h n

प्रेमचंद के नाम पर रगड़ा

प्रसिद्ध साहित्यकार प्रेमचंद को लेकर हिंदी साहित्य जगत में बीते दिनों उनकी गरीबी-अमीरी चर्चित रही। इसी बहाने दलित और गैर-दलित साहित्यकारों ने उनके लेखन की समीक्षा भी की। पढ़ें, सोशल मीडिया पर इस संदर्भ में उठे बवाल और कुछ जवाब। प्रस्तुति सुशील मानव की

शोध समवाय, हिंदी विभाग, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) ने ‘लेखक के घर चलो-2’ मुहिम के अंतर्गत गत 31 मई 2023 को लमही स्थित प्रेमचंद के घर में प्रेमचंद कला उत्सव का आयोजन किया। इसके तहत लमही स्थित प्रेमचंद के पैतृक गृह परिसर में भ्रमण, ‘प्रेमचंद पथ’ पत्रिका का लोकार्पण, ‘रंगभूमि’ का नाट्य मंचन, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘ईदगाह’, ‘सद्गति’ आदि कहानियों का पाठ और संगीत प्रस्तुति हुई। 

कार्यक्रम की रूपरेखा बीएचयू के हिंदी विभाग के अध्यक्ष सदानंद शाही ने तैयार किया। इस कार्यक्रम के अंतर्गत यूनिवर्सिटी के छात्रों को कथाकार प्रेमचंद के घर ले जाया गया। युवा कवि और शोधार्थी विहाग वैभव भी सबके साथ प्रेमचंद के घर गए। प्रेमचंद का घर और उनसे जुड़ी चींजे देखकर विहाग के मन में ‘प्रेमचंद के ग़रीब होने’ की धारणा टूटी। उन्होंने 31 मई, 2023 को फेसबुक पर तीन पोस्ट्स के जरिए लिखा कि “प्रेमचंद आर्थिक रूप से संपन्न थे। प्रेमचंद की ग़रीबी को ग्लोरीफाई करना इस देश के ग़रीबों का अपमान है। प्रेमचंद जी का घर देखा। हमारे लोगों के लिए वह घर आज भी पूरे जीवन का सपना है। प्रेमचंद का संघर्ष तत्कालीन मध्यवर्ग का संघर्ष है।” 

विहाग वैभव के पोस्ट के जवाब में जाने-माने समालोचक वीरेंद्र यादव ने अपनी टिप्पणी में लिखा– “कमल किशोर गोयनका और शैलेश जैदी अपने शोध द्वारा इस मुद्दे को पहले ही निःशेष कर चुके हैं। आप कोई नया रहस्योद्घाटन नहीं कर रहे हैं। उऩके लेखकीय संघर्ष के बारे में जानना चाहते हैं तो उनकी दो खंडों में ‘चिट्ठी पत्री’ पढ़िए, जो उन्होंने अपने मित्रों को लिखी हैं।” 

इसी पोस्ट पर कवि व पत्रकार विमल कुमार प्रेमचंद के आर्थिक संपन्नता का हवाला देकर अपनी प्रतिक्रिया में लिखते हैं कि “उस ज़माने में 1800 रुपए रॉयल्टी और हमदर्द में एक कहानी छपने पर सोने की गिन्नी मिलना ग़रीबी की निशानी नहीं। परसाई के फटे जूते से लोगों की राय बनी की प्रेमचंद ग़रीब थे। पर उस ज़माने में 7 हजार रुपए बेटी को दहेज देने वाला ग़रीब तो नहीं था।” 

वरिष्ठ साहित्य आलोचक चौथीराम यादव ने इस मसअले पर फेसबुक पर सिर्फ़ एक वाक्य लिखा है– “क्या प्रेमचंद के जूते फटे थे?” उनकी इस पोस्ट पर सैकड़ों कमेंट आए हैं, पर उऩ्होंने किसी का जवाब नहीं दिया है। वहीं बीएचयू के हिंदी विभागाध्यक्ष और ‘लेखक के घर चलो’ कार्यक्रम के कल्पनाकार सदानंद शाही अपने एक पोस्ट में अकबर इलाहाबादी के एक शे’र में ‘मुल्क’ की जगह ‘फेसबुक’ लिखकर पूरे प्रकरण पर तंज करते हैं– “बूट डासन ने बनाया मैं ने इक मजमूँ लिखा, फेसबुक (मुल्क़) में मजमूं न फैला और जूता चल गया।”

