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राम को कटघरे में खड़ा करता बी. आर. विप्लवी का खंडकाव्य ‘प्रवंचना’

बी. आर. विप्लवी ने बालि-वध के माध्यम से इतिहास के उस अंधेरे कोने पर सर्चलाईट मारी है, जहां कोई देखना नहीं चाहता। ब्राह्मण-फासीवाद ने किस तरह अपने ख़ूनी पंजे देश में कायम किए, उसका बहुत ही मार्मिक वर्णन उन्होंने इस खंडकाव्य में किया है। बता रहे हैं कंवल भारती

डॉ. आंबेडकर पहले इतिहासकार थे, जिन्होंने इस तथ्य को स्थापित किया कि ‘भारत का अधिकांश प्राचीन इतिहास, इतिहास नहीं है; और न ही प्राचीन भारत का कोई इतिहास है। प्राचीन इतिहास में हालांकि बहुत कुछ है, पर उसे महिलाओं और बच्चों के मनोरंजन के लिए पौराणिक कथा का रूप दे दिया गया है। स्पष्ट रूप से यह काम ब्राह्मण लेखकों द्वारा जानबूझकर किया गया है। “‘देव’ शब्द को ही लीजिए। इसका क्या अर्थ है? क्या यह शब्द मानव परिवार के किसी जन-विशेष सदस्य का प्रतिनिधित्व करता है? ऐसा लगता है कि यह किसी मानवेतर या अलौकिक शक्ति को प्रदर्शित करने के लिए गढ़ा गया है, जबकि इसी देव शब्द में वास्तविक इतिहास का सार निहित है।”[1] इसी तरह डॉ. आंबेडकर ने यक्ष, गण, गंधर्व, किन्नर, असुर, राक्षस आदि के बारे में भी सवाल उठाए। उनके अनुसार ये सब मानव परिवार के ही सदस्य थे, जबकि ब्राह्मणों ने इनका वीभत्स और घृणित रूप से विकृतिकरण किया है।[2]

डॉ. आंबेडकर के इतिहास-बोध ने जो आलोचकीय चेतना पहली पीढ़ी के दलित बुद्धिजीवियों में विकसित की, उसने दलितों को ब्राह्मणी साहित्य की पड़ताल और उसका पुनर्पाठ करने के लिए प्रेरित किया। यह काम बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में ही शुरू हो गया था। इसे दलित साहित्य के इतिहास में दलित अस्मिता के लिए संघर्ष का प्रथम सोपान माना जा सकता है, जिसमें दलित बुद्धिजीवियों द्वारा अपना इतिहास और अपनी राजनीति को स्थापित करने का प्रयास किया गया था। हिंदी में इस प्रथम सोपान के महानायकों में स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ और चंद्रिकाप्रसाद जिज्ञासु प्रमुख थे, जिन्होंने पद्य और गद्य में शूद्रों के विस्मृत इतिहास पर खोजपूर्ण लेखन किया।[3] उनके बाद की पीढ़ी में तो इतिहास के पुनर्लेखन और मिथकों के पुनर्पाठ का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ, जो आज तक जारी है। इसी क्रम में बी. आर. विप्लवी का खंडकाव्य ‘प्रवंचना’ है।

बी. आर. विप्लवी हिंदी ग़ज़लकार के रूप में ज्यादा विख्यात हैं। लेकिन उन्होंने ‘प्रवंचना’ नाम से एक खंडकाव्य की भी रचना की है, इसकी जानकारी बहुत कम लोगों को होगी। उनके इस खंडकाव्य का प्रकाशन 2011 में हुआ था। यह खंडकाव्य छंद में है और आर्यों के उन छल-प्रपंचों का परिचय कराता है, जिनके द्वारा भारत की आदिम जनजातियों का विनाश और आर्यों का प्रभुत्व कायम हुआ। कवि ने ‘सुलह-सफाई’ नाम से खंडकाव्य की एक लंबी भूमिका लिखी है। इसमें वह आरंभ में ही स्पष्ट करते हैं, ‘प्रवंचना’ की रचना तुलसीकृत रामचरितमानस या वाल्मीकीय रामायण प्रभृत महाकाव्यों के अनुकरण पर नहीं हुई है। मूल कथानक यदि कहीं मेल खाता है, तो ऐसा उसकी ऐतिहासिक संदिग्धता को उकेरने के लिए ही किया गया है। “… अयोध्या के तथाकथित राजा रामचंद्र को भगवान, चराचर का स्वामी और आराध्य देव कहना, बालि-सुग्रीव-हनुमान आदि को वानर (बंदर) जांबवान को रीछ या भालू तथा रावण के वंशजों को राक्षस कहना कदाचित एक की श्लाघा-प्रशंसा और दूसरे की निंदा, गर्हा, भर्त्सना के लिए प्रयुक्त हुआ होगा, लेकिन इन चरित्रों की लोकछवि पूर्वाग्रहियों द्वारा नियोजित प्रयत्नों के कारण शब्दश: ऐसी बनी कि दोनों को मानवेतर स्वीकृति मिलती गई– एक को भगवान के रूप में, दूसरे को शैतान के रूप में। ऐसे में ऐतिहासिक तथ्यों की धज्जियां उड़ गईं।”[4]

कवि ने अपने खंडकाव्य का अभीष्ट भी स्पष्ट कर दिया है– “उद्देश्य यह नहीं है कि सारे पुराने ऐतिहासिक विभेदों को अनावृत्त कर भिन्न जातियों, उपजातियों, संप्रदायों, धर्मों और मान्यताओं के बीच कलह और द्वेष को बढ़ावा दिया जाए, बल्कि प्रयास यही रहा है कि यथार्थ को सामने रखकर परजीवियों, प्रवंचकों और छद्म उच्च कुलीनता या वर्ण-श्रेष्ठता के भ्रम में जी रहे लोगों को भविष्य के लिए सचेत एवं सतर्क किया जा सके, जो आज भी जाति-वंश की पताका लेकर छद्मपूर्ण धर्म के आश्रयी हैं। देश की अखंडता और द्वंद्व-निरोध की कामना इन्हीं भाव-बोधों को लेकर की गई है।”[5]

