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‘ग’ से गांधी और गीता प्रेस, हम दलित-बहुजनें के वास्ते क्या?

हिंदू कोड बिल पर तमाम हिंदूवादी संगठनों ने डॉ. आंबेडकर का विरोध किया। उनके घर के सामने प्रदर्शन हुए। इसमें गीता प्रेस गोरखपुर के प्रतिनिधि भी शामिल थे। मुख्तसर, गीता प्रेस हिंदू पुनरुत्थानवादी, वर्णवादी और पितृसत्तात्मक व्यवस्था की पोषक और समर्थक रही है। बता रहे हैं प्रो. रविकांत

केंद्र सरकार ने वर्ष 2023 का गांधी शांति सम्मान गीता प्रेस को देने का निर्णय लिया है। अपने शताब्दी वर्ष में गीता प्रेस को यह ‘उपलब्धि’ हासिल हुई है। 1923 में जयदयाल गोयनका और हनुमान प्रसाद पोद्दार ने गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना की थी। हिंदू धर्म ग्रंथों को छापना और सस्ती दरों पर उपलब्ध कराना इसका लक्ष्य था। यानी गीता प्रेस घोषित रूप से हिंदू पुनरुत्थान के लिए समर्पित था। हिंदू धर्म ग्रंथ मिथकों में पिरोई गई आचार संहिता हैं। यहआचार संहिता वर्ण-जाति और पितृसत्ता को मजबूत करती है। इसका मकसद है स्त्रियों, शुद्रों और दलितों की उत्पीड़नकारी मनुवादी व्यवस्था को बनाए रखना। इसलिए डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि वर्ण और जाति व्यवस्था को बनाए रखने के पीछे धर्म ग्रंथों की वैधानिकता है। इसके जरिए वर्ण-जाति व्यवस्था और असमानता, भेदभाव को ईश्वरीय मान्यता प्रदान की गई है। इसीलिए डॉ. आंबेडकर ने 25 दिसंबर, 1927 को सार्वजनिक तौर पर मनुस्मृति का दहन किया था। उन्होंने यह भी कहा था कि हिंदू धर्म ग्रंथों को विस्फोटक से उड़ा देना चाहिए।

औपनिवेशिक व्यवस्था में ईसाई मिशनरियों, अंग्रेजी शिक्षा के जरिए दलितों, शूद्रों और स्त्रियों को पराधीनता का अहसास हुआ। उनमें किंचित चेतना पैदा हुई। वे हिंदू धर्म ग्रंथों में पसरे पाखंड, अंधविश्वास और शोषण के सूत्रों की पड़ताल करने लगे। ब्राह्मणवादी द्विजों को हिंदुत्व खतरे में लगने लगा। हिंदुत्व यानी वर्ण व्यवस्था और पितृसत्ता को मजबूत बनाए रखने के लिए अनेक संगठन और संस्थाएं खड़ी की गईं। गीता प्रेस ऐसी ही संस्था है। 

इसके बरक्स डॉ. आंबेडकर वैचारिक और सामाजिक आंदोलन के जरिए देश में समता और न्याय के अगुआ बने। विदेश से पढ़ाई करके लौटे डॉ. आंबेडकर ने  बड़ौदा रियासत में सेना सचिव  और बंबई के सिडेनहम कॉलेज में प्रोफेसरी जैसी बड़ी नौकरियां छोड़कर दलितों की आजादी को अपना लक्ष्य बनाया। दलितों की सामाजिक गुलामी और प्रताड़ना से मुक्ति के लिए वे 1920 के दशक में सक्रिय हुए। पानी पीने के अधिकार के लिए महाड़ आंदोलन किया। फिर मंदिर प्रवेश आंदोलन के जरिए उन्होंने दलितों में चेतना पैदा की। इसके जरिए उन्होंने दलितों में एकजुट होकर संघर्ष करने का साहस पैदा किया। इसके अलावा गोलमेज सम्मेलन में दलितों को एक राजनीतिक ताकत के रूप में पहचान दिलाने में वे कामयाब हुए। 

गीता प्रेस, गोरखपुर की मुख्य इमारत

दलितों को पृथक सामाजिक और राजनीतिक ताकत के रूप में रेखांकित करने के कारण गांधी और उनके समर्थक डॉ. आंबेडकर का विरोध कर रहे थे। दलितों के पृथक निर्वाचन के अधिकार के खिलाफ जब गांधी ने यरवदा जेल में आमरण अनशन किया तो डॉ. आंबेडकर और अन्य दलितों को बदले की चेतावनी दी गई। दूसरी तरफ डॉ. आंबेडकर द्वारा हिंदू धर्म और उसके ग्रंथों की आलोचना के विरोध में हिंदू पुनरुत्थानवादी और कट्टरपंथी बेहद आक्रामक थे। 