दरअसल प्रेमचंद की जीवनसंगिनी शिवरानी देवी के साथ तस्वीर में प्रेमचंद के एक पांव का जूता फटा दिख रहा है। इसी को लेकर जाने-माने साहित्यकार हरिशंकर परसाई ने ‘प्रेमचंद के फटे जूते’ नामक रचना की। जिसमें उन्होंने प्रेमचंद द्वारा तमाम सामाजिक बुराइयों को लात मारने की प्रक्रिया में जूता फटने की बात कही है। परसाई की इस रचना से परे किसी की दृष्टि फोटो में प्रेमचंद के फटे जूते पर जाती भी नहीं। अगर किसी को लगता है कि हरिशकंर परसाई ने प्रेमचंद के फटे जूते नामक रचना में उनकी ग़रीबी का हवाला दिया है तो उसे यह फिर से पढ़ना चाहिए। इसमें जूते के फटने के कारणों पर परसाई ने काफी गौर किया है, लेकिन एक बार भी ग़रीबी का संकेत नहीं किया है। 

जूते से क़फन पर शिफ्ट हुई बहस

प्रेमचंद का जूता, हुक्का, घर, ग़रीबी अमीरी से होते हुए मौजूदा बहस उनकी कहानी कफ़न और उनकी जाति पर केंद्रित हो गई। ‘कफ़न’ पर ताजा बहस युवा कवि विहाग वैभव ने शुरू करते हुए लिखा– “‘कफ़न’ कहानी लेखकीय मंशा में दलित संघर्ष की पक्षधर होते हुए भी कई अवसरों पर अतार्किक और अस्वाभाविक है। कहानी में व्यक्ति-माध्यम से एक पूरी जाति का चरित्र गलत ढंग से व्याख्यायित होता है। इस कहानी के प्रमोशन में हिंदी बौद्धिक समाज की खलमंशा छिपी हुई है। मैं खुद को सद्गति के प्रेमचंद के क़रीब पाता हूं जबकि कफ़न के प्रेमचंद से दूरी महसूस होती है।” 

विहाग के तर्क को आगे बढ़ाते हुए साहित्यकार, प्रोफ़ेसर जितेंद्र विसारिया करीब 88 साल पहले लिखी कहानी को वर्तमान से जोड़कर व्यवहारिक समीक्षा करते हुए लिखते हैं– “मृतक के लिए कफ़न घर का व्यक्ति नहीं ख़रीदने जाता और वो भी पिता-पुत्र एक साथ। जाति के कितने ही कष्टकारी रूप हों, सजातीय भाई-बंधु और रिश्तेदार ही अर्थी बांधते हैं, कफ़न ला देते हैं। उसे नहीं भेजा जाता, जिसका ख़ास संबंधी मरा हो।” वे आगे कहते हैं कि “हर बिरादरी में स्त्रियों के कफ़न के रूप में, मायके से साड़ी या शववस्त्र लाने का चलन है। कई बार तो वे बड़ी मात्रा में आ जातीं हैं कि ढेर लग जाता है। अमीरों ही नहीं गरीबों में भी। भले वे रेशमी न हो सूती हों, कैसे भी घर-परिवार वाले, मायके वाले लाते हैं। वह प्रेमचंद को कठघरे में खड़ा करके पूछते हैं कि कफ़न में घीसू-माधव की बिरादरी और बुधिया का मायके का कोई भी व्यक्ति उपस्थित नहीं। यह व्यवहारिक बात कफ़न में हर जगह अनुपस्थित है। इस रूप में देखा जाए तो प्रेमचंद ने व्यक्ति ही नहीं, एक पूरी जाति और सामाजिक संबंधों (रिश्तेदारियों) का भी अमानवीकरण किया है, जो एकदम गले नहीं उतरता। ख़ासकर चमारों में तो बिल्कुल नहीं!”

