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बहुजन धारा और दिनेश कुशवाह की कविताएं (अंतिम भाग)

निस्संदेह, मुख्यधारा के इतिहासकारों ने अत्याचारियों और हत्यारों को नायक बनाया है। रामायण में भी नायक बहेलिया है, अपने प्रेम के लिए बलिदान देने वाली मादा क्रौंचच नहीं। कवि दिनेश कुशवाह ने कथाकार शिवमूर्ति के लिए लिखी गई कविता ‘बहेलियों को नायक बना दिया’ में ईश्वर को सबसे बड़ा बहेलिया कहा है। पढ़ें, कंवल भारती द्वारा कवि दिनेश कुशवाह की कविताओं के पुनर्पाठ का अंतिम भाग

पहले भाग से आगे

मूलत: दिनेश कुशवाह की कविताओं की जमीन सामाजिक परिवर्तन और भौतिक दर्शन की है, जिसमें वह बेहतरीन तर्कों और बिंबों के साथ लोक का सृजन करते हैं। इस भाव-धारा की उनकी दो सशक्त कविताएं हैं ‘स्वर्ग’ और ‘भोग’। ‘स्वर्ग’ कविता में गहरा चिंतन है, जो इस दृष्टिकोण से बेहद विचारणीय है कि वह किनका स्वर्ग है, और उसका विरोध किनका विरोध है? यथा–

वहां कोई काम नहीं करता
रह सकता है वहां वही
जो लूटकर लाए धरती से बहुत बड़ी पूंजी,
पूंजी खत्म होते ही
कोठे से उतार देती हैं इंद्र की गणिकाएं।
वहां शर्त है लंपट राजा और उनकी इच्छा ही कानून
जैसे वहां किसी को देशनिकाला नहीं दिया जाता
ढकेल दिया जाता है गर्दन पकड़कर।
सुंदर स्त्री को स्वर्ग नचाता है फिरकी की तरह
गरीब की बीवी की तरह करता है मजबूर
गांव-भर की भौजाई बनने के लिए
पर स्वर्ग कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता
कि कोई खा ले अपनी इच्छा का फल।
स्वर्ग के खिलाफ बोलना
धरती के धुरंधरों के खिलाफ बोलना है
स्वर्ग के खिलाफ बोलना
आकाश के स्वेच्छारियों के खिलाफ बोलना है
स्वर्ग के खिलाफ बोलना
धर्मों के खिलाफ बोलना है
जैसे ढहेगा स्वर्ग तो ढह जायेगा ईश्वर
भाग्य और पुण्य का ढोंग
ढहेगा इंद्रासन तो
ढह जाएगा धरती का स्वर्ग।

हिंदी की मुख्यधारा के संपूर्ण काव्य में स्वर्ग के विरोध की संभवत: यह पहली कविता है, जिसने स्वर्ग की तुलना पूंजीपतियों की रासलीला से करते हुए उसे कारपोरेट के पूंजीवाद में देखा है। यह कविता ‘भोग’ कविता के साथ पूर्ण होती है। भोग और स्वर्ग का एक-दूसरे से गहरा रिश्ता है। असल में तो दोनों साथ ही रहते हैं। यह हम ‘भोग’ कविता में देखते हैं कि पूंजीपति वर्ग उपभोग की वस्तुओं की मांग पैदा करके किस तरह अपने स्वर्ग का निर्माण करते हैं? 

दिनेश कुशवाह का दूसरा कविता-संग्रह ‘इतिहास में अभागे’ वर्ष 2017 में आया। इस संग्रह की कविताओं के दो खंड हैं, पहले खंड का नाम ‘आज भी खुला है अपना घर फूंकने का विकल्प’ है और दूसरा खंड है ‘उजाले में आजानुबाहु’। पहले संग्रह की तरह इस संग्रह की भी कई सारी कविताएं कवि के प्रिय लेखकों की स्मृति में या उनके लिए लिखी गई हैं। पहली कविता ‘इतिहास में अभागे’ है। अभागे वे हैं, जो इतिहास के नायक हैं, पर जातिवादी इतिहासकारों की उपेक्षा के शिकार हुए। राजेंद्र यादव कहते थे कि पराजितों का इतिहास नहीं होता। हालांकि वह इतिहास की गलत समझ के कारण ऐसा कहते थे, जबकि सच यह है कि इतिहास विजेताओं ने लिखे, जिन्हें अपनी जीत की गाथाएं ही लिखनी थीं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पराजितों का इतिहास नहीं होता। इतिहास वास्तव में पराजितों का ही होता है। संघर्ष और बलिदान ही इतिहास का निर्माण करते हैं। इस कविता में इन अभागों का जैसा भावप्रवण स्मरण दिनेश कुशवाह ने किया है, शायद ही मुख्यधारा के किसी कवि ने किया हो। यथा–

इतिहास के नाम पर मुझे
सबसे पहले याद आते हैं वे अभागे
जो बोलना जानते थे
जिनके खून से लिखा गया इतिहास
जो श्रीमंतों के हाथियों के पैरों तले कुचल दिए गए
जिनके चीत्कार में डूब गया हाथियों का चिंग्घाड़ना।
सारे महायुद्धों के आयुध जिनकी हड्डियों से बने
वे अभागे कहीं भी नहीं हैं इतिहास में।

