समान नागरिक संहिता (यूसीसी) का मुद्दा वर्तमान में सुर्खियों में है। इसकी वजह यह है कि अगले वर्ष यानी 2024 में होनेवाले लोकसभा चुनाव के पहले केंद्र सरकार ने इस मुद्दे को देश के पटल पर रख दिया है। इसकी पहल स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मध्य प्रदेश में एक जनसभा को संबोधित करने के दौरान की। केंद्र सरकार के इस प्रस्ताव का जहां एक तरफ स्वागत किया जा रहा है तो दूसरी तरफ इसकी निंदा भी की जा रही है। कहा जा रहा है कि इससे मुसलमानों के अधिकारों का हनन होगा। अंदेशा यह भी लगाया जा रहा है कि इससे भारत की विविधतापूर्ण संस्कृति समाप्त हो जाएगी। इसका एक असर दलित, आदिवासी और ओबीसी को मिलने वाले आरक्षण पर भी पड़ेगा, क्योंकि आरक्षण विरोधियों के पास यह तर्क होगा कि अब इस देश में समान नागरिक संहिता है और कोई रूढ़िवादिता व सामाजिक पिछड़ापन नहीं है।
हालांकि केंद्र सरकार की तरफ से समान नागरिक संहिता का कोई मसौदा प्रस्तुत नहीं किया गया है। इस कारण अभी कोई भी बात कहना जल्दबाजी होगी कि केंद्र में शासन कर रही भाजपा की मंशा क्या है। लेकिन यह एक ऐसा मुद्दा जरूर है, जिसे भाजापा की मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) बरसों से हवा देता आया है। भाजपा के तमाम बड़े नेता ‘एक देश, एक कानून’ की बात कहते रहे हैं।
आरएसएस का तर्क है कि महिलाओं और वंचितों का अलग-अलग संस्कृति और कानून के नाम पर शोषण होता है। इस कानून के सहारे उन तमाम शोषणों को दूर किया जा सकता है।
क्या कहता है संविधान?
यह ऐतिहासिक रूप से सत्य है कि जब भारतीय संविधान का निर्माण किया जा रहा था, तब समान नागरिक संहिता की आवश्यकता को महसूस किया गया था। प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. आंबेडकर भी समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे। भारतीय संविधान की 44वें अनुच्छेद में समान नागरिक संहिता को लागू करने के बारे में लिखा गया है। डॉ. आंबेडकर की परिकल्पना हिंदू कोड बिल को समान नागरिक संहिता का प्रथम सोपान कहा जा सकता है, जिसमें शादी, तलाक, बच्चा गोद लेना, उत्तराधिकार से जुड़े मामले को शामिल किया गया। उस समय हिंदू धर्म के कट्टरवादियों द्वारा इसका कड़ा विरोध किया गया था। बाद में जब यह विधेयक संसद में नहीं लाया गया तब डॉ. आंबेडकर ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था।
हालांकि बाद में हिंदू कोड बिल हिंदू विवाह अधिनियम सहित चार पृथक अधिनियमों के रूप में पारित हुआ और देश में लागू हुआ। सनद रहे कि इन अधिनियमों में खासतौर पर हिंदुओं के अलावा जैन, सिख, बौद्ध धर्म को भी शामिल किया गया है।
निस्संदेह संविधान सभा द्वारा प्रस्तावित समान नागरिक संहिता का लक्ष्य और अभी के सरकार के द्वारा प्रस्तावित समान नागरिक संहिता के लक्ष्य में अंतर है। अभी की सरकार किसी खास वर्ग को खुश करने के लिए इस संहिता को लाने की बात कह रही है। लेकिन संविधान सभा के निर्माण के दौरान संविधान सभा के सदस्यों ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी, जहां धर्म, जाति, परंपरा और संप्रदाय के नाम पर, महिलाओं, बच्चों व बुजुर्गो का शोषण ना हो।