संविधान निर्माता के तौर पर, ब्राह्मणवादियों के लिए डॉ. आंबेडकर असहनीय थे। रामराज्य परिषद के करपात्री ने बेहद अपमानजनक भाषा में उनकी आलोचना की। हिंदू कोड बिल पर तमाम हिंदूवादी संगठनों ने उनका विरोध किया। उनके घर के सामने प्रदर्शन हुए। इसमें गीता प्रेस गोरखपुर के प्रतिनिधि भी शामिल थे। मुख्तसर, गीता प्रेस हिंदू पुनरुत्थानवादी, वर्णवादी और पितृसत्तात्मक व्यवस्था की पोषक और समर्थक रही है।

हनुमान प्रसाद पोद्दार ने महात्मा गांधी से रिश्ते जोड़े। वर्ष 1926 में जमना लाल बजाज के साथ हनुमान पोद्दार गांधी से मिलने पहुंचे। वह ‘कल्याण’ पत्रिका के लिए गांधी का आशीर्वाद चाहते थे। गांधी ने उन्हें दो सुझाव दिए कि पत्रिका में विज्ञापन और पुस्तक समीक्षा नहीं छापें। इस सुझाव का अनुपालन आज भी कल्याण पत्रिका में होता है। गीता प्रेस की तरह गांधी भी सनातन की बात करते थे। लेकिन गांधी सनातन को समावेशी बनाना चाहते थे। इसीलिए वे वर्ण व्यवस्था से असमानता और भेदभाव को दूर करना चाहते थे। गांधी ने अस्पृश्यता को दूर करने और दलितों को हिंदू धर्म के भीतर समाहित करने के लिए सुधार आंदोलन चलाया। हनुमान प्रसाद पोद्दार और गीता प्रेस गांधी के इस विचार और प्रयास के खिलाफ थे। गीता प्रेस वर्ण व जाति व्यवस्था के साथ अस्पृश्यता का भी कट्टर समर्थक रहा है। उसके विचार से अस्पृश्यता पूर्व जन्म के पापों का फल है। इसका पालन अनिवार्य है। इस मुद्दे पर हनुमान प्रसाद पोद्दार के गांधी से मतभेद बढ़ते गए। 

गीता प्रेस द्वारा गांधी के समाज सुधार कार्यक्रमों की तीखी आलोचना की गई। मंदिर प्रवेश आंदोलन और पूना पैक्ट के संदर्भ में हनुमान प्रसाद पोद्दार और गीता प्रेस ने गांधी की कटु आलोचना की। गौरतलब है कि गोलमेज सम्मेलन और पूना पैक्ट (1932) के बाद दलितों के बारे में गांधी के विचारों में परिवर्तन हुआ। उन्होंने हरिजन उद्धार आंदोलन शुरू किया। ब्राह्मणवादी द्विज और हिंदुत्ववादी संगठन गांधी के इस प्रयास से बौखला उठे। 1935 में हुए गांधी पर पहले शारीरिक हमले के पीछे यही कारण था। इसके बाद धीरे-धीरे गांधी का जाति व्यवस्था से मोहभंग होने लगा। वे डॉ. आंबेडकर से प्रभावित होते हैं। अपने जीवन के आखिरी सालों में गांधी अंतरजातीय विवाह के पक्षधर बने। 

बहरहाल, गांधी का सनातन सर्व धर्म समभाव और दलित मुक्ति के भाव से समृद्ध था। हिंदू कट्टरपंथी और पुनरुत्थानवादी इसके खिलाफ थे। गांधी पर छह हमले हुए। अंतत: 30 जनवरी, 1948 को दिल्ली के बिड़ला हाउस में नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या की। मुकदमे के दौरान गोडसे ने बताया कि पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिए जाने के कारण वह गांधी से नाराज़ था। पूछा जा सकता है कि पाकिस्तान बनने से पूर्व पिछले पांच हमलों का कारण क्या था? 

दरअसल, इसकी वजह गांधी का दलित मुक्ति का प्रयास ही था। ध्यातव्य है कि गांधी की हत्या के आरोप में हनुमान प्रसाद पोद्दार भी गिरफ्तार हुए थे। इसकी पुष्टि हो चुकी है कि गांधी की हत्या के दिन पोद्दार दिल्ली में ही मौजूद थे। इतना ही नहीं, गांधी की हत्या के आरोपी एम.एस. गोलवलकर जेल से छूटकर जब बनारस पहुंचे तो उनका स्वागत हनुमान प्रसाद पोद्दार ने ही किया। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि गांधी की हत्या के आरोपी हनुमान प्रसाद पोद्दार की संस्था गीता प्रेस को गांधी अंतरराष्ट्रीय शांति पुरस्कार दिया जाना कितना उचित है?

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

रविकांत

उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के दलित परिवार में जन्मे रविकांत ने जेएनयू से एम.ए., एम.फिल और लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की डिग्री हासिल की है। इनकी प्रकाशित पुस्तकों में 'समाज और आलोचना', 'आजादी और राष्ट्रवाद' , 'आज के आईने में राष्ट्रवाद' और 'आधागाँव में मुस्लिम अस्मिता' शामिल हैं। साथ ही ये 'अदहन' पत्रिका का संपादक भी रहे हैं। संप्रति लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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