वे कौन अभागे थे, उनका भी कवि ने स्मरण किया है–

इतिहास के नाम पर मुझे
याद आते हैं वे अभागे बच्चे
जो पाठशालाओं में पढ़ने गए
और इस जुर्म में टांग दिए गए भालों की नोक पर।
इतिहास के नाम पर मुझे
याद आती हैं वे अभागी बच्चियां
जो राजे-रजवाड़ों के धायघरों में पाली गईं
और जिनकी कोख को कूड़ेदान बना दिया गया।

निस्संदेह, मुख्यधारा के इतिहासकारों ने अत्याचारियों और हत्यारों को नायक बनाया है। रामायण में भी नायक बहेलिया है, अपने प्रेम के लिए बलिदान देने वाली मादा क्रौंच नहीं। कवि ने कथाकार शिवमूर्ति के लिए लिखी गई कविता ‘बहेलियों को नायक बना दिया’ में ईश्वर को सबसे बड़ा बहेलिया कहा है–

ईश्वर सबसे बड़ा बहेलिया है
और दीन-हीनों को सताकर
मारने वाले उसके कृपापात्र।
क्षमा करें आदिकवि!
आज तक एक भी बहेलिया
नहीं हुआ अप्रतिष्ठित।

एक महत्वपूर्ण कविता है ‘ओबामा के समय में बेली की याद’। इसमें 1996 में अटलांटा ओलंपिक में सौ मीटर की दौड़ जीतने वाले कनाडा के काले युवक डॉनवन बेली को याद किया गया है। कवि कहता है–

मैंने मन ही मन बेली को बधाई दी
मैं नहीं समझता था उसकी भाषा
पर उससे बतियाने का मन करता था।

फिर आगे कवि कहता है–

तुम लोग जो
दुनिया के सबसे बलवान लोग हो
क्यों बदलते हो अपना धर्म?
वह कौन सी फांस है
जो तुम्हारे सीने में चुभती रहती है?
अपने रंग को लेकर तुम्हें
इतने ताने क्यों सुनने पड़ते हैं
ऐसे मारक ताने जो तुम्हारी जान ले लेते हैं
जबकि तुम्हारे शरीर की बलवती मछलियां
समुद्र मथकर अमृत निकाल सकती हैं।

यह कविता ओमप्रकाश वाल्मीकि के लिए शायद इसलिए है कि बेली अश्वेत है और वाल्मीकि दलित। और दोनों के लिए, एक के लिए श्वेत समाज में और दूसरे के लिए सवर्ण समाज में, घृणा और उपेक्षा का भाव है; और यह भी कि दोनों ही अपने रंग और जाति के शत्रुओं के प्रति हिंसा का सहारा नहीं लेते। इसीलिए कवि पूछता है–

तो आखिर तुम सारे
विश्व विजयी खिलाड़ियों का मुंह
अपने प्रति हो रहे अत्याचारों के खिलाफ
कब खुलेगा?

इस कविता से यह तो स्पष्ट है कि कवि अत्याचार और उत्पीड़न के विरुद्ध अश्वेतों के (और दलितों के भी) सख्त प्रतिरोध के पक्ष में है, हालांकि श्वेतों के खिलाफ़ अश्वेतों का और सवर्णों के खिलाफ दलितों के प्रतिरोध और संघर्ष का लंबा इतिहास है। वे किसी भी युग में अत्याचार पर मौन नहीं रहे हैं। लेकिन, यह आश्चर्यजनक है कि कवि धर्मांतरण के भी विरुद्ध है। जहां तक मेरी जानकारी है, अश्वेतों ने धर्म नहीं बदला, क्योंकि नस्लीय भेदभाव उनके धर्म में नहीं था, श्वेतों के कानून में था। इसके विपरीत भारत में दलितों के लिए धर्म बदलने की जरूरत इसलिए पड़ी, क्योंकि हिंदूधर्म उनके विरुद्ध अस्पृश्यता और असमानता का व्यवहार सिखाता है। ऐसे धर्म को दलितों को क्यों नहीं छोड़ देना चाहिए, जो उन्हें मनुष्य नहीं, अस्पृश्य मानता है? 

एक विचारोत्तेजक कविता कवि ने स्टीफन हॉकिंस के लिए ‘ईश्वर के पीछे’ नाम से लिखी है। यह कविता एक दम नए तर्कों के साथ ईश्वर के सर्वव्यापी अस्तित्व पर बहुत ही रोचक ढंग से प्रश्नचिह्न लगाती है। यथा–

ईश्वर के अदृश्य होने के अनेक लाभ हैं
इसका सबसे अधिक फायदा
वे लोग उठाते हैं
जो लोग हर घड़ी यह प्रचारित करते हैं
कि ईश्वर हर जगह और हर वस्तु में है।
इससे सबसे अधिक ठगे जाते हैं वे लोग
जो इस बात में विश्वास करते हैं कि
भगवान हर जगह है, और सब कुछ देख रहा है। 

यह कविता ईश्वर की न्याय-व्यवस्था पर भी तीखा वार करती है–

यह अपार समुद्र जिसकी कृपा का बिंदु मात्र है
उस दयासागर की असीम कृपा से
मजे में हैं सारे अत्याचारी
दीनानाथ की दुनिया में
कीड़े-मकोड़ों की तरह जी रहे हैं गरीब।

