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दिल्ली : दलित घरेलू कामगार चाहिए, पर उनकी बस्ती नहीं

जिनके पास अपनी कोई ज़मीन नहीं है, ज़मीन ख़रीदने की हैसिअत नहीं है, वे सब ऐसे ही कहीं-न-कहीं डेरा डालकर रह लेते हैं। इनमें से अधिकांशतः दलित समुदाय के लोग होते हैं, क्योंकि इन्हें सदियों से संपत्ति के अधिकार से वंचित रखा गया। बता रहे हैं सुशील मानव

गत 22 मई, 2023 की सुबह दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) ने कस्तूरबा नगर इलाके में बुलडोज़र से रौंदकर 25 दलित परिवारों को बेघर कर डाला। इसके पहले डीडीए द्वारा 18 मई को नोटिस लगाया गया कि 22-24 मई के दरमियान कस्तूरबा नगर की चिह्नित कॉलोनियों को तोड़ दिया जाएगा। और ठीक तीसरे दिन यानी 21 मई को सुबह 6 बजे बिजली काट दी गयी। अगले दिन धारा 144 लगा दिया गया और डीडीए के बुलडोजर विध्वंस करने लगे। लाचार और दुखी पीड़ित लोग अपने परिजनों के साथ स्थानीय भाजपा विधायक ओ.पी. शर्मा के ऑफिस के बाहर धरना दे रहे हैं।

ध्यातव्य है कि डीडीए केंद्र सरकार द्वारा संचालित एजेंसी है।

दिल्ली के मानसरोवर पार्क मेट्रो स्टेशन से करीब 500 मीटर की दूरी पर एक ऐतिहासिक बस्ती है– कस्तूरबा नगर। इस बस्ती का नाम गांधी की जीवनसंगिनी कस्तूरबा बाई के नाम पर रखा गया था। इस बस्ती को आज से करीब 70 साल पहले तत्कालीन सरकार ने दूसरे विश्वयुद्ध में शहीद हुए उन सैनिकों के परिवार के लिए बसाया था जो विभाजन के बाद पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए थे। कस्तूरबा नगर कॉलोनी के सामाजिक आर्थिक परिवेश की बात करें तो यहां 1950 में पाकिस्तान से आए मिलिट्री मैन के परिवारों के लोग रहते हैं, जो मुख्यतः दलित हैं। इनमें सिक्ख दलित भी शामिल हैं। इस कॉलोनी की स्त्रियां दूसरों के घरों में झाड़ू-पोछा करने से लेकर जूठे बर्तन साफ करने तक का काम करती हैं। जबकि पुरुष दिहाड़ी पेशा हैं। यहां हर घर में बीमारी है। कॉलोनी में नालियां गंदगी से भरी पड़ी हैं, जिसे ये लोग खुद ही साफ करते हैं, क्योंकि इस कॉलोनी में सफाईकर्मी नहीं आते हैं। कूड़ा उठाने वाली दिल्ली नगर निगम की गाड़ियां भी पखवाड़े में एक बार आती हैं। वहीं इस कॉलोनी के आगे कुछ सालों पहले खड़े किये गये शिवम एनक्लेव में ऊंची-ऊंची इमारतें हैं, जिनमें वकील, जज, डाक्टर, व्यवसाय जैसे पेशे से जुड़े लोग रहते हैं। इनमें अधिकांश सवर्ण हैं। 

कामगार तो चाहिए पर कॉलोनी के पास गंदी बस्ती मंज़ूर नहीं  

सत्यम एनक्लेव में झाड़ू-पोछा जूठे बर्तन साफ करने का काम करने वाली कस्तूरबा नगर की महिलाएं कहती हैं कि “एनक्लेव में रहने वाले बड़े लोगों के इशारे पर ही हमें कस्तूरबा नगर से उजाड़ा जा रहा है। वे लोग हम दलितों की बस्ती को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। वे कहते हैं कि हमारे कारण उनकी सोसाइटी पर फर्क पड़ता है।” 

कस्तूरबा नगर निवासियों का आरोप है कि रास्ते भर की पर्याप्त जगह थी, लेकिन शिवम एनक्लेव के लोगों को कार खड़ी करने के लिए उस जगह को दीवार से घेरकर कस्तूरबा नगर कॉलोनी को ढंक दिया गया। शिवम एनक्लेव के लोग कहते हैं कि पूरी कस्तूरबा नगर कॉलोनी को हटाओ यहां से, ये गंदे लोग हैं। इनसे सोसाइटी पर फ़र्क़ पड़ता है। पिछले साल पाकिस्तान से लाकर मजनू का टीला में बसाये गये तीन-चार सौ लोगों का जिक्र करते हुए रमेश कौर कहती हैं पाकिस्तान से लाकर लोगों को यहां बसाया जा रहा है, उन्हें नागरिकता दी जा रही है और 70 साल से बसे दलितों को उजाड़कर उनकी नागरिकता छीनी जा रही है। 

अवैध क्या होता है?