कवि ने खंडकाव्य का आरंभ ‘मंगल आचरण’ से किया है। उसके बाद उसने अपनी कथा को आठ सर्गों में विभक्त किया है– उद्भावना, परिकल्पना, अनुरंजना, अभ्यर्चना, परिवेदना, प्रवंचना, संवेदना, और संभावना। ‘मंगल आचरण’ में कवि ने किसी ईश्वर अथवा देवता की स्तुति नहीं की है, जैसा कि परंपरा रही है। लेकिन वह ब्रह्मांड की उस चरम सत्ता को जरूर प्रणाम करता है, जो प्रकृति कहलाती है। असल में यह प्रकृति ही विज्ञान है और कवि की हृदय-भूमि पर शक्ति बनकर विचरण करती है। यथा–

ब्रह्मांड की उस चरम सत्ता को सहस्त्र प्रणाम है
जिससे रसा है रसवती सूरज जिलाता प्राणियों को
नित्य ऊर्जा दान कर, ग्रह और उपग्रह हैं बंधे
नित झूलते आकाश में, जो जलद को जल-धार देता
ग्रीष्म-सर्दी सृष्टि को।
वह प्रकृति या विज्ञान-सत्ता, जो कहें
नर में बहाती क्रोध, ममता, मोह को,
वह शक्ति ही है, जो बनी कविता
सदा है घूमती, कवि के हृदय की भूमि पर।[6]

आगे, कवि प्रकृति से वाणी मनोहर, शोषक जाति के लिए ललकार, सड़ती व्यवस्था से जूझने का बल और नर जाति का मंगल मांगता है, और अंत में कामना करता है–

नव आनंद की वर्षा करे
भातृत्व की जल-धार से
यह काव्य
बन चंदन बसे भटके मनुज के प्राण में।[7]

पहले सर्ग ‘उद्भावना’ में भारत की मूल सभ्यता और संस्कृति का चित्रण किया गया है, और किस तरह हमलावर आर्यों ने उस सभ्यता को ध्वस्त कर भीषण नरसंहार किया, जिसके कारण द्रविड़ों के पैर उखड़े और उन्होंने अन्यत्र पलायन किया, इसका वर्णन किया गया है। आरंभ में कवि प्रकृति को पशुबल से कुचलने वाले लोगों से सवाल करता है–

आदर्श यहां का सत्ता-सुख साधन है
आदर्श यहां निर्बल जन पर शासन है।
जाने ऐसा अधिकार दिया है किसने?
परवशता को स्वीकार कराया किसने?
संबंध प्रकृति के साथ बिगड़ता क्यों है?
गतिमानों में मुर्दों सी जड़ता क्यों है?
है स्वार्थपरक अन्याय कहीं पर मन में
कल की चिंता है मानव के जीवन में।[8]

सर्ग में आगे सिंधु सभ्यता का चित्रण है, जहां के लोग मिस्र से व्यापार करते थे–

धरती की एक सुरम्य भूमि भारत था
उन्नत समाज-निर्माता कर्म-निरत था
ईसा के दस हजार वर्ष पहले तक
पत्थर-युग के पशुवत जीवन ढलने तक।

भारत में सिंध नदी के विस्तृत तट पर
फूटे थे उन्नत जीवन के मधुरिम स्वर
खेती-बाड़ी, घर-बार बसाना सीखा
गैरों के दुःख में हाथ बंटाना सीखा।

उस तरफ मिस्र में नील नदी का पानी
लाया जीवन की मुश्किल में आसानी
व्यापार नदी-नौका पर आधारित था
जो शिल्प-कला श्रम-बल से परिचारित था।[9]

इस सभ्यता की कुछ और विशेषताओं के बारे में कवि कहता है–

अध्यात्म-ज्ञान को नई दिशा देता था
विज्ञानवाद से नया सृजन होता था
ईंटों के घर, खिड़की, गवाक्ष, दरवाजे
आंगन, पक्की नाली, सुख-साम्य विराजे।
थी सिंध-वाहिनी धार बहुत उपकारी
हैं पूर्व सिंध-वासी जिसके आभारी।
पेड़ों-पौधों जीवों की प्यास बुझाती
ऋतु-तुल्य अन्न-धन से घर को भर जाती।
मिलजुल कर रहते थे सब मूल निवासी
आज़ादी, समता, बंधु-भाव के न्यासी।[10]

लेकिन इस सुरम्य सभ्यता को, जिसकी चर्चा ईरान और मिस्र तक होती थी, उत्तर-पश्चिम से कुछ बर्बर और नृशंस चरवाहों ने आकर तहस-नहस कर दिया। कवि कहता है–

समृद्धि, चैन, सुख का डंका बजता था
ईरान, मिस्र के आगे तक चर्चा था।
बर्बर नृशंस चरवाहे पशुपालक कुछ
उत्तर-पश्चिम से आए विध्वंसक कुछ।
जो शील-विनय का अर्थ न कर पाते थे
हिंसक गतिविधियों से ही सुख पाते थे।[11]

ये हिंसक हमलावर आर्य थे, जो निपुण अश्वारोही और द्रोह और घात करने में कुशल थे। उन्होंने अपने आतंक से मूल निवासियों की बस्तियों में आग लगा दी और जो उनके मार्ग में आया, उसको मार दिया। इस भारी हिंसा और रक्तपात से चारों ओर हाहाकार मच गया और भयभीत मूलनिवासियों ने अपनी धरती से पलायन करना शुरू कर दिया। कवि के शब्दों में–

