आए
भीड़ के लठैत आए
सांस्कृतिक डकैत आए
राष्ट्रवादी बकैत आए
अच्छे दिनों के सिर्फ सपने आए।

कुछ ऐसी कविताएं भी हैं, जो संवेदना के स्तर पर निराश करती हैं। कुछ कविताएं भावनात्मक हैं, पर अपनी बुनावट में कमजोर हैं। कई कविताएं सहानुभूति के साथ लिखी गई हैं, इसलिए उनमें अनुभूति की गहनता नहीं है। और कुछ तो ऐसी हैं, जो कविता का रूप ही नहीं ले पाई हैं। इस क्रम में पहाड़ पर लिखी कविताओं को लिया जा सकता है, जो एक तरह की सहानुभूति के साथ लिखी गई हैं, इसलिए उनमें अनुभूति की वह गहनता नहीं है, जो पहाड़ पर लिखी मोहन मुक्त की कविताओं में दिखती है। यह अंतर इस कारण से है, कि जो पहाड़ मोहन मुक्त के भीतर है, वह राजेश पाल के भीतर नहीं है। वह ‘अपना देवत्व अपने पास रखो’, ‘यह देवभूमि है’ और ‘देव भूमि में नदी’ कविताओं में कवि के बाहर दिखाई देता है। ‘देव भूमि में नदी’ कविता में कवि नदियों को देवी रूप में प्रतिष्ठित करता है, और उससे यह गलत अपेक्षा करता है कि उसने अपने तट पर गौतम से अहिल्या की रक्षा क्यों नहीं की? यथा–

समझ में नहीं आता
तुम इतनी नीरवता में क्यों बहती रही देवी
तुम्हें भी तो खड़ा होना चाहिए था
स्त्री के न्याय के पक्ष में।

‘यह देवभूमि है’ कविता भी कवि की पौराणिक दृष्टि से लिखी गई है, जो देवों के प्रताप में विश्वास करती है, और इस सत्य को विस्मृत कर देती है कि लाक्षागृह में पांडवों के स्थान पर पांच आदिवासियों को जलाकर मार डाला गया था। यथा–

यहीं तुम्हारे पश्चिमी तट पर बना था लाक्षागृह
जिसमें ठहराया था पञ्च पांडवों को
छल-छद्म से भस्म करने की थी योजना
अंत समय में बचा लिया था उन्हें देवों के प्रताप से।

इसी तरह कवि ने ‘अपना देवत्व अपने पास रखो’ कविता उत्तराखंड के कैम्पटी क्षेत्र में दलित युवक को कुर्सी पर बैठकर भोजन करने के जुर्म में मारे जाने पर प्रतिक्रिया-स्वरूप लिखी है। लेकिन इसमें पहाड़ का क्या विशेष यथार्थ है? दलितों की अस्मिता और मनुष्यता को अपमानित करने वाली इस तरह की अमानवीय घटनाएं पूरे देश में होती हैं। सवर्णों का उच्चता-बोध सिर्फ पहाड़ों का ही यथार्थ नहीं है, बल्कि सारे भारत का है। पहाड़ों का सामाजिक यथार्थ यह है कि वहां सभी शिल्पकार जातियों को डोम कहा जाता है, और उनके साथ अस्पृश्यता का व्यवहार किया जाता है। वस्तुत: यह कविता अपनी अवधारणा में ही स्पष्ट नहीं है। आरंभ में ही कवि कहता है–

तुम कहते हो यह देवभूमि है
ऊंचे पहाड़ों पर देवता रमते हैं
मैं कहता हूं
अपना देवत्व अपने पास रखो
यहां मनुष्यता बचाकर रखो।

हिंदूधर्म शास्त्रों में जिन्हें देवता माना गया है, वर्णव्यवस्था और जातिभेद उन्हीं का बनाया हुआ, बताया गया है। अत: वे दलितों के प्रति अपनी घृणा का प्रदर्शन अपने धर्म के अनुसरण में ही करते हैं। फिर, वे मनुष्यता में कैसे विश्वास कर सकते हैं, जबकि मनुष्यता उनके लिए कोई मायने ही नहीं रखती है। जहां जितना अधिक देवत्व होता है, वहां उतना ही अधिक मनुष्यता का दमन होता है। इस कविता में देवत्व पर प्रहार होना चाहिए था।

