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हिंदी प्रदेशों में जाति उन्मूलक सांस्कृतिक आंदोलन आवश्यक

बहुजन आंदोलन के संदर्भ में उत्तर और दक्षिण के फ़र्क को देखना पड़ेगा। आज उत्तर भारत हिंदूवादी फासीवादियों का गढ़ बना हुआ है। उत्तर भारत में जो भी दलित-पिछड़ों के आंदोलन चले या राजनीतिक पार्टियां बनीं, वे बहुत जल्दी ब्राह्मणवाद का अनुसरण करने लगीं। बता रहे हैं स्वदेश कुमार सिन्हा

“… इतिहास प्रमाणित करता है कि राजनीतिक-क्रांति के पहले हमेशा सामाजिक और धार्मिक-क्रांति हुआ करती है। लूथर द्वारा शुरू किए गए धार्मिक-सुधार यूरोपीय जनता की राजनीतिक स्वतंत्रता का शंखनाद बना। इंग्लैंड का प्यूरिटनवाद नयी दुनिया की नींव को पत्थर बना। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम की सफलता के लिए प्यूरिटनवाद ज़िम्मेदार रहा है, जबकि प्यूरिटनवाद एक धार्मिक आंदोलन था, मुस्लिम साम्राज्यवाद के बारे में भी यही बात लागू होती है। अरब राजनीतिक शक्ति बनने से पहले ही मुहम्मद पैग़ंबर द्वारा आरंभ की गई धार्मिक क्रांति की समग्रता से गुज़रा। भारतीय इतिहास के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है। चंद्रगुप्त द्वारा संपन्न की गई राजनीतिक क्रांति की नींव बुद्ध की धार्मिक और सामाजिक क्रांति ने डाली। शिवाजी द्वारा संपन्न की गई राजनीतिक क्रांति के पहले महाराष्ट्र के संत अनेक धार्मिक और सामाजिक सुधार कर चुके थे। सिक्खों की राजनीतिक क्रांति की पूर्वपीठिका गुरु नानक के धार्मिक तथा सामाजिक क्रांति द्वारा तैयार कर ली थी …।” (डॉ. आंबेडकर ‘जाति का विनाश’ में) 

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री डीएमके स्टालिन के बेटे और राज्य सरकार में मंत्री उदयनिधि स्टालिन की ‘सनातन धर्म’ पर टिप्पणी पर विवाद लगातार जारी है। डीएमके नेता उदयनिधि स्टालिन ने गत 2 सितंबर, 2023 को चेन्नई में आयोजित एक कार्यक्रम में सनातन धर्म को कई सामाजिक बुराइयों के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए इसे समाज से ख़त्म करने की बात कही थी। उन्होंने कहा– “सनातन धर्म लोगों को जाति और धर्म के नाम पर बांटने वाला विचार है, इसे खत्म करना मानवता और समानता को बढ़ावा देना है। जिस तरह हम मच्छर, डेंगू, मलेरिया और कोरोना को ख़त्म करते हैं, उसी तरह सिर्फ सनातन धर्म का विरोध करना ही काफी नहीं है, इसे समाज से पूरी तरह ख़त्म कर देना चाहिए।”

उदयनिधि तथा अन्य कुछ लोगों के इन बयानों से देश भर में सियासी घमासान मचा है, लेकिन भाजपा इसे भी लाभ-हानि के तराजू पर तौल रही है, क्योंकि डीएमके विपक्षी गठबंधन इंडिया का एक हिस्सा है। इस बहाने वह विपक्षी गठबंधन पर निशाना साध रही है तथा उसे हिंदू विरोधी बता रही है। इस बीच 6 सितंबर, 2023 को नागपुर में छात्रों की एक सभा को संबोधित करते हुए आरएसएस के मुख्य संघचालक मोहन भागवत ने आरक्षण और जाति व्यवस्था को लेकर कहा कि अगर वंचित वर्गों (दलित-पिछड़ों) का वृहद हिंदू समाज में समायोजन या समावेश हो जाए, तो आरएसएस के कार्यकर्ताओं को गोमांस खाने से भी कोई परहेज़ नहीं होगा। उन्होंने यह भी कहा कि जातिगत भेदभाव का इतिहास 2000 वर्षों का है, जिस दौरान हमने यह परवाह नहीं की कि दलित और पिछली जातियों का जीवन जानवरों के समान हो गया है। अब हमें कम से कम 200 वर्षों तक उन लोगों को लाभ देने के लिए आरक्षण जैसी व्यवस्था को स्वीकार करना होगा।

वास्तव में मोहन भागवत का यह बयान डीएमके नेता उदयनिधि स्टालिन तथा कुछ अन्य लोगों के सनातन धर्म के ऊपर टिप्पणी की पृष्ठभूमि में देखा जा रहा है। सनातन धर्म के ख़िलाफ़ उदयनिधि का तर्क यह था, कि सनातन धर्म संबंधित उनका बयान हिंदूधर्म पर हमला नहीं था, बल्कि इसके भेदभावपूर्ण जातिवादी संरचना पर था। जबकि आरएसएस एकजुट हिंदू धर्म के अपने लक्ष्य के लिए जातिरहित समाज की बात करता है। यद्यपि उसका वर्णव्यवस्था पर गहरा विश्वास है। 