नगरों में आग लगाईं, ध्वस्त किए पुर
काटा सीधे सच्चे आदिम जन का सिर
वन-उपवन, बाग-तड़ाग, संपदा-धरती
थी सहमी सी आतंकित निर्जन बस्ती।
सीधे-सादे अध्यात्म पुरुष उकताकर
धन-धरती छोड़ी, दूर बसे घबराकर
संहार-प्रलय का नंगा नाच मचा था
प्रज्ञा, करुणा, समता हत-बुद्धि बचा था
कोलाहल, करुण पुकार नृशंस समर की
हिंसा विजयी थी, शांति बनी खंडहर थी।
उत्तर भारत छोड़ा कोलों-भीलों ने
मुंडा-उरांव, शंबर ने, नल-नीलों ने।
मिल गई धूल में विकसित जीवन-शैली
बन गए दुर्ग शमशान, सदयता भूली।
वर्षों-वर्षों तक होता रहा पलायन
संस्कृति-विनाश का चला अनवरत उपक्रम
द्रविड़ों के सुदृढ़ पांव सत्ता से उखड़े
वे विंध्य पार ही जाकर फिर से निखरे।[12]

परिणाम यह हुआ कि कला, विज्ञान, शिल्प नष्ट होने लगा और विजेता समुदाय ने जनता को मानसिक गुलाम बना दिया। यथा–

सदियों तक काली छाया हटी न पीछे
विज्ञान-ज्ञान सब दफ्न हो गए नीचे।
हारे शिल्पी विज्ञानी धर्म-प्रणेता
मानसिक गुलाम बनाते रहे विजेता।[13]

पहला सर्ग यहां समाप्त होता है। दूसरे सर्ग ‘परिकल्पना’ में कवि ने काव्य की अद्भुत छटा बिखेरी है। यथा–

देखो तो इतिहास यहां कुछ अद्भुत मनुज खड़े हैं
शक्ति-पुंज बन जहाँ विजय के मोती-मणि बिखरे हैं।
वे ही हैं इतिहास-पुरुष, जो समय बदल देते हैं
आई विपदा को चरणों के तले कुचल देते हैं।[14]

बी.आर. विप्लवी का खंडकाव्य ‘प्रवंचना’ का मुख पृष्ठ

इस सर्ग में कवि ने छल-प्रपंच की आर्य-नीति और आदिवासियों के दमन का चित्रण किया है। कवि कहता है कि आदिवासियों में पर्याप्त भुज-बल था, पर विरोधियों को जीतने के लिए भुज-बल के साथ-साथ छल-बल की भी जरूरत पड़ती है, जो उनमें नहीं था, और यही उनके पतन का कारण बना। यथा–

वे जो छल से लड़ें, मित्र कह सबको गले लगा लें
पीछे से सिर काट प्रवंचक वीर पुरुष कहला लें
कुल जन को भी शत्रु बताएं, कूट-नीति के बल से
दुनिया को आचार सिखाएं, मारें सबको छल से।
देख चुका इतिहास यहां भी विजयी वही खड़ा है
शक्तिमान है सब प्रकार जो आगे वही बढ़ा है।
भुज-बल तो है श्रेष्ठ मगर उसमें न निहित सब गुण हैं
वही सफल हैं जो कल-बल-छल सबमें नीति-निपुण हैं।
यदि बल ही सर्वत्र जीतता, यह इतिहास न होता
पर-वश होकर आदि-पुरुष तब दास बना क्यों रोता?[15]

आर्य जानते थे कि भुज-बल में वे आदिम जनों से नहीं जीत सकते थे। यह अनुभव उन्हें तभी हो गया था, जब वे पहला युद्ध हारे थे। इसलिए उन्होंने उनको छल-बल से अपने वश में किया। यथा–

सभी जानते हैं पहला ही युद्ध आर्य क्यों हारे?
लगे भागने इधर-उधर शरणार्थी मारे-मारे।
आदि-मनुज की भुजा-शक्ति जो फूट पड़ी थी रण में
आर्य चीखकर कैसे भागे पीड़ा ले व्रण-व्रण में।
छद्म-युक्त अन्याय-घृणा का ऐसा विष फैलाया
धरती छीनी और आदि-जन को निज दास बनाया।
आदि-मनुज की बढ़ी शक्ति को कुचल दिया छल-बल से
कुछ को प्रेम-सुरा से मारा, कुछ को कठिन गरल से।[16]

ऐसे ही एक आदि वीर पुरुष का नाम बालि था, जो शोषित जनता का पालनहार था। उसकी शौर्य गाथा ने आर्यपुत्र राम को इतना विचलित कर दिया था कि उसके लिए बालि का वध अनिवार्य हो गया था। ‘प्रवंचना’ खंडकाव्य इसी आदि वीर पुरुष की कथा पर आधारित है। कवि कहता है–

आदि वीर का नाम बालि था, एक चमत्कृत गति था
पालक था शोषित जनता का , उनकी प्रगति-सुगति था।
राम नाम के आर्य-पुत्र ने सुनी शौर्य की गाथा
तभी बालि-वध करने का यह दुर्विचार जागा था।
उसी बालि की कथा चलि पम्पापुर से कुछ आगे
जहां जिंदगी ने जीने के नूतन तेवर मांगे।
जहाँ प्रिय तारा, अंगद सा पुत्र बना अवलम्बन
क्रूरों का था क्रूर और आदिम-जन का संजीवन।[17]