प्रेमचंद (31 जुलाई, 1880 – 8 अक्टूबर, 1936 )

साहित्यकार असंगघोष प्रेमचंद को कुंठित बताते हुए लिखते हैं कि ‘कफ़न’ कहानी लिखते समय निश्चित ही उनके मन में अछूतों के प्रति कोई कुंठा रही होगी, वर्ना इन्हें इतना अमानवीय, इतना ज़मीरविहीन क्यों दिखाते। एक दूसरे पोस्ट में कहते हैं– “हम जिंदा हैं, हमारा ज़मीर जिंदा है, फिर भी वो हमारे ऊपर ज़बरन ‘कफ़न’ लादने पर आमादा है।”

आलोचक मुसाफिर बैठा तो प्रेमचंद के कंधे पर जनेऊ भी ढूंढ़ लेते हैं। वे आलोचक वीरेंद्र यादव को प्रेमचंद का अंधभक्त बताते हुए लिखते हैं कि ‘कफ़न’ में आकर ही प्रेमचंद कंधे पर जनेऊ लटकाए लेखक नज़र आते हैं। जबकि प्रेमचंद ने अपनी कहानियों और उपन्यासों में यदि किसी जाति को सबसे ज़्यादा अपने निशाने पर लिया है तो वह ब्राह्मण ही हैं। अपने साहित्येतर लेख ‘क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं?’ में प्रेमचंद लिखते हैं कि “टके पंथी पुजारी, पुरोहित और पंडे हिंदू जाति के कलंक हैं।”

मिथकीय उपन्यासकार अणु शक्ति सिंह तलवार की धार पर ‘जिसकी जाति उसका सत्य’ की लकीर खींचते हुए सरपंचीय स्वर में कहती हैं– “सवर्ण किस हिसाब से दलितों के कष्ट का सत्य लिखने बैठ जाते हैं?” सामाजिक कार्यकर्ता व कवि मनीष आज़ाद ‘कफ़न’ को कृत्रिम कहानी करार देते हुए कहते हैं– “मेरे विचार से उस समय योरोपीय साहित्य में ‘डिह्यूमैनिजेशन’ महत्वपूर्ण विषय बन गया था। उसी को प्रेमचंद ने हिंदी में लाने का प्रयास किया। लेकिन ‘सेटिंग’ एकदम अलग चुनी। वहां के ‘लुम्पेन सर्वहारा’ की जगह उन्होंने यहां समाज में सबसे निचली पायदान पर रह रहे दलित को ले लिया। जबकि उस वक़्त भारत मे ऐसी कोई ‘अमानवीकरण’ की प्रक्रिया नहीं चल रही थी। लेकिन जब आप रचना में एक गलत शुरुआत कर देते हैं तो आगे गलतियों की एक शृंखला शुरू हो जाती है।” 

कवि व दलेस की पूर्व अध्यक्ष अनीता भारती ‘कफ़न’ कहानी के बहाने दलित महिला अस्मिता का सवाल उठाती हैं। वह कहती हैं कि घीसू माधव के साथ बुधिया का पाठ क्यों नहीं किया जाता। डॉ. धर्मवीर ने तो बुधिया के पेट में ठाकुर का बच्चा तक ढूंढ़ डाला। 

साहित्य आलोचक और कवि कंवल भारती ‘क़फन’ कहानी को दलित विरोधी बताने के लिए कवि लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि का संदर्भ देते हैं– “क्या विडंबना है कि वह एक ओर तो ‘शवयात्रा’ कहानी लिखने के लिए वाल्मीकि जी को लानत भेजते हैं दूसरी ओर उन्हें ‘कफ़न’ कहानी के विरोध में भी खड़ा कर देते हैं।” 

भारती लिखते हैं कि ओमप्रकाश वाल्मीकि ने 1997 में नागपुर के दलित साहित्य सम्मेलन में प्रेमचंद की ‘कफ़न’ कहानी को दलित विरोधी बताया था और प्रेमचंद की नीयत पर सवाल उठाया था। वह आगे लिखते हैं कि “चूंकि मामला प्रेमचंद्र से जुड़ा था, इसलिए प्रगतिवादी लेखकों का विचलित होना लाजिमी था। इस दलित दस्तक ने प्रगतिशील खेमे में पुनर्विचार की एक चेतना तो पैदा की, जो पहले नहीं थी। पर उनकी स्थापनाएं नहीं बदलीं, क्योंकि प्रेमचंद और निराला की छवि भंजन से उनका प्रगतिवादी अस्तित्व भी कहां रहेगा?”

