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लोकतंत्र पर राजदंड का प्रहार

निस्संदेह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अपना विवेक नहीं है। वह आरएसएस के अतीतजीवी एजेंडे पर चलते हैं, और हिंदू राज लाने के लिए इस कदर उतावले हैं कि ब्राह्मणवाद के उत्थान में ही भारत का उत्थान समझते हैं। बता रहे हैं कंवल भारती

विपक्ष ने इसे सबसे बड़ा मुद्दा बनाया, हालांकि बनाना भी चाहिए, कि नई संसद का उद्घाटन राष्ट्रपति से क्यों नहीं कराया जा रहा है? लेकिन इससे भी बड़ा मुद्दा ‘राजदंड’ को स्थापित करने का है, जो लोकतंत्र में हिंदुत्व के पुनरुत्थान का आगाज़ है। इसे विपक्ष ने क्यों अनदेखा कर दिया? विपक्ष इस बात से चिंतित क्यों नहीं हुआ कि राजदंड लोकतंत्र और संविधान दोनों पर प्रहार है? चोल वंश के राजदंड को, जिसका इतिहास में उल्लेख तक नहीं मिलता, लोकतंत्र के भवन में स्थापित किए जाने के विरुद्ध किसी भी विपक्षी दल ने आवाज़ क्यों नहीं उठाई? 

यह बेहद विचारणीय सवाल है, लेकिन इसे समझना मुश्किल नहीं है। इसके दो मुख्य कारण हैं, एक धार्मिक और दूसरा राजनीतिक। धार्मिक कारण यह है कि अधिकांश विपक्षी पार्टियों के नेता हिंदू पृष्ठभूमि से आए हैं, और इसलिए वे अभी भी धर्म को लोकतंत्र से ऊपर समझते हैं। राजनीतिक कारण यह है कि कोई भी विपक्षी दल ब्राह्मण-हितों के खिलाफ जाने का ख्याल तक अपने मन में नहीं रखता है। इन दलों की राजनीति भी दक्षिणपंथी ही है और वाम-दलों का तो कहना ही क्या! वे सिर्फ वर्ग देखते हैं, और वर्गों के निर्माण में ब्राह्मणवाद की क्या भूमिका है, इसे वे न देखते हैं, और न देखना चाहते हैं। कहना अतिरेक नहीं कि वाम-राजनीति का नेतृत्व भी ब्राह्मणों के हाथों में है। इससे भी उनके धर्म के खिलाफ जाने की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसलिए दक्षिण-पंथी और वामपंथी दोनों खेमों में राजदंड की स्थापना को लेकर कोई चिंता नहीं है।

क्या जनता में कोई चिंता है? यह एक और बड़ा सवाल है, लेकिन जरूरी सवाल है। कहा जाता है कि क्रांति जनता करती है। परंतु भारत में अभी उस जनता ने जन्म नहीं लिया है, जिसने रूस में जारशाही को उखाड़ फेंका था। भारत में सबसे बड़ी जारशाही ब्राह्मणशाही है, और भारत की बहुसंख्यक जनता इसी ब्राह्मणशाही के नियंत्रण में रहती है। क्या ब्राह्मणशाही से संचालित, नियंत्रित और शासित जनता क्रांति कर सकती है? क्रांति के लिए जनता का शिक्षित, जागरूक और आत्मनिर्भर होना अनिवार्य है, और भारतीय जनता में ये तीनों ही चीजें नहीं हैं। भारत के ब्राह्मण शासकों ने सदैव इस बात का ध्यान रखा कि जनता जितनी अशिक्षित होगी, उतनी ही बेरोजगार होगी, और जितनी बेरोजगार होगी, उतनी ही भूखी भी होगी। भूखी जनता रोटी की दरकार रखती है। रोटी पाते ही खुश होकर करवट बदलकर सो जाती है। ऐसी जनता की न अपनी कोई सोच होती है, और न वह अपनी कोई सोच बना सकती है। ऐसी ही जनता धर्म और जाति के दायरों में विभाजित होकर धार्मिक और राजनीतिक नेताओं की अंधभक्त बनकर पीछे-पीछे चलती है। इन नेताओं की सोच ही जनता की सोच बन जाती है, और जनता आंख मूंदकर उनके ही आदेशों का पालन करती है। ये नेता क्रांति-विरोधी होते हैं, इसलिए जनता भी क्रांति-विरोधी होती है। 