इस भूमिका के बाद कवि तीसरे सर्ग ‘अनुरंजना’ में बालि-कथा का आरंभ करता है। किष्किंधा पर्वत के वातावरण और प्रकृति का सुरम्य चित्रण करते हुए कवि लिखता है–

किन्तु इसी अंतर कानन में है पंपापुर नगर बसा
ऐसी रम्य भूमि पर रुक जाती है मुग्ध दृष्टि सहसा
किष्किंधा से तनिक दूर, पम्पा-सर के तट के ऊपर
नैसर्गिक सुषमा में डूबा विलस रहा रमणीक नगर।[18]

इसी नगर में पुष्कर के निकट, एक प्राचीन वट वृक्ष के नीचे बालि चिंतन में लीन शांत बैठा है। उसके मन में गहरा द्वंद्व चल रहा है। यह द्वंद्व छोटे भाई सुग्रीव को लेकर चल रहा है। उसे पीड़ा और ग्लानी हो रही है कि क्यों एक संशय ने दोनों भाइयों के बीच का नैसर्गिक प्यार खत्म कर गया, और सुग्रीव उसका साथ छोड़ गया। यथा–

पुष्कर के ही निकट एक बरगद का वृक्ष पुराना है
यह विहगों का रैन बसेरा, परिचित है, पहचाना है
बालि इसी वट की छाया में, बैठा चिंतन भार लिए
स्मृति में डूबा, आंखों में कोई निश्छल प्यार लिए–
हाय, अनुज का साथ छुड़ाया हम दोनों के संशय ने
मेरे झूठे अहंकार ने उसमें जन्मे अति भय ने।
नगर छोड़ अन्यत्र बसा है, कभी नहीं सुधि ले पाया
मैंने उसको क्षमा कर दिया पर वह क्षमा न कर पाया।[19]

बालि सोच रहा है कि बिना भाई के इस राज्य को वह कैसे भोगे? उसे बेचैनी हो रही है, और उसके मन में सुग्रीव को बुलाने के लिए अंगद को भेजने का विचार चल रहा है। यथा–

भ्रात नहीं है साथ, राज्य यह कैसे भोगूं एकाकी
उसे भेज अन्यत्र, जिऊं कैसे मैं पापी-परितापी।
आज भेज अंगद को जल्दी उसको यहां बुलाऊंगा
छोटा है तो क्या मैं उसके आगे खुद झुक जाऊंगा।[20]

निश्चित रूप से बालि आर्य-नीति के छल से अनजान था। इसका निदर्शन कवि ने चौथे सर्ग ‘अभ्यर्चना’ में कराया है। बालि वट वृक्ष के नीचे से उठकर उन्मन स्थिति में राजमहल लौटता है। वहां जाकर देखता है कि उसकी पत्नी तारा अनमनी पड़ी है, और पति को देखकर रोने लगती है। बालि कहता है कि वह सुग्रीव को बुलाकर उसे मनाने वाला था, पर यहां लगता है, कोई तीसरा भी आया है। वह तारा से उसके रोने का कारण पूछता है। तब तारा बताती है–

तारा बोली क्षीण कंठ से, ‘ठीक कह रहे हैं स्वामी
वही तीसरा चढ़ आया है, सुनती हूं प्रतिभट नामी।
राम-लखन दो वनवासी हैं, जिनकी ख्याति चतुर्दिक है
खर-दूषण का वध कर डाला, यह घटना प्रामाणिक है।
बल से लड़ने आते तो क्यूं मेरा मन चंचल होता
कपट-नीति का पाश चतुर्दिक क्यूं उनका संबल होता?’[21]

इस पद्यांश में कवि ने तारा की बेचैनी का कारण बताया है कि वह राम की कपट नीति के कारण आकुल है। हालांकि इस पद्यांश में कवि ने ‘चंचल’ शब्द का उपयोग किया है, जो कविता के भाव के सापेक्ष समुचित नहीं। इस शब्द के बदले कोई ऐसा शब्द उपयोग में लाया जाना चाहिए, जिससे मन के स्थिर होने का बोध हो।

तारा बताती है कि वे दोनों आर्य, राम और लखन, सुग्रीव से जाकर मिल गए हैं और उन्होंने सुग्रीव को आपके विरुद्ध युद्ध के लिए तैयार कर लिया है। उनका एक दूत युद्ध के लिए प्रस्तुत होने का सन्देश लेकर आया था। तारा बालि को समझाती है कि वह ऐसी स्थिति में अपने भाई से युद्ध न करें। इस बातचीत के दौरान ही बाहर से सुग्रीव का बालि को ललकारने का स्वर आता है। बालि युद्ध के लिए उद्यत होकर बाहर निकलने को होता है, कि तभी तारा बालि के पैर पकड़कर उसे जाने से रोकती है। यथा–

बातचीत के बीच कहीं बाहर से भारी शोर हुआ
ललकारा सुग्रीव, अरे वह कितना आज कठोर हुआ।
सुनकर सम्मुख से ललकारें, बालि न बैठा रह पाया
जाग पड़ा आमर्ष, आंख में जैसे खून उतर आया।
उद्यत हुआ बालि चलने को, पांव पकड़ तारा बोली
‘भाई से ही मत खेलो प्रिय, तुम ऐसी रक्तिम होली।
वे न स्वयं आए उनको शायद नर-पशु उकसाए हैं
आप समझते हैं एकाकी, वे न अकेले आए हैं।
जो न कभी प्रतिवाद किया, उसमें यह क्या परिवर्तन है
यह तन से है सुग्रीव, किंतु अब परवश उसका जीवन है।[22]

किन्तु बालि पांव छुड़ाकर लड़ने के लिए चल देता है। वह तारा को समझाता है कि वह भाई को मारने नहीं जा रहा है, बल्कि शत्रु के बल का पता लगाने जा रहा है। कोई अगर रण में ललकारे, तो वह छिपकर नहीं रह सकता। यथा–