बुद्ध की ज्ञानस्थली बिहार के गया जिले में लोगों से पिंडदान कराता एक ब्राह्मण पुरोहित

गौर तलब है कि 2015 में मोहन भागवत के आरक्षण के ख़िलाफ़ दिए गए बयान के बाद भाजपा को बिहार विधानसभा चुनाव में काफी नुक़सान उठाना पड़ा था। इसलिए 2024 के आम चुनाव के मद्देनज़र उनका 2000 वर्षों से जातिप्रथा की उपस्थिति तथा उससे दलित-पिछड़ों की जानवरों जैसी स्थिति को बदलने के लिए कम से कम 200 वर्षों तक आरक्षण जैसी व्यवस्था के लागू रहने जैसी बातें चुनाव में इन वर्गों को जोड़ने की एक रणनीति ही मालूम पड़ती है। हालांकि यद्यपि उच्च जातियों के लोग उनके इस बयान से असंतुष्ट हो सकते हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि इन जातियों का झुकाव अभी भी आरएसएस और भाजपा की ओर ही है। 

उदयनिधि के बयान के मामले में एक बात हम देखते हैं कि इसको लेकर व्यापक प्रतिक्रिया केवल उत्तर भारत में हुई है। भाजपा के छुटभैया नेताओं से लेकर प्रधानमंत्री तक इसके ख़िलाफ़ बयान दे रहे हैं। उदयनिधि पर धार्मिक भावनाओं को क्षति पहुंचाने का आरोप लगाकर ढेरों मुक़दमे भी उत्तर भारत ही में हुए हैं। यहां तक कि अयोध्या के कथित संत ने उनकी हत्या करने वाले को करोड़ों रुपए के इनाम की घोषणा तक कर दी है। जबकि दक्षिण भारत में उनके इस बयान की कोई ख़ास प्रतिक्रिया नहीं हुई। यहां तक कि अनेक राजनेताअें ने उनके इस बयान की प्रशंसा की। 

इसके क्या कारण हैं? बहुजन आंदोलन के संदर्भ में उत्तर और दक्षिण के फ़र्क को देखना पड़ेगा। आज उत्तर भारत हिंदूवादी फासीवादियों का गढ़ बना हुआ है। उत्तर भारत में जो भी दलित-पिछड़ों के आंदोलन चले या राजनीतिक पार्टियां बनीं, वे बहुत जल्दी ब्राह्मणवाद का अनुसरण करने लगीं। एक समय कबीर ने जात-पात, धार्मिक कट्टरता एवं पाखंड के ख़िलाफ़ ज़ोरदार आवाज़ उठाई। निश्चित रूप से कबीर का उत्तर भारतीय जनजीवन में गहरा प्रभाव है, लेकिन उनके विचारों को आगे ले जाकर विकसित करने वाला कोई नहीं हुआ। रैदास ने ज़रूर कुछ हद तक उनकी परंपरा को आगे बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन बहुत जल्दी उन्हें ब्राह्मणवाद ने आत्मसात कर लिया। तुलसीदास के रामचरितमानस के प्रतिक्रियावादी मूल्यों ने इस समूचे इलाक़े में ब्राह्मणवादी प्रतिक्रियावादी मूल्य-मान्यताओं को मज़बूत किया। आज समूचे उत्तर भारत में उच्च एवं बहुजन जातियों में सर्वाधिक प्रभाव इन्हीं मूल्यों का है। यह स्वीकार किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं कि उत्तर भारत में इन प्रतिक्रियावादी मूल्यों के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठी। मसलन, 1930 के दशक में त्रिवेणी संघ ने ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती दी। लेकिन राजनीतिक महत्वाकांक्षा का शिकार होने के कारण त्रिवेणी संघ के नेताओं ने ही इसका अंत भी कर दिया। आजादी के बाद रामस्वरूप वर्मा ने अर्जक संघ की स्थापना की। लेकिन यह आंदोलन भी सियासत का शिकार हुआ। जबकि इसका प्रभाव अब भी उत्तर प्रदेश और बिहार के कई हिस्सों में देखा जा सकता है। 

उत्तर भारत में दलित-बहुजन आंदोलनों में वैचारिकी के प्रति दृढ़ता का अभाव रहा है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण बहुजन समाज पार्टी है। कांशीराम के समय में “वोट हमारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा” का नारा देने वाली पार्टी मायावती के समय तक आते-आते “हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है” का नारा देने लगी। वहीं मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने से पहले और बाद में बिहार और उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर पिछड़ों की राजनीति स्थापित हुई। चाहे वह राम नरेश यादव से लेकर मुलायम सिंह यादव हों या फ़िर बिहार में कर्पूरी ठाकुर से लेकर लालू प्रसाद यादव हों, पिछड़ों की राजनीति भी लंबे दौर की चमक के बाद अब धूमिल पड़ती जा रही है। 