दिनेश कुशवाह व उनका काव्य संग्रह ‘इतिहास में अभागे’ का मुख पृष्ठ

ईश्वरभक्त ब्राह्मणों के पास इस प्रश्न का सरल उत्तर है– कर्मफल का सिद्धांत। इस सिद्धांत के अनुसार आज जो गरीब हैं, वे अपने पूर्व जन्म के पापों के कारण गरीबी का फल भोग रहे हैं। पूंजीपतियों के पक्ष में आदमी के संघर्ष को खत्म करने का यह बहुत ही कारगर सिद्धांत है। यह कविता इस सिद्धांत का भी जोरदार खंडन करती है–उसकी मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता 

सारे शुभ-अशुभ, भले-बुरे कार्य
भगवान की मर्जी से होते हैं
पर कोई प्रश्न नहीं उठाता कि
यह कौन सी खिचड़ी पकाते हो दयानिधान?
चित्त भी मेरी और पट्ट भी मेरी
तुम्हारे न्याय में देर नहीं, अंधेर ही अंधेर है कृपासिंधु।

इस संग्रह का पहला खंड जिस लंबी कविता के अंतर्गत है, उसका नाम है ‘आज भी खुला है, अपना घर फूंकने का विकल्प’। बिल्कुल कबीर के अंदाज़ में यह कविता ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद से लड़ने का आह्वान करती है। इन दोनों शत्रुओं से तमाम सुख-सुविधाओं के बीच घर में बैठकर नहीं लड़ा जा सकता। इसके लिए अभिव्यक्ति के वे खतरे उठाने ही होंगे, जिसकी ओर कबीर का इशारा था। यह कविता किसी भी रचनाशीलता का आदर्श होना चाहिए। लेकिन आज के वातावरण में हर कोई खतरों से बचना चाहता है। इस स्थिति से चिंतित कवि कबीर से ही पूछता है कि उसका मार्ग क्या हो–

मैं कबीर से पूछने गया कि क्या करूं दादा
ब्राह्मण से लेकर शूद्र
गांधी से लेकर लोहिया
एम.एन. राय से लेकर मायावती
सबसे गुहार लगाई
पर जो तब पिस रहे थे चक्की में
आज भी पिस रहे हैं।
अब पांडे और कसाई हो गए
हिंदू और तुर्कों की राह और बिगड़ गई
तब एक पाहन पूजा जाता था
अब लाखों किस्म के पत्थर पूजे जाते हैं।

कबीर वितृष्णा से मुस्कराए, कहा—

तुम इस युग के नए ब्राह्मण हो
अपने को अदना कहने में भी
झलकता है तुम्हारा अहंकार
दूसरे की बुनी चादर ओढ़कर
कबीर नहीं बना जा सकता।
तुम क्या बनोगे कबीरपंथी
जब कबीरपंथी हो गए ब्राह्मण
कम्युनिस्ट हो गए कांग्रेसी
समाजवादी हो गए भाजपाई
ब्राह्मण हो गए बसपाई
रामनाम लेकर तर गए कसाई। 

कबीर का संवाद यहां समाप्त नहीं हुआ, बल्कि यहां से और गहरा होता है–

आप तो हैं ‘वर्ग’ की कक्षा के छात्र
वर्ण की मनोहरता लक्ष्मण बंगारू के आका
हिंदू संत बनिया सम्राट अशोक सिंहल से पूछिए
कि अयोध्या में बन रहे राम मंदिर का
कौन होगा महंत?
किस जाति का होगा पुजारी?
ब्राह्मण के पास मन (शास्त्र) है
ठाकुर के पास तन (शस्त्र) है
बनिया के पास धन (तंत्र) है
नेताओं के पास है जाति
और जाति को उनने वोट में बदल दिया है
इसलिए आज एक भी
नेता नहीं है जाति के खिलाफ।
एक बात जान लो
आंच सांच पर ही आती है
झूठ का कुछ नहीं बिगड़ता
और जाति है सहस्त्राब्दियों का सबसे बड़ा झूठ
जो सच से बड़ा हो गया है।

और अंत में बकलम कवि, कबीर कहते हैं–

कुहासा घना है आज भी
चक्की में पिस रहे लोग छटपटाते हैं
पर अपनी लुकाठी लेकर चलने
और अपना घर फूंकने का विकल्प
आज भी खुला है।

सवाल है कि कौन अपना घर फूंके? इसलिए अधिकांश मौन रहकर तटस्थ रहते हैं या सुविधाओं के साथ शांत जीवन चाहते हैं। लेकिन बदलाव का इतिहास वे ही बनाते हैं, जो घर फूंकने के विकल्प पर चलते हैं।

दूसरे खंड में ‘अच्छे दिनों का डर’, ‘मामा के गांव का गोबर’, ‘कमाल है!’, ‘ईश्वर को कौन बनाएगा?’, ‘खजुराहो निहितोपदेश’, ‘खजुराहो में केलि’, और लंबी कविता ‘उजाले में आजानुबाहु’ दिनेश कुशवाह के गहनतम चिंतन की कविताएं हैं, जिनके ऊपर चर्चा जरूरी है।

