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उत्तर प्रदेश में बसपा : राजनीतिक फलक पर दलित प्रतिनिधित्व की वैचारिक भूमि (पहला भाग)

कांशीराम बता रहे थे कि चाहे अमीर हो या गरीब, वोट का मूल्य बराबर है। वह यह भी समझा रहे थे कि किसी के हाथ का चमचा नहीं होना है, सत्ता की इस चाभी को खुद अपने हाथ में लेना है। इसीलिए उन्होंने नारा भी दिया– ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी’। बता रहे हैं अंजनी कुमार

[भारतीय राजनीति में उत्तर प्रदेश की अहम भूमिका रही है। यदि दलित-बहुजन राजनीति के हिसाब से भी बात करें तो इस प्रदेश को यह श्रेय जाता है कि यहां दलित राजनीति न केवल साकार हुई, बल्कि सत्ता तक हासिल करने में कामयाब हुई। यह मुमकिन हुआ कांशीराम (15 मार्च, 1934 – 9 अक्टूबर, 2006) के कारण। यह आलेख शृंखला इसके विभिन्न आयामों व मौजूदा दौर की दलित राजनीति को भी सामने लाती है। पढ़ें, इसका पहला भाग]

‘‘जिस समुदाय का राजनीतिक व्यवस्था में प्रतिनिधित्व नहीं है, वह समुदाय मर चुका है” – कांशीराम

भारतीय लोकतंत्र का इतिहास और भूगोल इसकी राजनीतिक व्यवस्था में प्रतिनिधित्व के सवाल पर आधारित है। इस मसले पर सर सैयद अहमद खां से लेकर डॉ. भीमराव आंबेडकर की तकरीरें, पूना पैक्ट से लेकर भारत-पाकिस्तान बनने और भारत के संविधान सभा बनने की तह में जाएं तब आप इस सवाल पर बहस और निर्णयों से वाकिफ होते जाएंगे। साथ ही, कांग्रेस के धुर दक्षिणपंथी नेताओं के उस अड़ियल रुख को देख सकेंगे, जिसमें वर्चस्व की एकाधिकारी राजनीति हमेशा ही केंद्रीय तत्व बना रहा। निश्चय ही आप इस निष्कर्ष पर भी पहुंचेंगे कि वंचितों के प्रतिनिधित्व का सवाल आज भी अपने अंजाम तक नहीं पहुंचा है। जबकि यह सवाल चुनाव-दर-चुनाव और बड़ा मुंह खोलकर खड़ा हो जाता है।

भारतीय लोकतंत्र जब चुनाव की प्रक्रिया को अपना रहा था, तब एक राजनीतिक व्यवस्था भी खड़ी हो रही थी और इसमें प्रतिनिधित्व के सवाल को हल करने का प्रयास हो रहा था, उसी समय यह विवाद खड़ा हो गया कि चुनाव की एक समान प्रक्रिया अपनाई जाय या संरक्षित चुनाव की प्रक्रिया की तरफ जाया जाय। यह अंग्रेजी राज का समय था। भारत के मुसलमान, जिनकी संख्या भारत की कुल जनसंख्या में 1931 की जनगणना के अनुसार, 22.2 प्रतिशत थी; जबकि ‘हिंदुओं’ की जनसंख्या 69.8 प्रतिशत थी। अन्य 8 प्रतिशत थे। जनसंख्या का घनत्व अलग-अलग राज्यों, चुनाव-क्षेत्रों में भी अलग-अलग था। उनकी पहचान अलग-अलग थी। ऐसे में, बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का सवाल लोकतंत्र की चुनाव पद्धति में एक जटिल समस्या बनकर सामने आ गया। इसे चुनाव में आरक्षित सीटों के तौर पर प्रतिनिधित्व के सवाल को हल करने का प्रयास किया गया। 