गत 28 मई्, 2023 को नये संसद भवन के उद्घाटन के मौके पर राजदंड ‘सेंगोल’ को साष्टांग प्रणाम करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गवाह बने ब्राह्मण साधु

नेता और जनता की इसी पृष्ठभूमि में धर्म फलता-फूलता है, और लोकतंत्र सिर्फ न्यायालय के भरोसे रह जाता है। न्यायालय लोकतंत्र का तीसरा स्तंभ माने जाते हैं, पर वे स्वयं से सत्ता की कार्यप्रणाली में दखल नहीं देते, जब तक कि उनके सामने मामला विचार के लिए न लाया जाए। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पत्रकारिता को माना जाता है। लेकिन भारत के अधिकांश मुख्य राष्ट्रीय अखबार और न्यूज चैनल सत्ता-प्रतिष्ठान के हाथों में हैं, जिनके लिए वही लिखना और वही दिखाना पत्रकारिता है, जो सत्तारूढ़ भाजपा चाहती है। भाजपा के मोदी राज के खिलाफ कोई भी सवाल उठाना इस पत्रकारिता के धर्म में नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्देश पर उठती-बैठती पत्रकारिता से नई संसद में राजदंड की स्थापना का विरोध करने की उम्मीद नहीं की जा सकती। उससे तो यह भी अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह अधनंगे, लिपे-पुते अजीबोगरीब वेशधारी ब्राह्मण साधुओं की अगुआई में उद्घाटन पर सवाल खड़ा करेगी। जब भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने एक सौ एक ब्राह्मणों के पैर धोकर उनकी पूजा-अर्चना करके पद ग्रहण किया था, तो तत्कालीन मीडिया में उसका विरोध भी हुआ था और उसे लोकतंत्र के लिए अनुचित कहा गया था। लेकिन आज की मीडिया संसद में ब्राह्मणों की उपस्थिति और मोदी द्वारा ब्राह्मणों की पूजा-अर्चना को भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान के रूप में मोदी की महान उपलब्धि का गुणगान कर रही है।

जब विपक्षी दलों, जनता और मीडिया की यह स्थिति है कि वह मोदी की ब्राह्मणशाही का विरोध नहीं कर सकते, तो फिर विरोध करेगा कौन? हालांकि ऐसा नहीं है कि विरोध नहीं हो रहा है, विरोध हो रहा है, लेकिन यह विरोध इतना ताकतवर नहीं है कि उससे मोदी की ब्राह्मणशाही पर कोई असर पड़े। यह कुछ लोकतांत्रिक बुद्धिजीवियों का विरोध है, जो संविधान के समर्थक हैं। इनकी संख्या बहुत अधिक नहीं है और एक बड़ा राजनीतिक आधार भी इस संख्या के पास नहीं है। हालांकि दलित-पिछड़ी जातियों की राजनीति से जुड़े दल इनका राजनीतिक आधार बन सकते थे, लेकिन वे स्वयं ब्राह्मण-देवता परशुराम की शरण में गए हुए हैं। बसपा ने अपने हाथी को गणेश बना दिया है, और सपा मुखिया ब्राह्मण-पूजा-अर्चना करते ही रहते हैं। इसलिए यह कहना कदाचित गलत नहीं होगा कि ब्राह्मणशाही के प्रतीक राजदंड के खिलाफ लोकतंत्र और संविधान-समर्थकों को किसी राजनीतिक दल का साथ नहीं मिलने वाला। 

