h n

हरिशंकर परसाई : विचारधाराओं को कसौटी पर कसनेवाले व्यंग्यकार

हरिशंकर परसाई के लेखन का कैनवास बहुत बड़ा था। विचारों से वे वामपंथी थे, लेकिन जब वे सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों पर लिखते थे, तो किसी को नहीं छोड़ते थे।‌ चाहे वे कांग्रेसी हों, समाजवादी हों, गांधीवादी या कम्युनिस्ट हों। उन्होंने सभी पर तीखे प्रहार किए। जन्म शताब्दी वर्ष के मौके पर स्मरण कर रहे हैं स्वदेश कुमार सिन्हा

हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की कोई लंबी परंपरा नहीं रही है। नाटक-नौटंकियों में एक विदूषक का चरित्र अवश्य होता था, जो बीच-बीच में आकर दर्शकों का मनोरंजन करता था। कई बार तो यह वि‌दूषक राजतंत्र की विसंगतियों पर थोड़ा-बहुत प्रहार भी करता था, लेकिन यह परंपरा संभवतः इसीलिए आगे नहीं बढ़ पाई, क्योंकि अधिकांश नाट्यलेखक और कलाकार राज्याश्रित थे। हालांकि बाद के दौर में भिखारी ठाकुर आदि के कारण इस विधा में बदलाव आया। लेकिन यह हिंदी साहित्य से इतर ही रहा। काका हाथरसी (18 सितंबर, 1906 – 18 सितंबर, 1995) ने हास्य कविता के रूप में व्यंग्य को स्थापित किया। लेकिन गद्य विधा में व्यंग्य को स्थापित करने का श्रेय हरिशंकर परसाई (22 अगस्त, 1924 – 10 अगस्त, 1995) को जाता है। 

दरअसल व्यंग्य लेखन अपेक्षाकृत कठिन विधा है, जिसमें अगर सावधानी न बरती जाए, तो यह भौंडा हास्य बन जाता है। लेकिन हरिशंकर परसाई ने इसमें संतुलन बैठाकर उसे हल्के-फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से बाहर निकालकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा। उनकी व्यंग्य रचनाएं हमारे मन में केवल गुदगुदी ही पैदा नहीं करतीं, बल्कि वे हमें सामाजिक वास्तविकताओं के बारे में सोचने पर मज़बूर करती हैं। मसलन, स्वाधीनता दिवस पर उनके व्यंग्य के कुछ अंश देखें–

“मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूं। प्रधानमंत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं। रेडियो टिप्पणीकार कहता है– ‘घोर करतल’ ध्वनि हो रही है। मैं देख रहा हूं, नहीं हो रही है। हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं। बाहर निकालने का मन ही नहीं होता, हाथ अकड़ जाएंगे।

लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियां बज रही हैं। मैदान में ज़मीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिए कोट नहीं हैं, लगता है गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है। गणतंत्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलती है, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपड़ा नहीं है।

पर कुछ लोग कहते हैं कि ग़रीबी मिटनी चाहिए, वहीं दूसरे कहते हैं कि ऐसा कहने वाले प्रजातंत्र के लिए ख़तरा पैदा कर रहे हैं।

गुजरात की झांकी में इस साल दंगे का दृश्य होना चाहिए, जलता हुआ घर और आग में झोंके जाते हुए बच्चे।

पिछले साल मैंने उम्मीद की थी कि आंध्र की झांकी में हरिजन जलाए जाते हुए दिखाए जाएंगे, मगर ऐसा नहीं दिखा। यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पाए, लेकिन झांकी सजाए लघु-उद्योगों की।” (हरिशंकर परसाई की रचना ‘ठिठुरता हुआ गणतंत्र’ से उद्धृत)

हरिशंकर परसाई (22 अगस्त, 1924 – 10 अगस्त, 1995)

हरिशंकर परसाई के लेखन का कैनवास बहुत बड़ा था। विचारों से वे वामपंथी थे, लेकिन जब वे सामाजिक-राजनैतिक विसंगतियों पर लिखते थे, तो किसी को नहीं छोड़ते थे।‌ चाहे वे कांग्रेसी हों, समाजवादी हों, गांधीवादी या कम्युनिस्ट हों। उन्होंने सभी पर तीखे प्रहार किए।  