लेकिन, सवाल हल होने की बजाय और जटिल होता गया। इसी दौरान, डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में दलित प्रतिनिधित्व के सवाल को गंभीरता से उठाया गया। इस सवाल का हल पूना पैक्ट के माध्यम से ‘हिंदू’ फोल्ड के अंदर सुलझाने की ओर ले जाया गया। राष्ट्रीय आंदोलन और राष्ट्रीय एकता का मसला प्रतिनिधित्व के सवाल के साथ सरकार के गठन के सवाल के साथ मिलते ही एक विस्फोटक स्थिति पैदा हो गई। हुआ यह कि इसने 1947 में दक्षिण एशिया में सबसे भयावह बंटवारे को जन्म दिया। ऐसा नहीं है कि यह सवाल इस बंटवारे के साथ ही हल हो गया। जैसा कि कांशीराम के एक कथन को ऊपर उद्धरित किया गया है, उनका साफ कहना था कि ‘वोट हमारा राज तुम्हारा’ नहीं चलेगा। उनका गणित बहुत साफ था। हमारा 85 प्रतिशत वोट है, हम पर 15 प्रतिशत का राज नहीं चलेगा। यह भारत के लोकतंत्र में चुनाव की जो व्यवस्था थी, उसके भीतर की संरचना में वह दलित समाज के प्रतिनिधित्व के संकट को हल करने का उपाय ढूढ़ रहे थे। उस समय इसे ‘सोशल इंजीनियरिंग’ कहा गया। हालांकि इस सामासिक शब्दावली में इंजीनियरिंग का पक्ष कम और एक ऐसी गोलबंदी का पक्ष अधिक सामने था, जिससे विधायिका में तय की गई सीटों में प्रतिनिधित्व की संख्या सुनिश्चित हो जाय। इसीलिए वह कहते भी थे कि यदि दलित और दमित समुदाय का 50 प्रतिशत हिस्सा भी एक ओर हो जाय, तो हम सत्ता में होंगे। यहां प्रतिनिधित्व और सरकार का निर्माण, यदि आरक्षण की स्थिति न भी हो तब भी उसे संख्या के आधार पर हासिल करना आसान था। इस तरह यहां प्रतिनधित्व का सवाल 1930-40 के दशक में जिस तरह से उठा था, उससे एकदम भिन्न था। इसीलिए इससे हासिल परिणाम भी एकदम अलग तरह के ही होने थे। 

हालांकि, बुद्धिजीवियों का एक बड़ा समुदाय इसे 1930-40 के दशक के मानकों में कुछ नई शब्दावलियां जोड़ते हुए इसे निम्नवर्गीय क्रांतिकारी बदलाव से जोड़कर देखता रहा है। जबकि, इसकी आधारशिला बनाने वालों ने स्पष्ट तौर पर एक दी गई संरचना को अपनी आवाज में बदल देने से अधिक का दावा कभी नहीं किया। यह निम्नवर्गीय प्रसंग से अधिक प्रतिनिधित्व के सवाल को सामने लेकर आया। इसने मेहनतकश दलित, पिछड़े, आदिवासी और महिला को प्रभुत्वशाली वर्ग और वर्ण अपने राष्ट्रवाद में कितनी जगह दिया, (नेशनलिज्म विदाउट ए नेशन इन इंडिया, जी. अलोशियस) या सामाजिक उत्थान को राजनीतिक आवाज में बदल देने का कितना काम किया (साइलेंट रीवोल्यूशनः क्रिस्टोफर जैफरलौ), यह एक जेरे बहस का मसला है। लेकिन, इतना जरूर सच है कि 1980 के दशक से जाति और धर्म की गणित में आरक्षण, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सत्ता का सवाल भारतीय लोकतंत्र की विधायिकाओं के चुनाव से लेकर न्यायपालिका में कानून और अध्यादेशों में केंद्रीय बिंदु बन गया, जिसमें हिंसा एक अंतर्निहित तत्व की तरह बना रहा। 