देवत्व ओढ़े हुए लोग या उच्चता के दंभ से ग्रस्त लोग बदलते नहीं हैं, बल्कि बदलने का दिखावा करते हैं। ऐसे लोगों को पकड़ना सवर्णों के लिए मुश्किल होता है, पर दलित-बहुजनों की पकड़ में वे तुरंत आ जाते हैं। डॉ. आंबेडकर ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि गांधी के जहरीले दांतों को कोई सवर्ण नहीं देख सका, क्योंकि वे उनके पास भक्त बनकर जाते थे। लेकिन डॉ. आंबेडकर ने गांधी के दलित-बहुजन विरोधी जहरीले दांतों को तुरंत पहचान लिया था। असल में भेदभाव से पीड़ित व्यक्ति ही सवर्णों की भेदभाव वाली भाषा को समझ सकता है, कोई दूसरा नहीं। सवर्णों के इसी स्वभावगत चरित्र को नंगा करती है राजेश पाल की कविता ‘भेदभाव’। यथा–

तुम चालाक थे
संविधान से बचने के लिए
और चालाक हो गए हो
तुमने सभ्य कहलाने के लिए
अपने नाखून तो काट लिए
अपनी जुबान में मिश्री घोल ली
पर दिमाग लोमड़ी की तरह शातिर
और दांत भेड़िए की तरह पैने कर लिए हैं
तुमने महीन कर लिया है अपना शातिरपन
दुबका लिया है दिमाग में शैतान
जैसे नमक घुल जाता है पानी में
या सीमेंट घुल जाता है बालू में
जो दिखाई नहीं देता,
पर असर रखता है पूरा।

एक कविता ‘संस्कृति’ है, हालांकि इसका नाम ‘सभ्यता’ होना चाहिए था, क्योंकि यह एक ऐसी सभ्य संस्कृति से परिचय कराती है, जिसमें अत्याचार करने वाले पुलिसकर्मी की पत्नी ही उसके खिलाफ खड़ी होती है। कवि कहता है–

कहां से आता है यह साहस
कि फ्लायड की गर्दन दबाने वाले
पुलिसकर्मी की पत्नी खड़ी हो जाए
अपने ही पति के खिलाफ?
संस्कृति के विकास का यह एक नया पथ है।

कवि पूछता है कि अमेरिका में अफ्रीकी नस्ल के जॉर्ज फ्लॉयड की पत्नी को यह साहस कहां से मिला? जाहिर है कि यह साहस उसे उसके ईसाई धर्म से मिला, जिसने मानवीय शोषण और अत्याचार के खिलाफ सभ्य संस्कृति का निर्माण किया। कैथरीन मेयो ने अपनी पुस्तक ‘स्लेव्स ऑफ दि गोड्स’ में भारत के मद्रास में चालीस साल तक बिशप रहे पादरी हेनरी व्हाइटहेड का एक पत्र उद्धृत किया है। इसमें वह लिखते हैं– “आप कल्पना कीजिए कि अगर लंदन के प्रमुख चर्चों में पादरियों और भक्तों के उपयोग के लिए सदियों तक वेश्याएं रखी जातीं, जैसा कि भारत के मंदिरों में पुजारियों और भक्तों के उपयोग के लिए देवदासियों के रूप में वेश्याओं को रखा गया है, तो क्या नैतिकता को कायम रखा जा सकता था? इसी तरह अगर धर्म द्वारा ब्रिटेन और अमेरिका में अस्पृश्यता को स्थापित किया गया होता, जैसा कि भारत में हिंदूधर्म ने किया है, तो क्या वहां मानवीयता को कायम रखा जा सकता था? जाहिर है कि हिंदू धर्म ने एक सभ्य संस्कृति का निर्माण नहीं किया। अगर ईसाइयत की तरह हिंदू धर्म भी सभ्य संस्कृति का निर्माण करता, तो फूलन देवी के बलात्कारी ठाकुरों की पत्नियां अपने पतियों का साथ नहीं देतीं, बल्कि उनके विरोध में खड़ी होतीं। खैरलांजी में सवर्ण महिलाओं ने अपने सामने ही खड़े होकर दलित लड़कियों के साथ अपने पुरुषों से बलात्कार नहीं करवाया होता, बल्कि वे अपने पुरुषों का विरोध करतीं। लेकिन अगर वे ऐसा नहीं कर सकीं, तो इसलिए कि उनका धर्म दलित-बहुजनों को मनुष्य मानता ही नहीं। कवि ने सही प्रश्न उठाया है कि हिंदू अपनी जिस संस्कृति का ढोल पीटते हैं, वह–