पांव छुड़ाकर कहा बालि ने, ‘विनय-नीति यह रहने दो
मुझे शत्रु के पास पहुंचकर बल का पता लगाने दो।
रण में मुझे बुलाए कोई, मैं कब तक छिपता जाऊं?
बार-बार वह ठोकर मारे, मैं कब तक सहता जाऊं?
नहीं जा रहा अभी मारने अपने प्यारे भाई को
उसे खोजने जाता हूं, जो आया छद्म लड़ाई को।’[23]

बालि बाहर निकल कर देखता है कि सुग्रीव रण के लिए तैयार खड़ा है। लेकिन बालि के भीतर भाई के लिए स्नेह पैदा होता है। वह सुग्रीव को समझाता है कि अब भी वह वैर भाव को त्यागकर पुर को लौट जाए। यथा–

कहने लगा बालि, ‘भाई क्यों मुझसे रण करने आए?
युद्ध-नाद लेकर आए क्यों मधुमय स्नेह न ले आए?
पर तुम आए नहीं हृदय का कलुषित भाव मिटाने को
आए हो अब आज किसी के कहने पर टकराने को।
है मुझको आश्चर्य तुम्हारा मित्र नहीं रण में आया
आग जलाकर जल मरने को तुझे सामने ले आया।
लौट चलो अब भी पुर को, यह हम तुम क्या करने आए
अपने घर में आग लगाकर खुद ही जल मरने आए।
क्षमा मांगता हूं तुमसे इस वैर-भाव का त्याग करो
लौट चलो भाई अब भी तुम तनिक न वाद-विवाद करो।’[24]

इससे प्रतीत होता है कि बालि अपने भाई से युद्ध करना नहीं चाहता था, बल्कि वह उसे आर्य राम की छल-नीति से सावधान कर रहा था। राम की छल-नीति का निहितार्थ सुग्रीव को बालि के राज्य का लालच देकर उसके सहयोग से आदि वीर पुरुषों का विनाश करना था, जिसे राज्य के लोभ में अंधा सुग्रीव देख नहीं पा रहा था। आज भी आर्य शासक इसी छल-नीति से बहुजन समाज का चतुर्दिक दमन कर रहे हैं। इसलिए सुग्रीव अपने बड़े भाई की बात को अनसुना कर देता है, और आवेश में आकर राम द्वारा बालि के वध की नीति का भी खुलासा कर देता है। यथा–

किंतु कहा सुग्रीव, ‘मुझे लौटाने आए हो भाई
झूठी नीति सिखाते हो जब पहले कभी न सुधि आई।
बहुत देर हो चुकी, युद्ध से ही अब तो निर्णय होगा
समर-कुंद में मुंड हमारा या कि तुम्हारा लय होगा।
मैं न हरा पाया यदि तो भी मेरा मित्र सुरक्षित है
उसके हाथों से तेरा वध विधि के यहां सुनिश्चित है।
बात अधिक मत करो, उठाओ गदा, संभलकर वार करो
मैं तेरा या तुम मेरा बस आज यहीं संहार करो।’[25]

सुग्रीव की बात सुनकर बालि गदा फेंककर मल्ल-युद्ध में कूद पड़ता है। दोनों एक-दूसरे से भुजाएं मिलाकर लड़ने लगे। लेकिन सुग्रीव बालि के एक ही मुक्के के प्रहार से मूर्छित होकर नीचे गिर जाता है। होश आने पर उसे अहसास होता ही कि आर्य-पुत्र उसे आग में झोंककर मदद के समय अनुपस्थित हो गया है। अत: सुग्रीव युद्ध छोड़कर भागने में ही भलाई समझता है। यथा–

गिरा अवनि पर मूर्छित होकर कुछ क्षण में जब होश हुआ
उठा मचाने द्वंद्व-युद्ध फिर अब भारी आक्रोश हुआ।
लगा सोचने व्यर्थ शत्रुता मैं भाई से मोल लिया
बिना भविष्य विचारे मैंने उस पर धावा बोल दिया।
आर्य-पुत्र के बहकावे में काल हमारा ले आया
मुझे आग में झोंक छिपा है, कुछ भी मदद न कर पाया।
यही सोच सुग्रीव युद्ध की भूमि छोड़कर चला गया
आया था साम्राज्य जीतने, बीच राह में छला गया।[26]

असल में छल कभी सामने नहीं आता। वह हमेशा पीछे से छिपकर किया जाता है। यह सुग्रीव नहीं जानता था। वह जानता भी कैसे? वह तो सीधे-सादे आदिम जन-समुदाय का सदस्य था। छल उसकी संस्कृति का हिस्सा ही नहीं था। निराश-हताश सुग्रीव आगे बालि के साथ युद्ध से अपनी असहमति प्रकट करने के लिए राम के पास जाता है। इस कथा का चित्रण कवि ने पांचवे सर्ग ‘परिवेदना’ में किया है। राम शिला पर बैठा हुआ अपने अनुज से भावी योजना पर विचार कर रहा है। उसी समय सुग्रीव का प्रवेश होता है। यथा–

राम अनुज के साथ शिला पर बैठे हैं सकुचाए से
अपनी वृहद योजना में भूले भटके भरमाए से।
इसी समय सुग्रीव आ गया, मुख धूमिल, अवसाद घना
ज्यों, अंतर की हलचल से हो निर्मल जल में कीच सना।[27]

राम सुग्रीव को व्यथित देखकर पुन: पंपापुर के राजतिलक का वचन दोहराते हैं और आश्वासन देते हैं कि वह सारे अवरोध खत्म कर देंगे। लेकिन सुग्रीव कहता है–