दूसरी ओर सत्ता का सवाल दलित समुदाय के सामने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) नए सिरे से ला रही थी और यह इसके लिए कुछ हद तक गोलबंद होने के लिए तैयार भी हो रहा था। हालांकि, गोलबंदी और सत्ता के बीच का यह बदलता रिश्ता इस दूर तक नहीं पहुंचा था, जिससे उसकी दमित स्थिति में गुणात्मक फर्क ला दे या ब्राह्मणवादी हिंदुत्व व्यवस्था और उसकी संस्कृति में आमूल-चुल बदलाव ला दे। यह दलित समुदाय के जिस मध्य और निम्न-मध्यवर्ग की आधारभूमि पर खड़ा हुआ था, उसके आधार को निश्चय ही थोड़ा विस्तार दिया और एक वोट को उसके राजनीतिक समझदारी के साथ जोड़ देने का अथक प्रयास किया। इन दोनों कारकों से, अनुकूल और प्रतिकूल, दोनों ही तरह के परिणाम सामने आए। जैसा कि देखा गया है कि मध्य वर्ग सत्ता तक पहुंचते-पहुंचते घोर अवसरवाद में पतित होता है; कांशीराम के नेतृत्व में पैदा हुआ दलित आंदोलन भी इस घोर अवसरवाद के भंवर जा फंसा। 

भारत का मध्यवर्ग और दलित सांस्कृतिक चेतना का राजनीतिक फलक

भारत का नेशनल सैंपल सर्वे के 1953-54 से लेकर 1973-74 के आंकड़े बताते हैं कि इन वर्षों में खेत पर गरीब, भूमिहीन किसानों की संख्या कुल खेतिहरों में 54.80 से बढ़कर 60.3 प्रतिशत हो गई, जबकि उनकी कुल जोत का हिस्सा 5.93 प्रतिशत से बढ़कर 9.2 प्रतिशत ही हुआ। यदि इसमें मध्यम किसानों की संख्या का प्रतिशत भी जोड़ दें, तब 1973-74 में 90 प्रतिशत हिस्सा 43 प्रतिशत जमीन जोत रहा था, जबकि महज 2.2 प्रतिशत हिस्सा 22.8 प्रतिशत हिस्से पर खेती कर रहा था। (द स्टेट एंड पाॅवर्टी इन इंडियाः अतुल कोहली, प्रकाशन वर्ष : 1987)। 1970 के दशक में भूमि का सवाल भारतीय राजनीति का केंद्रीय सवाल बन गया था। तेलगांना से शुरू हुआ किसान आंदोलन बंगाल में आपरेशन बर्गा और नक्सलबाड़ी में बदल गया। बिहार में यह बंटाईदारी में हिस्सेदारी और जमीन पर हकदारी का सवाल आग बनकर फैल गया। पंजाब से लेकर केरल तक जमीन मुक्ति का सवाल भारत के लोकसभा से लेकर राज्य की विधायिकाओं तक में उठ रहा था। यह सवाल भारत की जातीय संरचना को तोड़ने में भी लगा हुआ था। इसके बरक्स सस्ते मानव श्रम की आपूर्ति बनाए रखने के लिए ब्राह्मण वर्ग दलित समुदाय पर भयावह हमले कर रहा था और इस क्रम में उसने कई नरसंहारों को अंजाम दिया। लेकिन, समाज में बदलाव की जो नींव पड़ गई थी, उससे संकरा ही सही, एक जटिल रास्ता सरकारी नौकरियों तक दलित समुदाय को ले गया। 

दलित राजनीति के प्रतिपादक कांशीराम (15 मार्च, 1934 – 9 अक्टूबर, 2006)