बात करें नफे की तो यूसीसी से सबसे ज्यादा लाभ महिलाओं को मिल सकेगा, क्योंकि धर्म, संप्रदाय और जाति आधारित व्यवस्थाएं अक्सर महिलाओं के हितों का दमन करती हैं। उदाहरण के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार एक तलाकशुदा महिला को भरण-पोषण पाने का अधिकार नहीं है, जबकि हिंदू विवाह अधिनियम में यह अधिकार हिंदू महिलाओं को मिलता है।
इसी प्रकार कई आदिवासी समाजों में पिता की संपत्ति पर बेटियों को अधिकार नहीं मिलता है। उनका रूढ़िवादी कानून भी उसी मुताबिक बना हुआ है। जबकि यह अधिकार परिवारों में बेटियों को दिया गया है।
कहा जा सकता है कि सामान नागरिक संहिता लागू होने पर देश की सभी महिलाओं को एक जैसा अधिकार प्राप्त होगा, जैसा कि संविधान सभा के सदस्यों ने सपना देखा था।
दरअसल, समान नागरिक संहिता एक सामाजिक मामलों से संबंधित कानूनों का समुच्चय, जो सभी पंथ के लिए विवाह, तलाक, भरण पोषण, विरासत व बच्चा गोद लेने में समान रूप से लागू होगा।
आम लोगों की चिंता का सबब
समान नागरिक संहिता पर टिप्पणी करने वालों का यह तर्क है कि भविष्य में समान नागरिक संहिता लागू हो जाने के बाद आरक्षण को भी निशाना बनाया जा सकता है। ऐसा इसलिए कि समान नागरिक संहिता लागू होने के बाद रूढ़िवादिता जैसे शर्त जो अनुसूचित जनजाति में शामिल समुदायों के लिए अनिवार्य है, के खिलाफ आरक्षण विरोधियों के पास तार्किक आधार होगा। इसके अलावा मंडल कमीशन की रपट के 52वें पृष्ठ पर उद्धृत ओबीसी की पहचान के लिए निर्धारित शर्तों में पहली शर्त, जिसमें एक जाति समुदाय द्वारा दूसरे समुदायों द्वारा निम्न माना जाना बताया गया है, यूसीसी के कारण आरक्षण विरोधियों के पास इसके खिलाफ तर्क होगा कि अब सभी समान तरह की नागरिक संहिता का पालन करते हैं और इस आधार पर ओबीसी आरक्षण के खात्मे की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। बुर्जुआ वर्ग इस कोशिश में है कि आरक्षण को निष्प्रभावी बना दिया जाए। ऐसा भी हो सकता है कि समान नागरिक संहिता को लागू करने में आरक्षण एक रोड़े की तरह देखा जाएगा। इससे ऐसा वर्ग जो अपनी जनसंख्या से कई गुना ज्यादा अनुपात में शासन-प्रशासन पर कब्जा जमाए बैठा है। आरक्षण समाप्त हो जाने के बाद उसका कब्जा स्थायी हो जाएगा और एससी, एसटी, ओबीसी एवं अल्पसंख्यक आदि वर्ग हमेशा के लिए शासन-प्रशासन से वंचित कर दिए जाएंगे।
यह भी कहा जा रहा है कि इस कानून के लागू होने के बाद सबसे ज्यादा नुकसान आदिवासियों का होगा। सामान्यीकृत विवाह संबंधित प्रावधानों के आधार पर उनकी जमीनें छीन ली जा सकेंगी, क्योंकि तब विशेष आदिवासी कानून किसी काम का नहीं रह जाएगा। वैसे भी आदिवासी समुदायों में शादी और तलाक बेहद साधारण बात है। सामाजिक बैठकों में इन मामलों का निपटारा कर लिया जाता है। समान नागरिक संहिता लागू हो जाने के बाद इन समुदायों को भी कोर्ट जाना पड़ेगा।
बहरहाल, बात इतनी है कि सरकार किस प्रकार तमाम संप्रदायों, समुदायों और संगठनों के बीच सहमति बनाते हुए यह कानून लागू कर पाएगी? जबकि मौजूदा सत्तासीन दल पर गैर-हिंदू धर्मों के ऊपर सौतेला व्यवहार करने का आरोप चौतरफा लगाया जा रहा है और ये आरोप तथ्यहीन नहीं हैं।
(संपादन : नवल/अनिल)