इसके विपरीत दक्षिण भारत में हम धार्मिक पाखंड,अंधविश्वास तथा सनातन धर्म के ख़िलाफ़ चले आंदोलनों में निरंतरता देखते हैं। वहां पर उनके बयान के पक्ष में अनेक अन्य लोग भी खड़े हो गए। इसमें फ़िल्मकार प्रकाश राज और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के बेटे प्रियंक खड़गे भी साथ आ गए। 

यह दिलचस्प है कि 1920 के दशक में मद्रास प्रांत में ब्राह्मणों के तीन गुट हो गए– मायलापुर गुट, एग्मोर गुट और सालेम राष्ट्रवादी। इन तीनों गुटों के समानांतर एक ग़ैर-ब्राह्मण गुट खड़ा हुआ– जस्टिस पार्टी। ग़ैर-ब्राह्मण गुट, ख़ासतौर पर पिछड़े समुदायों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाला पहला राजनीतिक दल था। जस्टिस पार्टी ने सरकारी नौकरियों एवं सत्ता के और पदों पर ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती दी। 1920 और 1930 के दशक में इस आंदोलन ने गति पकड़ी। ई.वी. रामास्वामी पेरियार और सी.एन. अन्नादुरई जैसे नेता भी इसके केंद्र में आ गए। आंदोलन के साथ स्वदेशी जागरूकता और स्वाभिमान की भावना बढ़ी। मसलन संस्कृत की जगह तमिल भाषा के इस्तेमाल की वकालत की जाने लगी। वहीं 1938 में जस्टिस पार्टी और पेरियार का आत्मसम्मान आंदोलन साथ में मिलकर एक हो गए। 1944 में एक नया संगठन बनाया गया द्रविड़ कड़गम, एक ब्राह्मण-विरोधी, कांग्रेस-विरोधी और आर्य-विरोधी दल। द्रविड़ कड़गम ने एक स्वतंत्र द्रविड़ राष्ट्र के लिए आंदोलन चलाया। इस आंदोलन ने तमिल समाज में जगह बनाई। आज़ादी के बाद ये जगह और पुख़्ता हुई। स्वाभाविक तौर पर इसका असर तमिलनाडु की राजनीति पर भी पड़ा। अलग तमिल राष्ट्र की मांग भी उठी। फिर 1967 में आंदोलन से निकली पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) सत्ता में आ गई। पेरियार का प्रभाव उल्लेखनीय है। 

पेरियार का मानना था कि जाति व्यवस्था हिंदू धर्म का अभिन्न हिस्सा है और यह दमनकारी है। उन्होंने यह तर्क दिया कि हिंदू देवी-देवता लोगों की कल्पनाओं से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। मूर्तिपूजा की भी आलोचना की।

बहरहाल, दक्षिण भारत की तरह उत्तर भारत में एक बहुजन सांस्कृतिक पुनर्जागरण की ज़रूरत है। बहुजन समाज पार्टी के प्रारंभिक दिनों में जब कांशीराम द्वारा बनाए गए डीएस-फोर संगठन के कार्यकर्ता व्यापक रूप से रात में दलित बस्तियों में जाकर सांस्कृतिक कार्यक्रम करते थे, और ‘शंबूक’ और ‘एकलव्य’ पर आधारित नाटक तथा जोतीराव फुले के नाटक ‘किसान का कोड़ा’ और ‘ग़ुलामगिरी’ जैसे नाटक करते थे। बहुत से नुक्कड़ नाटकों का भी आयोजन होता था। इसके अलावा गीत-संगीत के माध्यम से भी दलितों के बीच ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ चेतना विकसित करने का काम करते थे। यहीं से बहुजन समाज पार्टी का जन्म भी हुआ, लेकिन बाद में सत्ता पाने के बाद में ये चीज़ें विस्मृत कर दी गईं। केवल जोड़-तोड़ से सत्ता प्राप्त करना और उसे बनाए रखना ही इसका एकमात्र लक्ष्य यह गया। इसके विपरीत संघ परिवार ने सांस्कृतिक और धार्मिक उपकरणों का प्रयोग करके बहुसंख्यक बहुजन आबादी को अपने से जोड़ा। ऐसे ही उत्तर भारत या कहें या हिंदी प्रदेशों को आज दक्षिण भारत की तरह एक जाति उन्मूलक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की ज़रूरत है।     

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

स्वदेश कुमार सिन्हा

लेखक स्वदेश कुमार सिन्हा (जन्म : 1 जून 1964) ऑथर्स प्राइड पब्लिशर, नई दिल्ली के हिन्दी संपादक हैं। साथ वे सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक विषयों के स्वतंत्र लेखक व अनुवादक भी हैं

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