सवाल यह है कि क्या राजदंड की स्थापना से भारतीय संस्कृति का पुनर्स्थापन हुआ है, या यह ब्राह्मण-संस्कृति को और मजबूत करने की दिशा में सत्ता-बल से किया गया प्रयास है? पहले इसे भारतीय संस्कृति का प्रतीक कहने वाले बकवादियों की दलीलें देख लेते हैं। ऐसे असंख्य बकवादी आरएसएस और भाजपा ने तैयार करके छोड़े हुए हैं, जो अखबारों के संपादकीय पृष्ठों पर और टीवी-चैनलों पर अपनी इकतरफा बेसुरी डफली बजाते रहते हैं। ऐसे दो बकवादियों के लेख ‘अमर उजाला’ (28 मई 2023) ने अपने संपादकीय पृष्ठ पर छापे हैं। इनमें एक हैं बलवीर पुंज, जिन्होंने अपना लेख ‘भारत के सांस्कृतिक पुनर्स्थापन का प्रतीक’ नाम से लिखा है; और दूसरे हैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के पूर्व कुलपति कपिल कपूर, जिन्होंने मोदी और हिंदुत्व की प्रशंसा में अपनी कलम तोड़ दी है। इनका लेख ‘नव सभा सदन और धर्मदंड सेंगोल’ शीर्षक से छपा है। पहले इनकी ही दलील को देखते हैं। कपिल कपूर ने लिखा है, “26 मई, 2014 को शपथ ग्रहण के बाद, नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने। विनम्रता की साक्षात मूर्ति, उन्होंने पहले अविलम्ब निर्धनों और वंचितों के लिए, निर्धन स्त्रियों, असंगठित मजदूरों, लड़कियों और सभी निर्धन बच्चों के लिए, जो शिक्षा चाहते थे, सब कुछ किया। इसके अतिरिक्त बिना वर्ण, जाति, पंथ का भेद किए किसानों और मजदूरों के लिए अनेक योजनाएं आरंभ कीं। उन्होंने निस्संकोच गंगा-आरती करके, तथा अपने वचनों-कर्मों के द्वारा अपनी पात्रता घोषित की कि वह राजा नहीं, अपितु एक सेवक हैं, जो झुककर बड़ों, संतों और स्त्रियों के पैर छूता है। जनता के आदमी के रूप में उन्हें सार्वभौमिक मान्यता मिली।” कपिल कपूर मोदी-वंदना करते हुए जंतर-मंतर पर बैठी पहलवान बेटियों को भूल गए, जिनके साथ भाजपा सांसद ने यौन-हिंसा की। उन्होंने यह नहीं बताया कि स्त्री-हितैषी, दलित-हितैषी मोदी उस बलात्कारी को क्यों संरक्षण दिए हुए हैं? क्यों वह अपना वचन-कर्म भूल गए?