मध्य प्रदेश के होशंगाबाद के जमानी ग्राम में 22 अगस्त, 1924 को जन्मे हरिशंकर परसाई एक मध्यमवर्गीय परिवार से आते थे। अल्पायु में ही मां के निधन के बाद पिता की भी कुछ सालों के बाद एक असाध्य बीमारी के बाद मृत्यु हो गई। जब वे किशोर थे तभी चार छोटे भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी उनके ऊपर थी। इस प्रकार उनका प्रारंभिक जीवन ग़रीबी में ही बीता। मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करते ही उन्होंने वन विभाग में नौकरी शुरू की। जंगल में ही सरकारी टपरे पर रहते थे। ईंटों की चौकी बनाकर पटिए और चादर बिछाकर सोया करते थे। वहां चूहों की धमा-चौकड़ी रात भर चलती थी। परसाई ने अपने उन दिनों को याद कर लिखा– “चूहों ने बड़ा उपकार किया, ऐसी आदत डाली कि आगे की जिंदगी में भी तरह-तरह के चूहे मेरे नीचे उधम करते रहे, सांप तक सर्राते रहे, मगर मैं पटिए बिछाकर पटिए पर ही सोता हूं।”

मध्यवर्ग की अमानवीयता तथा विसंगतियों को, जिसमें ढोंग, पाखंड और दिखावा सब कुछ होता है। उन्होंने इसे बहुत निकट से महसूस किया। इसलिए अपनी अनेक रचनाओं में इसके ऊपर तीखे प्रहार किए हैं–

“एक नए परिचित ने मुझे घर पर चाय के लिए बुलाया। मैं उनके बंगले पर पहुंचा, तो फाटक पर तख़्ती टंगी दिखी– ‘कुत्ते से सावधान!’ मैं फौरन लौट गया। कुछ दिन बाद वे मिले तो शिकायत की– ‘आप उस दिन चाय पीने नहीं आए।’ मैंने कहा– ‘माफ़ करें। मैं बंगले तक गया था, वहां तख़्ती लटकी थी– ‘कुत्ते से सावधान!’ मेरा ख़्याल था कि उस बंगले में आदमी रहते हैं, पर नेम प्लेट कुत्ते की टंगी दिखी।” (हरिशंकर परसाई की रचना ‘एक मध्यमवर्गीय कुत्ता’ से उद्धृत)

बेवजह और अतार्किक रूप से किसी बहाने से दूसरे की निंदा-शिकायत करने वाले लोगों पर तंज कसते हुए परसाई ने लिखा– 

“निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं।

निंदा खून साफ़ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है।

निंदा से मांसपेशियां पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज़ है।

संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं।

‘मौसम कौन कुटिल खल कामी’ यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा कांइयां होता है। हम समझते हैं कि वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है।

स्वास्थ्य विज्ञान की एक मूल स्थापना तो मैंने कर दी। अब डॉक्टरों का कुल इतना काम बचा कि वे शोध करें कि किस तरह की निंदा में कौन-से और कितने विटामिन होते हैं, कितना प्रोटीन होता है। मेरा अंदाज है, स्त्री संबंधी निंदा में प्रोटीन बड़ी मात्रा में होता है और शराब संबंधी निंदा में विटामिन बहुत होते हैं।” (हरिशंकर परसाई की रचना ‘वो जो आदमी है न’ से उद्धृत)

हरिशंकर परसाई ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के फासीवाद को अपनी दूरदर्शिता से पहले ही देख लिया था। उन्होंने लिखा– “फासिस्ट संगठन की विशेषता होती है कि दिमाग सिर्फ़ नेता के पास होता है। बाकी कार्यकर्ताओं के पास सिर्फ़ शरीर होता है। अपने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भी ऐसा ही है। स्वयंसेवकों के पास अगर बुद्धि रह गई, तो संगठन टूट जाएगा, इसलिए संघ में लगातार बुद्धिनाश का कार्यक्रम चलता रहता है। इसे उनकी भाषा में ‘बौद्धिक वर्ग’ कहते हैं यानी बुद्धिनाश वर्ग। नेता के पास ख़बर आती है कि स्वयंसेवकों में बुद्धि की घुसपैठ हो रही है तो नेता हुक्म देता है कि जल्दी-जल्दी बौद्धिक दो और उन्हें पूरा जड़बुद्धि बना दो। सुना है कि संघ के कुछ वरिष्ठ सर्जनों से सलाह कर रहे हैं कि ऑपरेशन करके उनके सोचने की मशीन ही निकाल ली जाए।” (हरिशंकर परसाई की रचना ‘आरएसएस’ से उद्धृत)