साहित्यकार अशोक कुमार चौहान इस मसअले पर लिखते हैं कि “अगर कहीं प्रेमचंद दलित जाति से होते तो ‘कफ़न’ कहानी को बहुजन समाज की प्रतिनिधि कहानी घोषित करने की मांग की जा रही होती। वे आगे कहते हैं कि घीसू व माधव जैसे जबरदस्त प्रतिरोधी चरित्रों को समझने के लिए जाति विशेष का राजनीतिक कार्यकर्ता होने की जगह इंसान और संवेदनशील होना ज़रूरी है। कहानी की कसौटी उसके अर्थ व व्यंजना, संवेदना, उसके मर्म और उद्देश्य जैसे कई पहलुओं से तय होती है। देशकाल और परिवेश को ध्यान में रखे बिना किसी रचना की घेराबंदी करके उसका कुपाठ करने की बढ़ती हुई प्रवृत्ति का नतीज़ा किसी भी तरह से सार्थक नहीं लगता। प्रेमचंद की कोई भी कहानी आलोचना से परे नहीं है, लेकिन दृष्टि-दोष रहित होकर ही विवेचना होनी चाहिए। राजनीति व साहित्य के मध्य के भेद को समझिए।”

‘कफ़न’ के दो अलग-अलग पाठ

बीएचयू में हिंदी साहित्य के प्रोफ़ेसर कृष्ण मोहन ‘कफ़न’ कहानी पर उठे विवाद पर कहते हैं कि “बुनियादी तौर पर इसे दलित यथार्थ की कहानी नहीं कहा जा सकता। वे आगे कहते हैं कि नैतिकता के मान-मूल्य किन्हीं अमूर्त आदर्शों से नहीं, शक्ति और सत्ता के ठोस समीकरणों से तय होते हैं। घीसू की जाति का उल्लेख भर करके प्रेमचंद ने तात्कालिक परिस्थितियों में उसकी शक्तिहीनता की एक वजह की तरफ़ संकेत किया है, लेकिन इसे कहानी में उन्होंने बहुत महत्व नहीं दिया है। आज प्रेमचंद की अपनी ज़मीन, पूर्वांचल और अवध के गांवों में सामाजिक-राजनीतिक समीकरण बदल रहे हैं और दलित होना शक्तिहीन होने का पर्याय नहीं रह गया है। इस परिवर्तन की आकांक्षा के आरंभिक सूत्र घीसू की, वैकल्पिक रास्ते के चुनाव की बेचैनी में पहचाने जा सकते हैं। कमज़ोर होने के बावजूद सत्ता और प्रभुत्व की राह पर चलने की हिमाकत करने वाला वह पहला शख़्स था इसलिए निंदा और उपहास तो उसे सहना ही था। लेकिन आज जब यह यात्रा एक मुकाम तक पहुंच गई है, कम-से-कम अब उसे लेकर शर्मिंदा होना अनुचित है।”