डॉ. आंबेडकर के प्रयासों से आरक्षण और व्यक्तिगत प्रयासों से दलित समुदाय में जो नई चेतना आई थी, उसने इन आंदोलनों को और भी पुख्ता किया। 1970-80 के दशक में कारखानों में मजदूरी, सरकारी ऑफिसों में कर्मचारियों के पदों पर काम और कई ऐसे शहरी कार्य जो मानों दलित समुदाय के लिए ही बने हों, ने ऐसे आधार निर्मित किये जिससे कामकाजी समुदाय के आधार को थोड़ा विस्तृत बनाया। इसने वह जमीन पैदा किया, जिससे दमन, उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष की चेतना को एक सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलन में बदलने में की ओर ले गई। दलित चेतना पर आधारित लेखन और नये संगठनों को उभरने का ठोस आधार मिला।

1986-87 में अनुसूचित जाति-जनजाति आयुक्त द्वारा पेश 28वें रिपोर्ट में 1977-87 के बीच केंद्रीय सरकार की नौकरियों में ग्रुप ‘ए’ में 4.16 से 8.25 की वृद्धि दिखती है, वहीं ‘बी’ श्रेणी में 6.07 से 10.40 की बढ़त, ‘सी’ श्रेणी में 11.84 से 14.46 और ‘डी’ श्रेणी में 19.07 से 20.09 प्रतिशत की बढ़त दिखती है। यद्यपि आरक्षित सीटों की तुलना में यह बढ़त बेहद कम है। साथ ही, यह अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग दिखते हैं। मसलन, मध्य प्रदेश में ग्रुप ‘ए’ के पदों पर आरक्षित सीटों के महज 1.49 प्रतिशत पर ही दलित समुदाय की पोस्टिंग थी। जबकि ग्रुप ‘बी’ में यह 5 प्रतिशत से कम था। ग्रुप ‘सी’ और ‘डी’ में क्रमशः लगभग 10 और 13 प्रतिशत के आसपास था। (दलित एंड दी स्टेटः घनश्याम शाह का संपादन और एस.सी. बेहर का लेख)। यह वर्षों तक स्थिर गति पर बना हुआ था और कुल रोजगार की तुलना में देखें तब तो बेहद कम दिखाई देता है। लेकिन, यदि हम अखिल भारतीय स्तर पर देखें, तो यह कुल संख्या ऐसी बनती थी, जिसके आधार पर राजनीति की एक नई लहर बनाई जा सकती थी।

कांशीराम ने एससी-एसटी वेलफेयर एसोशिएसन से आगे बढ़कर 1978 में बामसेफ का गठन किया। कर्मचारियों का यह संगठन बहुत तेजी से पूरे देश में फैल गया। यह मध्यवर्ग के बीच बनाई गई एक ऐसी गोलबंदी थी, जो काम की जगहों पर दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी, और पिछड़े  समुदायों के बीच साकार हो रही थी और इसके साथ ही दलित आंदोलन के लिए एक नई जमीन भी तैयार कर रही थी। इसी आधार पर 1981 में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति का गठन किया गया। यह संगठन दमित समुदाय के बीच जन संपर्क का एक माध्यम बन गया। जनसंपर्क के लिए तीन हजार  किलोमीटर लंबी साईकिल यात्रा निकाली गई, जिसका नेतृत्व कांशीराम ने खुद किया। देखते-देखते इसके दो लाख सदस्य बन गये थे। इनमें करीब 500 शोध छात्र, करीब 3000 डाॅक्टर, करीब 15000 वैज्ञानिक और करीब 70,000 हजार कर्मचारी थे। (कांशीराम : लीडर ऑफ द दलित्स, बद्री नारायण, पेंग्विन प्रकाशन) 1984 में बहुजन समाज पार्टी का गठन हुआ। तब कांशीराम ने बसपा की स्थापना करते हुए कहा था, ‘राजनीतिक सत्ता ऐसी चाभी है, जिससे सभी ताले खोले जा सकते हैं’।