तब बोला सुग्रीव, ‘राम, यह राज्य और धन जाने दें
मुझे यहीं रहकर सुशांति से अपना समय बिताने दें।
मैं न चाहता मार बालि को राज्य हस्तगत कर डालूं
मैं न चाहता अपने ही अनहित के लिए उरग पालूं।’[28]

लेकिन राम ऐसा कैसे होने देता? उसे अपनी भावी योजना के लिए बालि की मृत्यु और सुग्रीव की राजगद्दी की जरूरत थी। इसलिए वह सुग्रीव में फिर युद्ध के लिए जोश भरते हुए कहता है–

बोले राम, ‘अरे तुम तो सन्यासी सी बक करते हो
राज्य और धन नहीं चाहिए, ऐसा नाहक कहते हो।
घायल फणि को जीवित रखना, अपनी मौत बुलाना है
खुद ही आग लगाकर जैसे खुद जलकर मर जाना है।
क्षमा करो तुम भले, बालि तो क्षमा नहीं कर पायेगा
राज-भोग से वंचित रक्खा, अब यम बन ले जायेगा।
अविचल प्रण करके जाओ अब पीठ न अरि को दिखलाओ
सबके हित के लिए त्याग सम्मोहन रण करने जाओ।’[29]

राम के वचन सुनकर सुग्रीव में कुछ साहस आता है, पर बालि के प्रहार को सोचकर डर जाता है। फिर सुग्रीव कुछ निडर होकर राम से पूछता है कि वह उसे रण में भेजकर स्वयं क्यों छिप जाते हैं? वह यह भी बताता है बालि क्षमावान है, अन्यथा वह उसे यहां तक आने ही नहीं देता। एक बार धोखा खाने के बाद वह पुन: उस पर क्यों विश्वास करे? यथा–

तब बोला, सुग्रीव हृदय में थोड़ी निर्भयता लाकर
‘झूठ-मूठ हे राम! मुझे क्यों भेज रहे हो बीच समर?
मुझको लड़ने भेज स्वयं तो आप कहीं छिप जाते हो
हिम्मत नहीं स्वयं लड़ने की मुझको कला सिखाते हो।
क्षमावान है बालि अन्यथा क्या वापस आने देता
अपनी दारुण कथा यहां तक मुझको पहुंचाने देता?
एक बार धोखा खाकर मैं फिर कैसे विश्वास करूं?
अपनी शक्ति समझता हूं तो क्यों जाकर यूं सहज मरूं?’[30]

तब राम अपनी दुविधा बताता है कि तुम दोनों भाई एक ही सांचे के होने के कारण पहचान में नहीं आते। वह बालि की कैसे पहचाने करे, जबकि दोनों भाइयों की सूरत एक जैसी लगती है? अगर मेरा बाण तुम्हें लग जाता, तो क्या होता? इस बार राम सुग्रीव को एक जयमाल पहनने को देता है और कहता है कि तुम्हारे गले में यह जयमाल ही तुम्हारी पहचान बनेगी। यथा–

मेरा भी क्या दोष, एक ही सांचे के दोनों भाई
रूप-रंग में कहीं भिन्नता मुझको नहीं समझ आई।
भ्रम के गहरे अंधकार में मेरा कोई वश न चला
असमंजस में बाण धनुष पर ज्यों का त्यों रह गया तना।
होती जो विपरीत स्थिति तो तुम पर विपद घहर जाती
तुम गिरते ती क्या न हमारी टूक-टूक होती छाती।
देता हूं जयमाल तुम्हें जिससे पहचान सकूंगा मैं
शत्रु-शीश को वहीं समर में छिन्न-भिन्न कर दूंगा मैं।
रामचन्द्र ने पाटल-सोनजुही का हार सजा करके
मस्तक पर धर हाथ उसे भेजा माला पहना करके।[31]

यहां पांचवां सर्ग समाप्त होता है। छठे सर्ग ‘प्रवंचना’ में राम की बालि के वध की छल योजना सफल होती है। सुग्रीव राम का दिया हुआ हार पहनकर बालि के साथ पुन: युद्ध करने पहुंच जाता है। पहले बालि ने सुग्रीव को समझाना चाहा, पर सारा यत्न निष्फल हो गया, और दोनों भाई युद्ध में रत हो गए। यथा–

यत्न सारा संधि का निष्फल हुआ
बालि ने देखा अटल जब बंधु को
आखिरी सद्भाव भी गलने लगा
रुक गई गति शांति की, सुविवेक की।
बालि जब उतरा महा संग्राम में
अनुज की भेजी चुनौती मानकर
दो गजों की गर्जना तब भर गई
थरथराते कांपते पवमान में।
बालि भारी मन उठा शस्त्रास्त्र ले
उछल कर करने लगा ध्वंसक समर
पर नियति! तू हाय कितनी क्रूर है
बालि के उर में लगा एक हिंस्र शर।
गिर गया होकर विकल वह शूरमा
हाथ से पकड़े हुए नाराच को।
आज वह आदिम मनुज का कुल तिलक
सिंह सा आहत, व्यथित, बेहोश है
क्लेश जिसको है न मरने का तनिक
किन्तु हां मन में कहीं आक्रोश है।[32]

इसके बाद आरंभ होता है सातवाँ सर्ग ‘संवेदना’। इसमें संवेदना के कई स्तर हैं। एक संवेदना राम की है, जिसमें उनका स्वार्थ साफ़ नजर आता है। दूसरी संवेदना सुग्रीव की है, जो भाई की मृत्यु से व्यथित है, पर उसमें पश्चाताप नहीं है। तीसरी संवेदना स्वयं कवि की है, जो अपने विमर्श में राम के संपूर्ण कृत्य को कटघरे में खड़ा करता है। इसके अतिरिक्त भी एक संवेदना है, जो पाठ के साथ-साथ पाठक को भी उद्वेलित करती चलती है। यह संवेदना जो सौंदर्य-चेतना विकसित करती है, वही दलित साहित्य की बौद्धिक चेतना है।