कपिल कपूर आगे लिखते हैं, “प्रधानमंत्री जब नए जन सभा सदन का अनावरण करेंगे, तो वह इतिहास की परतों को भी हटाएंगे और भारत की ‘बहुसंख्य जनता’ को भी पुनर्स्थापित करेंगे, जो उसकी नैसर्गिक उत्तराधिकारी है। ‘हिंदू राजनीति’ बेबीलोन सभ्यता जितनी ही या उससे भी पुरानी है, जो केवल एक शब्द के संविधान ‘धर्म’ से चलती रही है। बर्बरों के बार-बार हमलों ने इस राजनीति को तोड़ा और एक जानी-मानी महान सभ्यता को सुषुप्ति में डाल दिया।” असली बकवाद इसी कथन में है। इसमें पहला बकवादी शब्द है ‘बहुसंख्य जनता’। यह भाजपा की राजनीति में हिंदुओं के लिए प्रयुक्त होता है। आरएसएस और भाजपा के लोग ईसाईयों और मुसलमानों के सापेक्ष शेष सब को हिंदुओं में गिनकर उन्हें बहुसंख्यक मानते हैं। यह हिंदुत्व की वोट-राजनीति का शब्द है, जिसमें सिर्फ वोट के लिए दलित, पिछड़े और आदिवासी हिंदू हैं, जबकि हिंदू समाज में वे हमेशा अछूत और गैर-हिंदू हैं। वह यह भी कहते हैं कि मोदी राजदंड के द्वारा इसी बहुसंख्यक अर्थात हिंदू जनता को पुनर्स्थापित करेंगे, जो उसका नैसर्गिक उत्तराधिकारी है। इसका मतलब है कि नई संसद में केवल हिंदुओं के साथ (और वह भी द्विजों के साथ) न्याय किया जाएगा, अन्य अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को अन्याय का सामना करना पड़ेगा। कपिल कपूर का दूसरा शब्द ‘हिंदू राजनीति’ का है, जिसे वह बेबीलोन सभ्यता जितनी पुरानी बताते हैं। लेकिन वह यह भूल जाते हैं कि वह बात राजनीति की कर रहे हैं, सभ्यता की नहीं। हिंदू शब्द मुस्लिम काल में भारत में मुसलमानों ने दिया, न कि यह शब्द ब्राह्मणों के किसी धर्मग्रंथ में; न वेदों में, न रामायण में, न गीता में और न मनुस्मृति में आया है। फिर हिंदू राजनीति बेबीलोन सभ्यता जितनी पुरानी कैसे हो गई? असल में हिंदू राजनीति से कपिल कपूर का आशय हिंदू राजतंत्रों से है, जिसके बारे में वह तीसरी बात में कहते हैं कि वह ‘एक शब्द के संविधान धर्म’ से चलती रही है। निश्चित रूप से यह धर्म ‘मनुस्मृति’ है, जिससे हिंदू राजतंत्र चलते रहे हैं। लेकिन ब्राह्मणवादी कपूर ने यह स्मरण नहीं किया कि इस एक शब्द के संविधान हिंदू राजतंत्रों में शूद्रों के साथ कितना अमानवीय व्यवहार किया जाता था? क्या ऐसी सभ्यता को महान कहा जा सकता है? जब वह यह कहते हैं कि इस सभ्यता को बर्बर हमलावरों ने सुषुप्ति में डाल दिया था, तो वह पूरी तरह लोकतंत्र-विरोधी हो गए हैं और उस राजतंत्र को अपने धर्म के लिए महान बता रहे हैं, जो द्विजों का राज था। यह पेशवाओं का ही राजतंत्र था, जिसने दलित जातियों को कमर में झाड़ू और गले में मटकी लटका कर चलने की राज्याज्ञा जारी की थी। क्या यह महान सभ्यता थी या शैतान सभ्यता थी? इसलिए सच तो यह है कि यह देश की दलित-पिछड़ी जनता के हित में अच्छा ही हुआ था, जो मुगलों और अंग्रेज शासकों के कारण वह समाप्त हो गई थी, अन्यथा भारत में कभी लोकतंत्र कायम नहीं हो पाता। 

अपने लेख का समापन कपिल कपूर इन शब्दों से करते हैं, “जब वर्तमान प्रधानमंत्री को, जो भारत के अतीत की खोज में थे, यह बताया गया, तो उन्होंने महसूस किया कि सेंगोल न्यायोचित शासन-पद्धति का पवित्र प्रतीक है। उसे बड़े पुरोहितों ने अभिषिक्त किया था। उसके साथ शताब्दियों के आशीर्वाद थे, जो धर्मनिष्ठा का महत्व और भारतीय सभ्यता की शक्ति दर्शाता था, जो महान चोल शासकों में व्यक्त हुआ था। अत: प्रधानमंत्री ने निश्चय किया कि आज़ादी के अमृत महोत्सव के अंग के रूप में 14 अगस्त, 1947 की वह घटना दोहराई जाए। लोकसभा अध्यक्ष के आसन के पास स्थापित होकर सेंगोल नव सभा सदन को निरंतर गरिमामय बनाता रहेगा और इस तरह, हानि और पुनरुत्थान का चक्र अपना वृत्त पूरा करेगा।” यहां कपूर यह कहना चाहते हैं कि जो भी गरिमा है, वह हिंदू राजतंत्र के प्रतीक के साथ है, अन्य किसी के साथ नहीं; बौद्ध प्रतीक के साथ भी नहीं, जैन प्रतीक के साथ भी नहीं और सिख प्रतीक के साथ भी नहीं। उनकी अंतिम पंक्ति पर गौर कीजिए कि सेंगोल पुनरुत्थान का चक्र पूरा करेगा। यानी आरएसएस हिंदुत्व और राजतंत्र आधारित जो हिंदू राष्ट्र कायम करना चाहता था, और जिसका स्वप्न उसके आदर्श नायक विनायक दामोदर सावरकर ने देखा था, वह प्रतीक-रूप में सही, कायम हो गया।