बामसेफ आंदोलन से लेकर बसपा के गठन के बीच सांस्कृतिक आंदोलन को तेज किया गया और ऐसे नारों पर काम किया गया, जिसमें ब्राह्मणवादी वर्चस्व को सीधी चुनौती थी और जमीन पर हक की दावेदारी भी। प्रचार सामग्रियों में ब्राह्मणवादी चिंतन की शुद्धतावादी ‘आर्य’ अवधारणा पर सीधा प्रहार किया गया और दलित समुदाय के प्रति गांधीवादी करूण दृष्टिकोण को अस्वीकार करते हुए बुद्ध की परिवर्तनकारी चेतना का अनुसरण किया गया। लेकिन, कांशीराम अपने काम में एकदम स्पष्ट थे– “आंबेडकर किताबें इकट्ठा करते थे, लेकिन मैं लोगों को इकट्ठा कर रहा हूं”। उनकी सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना का आधार उस वोट के मूल्य को समझाने में था जहां राजसत्ता की कुंजी रखी हुई थी। वे बता रहे थे कि चाहे अमीर हो या गरीब, वोट का मूल्य बराबर है। वह यह भी समझा रहे थे कि किसी के हाथ का चमचा नहीं होना है, सत्ता की इस चाभी को खुद अपने हाथ में लेना है। इसीलिए उन्होंने नारा भी दिया– जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी। 

राजसत्ता और मध्यवर्ग के बीच के रिश्ते को उजागर करता हुआ इस नारे ने उस सपने को सार्वजनिक किया, जिसकी जमीन उस समय कुछ हद तक बनने लगी थी। मसलन– ‘वोट से लेंगे सीएम/पीएम, आरक्षण से लेंगे एसपी/डीएम’। हालांकि, इन नारों में एक और नारा था जो गांव के लोगों, खासकर दलित समुदाय के दिलों से जुड़ता था– ‘जो जमीन सरकारी है, वो जमीन हमारी है’। हालांकि इस नारे को बहुत जल्द नेपथ्य में डाल दिया गया। 1980 के दशक में सरकारें बेनामी, बंजर आदि जमीनों को अपने कब्जे में लिये हुए थीं, और उसका वितरण बेहद मनमाने और ऐसी शर्तों के साथ कर रही थी, जिससे भूमिहीन, गरीब दलित और दमित समुदाय इसे हासिल करने से वंचित हो रहा था। निश्चित ही यह नारा बहुजन समाज पार्टी को एक व्यापक सामाजिक आधार की ओर ले जाता। यह वह समय था जब जमीन मुक्ति का संघर्ष देश में फैल रहा था और नक्सलबाड़ी से जुड़ी धाराएं पार्टी निर्माण और राजसत्ता के सवाल के साथ आगे बढ़ रही थीं। बसपा के लिए निश्चय ही यह नारा एक ऐसी स्थिति की ओर ले जा सकता था, जो उसकी मध्यवर्गीय चेतना को असहज करती। वह दमन की हिंसा के खिलाफ प्रतिरोध में बल के प्रयोग के बजाय वोट को माध्यम बना रही थी और चुनाव से अनिवार्य तौर पर जुड़ जाना चाहती थी। कांशीराम की दलित सांस्कृतिक चेतना की आधारभूमि के राजनीतिक फलक पर उपरोक्त नारा वोट की सोशल इंजिनियरिंग के अनुरूप नहीं थी। दूसरा, दलित पैंथर के अगुवा नामों में से कई जल्द ही कांग्रेस के पैरोकार बन गये थे और कुछ अवसरवाद के गर्त में गिर गये थे। संभवतः वह इस मध्यवर्गीय चेतना की सीमा का भांप चुके थे।

क्रमश: जारी

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अंजनी कुमार

श्रम-समाज अध्ययन, राजनीति, इतिहास और संस्कृति के विषय पर सतत लिखने वाले अंजनी कुमार लंबे समय से स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं

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