‘अच्छे दिनों का डर’ कविता में कवि ने उस डर को पकड़ा है, जिसकी तरफ भद्र हिंदी कवियों का ध्यान नहीं गया। लोगों ने अच्छे दिनों के जुमले में सबको रोजगार मिलने का सपना देखा था, सत्ता द्वारा लोकतंत्र को रामराज्य में बदलने की कल्पना नहीं की थी। जनता ने नहीं जाना था कि अच्छे दिनों का मतलब धर्मनिरपेक्षता और मौलिक मानवाधिकारों की बात करने वाले संविधान को ठिकाने लगाने का था। इसलिए कवि को मृत्यु से नहीं, छप्पन इंच के सीने की हुंकार से डर लगा था, क्योंकि उसमें वह रामराज्य की हिंसक टंकार सुन रहा था। यथा–

जीवन के अंतिम सत्य से डर नहीं लगता
तब छप्पन इंच सीने की हुंकार से डर क्यों लगता है
जब अच्छे दिन आने वाले हैं, तब डर क्यों लगता है?
मेरे भाई!
मैं सीता और शंबूक दोनों हूं
मुझे डर रामराज्य से लगता है।

कवि जानता है कि अतीत में इसी रामराज्य ने स्त्रियों और शूद्रों के लिए भय की जो विरासत दी थी, उसे जिंदा किया जा रहा है। कवि ने ‘भयसेना’ कविता में कहा है–

हमें विरासत में मिला है
निजी सेनाओं और सामूहिक
नरसंहारों का भय
हमें भय है कि अकेले कब मार दिए जाएं।
पहले त्रिविध तापों का भय
लोक-परलोक तक पीछा करता था
अब हमारा भय त्रिलोकव्यापी बहुराष्ट्रीय हो गया है।
भयों की अट्ठारह अक्षौहिणी सेना
हमारे पीछे पड़ी है
इधर कुछ दिनों से
हमारा भगवान भी उनमें से एक हो गया है।

यह अत्यंत विचारणीय पंक्ति है कि “हमारा भगवान भी उनमें से एक हो गया है”। जब भयों की सेना “जय श्रीराम” बोलकर आग लगा रही हो, हत्याएं कर रही हो, तो राम भी अच्छे दिनों का एक बड़ा भय बन गया है।

‘मामा के गांव का गोबर’ कविता बिंब-विधान की दृष्टि से बहुत अर्थपूर्ण है। “शाकाहारियों की भोली बस्ती, और उसके चारों ओर जमींदार का डरावना आतंक” इतना प्रतीकात्मक बिंब है कि पूरे गांव का ही नहीं, समूचे देश का यथार्थ आंखों में तैर जाता है। हिंसा से दूर, शांत स्वाभाव के भोले लोगों में सिवाए सहनशीलता के और क्या हो सकता है? ऐसे वातावरण में बिताए गए कवि के बचपन की अनुभूतियां किसी ‘थेरी-गाथा’ से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। यथा– 

बुजुर्ग सुनाते अंग्रेज बहादुर की बातें
और जमींदार के किस्से
कि कैसे जमींदारी के टूटने के बाद भी
अगर उसका घोड़ा
गांव के अगल-बगल हिनहिनाता
लोगों के भीतर भय की
घंटियां बज उठतीं।
सावन का संहत होते ही
गांव के सारे हल पहले
जमींदार के खेत में जाते
उसके बाद ही लोग अपना लेव लगाते।

ऐसे आतंकित माहौल में उस मिट्टी के लाल क्या उपलब्धियां हासिल कर सकते थे? कवि इन शब्दों में इसे शिद्दत से दर्ज करता है–

आज देखता हूं
वे सारे लाल उसी मिट्टी में खप गए
हर नौजवान जो वहां
लड़ने-पढ़ने और खेती करने में आदर्श था
नहीं बन सका प्रोफ़ेसर, डाक्टर
इंजीनियर या धनी किसान
बस मामा के गांव का गोबर हो गया।

दिनेश कुशवाह ने एक कविता मेरे नाम से भी लिखी है, ‘कमाल है! कहा कंवल भारती ने’। याद आता है, इलाहाबाद में कबीर-रैदास निर्गुण संतों पर आयोजित एक संगोष्ठी में, जिसमें कुशवाह जी भी थे, मैंने कबीर पर अपनी बात रखी थी। उसके बाद ही कवि की कलम से इस कविता का जन्म हुआ। यह कविता मेरे वक्तव्य का अनुवाद नहीं है, लेकिन उसका प्रतिनिधित्व अवश्य करती है। यथा–

उनसे स्वीकृति की भीख क्यों मांगें?
उन्होंने पांच सौ सालों तक कबीर को कवि नहीं माना
आपको कवि होना था तो जन्मना था उनके कुल में।
हम सबसे आदरपूर्वक पढ़ते हैं उनकी पोथियां
पर सबसे अधिक घृणा वे हमारे खिलाफ ही बांचते हैं।
उनके लिए दुश्मन पक्ष का गद्दार भी कुलभूषण है
शरणागत चराचर द्रोही को घोषित करते हैं परम साधु।
गाय के नाम पर दे दे बाबा
गंगा के नाम पर दे दे बाबा
आग के नाम पर दे दे बाबा
नाग के नाम पर दे दे बाबा।
भिखारियों मुझे क्षमा करना
वे तुमसे बड़े भिक्षुक हैं
तुम्हें जूता साफ़ करने के लिए भी
नहीं बिठाएंगे अपने साथ।