अब बलवीर पुंज (राज्यसभा के पूर्व सदस्य और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष) की बकवाद को लेते हैं। वह आरंभ में ही हिंदुत्व का राग अलापते हुए लिखते हैं, “देश के नए संसद भवन का उद्घाटन है। इसमें चोल साम्राज्य के जिस सेंगोल की चर्चा हो रही है, उसका सदियों की गुलामी के पश्चात स्वाधीनता की पूर्व संध्या पर उदय, फिर उसका साढ़े सात दशक तक विस्मृत होना और अब आज़ादी के अमृत महोत्सव में उसका प्रकटीकरण – वह भारत की विचारयात्रा का प्रतिनिधित्व करता है।” बलवीर पुंज याद दिला रहे हैं कि भारत की आज़ादी के समय यह राजदंड दिया गया था, ताकि स्वतंत्र भारत में हिंदू राज कायम हो। लेकिन उसे विस्मृत कर दिया गया (क्योंकि भारत के राष्ट्र-निर्माताओं ने उसे अस्वीकार करके लोकतंत्र को पसंद किया था), और 75 साल के बाद हिंदू सम्राट नरेंद्र मोदी ने उसे खोजकर स्थापित कर दिया। लोकतंत्र विरोधी और हिंदूराज के समर्थक बलवीर पुंज इस राजदंड से कितना खुश हो रहे हैं। लेकिन पुंज जी, यह राजदंड अगर हिंदू राज का प्रतीक है, तो यह वास्तव में द्विजों की आज़ादी और शूद्रों की गुलामी का भी प्रतीक है, क्योंकि किसी भी हिंदू राजतंत्र में शूद्रों को आज़ादी प्राप्त नहीं थी। इसलिए, शूद्रों की गुलामी के इस प्रतीक को संसद भवन में स्थापित करने का अर्थ है कि शासक को सदैव द्विजों के विकास और शूद्रों के हनन का लक्ष्य स्मरण रहे।

आगे बलवीर पुंज नेहरू शासन को कोसते हुए आरएसएस और भाजपा के सनातन एजेंडे पर आ जाते हैं। वे लिखते हैं, “भारतीय शासकीय व्यवस्था का अपनी संस्कृति से विच्छेदन तब प्रारंभ हुआ, जब पंडित नेहरू के आशीर्वाद और कालांतर में इंदिरा गांधी के राजनीतिक समझौते (1969-71) से वे वामपंथी देश के महत्वपूर्ण पदों तक पहुंच गए, जिनका वैचारिक लक्ष्य भारतीय सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करना है। इसी चिंतन से प्रेरित होकर वामपंथियों ने भारत का विभाजन कर पाकिस्तान के जन्म में महती भूमिका निभाई। इसी दर्शन से देश का ‘टुकड़े-टुकड़े’ गैंग प्रेरणा पाता है। जब वामपंथ-प्रदत्त समाजवादी नीतियों के कारण 1970-80 के दशक में भारत रसातल में पहुंच गया, तब वामपंथी अर्थशास्त्री रामकृष्ण ने तत्कालीन भारतीय आर्थिकी की त्रासिक दशा के लिए सनातन संस्कृति को जिम्मेदार ठहराते हुए ‘हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ’ शब्द को जन्म दे दिया। इसी वामपंथ अभिशप्त राजनीतिक-वैचारिक दर्शन ने ‘राजदंड’ की सांस्कृतिक प्रतिष्ठा को प्रयागराज संग्रहालय स्थित धूल भरे बक्से में पं. नेहरू की ‘चलने में सहायक स्वर्ण छड़ी’ के रूप में संकुचित कर दिया।”