बालि को घायल होकर नीचे गिरा देखकर राम ने ताड़-वन से निकलकर आगे बढ़ यह देखा कि बालि जीवित है या मर गया? पर उसे चैतन्य देखकर वह सन्न रह गया। तब बालि राम से सवाल करता है कि उसने छिपकर वार क्यों किया? यह युद्ध की कौन सी रीति है? और इससे वह जगत को क्या बताना चाहता है? यथा–

शोक के ही आवरण में राम थे
चुप खड़े जैसे कि सम-निर्वेद में
बालि को चैतन्य होता देखकर
रह गए कुछ सन्न भावावेग में।
वह संभल कर राम से कहने लगा,
‘आर्य-सुत! यह राज क्या है खोलिए
छिपकर किसी पर वार करना, युद्ध की
कौन सी है रीति, अब तो बोलिए।
ले शिला की ओट तुमने क्या किया
यह जगत को रीति क्या सिखला दिया?’[33]

बालि राम से यह भी पूछता है कि सुग्रीव से अचानक मित्रता का प्रयोजन क्या है–

बोलिए सुग्रीव से है प्रीति क्यों
जो अचानक ही हुई पैदा यहीं।
वैर था मुझसे अगर तो, सामने
आ लड़े होते, न होता रोष कुछ
हार कर यदि मृत्यु भी मिलती मुझे
तो कदाचित कुछ न होता क्लेश भी।[34]

आगे कवि ने बालि के मुख से वह कहलवाया है, जो आदिम वीरों के इतिहास का चिरंतन सत्य है। आर्यों द्वारा छल से जीते या मारे गए आदिम वीरों को पराजित नहीं कहा जा सकता। वे विजयी ही थे, पराजित तो आर्य थे, जो भुज-बल से नहीं, छल-बल से आदिम वीरों से लड़े थे। बालि कहता है–

मैं न हारा युद्ध, तो फिर मृत्यु क्यों?
मथ रहा है प्रश्न बरबस चित्त को।
बालि तो आजन्म जेता ही रहा
सह न पाया शत्रु की हुंकार को
आज वह यूं हार कैसे मान ले
टेक दे घुटने भला लाचार हो?[35]

इस पर छल-प्रपंची राम का उत्तर है कि बालि तुमने अपने भाई का उत्पीड़न किया है, इसलिए मेरे लिए मित्र की सहायता करना जरूरी था। राम ने यह भी कहा कि तुमसे सामने आकर लड़ने मुझे संकोच था, इसलिए तुम्हें छिपकर मारना पड़ा। यथा–

आपने सुख चैन छीना भ्रात का
राज्य से सुग्रीव को वंचित किया
बाहु-बल से दें किसी को यातना
दुष्टता है यह महत्तम पाप है।
मित्र का दुःख धंस गया था शूल सा
मन लगा कहने कि अत्याचार है।
बांह फड़की पाप के प्रतिरोध को
बाण कढ़ आया निकल तूणीर से।
और छिपकर मारने का राज़ था
आपसे मेरी न थी कुछ शत्रुता
सामने आ द्वंद्व में संकोच था
अन्यथा मुझमें नहीं थी भीरुता।[36]

राम कहता है कि ‘दुष्ट का संहार होना चाहिए/ नीति यह दुर्नीति जो चाहो कहो।’ पर इसके उत्तर में बालि ने जो कहा, वह इतिहास में अमर हो गया। यथा–

राम अब यह घाव मिट सकता नहीं
बात कितनी भी बनाएं सामने
मिट न पायेगा कभी इतिहास में
छल किया था बालि से श्रीराम ने।[37]

आगे कवि ने बालि के मुख से शंबूक-वध का भी जिक्र करा दिया है। यथा–

यह न कोई बात है अभिनव घटी
जानते हैं यह सभी चिरकाल से
आदि ऋषि शंबूक का वध आपने
कर दिया था कौन सी दुश्चाल से।[38]

कवि को यहां शंबूक-वध का उल्लेख करने से बचना चाहिए था, क्योंकि शंबूक वध की घटना रावण के वध के उपरांत राम द्वारा अयोध्या में हुई थी। किष्किंधा में भविष्य की घटना का बालि को ज्ञान अखरता है।

कवि ने आगे बालि के वध पर सुग्रीव को रोते हुए दिखाया है। भले ही सुग्रीव ने राम से भाई के वध का सौदा किया था, पर अपनों की मौत पर आंख तो भर ही आती है। अंत में बालि सुग्रीव से आलिंगन की कामना करता है और आलिंगन में ही बालि सुग्रीव की गोद में दम तोड़ देता है। यथा–

रो रहा सुग्रीव था बैठा वहीं
मौन करता था क्षमा की याचना
ज्यों कि सारे शब्द डूबे मौन में
कम न होती थी हृदय की वेदना।
आंख खोली, हाथ धर सुग्रीव का
बालि बोला, ‘भ्रात चिंता मत करो।
जानता हूं मैं तुम्हारी वेदना
अब हृदय की कालिमा बाहर करो।
आ मिलो अंतिम मिलन इस जन्म का
बालपन का एक सुख मिल जाए फिर।
पूर्ण हुआ ज्यों-ज्यों करके सुग्रीव बालि का आलिंगन
लुढ़क गया भाई की गोदी में ही नृप का नश्वर तन।’[39]