सामंती संस्कृति है
जिसमें कुछ लोग सभ्य होने का दिखावा करते हैं।

आरएसएस और भाजपा के सवर्ण और खास तौर से ब्राह्मण सामाजिक समरसता का भी खूब ढोल पीटते हैं। इसके मूल में भी वही सामाजिक भेदभाव वाली संस्कृति है। और सच यह है कि यह जातीय और वर्गीय दोनों तरह के संघर्षों के विरोध की अवधारणा है। यह अवधारणा दीनदयाल उपाध्याय के मानव-एकात्मवाद के दर्शन से निकली है, जिसका अर्थ है कि जिस तरह हाथ की ऊंगलियां समान नहीं हैं, पर उनके बीच संघर्ष नहीं है, उसी तरह समाज में भी सब लोग समान नहीं हो सकते, इसलिए उनके बीच भी कोई संघर्ष नहीं होना चाहिए। दूसरे शब्दों में इसका अर्थ है, वर्णव्यवस्था का उद्देश्य सामाजिक समरसता कायम करना है। और खुले अर्थों में इसका अर्थ यह है कि चमार चमार बना रहे, भंगी भंगी बना रहे, ठाकुर ठाकुर और ब्राह्मण ब्राह्मण बना रहे। जिस दलित जाति का जो कर्म है, वह उसी को करता रहे। अगर वह स्वतंत्र होकर दूसरों के बराबर आना चाहेगा, तो वह समाज में अशांति पैदा करेगा। इस भाव को अत्यंत विचारोत्तेजक ढंग से कवि अपनी ‘समरसता’ कविता में अभिव्यंजित किया है। यथा–

धरती पर जो हमारा हिस्सा था
मेहनत में जो हमारा हक था
नमक में जो हमारा स्वाद था
हवा में जो हमारा सुकून था
वह हमें नहीं मिला।
हम जब तक समझ नहीं पाए
तो समझौता कर लिया
अब जब हम जान चुके हैं हकीकत
हमारा हक माँगना नागवार लग रहा है।
तुम तिलमिला रहे हो
हम चुपचाप शांत रहें तो सामाजिक समरसता
हम सवाल उठाएं तो समरसता भंग होती है
हम जान गए हैं
तुम्हारी समरसता का एकतरफा अर्थ
अन्याय को चुपचाप झेलकर शांत रहना।

राजेश पाल की अन्य कविताओं में ‘जरूर आना तुम’, ‘तुम्हारी मुस्कुराहट के लिए’, ‘जहां नदियां बहती रही’, ‘वे चाहते हैं’, ‘पिछड़े हुए लोग’, ‘बोलते रहना जरूरी है’, ‘कुछ तथाकथित पढ़ेलिखे लोग’, और ‘हांक भी क्रांति है’ एक वैज्ञानिक, भौतिवादी और लोकतांत्रिक समाज के निर्माण की कविताएं हैं, जो भारत के बेहतर भविष्य के लिए संघर्ष का आह्वान करती हैं। इसी क्रम में एक कविता ‘जागो’ है, जो समग्र रूप से उनके कविता-संग्रह ‘आज़ादी में आज़ादी’ का ‘वास्तव’ है। जो जागा नहीं है, उससे न जगाने की उम्मीद की जा सकती और न निर्माण की। लेकिन कवि उम्मीद नहीं छोड़ता। जागना और उठाना दोनों उसके लिए जरूरी है। इसलिए वह कहता है–

सोते हुए जागो
सुकून सबकी जरूरत है।
जागते हुए लोगों उठो
जागकर ही लड़ा जा सकता है अंधेरे से
देखा जा सकता है जीत का सूरज।

(संपादन : नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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