एक कविता मकबूल फ़िदा हुसैन के लिए लिखी गई ‘ईश्वर को कौन बनाएगा’ है, जो सांस्कृतिक फासीवादियों की सोच पर सलीके से प्रहार करती है। पर समस्या यह है कि फासीवादियों के पास अपनी विरासत को समझने का सलीका ही नहीं है। कवि ने बहुत ही खूबसूरत तरीके से कविता और कला को परिभाषित किया है–

जो चित्त पर चढ़ जाती है
और उतारने पर भी नहीं उतरती
उसे ही कविता में उतारता है कवि
चित्र में चित्रकार।

कवि रहीम और रसखान की चेतना से हिंदू फासीवादियों की विषाक्त मानसिकता का विष उतारने की कोशिश करता है–

और तुम किसी को इस बात पर
देश छोड़ने के लिए मजबूर कर देते हो
कि वह अपनी कला में
एक पुरातन नारी को कैसे देखता है?
पुरुष पुरातन की वधू को चंचला कहने पर
तुम रहीम के साथ भी यही करोगे?
तुम भूल जाओगे रसखान को
जो कृष्ण की मुरली और कामरिया पर
तीन लोकों का राज तुच्छ समझते हैं।

कवि हिंदू फासीवादी उन्मादियों को उन्हीं के मिथकों और पुराणकथाओं की अश्लीलता का स्मरण कराते हुए प्रश्न करता है–

जयदेव, विद्यापति और सूर की राधा के
चित्र मिटा दोगे तुम?
वृंदावन को जला दोगे
कि वहां एक बार कृष्ण के मन में
जगी लालसा गोपियों को निर्वसन देखने की
सरस्वती और ब्रह्मा की कथा क्या करोगे?
और सारे पुराणों का?
तुम उनके खिलाफ क्यों नहीं बोलते
जो सरस्वती का निर्लज्ज व्यापार कर रहे हैं
दरअसल
वे निर्वसन कर रहे हैं सरस्वती को।

असल समस्या फासीवादी हिंदुओं को मुसलमानों और ईसाईयों से है। फ़िदा मकबूल हुसैन मुसलमान थे, जिससे वे सिर से पैर तक डूबकर नफरत करते थे। वे इस कदर नफरत से भरे हैं कि रंगों को भी सांप्रदायिक नजर से देखते हैं। उन्हें भगवा रंग के सिवा कोई रंग पसंद नहीं है। इसलिए हरे और सफ़ेद रंग से उनका वैर है। लेकिन कवि कहता है–

सारे रंग आदमी के हैं
इनमें से एक रंग भी हटा दें
तो इंद्रधनुष नहीं बनेगा
बेरंग हो जायगा फागुन।

पर विध्वंस के देवता इंद्रधनुष से कहां प्यार करते हैं? प्यार का शब्द तो उनके कोश में है ही नहीं। हुसैन बाबा को अपने देश में रहने नहीं दिया गया। उनकी मृत्यु पराए देश में हुई। उनकी मृत्यु को कवि ने ‘हुसैन बाबा’ कविता में बहुत ही मार्मिक शब्दों में याद किया है। हुसैन पर यह कवि का भावभीना शोकगीत है। यथा–

जानवर क्या सोचते हैं अपनों से बिछुड़कर
एक को खोकर दूसरा पक्षी क्या सोचता है
मेरी मृत्यु पर क्या सोचते होंगे मेरे घोड़े?
प्रिय का वियोग मृत्युबोध से अधिक दुखदायी है
ऐसे समय आदमी के मुंह से फूट सकती है कविता
आ सकता है क्रोध
वह शाप दे सकता है
जाओ! तुम्हारा सपना इस देश में कभी पूरा न हो।

यह शाप हिंदू फासीवादियों के हाथों क़त्ल किए गए हुसैनों, अख़लाकों, और जलाए गए पादरियों के भीतर से भी आया होगा। पर फासीवादियों के सपने को तोड़ना उन सभी भारतीयों का कर्तव्य है, जो अपने देश के इंद्रधनुष से प्यार करते हैं। 

दिनेश कुशवाह की खजुराहो पर तीन कविताएं हैं, एक पहले संग्रह में ‘खजुराहो में मूर्तियों के पयोधर’, और दो बाद के संग्रह में ‘खजुराहो निहितोपदेश’ और ‘खजुराहो में केलि’। संभवत: बाद की दोनों कविताएं, पहली कविता का ही विस्तार हैं। इन तीनों कविताओं में जितना सूक्ष्म और गंभीर अध्ययन और चिंतन दिखता है, वह संपूर्ण हिंदी-काव्यधारा में नहीं मिलता। कवि ने ‘खजुराहो में मूर्तियों के पयोधर’ कविता मंदिरों की सहस्त्राब्दी के अवसर पर लिखी थी। इस कविता के लिए दो दृष्टियों से दाद देनी होगी, एक उसकी महान कल्पना के लिए, और दो, उसके अद्वितीय बिंब और रूपकों के लिए। कल्पना, बिंब और रूपक इन तीनों का सूक्ष्म मिलन देखिए–

मनुष्य का सबसे मुलायम अनुभव
छेनी और हथौड़ियों से तराशा गया है
जैसे बल खाती नदी का जल
हौले-हौले गढ़ता है शालिग्राम
कलेजे से लगाकर शिलाखंड।
कलाकार हाथों ने पत्थरों में जड़ दिए हैं
नवनीत के बड़े-बड़े लोने
कि वे सदा वैसे ही बने रहें
न ढलें, न गलें
प्रगाढ़ आलिंगनों से अक्षत
इतने उदग्र ऐसे उद्धत
जैसे संसार भर में बनने वाली रंग-बिरंगी चोलियां
पांव पोंछने के लिए हों।