ऐसे ही उन्होंने लिखा– “तुम कैसे शिक्षक हो जी? क्या तुम्हें पता नहीं, कि हिंदू राष्ट्र का आधार झूठ है। अगर तुम्हारी झूठ के प्रति निष्ठा नहीं है, तो तुम क्या निर्माण करोगे हिंदू राष्ट्र का! तुम्हारा ‘बौद्धिक’ ठीक से नहीं हुआ है। देखो! इस समय हम दूसरों को धोखा देने के लिए यह झूठ बोल रहे हैं। तुम स्वयंसेवकों को समझा दो कि हमारे सार्वजनिक बयान सब झूठे होते हैं। सत्य केवल हमारे गुप्त सर्कुलर में होता है।” (हरिशंकर परसाई की रचना ‘शोध संस्थान में शोध’ से उद्धृत)

परसाई ने अपनी अनेक रचनाओं में संघ की फासीवादी कार्यपद्धति की बहुत ही सटीक ढंग से व्याख्या की है। प्रेमचंद ने आज़ादी से पहले के भारतीय समाज और राजनीति का विश्लेषण अपनी रचनाओं में किया है, लेकिन हरिशंकर परसाई ने आज़ादी के बाद पैदा हुए समाज तथा राजनीतिक विद्रूपताओं का इतना प्रभावशाली चित्रण किया है कि भारतीय फासीवाद के इस दौर में उनकी भूमिका प्रेमचंद से भी अधिक हो गई है। आज किस तरह बढ़ती हुई बेकारी, बदहाली और ग़रीबी संघ जैसे फासीवादी संगठनों को खाद-पानी मुहैया करा रही है, उसका बहुत सटीक चित्रण उन्होंने अपने एक निबंध में किया–

“दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी युवकों की यह भीड़ बहुत ख़तरनाक होती है। इसका प्रयोग ख़तरनाक विचारधारा वाले महत्वाकांक्षी व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है, जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं। यह भीड़ फ़ासिस्टों का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है।” (हरिशंकर परसाई की रचना ‘आवारा भीड़ के ख़तरे’ से उद्धृत)

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

स्वदेश कुमार सिन्हा

लेखक स्वदेश कुमार सिन्हा (जन्म : 1 जून 1964) ऑथर्स प्राइड पब्लिशर, नई दिल्ली के हिन्दी संपादक हैं। साथ वे सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक विषयों के स्वतंत्र लेखक व अनुवादक भी हैं

संबंधित आलेख

फूलन देवी की आत्मकथा : यातना की ऐसी दास्तान कि रूह कांप जाए
फूलन जाती की सत्ता, मायके के परिवार की सत्ता, पति की सत्ता, गांव की सत्ता, डाकुओं की सत्ता और राजसत्ता सबसे टकराई। सबका सामना...
इतिहास पर आदिवासियों का दावा करतीं उषाकिरण आत्राम की कविताएं
उषाकिरण आत्राम इतिहास में दफन सच्चाइयों को न सिर्फ उजागर करती हैं, बल्कि उनके पुनर्पाठ के लिए जमीन भी तैयार करती हैं। इतिहास बोध...
हिंदी दलित कथा-साहित्य के तीन दशक : एक पक्ष यह भी
वर्तमान दलित कहानी का एक अश्वेत पक्ष भी है और वह यह कि उसमें राजनीतिक लेखन नहीं हो रहा है। राष्ट्रवाद की राजनीति ने...
‘साझे का संसार’ : बहुजन समझ का संसार
ईश्वर से प्रश्न करना कोई नई बात नहीं है, लेकिन कबीर के ईश्वर पर सवाल खड़ा करना, बुद्ध से उनके संघ-संबंधी प्रश्न पूछना और...
दलित स्त्री विमर्श पर दस्तक देती प्रियंका सोनकर की किताब 
विमर्श और संघर्ष दो अलग-अलग चीजें हैं। पहले कौन, विमर्श या संघर्ष? यह पहले अंडा या मुर्गी वाला जटिल प्रश्न नहीं है। किसी भी...