इस कथन में बलवीर पुंज ने इस कदर झूठ का पुंज प्रस्तुत किया है कि लगता ही नहीं, कि वह सच भी बोलते हैं। अगर नेहरू राजदंड को छड़ी के रूप में इस्तेमाल करते थे, तो उस राजदंड के सहारे चलते हुए नेहरू का कोई चित्र उपलब्ध होना चाहिए। क्यों उपलब्ध नहीं है? किसी भी तो फोटोग्राफर ने उनका उस छड़ी को लेकर चलते हुए की स्थिति में फोटो खींचा होगा। कहां है वह फोटो? असल में पुंज को और आरएसएस-भाजपा को नेहरू के वामपंथी होने का दुःख है, और यह भी कि उन्होंने राजदंड को संसद में स्थापित न करके संग्रहालय में क्यों धूल फांकने के लिए रखवा दिया? यह पुंज का ही मानसिक विकार नहीं है, बल्कि समूची भगवा बिग्रेड का मानसिक विकार है कि वह समानता और वैज्ञानिक सोच को पसंद नहीं करता। जिस तरह राजदंड को लेकर सारे भाजपाई और संघी पाखंड की हद तक ब्राह्मणधर्म की शरण में चले गए हैं, उनका दुःख है, कि उस तरह नेहरू क्यों नहीं गए? क्यों नेहरू ने ब्राह्मण-धर्म के प्रतीक को लोकतंत्र के लिए घातक समझा और उसे अजायबघर में रखवा दिया? पुंज कह रहे हैं कि समाजवादी नीतियों के कारण 1970-80 के दशक में भारत रसातल में चला गया था। यह कहकर वह उस दौर में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के गरीबी हटाओ कार्यक्रम, बैंकों के राष्ट्रीयकरण और सरकारी नौकरियों में दलित जातियों के विशेष भर्ती-अभियान को देश के पतन का कारण मान रहे हैं। यह है आरएसएस, भाजपा और भगवा बिग्रेड का असली चरित्र, जो घोर दलित और गरीब-विरोधी है। बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने गरीबों, दलितों और छोटे किसानों के आर्थिक विकास का मार्ग खोला था, और उसी दौरान विशेष भर्ती द्वारा दलित जातियों को सरकारी नौकरियां मिली थीं। अगर उस दौर में भाजपा सत्ता में होती, तो न बैंकों का राष्ट्रीयकरण होता और न दलितों को नौकरियां मिलतीं। तब खुला खेल ब्राह्मणवादी होता, और आज की तरह द्विजों का ही चहुंमुखी विकास होता रहता। समाजवाद का विलोम ब्राह्मणवाद है। आरएसएस और भाजपा चूंकि ब्राह्मणवादी हैं, इसीलिए उन्हें समाजवाद अर्थात समानता की नीतियां पसंद नहीं हैं।

पुंज ने भी अपने लेख का अंत लगभग उसी अनर्थ में किया है, जिस अनर्थ में कपिल कपूर ने किया है। चक्र शब्द भी दोनों में समान रूप से एक ही अर्थ में आया है, जिससे मालूम होता है कि एक खास गाइडलाइन दोनों को एक ही ‘कंट्रोल-रूम’ से मिली है। पुंज लिखते हैं, “आज वामपंथी देश में हाशिए पर हैं, जिसका परिणाम यह है कि भारत, जो सनातन संस्कृति से प्रेरणा लेकर पहली शताब्दी में 17वीं सदी तक दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था, आज विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक-सामरिक शक्तियों में से एक है। स्वतंत्रता की पावन बेला पर आयोजित अनुष्ठान में जिस ‘सेंगोल’ का उपयोग हुआ था, वह भारत की पवित्र परंपराओं और शासक की लौकिक जिम्मेदारियों के बीच संबंध का प्रतिनिधित्व करता है। उस राजदंड को साढ़े सात दशक की उपेक्षा के बाद नए संसद भवन में सभापति आसन के निकट स्थापित किया जाना है, जिसके संपन्न होते ही एक चक्र भी पूरा हो जाएगा।”