स्त्री-अंगों का इतना कोमल चित्रण हमें सिर्फ संस्कृत में ही वाल्मीकि और कालिदास के काव्य में मिलता है। मुझे नहीं लगता कि इतनी सूक्ष्म कल्पना हिंदी में किसी अन्य कवि ने की हो। इस अद्भुत कल्पना का सौंदर्यबोध भी अद्भुत है। ये पंक्तियां देखिए–

इन्हें देखकर मन करता है
कहीं से कटोरा-भर केसर घोल लाऊं
और धीरे-धीरे करूं इन पर लेप
जैसे ज्योतिर्लिंग का अभिषेक किया जाता है
मनुहार कर किसी को ले चलूं अपने संग
ख़ूब आदर-सत्कार करूं और पूछूं
इन मंगलघटों में बसे मनुष्य के प्राणों का रहस्य। 

‘खजुराहो में निहितोपदेश’ और ‘खजुराहो में केलि’ निस्संदेह कामवासना की कविताएं हैं। ओशो ने ‘संभोग से समाधि’ में खजुराहो को बहुत ख़ूबसूरती से चित्रित किया है। एक परिवार खजुराहो के मंदिर में संभोग की मुद्रा में मूर्तियों को देखकर उपेक्षा से वहां से चला आता है। पिता मन में सोचता है, बाद में अकेले आकर देखूंगा। साथ में बेटी है, उसके मन में भी यही विचार चल रहा था, अकेले आकर देखूंगी। और यही विचार पत्नी में भी चल रहा था। तीनों होटल में जाकर आराम करते हैं, और फिर तीनों अलग-अलग समय पर मौका देखकर खजुराहो पहुंच जाते हैं, उन काम-प्रतिमाओं को रोमांचित भाव से देखते हैं। अचानक पति कुछ दूरी पर खड़ी अपनी बेटी को देखकर चौंक जाता है। बेटी भी कुछ दूरी पर अपनी मां को देखकर चौंक जाती है। यह चौदह वेगों में शामिल वासना का वह वेग है, जिसे रोका नहीं जा सकता। ‘खजुराहो निहितोपदेश’ कविता में दिनेश कुशवाह की ये अद्भुत पंक्तियां हैं–

समझो इसे ठीक से
जिसने वासना को खुलकर जिया नहीं
उसकी कल्पना भ्रष्ट हो जाती है
कि काम का कोई भी विकल्प
काम से अधिक विरूप है।
धरती पर अकेला है खजुराहो
उसे खोजना हो तो उसे भीतर खोजना
तब देख सकोगे अपनी आत्मा की महावासना का
विलक्षण सौंदर्य।

संभोग के दौरान वह एक ही क्षण होता है, जब ‘आत्म’ खो जाता है, ‘मैं’ लुप्त हो जाता है। वह अनुभूति अवर्णनीय होती है, जिसे ओशो ने समाधि कहा है। दिनेश कुशवाह कहते हैं–

भला
‘सुरत’ के समय कौन देख पाता है
तनाव और कसाव की इंतिहा पर पहुंचे
अपने ही अंगों का आकुल सौंदर्य।
सितारों से आगे जाती है
स्पर्श-सुख की पराकाष्ठा
उसे दबाने में जीवन की लाली चली जाती है।

दूसरी कविता ‘खजुराहो में केलि’ है। केलि रति, क्रीड़ा या मैथुन को कहते हैं। लेकिन इस कविता में केलि एक ‘मानवी’ के रूप में आई है। कविता में आरंभ में ही कवि कहता है–

वक्ष, कटि, नितम्ब के लोच, लय, उभार
उल्लास एवं अतिरेक के आवेश भरे सीत्कार से
रोम-रोम में होता है हर्ष का उद्रेक
और कमल पुष्प के समान
खिल उठता है नायिका का मनोज-मंदिर।

यह कोई कामशास्त्र का सूत्र नहीं है, न जयदेव के ‘गीतगोविंद’ के किसी पद का अनुवाद है, और न कालिदास के ‘कुमारसंभव’ के शिव-पार्वती की रति-क्रिया का वर्णन है, वरन, ‘जीवन की जलती रेत पर, सिर पर रखे दुःख के भारी पत्थर को कमर से ठेलते आदमी की जिजीविषा का आधार है। खजुराहो की काम-प्रतिमाएं मानवी का जो बिंब रचती हैं, उसे कवि ने इस तरह व्यक्त किया है–

मुख से वक्ष और नयनाभिराम नाभि के नीचे
मंत्रविद्ध प्राण-ऊर्जा प्रार्थना करती है प्रचोदयात् की
कि उठें शिखर से हम
विचरें उदधि के अतल तल में
प्राणों को पुकारती है चिद् विलासिनी आत्मा
आओ मैं तार दूं तुम्हें एक ही अंकवार में।
मैं न तांत्रिक, न भुवनमोहिनी अतिरूपा
मैं एक मानवी
तुम्हें कितना सुख दूं कि
तुम परमहंस हो जाओ
आओ तुम्हारे रोमकूपों को ऐसा पुरूं
कि तुम्हारी समाधि लग जाए
और मोक्ष तो तुम्हारे हाथ में है
मदकल मदिराक्षी नीविमोक्षो हि मोक्ष:।