लखनऊ यूनिवर्सिटी में हिंदी साहित्य के प्रोफ़ेसर, साहित्यकार नलिन रंजन सिंह कहानी को कविता की तरह व्यंजना में देखते हैं। वे लिखते हैं कि “बुझे हुए अलाव में रखे गए आलू को घीसू-माधव में से कोई एक खा न ले, इसलिए दोनों में से एक भी प्रसव वेदना से मर रही स्त्री के पास नहीं जाते हैं। दरअसल बुझे हुए अलाव के ठंडेपन में घीसू, माधव और बुधिया ‘वर्तमान’ हैं और बुधिया के पेट में मर रहा बच्चा ‘भविष्य’। कहते हैं भविष्य वर्तमान का प्रस्फुटन होता है। किंतु यहां तो भविष्य को लेकर घीसू-माधव बेहद उदासीन हैं। गैर-बराबरी पर आधारित भूख से पीड़ित अमानवीय व्यवस्था में दम तोड़ते भविष्य की उन्हें कोई चिंता नहीं है। वे आगे कहते हैं कि  “‘क़फ़न’ के माध्यम से प्रेमचंद यह कहना चाहते हैं कि ऐसा भयावह, गैर-बराबरी पर आधारित अमानवीय समाज, जिसमें मानवीय संवेदना पर भूख बड़ी हो गई हो, उसका भविष्य मरणासन्न होता है और वह समाज अपने भविष्य पर ‘क़फ़न’ ओढ़ लेता है। गैर-बराबरी पर आधारित अमानवीय समाज का कोई भविष्य नहीं होता। इसलिए प्रेमचंद चाहते हैं कि गैर-बराबरी पर आधारित अमानवीय समाज को जितना जल्दी हो सके बदल देना चाहिए।”

इस पूरे विवाद में एक निष्कर्ष तक पहुंचने के क्रम में प्रोफ़ेसर तुलसीराम का लेख महत्वपूर्ण है, जिसे उन्होंने प्रेमचंद के 125वीं जयंती वर्ष में लिखा था। फेसबुक पर वरिष्ठ साहित्य आलोचक वीरेंद्र यादव ने अपनी दलील में यह लेख साझा किया है। 

“यहां एक बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि निशाने पर प्रेमचंद हैं, उनकी कहानी ‘कफ़न’ नहीं। ताजा विवाद में भी ‘कफ़न’ से पहले विमर्श का केंद्र प्रेमचंद का जूता, उनकी गरीबी, उनका घर और उनकी जाति थी। पिछले साल विक्षिप्त मानसिकता वाले ब्राह्मण-द्वय राजशेखर व्यास और दयानंद पांडेय ने प्रेमचंद की जाति को लेकर लिखा था कि उस समय कायस्थ-ब्राह्मण संघर्ष चल रहा था। इसी के चलते पांडेय बेचन शर्मा उग्र, विशंभर नाथ शर्मा कौशिक, विनोद शंकर व्यास, द्विजेंद्र नाथ मिश्र निर्गुण सब निपटा दिये गये। दयानंद पांडेय की मानसिक विक्षिप्तता देखिए, आरएसएस एजेंट शैलेश जैदी के हवाले से प्रेमचंद की चारित्रिक हत्या करते हुए वे लिखते हैं कि प्रेमचंद के जीवन में दो पत्नियों के अलावा और भी कई सारी स्त्रियां थी, उनकी सौतेली मां भी। निर्मला उपन्यास प्रेमचंद की अपनी कहानी है। साथ ही उन्हें वेश्याओं के पास जाने वाला औरतबाज भी कहा है।  

“पिछले साल की इन गंदी बातों को यहां रखने का आशय यह दिखाना है कि मौजूदा राजनीति से लेकर साहित्य तक में ब्राह्मणवाद का पैरवीकार आरएसएस, भाजपा और आंबेडकरवादी दलित नेता और साहित्यकार गलबहियां करके साथ-साथ चल रहे हैं। 

“ब्राह्मणवाद पर सबसे ज़्यादा चोट करने वाले प्रेमचंद की चारित्रिक हत्या करके आरएसएस उनके लिखे को समाज में अवमूल्यित करना चाहता है, ताकि उनके कहे-लिखे का असर खत्म हो। लेकिन दलित साहित्यकारों की मंशा क्या है? इसका जवाब प्रोफ़ेसर तुलसीराम का लेख में है। एक तरफ वह लिखते हैं कि  “दलित साहित्य‌‌ पर‌ दावेदारी‌ को‌ लेकर‌‌ दलित तथा गैरदलित‌ साहित्यालोचकों‌ के बीच पिछला दशक‌ प्रचंड मुठभेड़‌ का दशक रहा है‌। इस मुठभेड़ का सबसे बड़ा कारण मुंशी‌ प्रेमचंद का साहित्य रहा है। दलित कहता‌ है कि सिर्फ़ वही दलित साहित्य लिख सकता है, तथा गैरदलित‌ कहता है कि वह भी लिख सकता है। इसी ‘लिखने और सकने’ के बीच बेवजह प्रेमचंद का साहित्य ध्वस्त ‌होकर‌ रह गया है। इन्हीं‌ दो धाराओं‌ के बीच प्रेमचंद एक मोहरे के रूप में इस्तेमाल‌‌ किए जाने लगे। प्रेमचंद‌ को आधुनिक दलित साहित्य की कसौटी‌ पर कसना उन्हें फांसी‌‌ पर लटकाने जैसा है।” 