बलवीर पुंज और कपिल कपूर, दोनों इस बात पर प्रसन्न हैं कि राजदंड की स्थापना से हिंदू-राज का एक चक्र पूरा हो गया। अब हिंदू-राज को संवैधानिक रूप से अमल में लाने का दूसरा चक्र बाकी है। नए संसद भवन में मौजूद सारे ब्राह्मण, अधनंगे, लिपेपुते, जटाजूटधारी पंडे पुजारी अपने आगे लोकतंत्र के प्रधानमंत्री मोदी को दंडवत मुद्रा में लंबा-लंबा लेटे हुए देखकर प्रसन्न-भाव से दोनों हाथ उठाकर उन्हें दूसरे चक्र में हिंदू राज का संविधान लागू करने का ही आशीर्वाद दे रहे थे। आज के दिन वैज्ञानिक सोच वाले लोकतंत्र-समर्थक पं. नेहरू को कोसा जा रहा है, और सिर से पांव तक अंधविश्वास और पाखंड में डूबे ब्राह्मणों के आगे समर्पित नरेंद्र मोदी की जय-जयकार की जा रही है। 

अख़बारों में राजदंड के बारे में कुछ और भी दिलचस्प बातें छपी हैं। कहा गया है कि राजदंड हर प्रकार से शुभ है। अगर यह हर प्रकार से शुभ है, और इससे कोई अशुभ हो ही नहीं सकता, तो चोल वंश का पतन क्यों हो गया? इससे बड़ा अशुभ और क्या हो सकता है कि जिस चोल साम्राज्य ने इस राजदंड को धर्म-दंड के रूप में स्थापित किया, उसका ही पतन हो गया। शायद यही कारण रहा होगा कि चोलों के सिवाय भारत के अन्य हिंदू राजतंत्रों में इस राजदंड को स्थापित नहीं किया गया, अन्यथा इतिहास में उसका प्रमाण मिलता। 

आरएसएस के प्रचारक-विचारक राम माधव ने अपने लेख ‘दि सुप्रीम ऑथोरिटी’ (इंडियन एक्सप्रेस, 29 मई, 2023) में लिखा है कि “ब्राह्मणों के इस धर्म-दंड के आगे संविधान भी कोई मायने नहीं रखता। यह सर्वोच्च सत्ता है।” फिर इस सर्वोच्च सत्ता ने मुस्लिम शासकों और अंग्रेजों के आगे समर्पण क्यों कर दिया? भाजपा की आई. टी. सेल से भी कई संदेश निकले, जिनमें एक यह है : “सेंगोल का पुन: सत्तर साल बाद प्रकट होना इस बात का सबूत है कि उत्तर पेशवाई शक्तिशाली हो रही है और देवता हमारे साथ हैं। यह भारत में सड़ रहे लोकतंत्र को हटाकर, राजकीय (राजतंत्रीय) शक्तियों को पुन: जाग्रत करेगा।” लेकिन इनसे कोई यह पूछे कि ब्राह्मणों के देवता पेशवाओं को छोड़कर तब क्यों भाग गए थे, जब 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने पेशवा राज को कुचल दिया था? 

निस्संदेह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अपना विवेक नहीं है। वह आरएसएस के अतीतजीवी एजेंडे पर चलते हैं, और हिंदू राज लाने के लिए इस कदर उतावले हैं कि ब्राह्मणवाद के उत्थान में ही भारत का उत्थान समझते हैं। हिंदू राष्ट्र के सिवा उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता, पीड़ितों की चीखें भी उन्हें सुनाई नहीं देतीं, और अन्य बुद्धिजीवियों की आवाजें तो उन्हें देशद्रोही लगती हैं, जिन्हें दबाने में उन्होंने बड़ी संख्या में लोकतंत्र-समर्थकों को जेल में डाल रखा है। मुसलमानों के खिलाफ उनके हिदू उन्माद ने पूरे देश में नफरत की आग भड़का दी है, और भाजपा-शासित राज्यों में मुसलमानों, ईसाईयों, दलितों तथा आदिवासियों के खिलाफ दमन-चक्र जिस क्रूरता से चल रहा है, उससे वह ब्राह्मणों के चहेते जरूर बने हुए हैं, पर आम जनता की मूर्च्छा भी हमेशा बनी रहने वाली नहीं है। वह एक दिन अवश्य टूटेगी, और एक दिन आएगा, जब मोदी का हिंदू उन्माद भारत में गृहयुद्ध के रूप में एक भारी तबाही का कारण बनेगा। 

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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