जिनके पास अपनी कोई ज़मीन नहीं है, ज़मीन ख़रीदने की हैसिअत नहीं है, वे सब ऐसे ही कहीं-न-कहीं डेरा डालकर रह लेते हैं। इनमें से अधिकांशतः दलित समुदाय के लोग होते हैं, क्योंकि इन्हें सदियों से संपत्ति के अधिकार से वंचित रखा गया। जो थोड़ी बहुत ज़मीन इन्होंने क़ब्ज़ा की, उसे अपने क़ब्ज़े में लेने के लिए उनकी बस्तियों को उजाड़ा जा रहा है और यह काम पूरी दिल्ली में हो रहा है। इसी क्रम में कस्तूरबा नगर कॉलोनी को भी अवैध बताकर थोड़ा-थोड़ा करके तोड़ा जा रहा है। 

घर तोड़े जाने का विरोध करती एक महिला

इस बात को समझने के लिए बहुत समाजशास्त्र की ज़रूरत नहीं है कि जब कोई व्यक्ति, परिवार या समुदाय अपनी ज़मीन से उजड़ता है, तो उसके साथ अस्मिता का संकट तो होता ही है। साथ ही उसके पहचान का संकट भी जुड़ जाता है, क्योंकि पहचान के सारे कागजात ज़मीन व मकान से जुड़े होते हैं।

थोड़ा थोड़ा करके तोड़ रहा डीडीए

इससे पहले पिछले साल अगस्त, 2022 में डीडीए ने कस्तूरबा नगर के निवासियों को घर खाली करने हेतु एक नोटिस जारी किया था। तब कस्तूरबा नगर के निवासियों ने मिलकर एक मामला दिल्ली हाईकोर्ट में दाख़िल किया।  हाईकोर्ट के आदेश से ध्वस्तीकरण को स्थगित कर दिया गया था। जब यह मामला अंतिम रूप ले रहा था तो हाई कोर्ट का आदेश डीडीए के पक्ष में आया। कस्तूरबा नगर के निवासियों ने फिर से दिल्ली हाई कोर्ट की डबल बेंच में यह मामला दाखिल किया। लेकिन इस बार उन्हें कोई राहत नहीं मिली। हाई कोर्ट के न्यायादेश के उपरांत डीडीए ने 18 मई, 2023 को एक नोटिस जारी किया तथा उसमें 21 मई, 2023 तक घर खाली करने का आदेश दिया। साथ ही लोगों को दिल्ली के आश्रय घर में आश्रय देने की बात कही। 

दिल्ली की दलित बस्तियों के लोगों के अधिकार के लिए काम करने वाली एक्टिविस्ट संगीता प्रीत बताती हैं कि यहां दो साल पहले भी डेढ़ सौ झुग्गियों पर बुलडोजर चलाया गया था। लेकिन उनके बग़ल के मकानों को ‘सेफ’ बताकर छोड़ दिया गया था। दो साल पहले जो ‘सेफ’ थे, अब उन्हें ध्वस्त करने की बारी आई है। वे आगे कहती हैं कि जिन्हें आज ग्रीन जोन में डालकर ‘सेफ’ बताया गया है, दो साल बाद उनकी बारी भी आएगी। दरअसल, डीडीए की मंशा लोगों के बीच एकता नहीं बनने देने की है। 

क्या कहते हैं पीड़ित?

मजदूर आवास संघर्ष समिति के संयोजक निर्मल गोराना अग्नि बताते हैं कि इस मामले में एक याचिका 22 मई को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए सूचीबद्ध थी। इससे संबंधित दस्तावेज लेकर अधिवक्ता विनोद एवं निर्मल गोराना डीडीए के अधिकारियों के पास पहुंचे। उन्होंने कहा कि आप थोड़ा इंतजार करें, क्योंकि यह मामला आज सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए सूचीबद्ध है। लेकिन डीडीए के अधिकारियों ने बिना परवाह एवं देरी किए तीन बुलडोजर लेकर तकरीबन 25 परिवारों के घरों को तोड़ दिया। निर्मल आगे बताते हैं कि जब सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 7 दिन के लिए तोडफोड़ न करने के आदेश दिया और यह जानकारी जैसे ही डीडीए के आला अधिकारियों को मौके पर दी गई तो वह सुनने को राजी नहीं थे। निर्मल गोराना ने पुलिस पर आरोप लगाया कि पुलिस ने उनके साथ धक्का-मुक्की की। 

बहरहाल, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के आदेश में कोई हस्तक्षेप नहीं करने की बात कही। लेकिन उसने डीडीए को पुनर्वास के संबंध में नोटिस जारी किया है।

(संपादन : राजन/नवल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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