दिनेश कुशवाह की एक कविता ‘कथादेश’ के संपादक हरिनारायण के लिए लिखी ‘एक लड़की ही थी’ है। यह कविता दो कारणों से उल्लेखनीय है, एक अपने शिल्प की वजह से, जिसमें अल्लामा इक़बाल या साहिर लुधियानवी की नज़्म जैसा आनंद आता है। और दूसरा कारण कवि का अपना विशिष्ट ‘अंदाज़ेबयां’ है। आजकल हिंदी में जिस तरह की कविताएं लिखी जा रही हैं, इसका शिल्प उस सबसे अलग है। हालांकि यह हिंदी कविता है, पर मैं इसे हिंदी में लिखी उर्दू की नज़्म कहना पसंद करूंगा। यथा–

बोल क्या तूने उदासी से सगाई की है
जिस्म से, जान से, दुनिया से लड़ाई की है
ऐ मेरे दिल! कहीं जीता है कोई ऐसे भी
एक लड़की ही थी, दुनिया ही समूची तो न थी।
किसी को चाहने की हद है, मौत से मिलना
किसी के रूप का हासिल है, ये तिल-तिल जलना
कि उसकी आरज़ू में फूल-चांद-तारे हैं
पर कोई फ़र्द कायनात नहीं हो सकता
एक लड़की ही थी, दुनिया ही तो समूची न थी।

नज़्म के बीच में दिलकश शायरी भी–

हर मयक़दे में सुकूं की तलाश, क्या मानी!
ख़ुशी के वास्ते ही हर शराब होती है
ग़मों के दौर में पीना भी कोई पीना है
ख़ामख़ा और भी हालत ख़राब होती है।

और आखिर में बिल्कुल मीर का अंदाज़–

ढूंढ़ते हो जिसे इस तरह कहां पाओगे?
इस घड़ी ऐ दिले आवारा कहां जाओगे?
अभी गलियों में एक शख्स फिरा करता है
जिसको शोहरत न किसी से बताई जाती है
एक लड़की ही थी दुनिया ही समूची तो न थी। 

‘उजाले में आजानुबाहु’ दिनेश कुशवाह के ‘इतिहास में अभागे’ संग्रह की अंतिम और किंचित लंबी कविता है, जो महत्वपूर्ण ही नहीं, विचारोत्तेजक भी है। इस कविता को जिसने नहीं पढ़ा, समझो, वह हिंदी कविता की अब तक की सबसे महान रचना से अपरिचित है। आजानुबाहु का अर्थ है वह व्यक्ति, जिसके हाथ घुटने तक लंबे हों। हिंदू मान्यता में आजानुबाहु श्रीराम को कहा जाता है। लेकिन वास्तव में आजानुबाहु वह है, जो बड़बोलेपन तथा झूठ बोलने का अभ्यस्त होता है और अपनी ही पीठ को बार-बार ठोकता है। ऐसे लोगों की सिर्फ भुजाएं ही नहीं, बल्कि ज़ुबानें भी लंबी होती हैं। ऐसा प्राणी अतीतजीवी होता है, और समझता है कि विश्व की सारी महान सभ्यताएं उसी ने पैदा की हैं। यह कविता दिनेश कुशवाह की अप्रतिम प्रतिभा की अद्वितीय उदाहरण है। कविता की शुरुआत इन पंक्तियों से होती है–

बड़प्पन का ओछापन संभालते बड़बोले
अपने मुंह से निकली हर बात के लिए
अपने आप को शाबाशी देते हैं
जैसे दुनिया की सारी महानताएं
उनकी टांग के नीचे से निकली हों
कुनबे के काया-कल्प में लगे बड़बोले
विश्व-कल्याण से छोटी बात नहीं बोलते।
वे करते हैं अपनी शर्तों पर
अपनी पसंद के नायक की घोषणा
अपनी विज्ञापित कसौटी के तिलिस्म से
रचते हैं अपनी स्मृतियां और
वर्तमान की निंदा करते हुए पुराण।

अभिधा, लक्षणा और व्यंजना इस कविता की शब्द-शक्ति है, जो चमत्कार पैदा करती है। यथा–

सरदार पटेल होते तो इस बात पर
हमसे जरूर राय लेते
जैसा कि वे हमेशा किया करते थे
अरे छोड़ो यार!
नेहरू को कुछ आता-जाता था
सिवा कोट में गुलाब खोंसने के
तुम तो थे न
जब इंदिरा गांधी ने हमें
पहचानने से इंकार कर दिया
हम बोले—हमारे सामने
तुम फ्राक पहनकर घूमती थी इंदू!
लेकिन मानना पड़ेगा भाई
इसके बाद जब भी मिली इंदिरा
पांव छूकर ही प्रणाम किया।

यह चित्रण हमारे समय के किसी एक बड़बोले राजनेता का नहीं है, बल्कि ऐसे असंख्य बड़बोले नेता इस कविता में पहचाने जा सकते हैं। यथा–