इस करुण और मार्मिक चित्रण के साथ यहां सातवां सर्ग समाप्त होता है, और अंतिम तथा आठवां सर्ग ‘संभावना’ आरंभ होता है। ‘संभावना’ में कवि ने एक लोकतांत्रिक और समतामूलक समाज के निर्माण की परिकल्पना प्रस्तुत की है। कवि कहता है कि आज देश में न कोई आर्य नस्ल का है, और न कोई अनार्य बचा है। सभी वर्णों और नस्लों में रक्त-मिश्रण हुआ है, इसलिए आर्य-शूद्र का दावा केवल एक भ्रम है। कवि ने उसे आर्य-शूद्र का युद्ध नहीं माना, बल्कि देशी-परदेशी का युद्ध माना है। यथा–

है आज छिड़ी यह कैसी कठिन लड़ाई
कुल-जाति-वंश की आग न बुझने पाई
है कौन आर्य अब, कौन अनार्य बचा है
सबका तन-मन एक मिट्टी से सिरजा है।
अब आर्य-शूद्र का दावा केवल भ्रम है
बस ‘वंश-वंश’ रट मरने का उपक्रम है।
वह आर्य-शूद्र का केवल नहीं समर था
वह देशी-परदेशी का ही संगर था।[40]

यह एक अच्छा विचार है, और लोकतंत्र में इसी विचार की जरूरत है। लेकिन, जो वर्णवादी हैं, वे आज भी इसी दंभ में जीते हैं कि वे श्रेष्ठ हैं और बहुसंख्यकों पर शासन करना उनका दैवीय अधिकार है। यथा–

कुछ लोग आज भी उसी भाव में रत हैं
जिसके कारण बहुसंख्यक जन आहत हैं।
वे शत्रु नहीं हैं एक जाति या नर के
वे घोर शत्रु हैं सारी दुनिया भर के।[41]

कवि सभी लोगों में प्रेम-विश्वास जगाने की बात करता है, और सब तरफ सुख-शांति की कामना करता है। लेकिन जातिवादियों की बहुसंख्यक विरोधी नीतियों और उनकी घृणित योजनाओं से भी चिंतित है। वह इसमें गृहयुद्ध के संकेत देख रहा है। यथा–

है हमें यहां वह शांति-व्यवस्था लानी
सुख-शांति फले-फूले, बिहंसें सब प्राणी।
छल-भाव, दुराव-प्रभाव मिटे, यह काम बहुत आसान नहीं
परजीवी समाज को मेहनत से खुद भूख मिटाने का ज्ञान नहीं
जिस सिंह शिकारी ने खून चखा उसे घास खिलाना निदान नहीं
गृह-युद्ध सी घातक स्थिति है, इस बात पर लोगों का ध्यान नहीं।[42]

कवि ने बहुत गहरी चिंता प्रकट की है। वास्तव में देश का बहुसंख्यक समाज का ध्यान अपने प्रवंचन और दमन की ओर नहीं है। उस पर विडंबना यह भी है कि वह अपने शोषक वर्ग का ही ध्वजा उठाए घूम रहा है।

कवि बी. आर. विप्लवी ने बालि-वध के माध्यम से इतिहास के उस अंधेरे कोने पर सर्चलाईट मारी है, जहां कोई देखना नहीं चाहता। ब्राह्मण-फासीवाद ने किस तरह अपने ख़ूनी पंजे देश में कायम किए, उसका बहुत ही मार्मिक वर्णन उन्होंने इस खंडकाव्य में किया है। इस खंडकाव्य की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें छोटे-छोटे सर्ग हैं। कोई भी सर्ग चार-पांच पृष्ठों से ज्यादा का नहीं है। किसी भी सर्ग में कवि ने तथ्यों का दुहराव और अनावश्यक विस्तार नहीं किया है, जिससे खंडकाव्य की पठनीयता बढ़ गई है।

संदर्भ :

[1] डा. बाबासाहेब आंबेडकर : राइटिंग्स एंड स्पीचेस, वाल्यूम 3, 1987, पृष्ठ 151

[2] वही।

[3] अछूतानन्द हरिहर ने 1929 में ‘आदिखंड काव्य’, और चंद्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने 1937 में ‘भारत के आदिनिवासियों की सभ्यता’, 1956 में ‘रावण और उसकी लंका’ एवं 1962 में ‘शिव तत्व प्रकाश’ पुस्तकें लिखी थीं।

[4] बी. आर. विप्लवी, प्रवंचना (खंडकाव्य), 2011, विप्लवी प्रकाशन, लखनऊ, पृष्ठ 7

[5] वही, पृष्ठ 17

[6] वही, पृ. 19-20

[7] वही, पृ. 21

[8] वही, पृ. 26

[9] वही, पृ. 27-28

[10] वही, पृ. 29-30

[11] वही, पृ. 30

[12] वही, पृ. 31-32

[13] वही, पृ. 32

[14] वही, पृ. 35-36

[15] वही, पृ. 38

[16] वही, पृ. 39-40

[17] वही, पृ. 40-41

[18] वही, पृ. 46

[19] वही, पृ. 47

[20] वही, पृ. 49

[21] वही, पृ. 54

[22] वही, पृ. 55-56

[23] वही, पृ. 56

[24] वही, पृ. 57

[25] वही, पृ. 58

[26] वही, पृ. 58-59

[27] वही, पृ. 64

[28] वही।

[29] वही, पृ. 64-65

[30] वही, पृ. 66-67

[31] वही, पृ. 68-70

[32] वही, पृ. 76-80

[33] वही, पृ. 83-84

[34] वही, पृ. 84

[35] वही, पृ. 84-85

[36] वही, पृ. 85-86

[37] वही, पृ. 87

[38] वही, पृ. 89

[39] वही. पृ. 92-94

[40] वही, पृ. 97-98

[41] वही, पृ. 99

[42] वही, पृ. 100-102

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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