“आगे दलित साहित्य को परिभाषित करते हुए वह लिखते हैं कि ‘दलित साहित्य वर्ण व्यवस्था विरोधी साहित्य है, चाहे उसे दलित‌ लिखे या गैरदलित‌। संगठित रुप से सबसे पहले गौतम बुद्ध ने वर्ण-व्यवस्था विरोधी अभियान चलाया था, जो स्वयं दलित नहीं थे। अत: प्राचीन बौद्ध साहित्य ही वर्तमान दलित साहित्य की जननी है। इस मूल तथ्य को जो दलित स्वीकार नहीं करता है, उसका भी साहित्य दलित साहित्य की श्रेणी में बिल्कुल नहीं आता। इस तथ्य के सबसे बड़े साक्षी स्वयं बाबा साहेब डा. आंबेडकर का सारा आंदोलन बुद्ध से प्रभावित था। वो आगे कहते हैं कि कबीर के कंठ में रविदास के जूते बांधकर दलित साहित्य की रचना नहीं की जा सकती। और सांप्रदायिकता के मुद्दे का दलित साहित्य से वंचित रहना उसे अधूरा बनाता है। सांप्रदायिकता वर्ण व्यवस्था का ही सबलीकरण है।” 

बहरहाल, अपनी रचनाओं में दलित-बहुजन विमर्श को भी जगह देने वाले प्रेमचंद दोधारी तलवार पर चलते रहे थे। एक तरफ उनके ऊपर गांधीवाद का आरोप लगया जाता है तो दूसरी ओर उन्हें ‘हंस’ पत्रिका के कवर पर डॉ. आंबेडकर की तस्वीर प्रकाशित करने का श्रेय जाता है। मौजूदा साहित्यिक रगड़ा में ब्राह्मणवादी भी जुटे हैं, जो कह रहे हैं– “एक धक्का और दो, प्रेमचंद को तोड़ दो।”

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

संबंधित आलेख

फूलन देवी की आत्मकथा : यातना की ऐसी दास्तान कि रूह कांप जाए
फूलन जाती की सत्ता, मायके के परिवार की सत्ता, पति की सत्ता, गांव की सत्ता, डाकुओं की सत्ता और राजसत्ता सबसे टकराई। सबका सामना...
इतिहास पर आदिवासियों का दावा करतीं उषाकिरण आत्राम की कविताएं
उषाकिरण आत्राम इतिहास में दफन सच्चाइयों को न सिर्फ उजागर करती हैं, बल्कि उनके पुनर्पाठ के लिए जमीन भी तैयार करती हैं। इतिहास बोध...
हिंदी दलित कथा-साहित्य के तीन दशक : एक पक्ष यह भी
वर्तमान दलित कहानी का एक अश्वेत पक्ष भी है और वह यह कि उसमें राजनीतिक लेखन नहीं हो रहा है। राष्ट्रवाद की राजनीति ने...
‘साझे का संसार’ : बहुजन समझ का संसार
ईश्वर से प्रश्न करना कोई नई बात नहीं है, लेकिन कबीर के ईश्वर पर सवाल खड़ा करना, बुद्ध से उनके संघ-संबंधी प्रश्न पूछना और...
दलित स्त्री विमर्श पर दस्तक देती प्रियंका सोनकर की किताब 
विमर्श और संघर्ष दो अलग-अलग चीजें हैं। पहले कौन, विमर्श या संघर्ष? यह पहले अंडा या मुर्गी वाला जटिल प्रश्न नहीं है। किसी भी...