‘मैं’ उनके लिए नहीं बना
वे ‘हम’ हैं
हम होते तो इस बात के लिए
कुर्सी को लात मार देते
जैसे हमने ठाकुर प्रबल प्रताप सिंह को
दो लात लगाकर सिखाया था
रायफल चलाना।
वे कभी लोगों की लाशों पर
राजधर्म की बहस करते हैं–
शुक्र मनाइए कि हम हैं
नहीं तो अब तक
देश के सारे हिंदू हो गए होते उग्रवादी
कभी वे अभिनेत्री के
गाल की तरह सड़क बनाते हैं
कभी कहते हैं सड़क के गड्ढे में
इंजीनियर को गाड़ देंगे।
कभी कहते हैं रियायती दर की हवाई यात्रा
ढोर-डांगरों के लिए है।

आजानुबाहु सिर्फ पुरुष ही नहीं हैं, स्त्रियां भी उतनी ही बड़बोली हैं–

देवता तो देवता हैं
देवियां भी कम नहीं हैं
कहती हैं, बस बहुत हो चुका!!
पीएम की खीज जायज है
या तो पर्यावरण बचा लो
या निवेश करा लो
छबीली मुस्कान, दबी ज़बान में
कहती हैं वे
सचमुच बहुत भौंकते हैं
ये पर्यावरण के पिल्ले।

लेकिन कवि उन्हें हिदायत देता है–

नहीं जानती वे कि उन जैसी हजारों
स्वप्न-सुंदरियों की कंचन-काया
मिट्टी हो जायेगी तब भी
बची रहेंगी मेधा पाटकर, अरुणा राय और
अरुंधती, चिर युवा-चिरंतर सुंदर।

धीरे-धीरे कविता अपने तेवर में आती है, और इन आजानुबाहुओं की कलाइयों को मरोड़ना शुरू करती है–

बड़बोले देश बचाने में लगे हैं।
बड़बोले यह नहीं बोलते कि
अगर इस देश को बचाना है
तो उन बातों को भी बताना होगा
जिन पर कभी बात नहीं की गई
जैसे मुट्ठी भर आक्रमणकारियों से
कैसे हारता रहा है ये
तैतीस करोड़ देवी-देवताओं का देश?
तब कहां थी गीता?
हर दुर्भाग्य को ‘राम रचि राखा’ किसने प्रचारित किया?
लोगों में क्यों डाली गई भाग्य-भरोसे जीने की आदत?

लेकिन कवि आश्चर्य व्यक्त करता है कि इन बड़बोलों के खिलाफ उठती हर आवाज को कैसे दबाया जा रहा है–

पर आश्चर्य!!
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक
कोई असरदार चीख नहीं
‘सब चुप्प’
जिन्होंने कोशिश की उन्हें
वन-कंदरा-पहाड़ की गुफाओं में
खदेड़ दिया गया
गाड़ दिया गया ‘अंधेरे में’।

इन खतरनाक बड़बोलों की कई विशेषताओं का खुलासा भी कवि ने जिन बिंबों के माध्यम से किया है, वे इतने मारक हैं कि सिहरन पैदा करते हैं। यथा–

पृथ्वी उनके लिए बहुत छोटा ग्रह है
आप संपूर्ण ब्रह्मांड उनके मुंह में देख सकते हैं
ऐसे लोगों को देखकर ही बना होगा
समुद्र पी जाने और सूर्य को लील लेने का मिथक।
बड़बोलों ने रच दिया है
भयादोहन का भयावह संसार
और बैठा दिए हैं हर तरफ
अपने रक्तबीज क्षत्रप।
अब हंसने की चीज नहीं रहा
चमड़े का सिक्का
उन्होंने प्लास्टिक को बना दिया
‘मनी’ और ‘पारसमणि’
छुआ भर दीजिए सोना हाजिर।
बड़बोले किसी के सगे नहीं हैं
वे जिस पौधे को लगाते हैं
कुछ दिनों बाद एक बार
उसे उखाड़कर देख लेते हैं
कहीं जड़ तो नहीं पकड़ रहा।
अगर आप उनके दोस्त बन गए
तो वे आपको जूता बना लेंगे
पहनकर जाएंगे हर जगह
मंदिर-मस्जिद-शौचालय
और दुश्मन बन गए, तो आप
उनकी नीचता की कल्पना नहीं कर सकते।

और अंत में कवि का निष्कर्ष बेहद विचारोत्तेजक है–

सिर्फ बोलते और बोलते हुए
वाणी के बहादुरों ने
लोकतंत्र पर कब्जा कर लिया
और बांट दिया उसे
जनबल और धनबल के बहादुरों में
और अब तीनों मिलकर
देश पर मरने वालों को
पदक बांट रहे हैं।

यह कविता अराजकवादी नहीं है, और न ही अराजकता में कवि का विश्वास है। कवि की चिंता लोकतंत्र के विनाश को लेकर है, जो बहुसंख्यक गरीब, शोषित, पिछड़ी दलित जनता के कल्याण की बहुत बड़ी आशा है। ये बड़बोले और सच कहूं तो सत्ता के तानाशाह जनता की इसी आशा को खत्म कर उनकी आकांक्षाओं की लाशों पर अपने साम्राज्य का महल खड़ा कर रहे हैं। उन्हें मनुष्य की फ़िक्र नहीं है, फ़िक्र सिर्फ अपनी पूंजीवादी प्रणाली की रक्षा की है, जिसे जनप्रतिरोध से खतरा है, और फासीवाद इसी खतरे को रोकने का उनका कारगर हथियार है।

(समाप्त)

(संपादन :राजन/ नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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