एक दौर था, जब रसानुभूति कविता का मुख्य तत्व हुआ करता था। कवि भी ईरान-तुरान की कल्पनाएं करके अजीब-अजीब शब्दों और अलंकारों से अपनी कविता को सजाते थे; लय में गाते थे, और श्रोताओं की वाह-वाही लूटते थे। यह कविता का रसिक दौर था, जब न कवि के सामाजिक सरोकार होते थे, और न श्रोताओं के। दोनों एक ही लोक के प्राणी थे, उस लोक के, जिसमें उनके लिए कहीं कोई दुःख नहीं था। वे कविताएं इस तरह की होती थी–
जग की सजल कालिमा रजनी में मुखचंद्र दिखा जाओ;
प्रेम वेणु की स्वर लहरी में जीवन गीत सुना जाओ।
स्नेहालिंगन की लतिकाओं की झुरमुट छा जाने दो;
जीवन धन इस जले जगत को वृंदावन बन जाने दो।
या फिर वीर रस में कविता इस तरह ललकार मारती थी–
कलकल बहती थी रणगंगा, अरिदल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी, चटपट उस पार लगाने को।
बैरी दल की ललकार गिरी, वह नागिन सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो बचो, तलवार गिरी, तलवार गिरी।
दीन-दुखियों पर भी कुछ कवि, जो न दीन थे और न दुखी, इस तरह लिख देते थे–
दीन दरिद्रों के देहों को मेरा मंदिर मानो।
उनके आर्त उसासों को ही वंशी का स्वर जानो।
ये ऐसे कवि थे, जो न युद्धों का कारण जानते थे, और न गरीबी का। वे न धर्म के शोषण-तंत्र को समझते थे और न समाज-व्यवस्था के विद्रूप को पहचानते थे। उनका सारा कवि-कर्म पौराणिक आख्यानों, हिंदू शौर्य-गाथाओं और व्यर्थ की मिथ्या कल्पनाओं पर खड़ा था। वे दलितों को हिंदू समाज का अंग नहीं मानते थे, इसलिए वे उनकी न निगाह में थे और न चिंता में। वे देश के श्रमिकों, और शोषित वर्गों के इतिहास, उनके श्रम और संघर्ष के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं रखते थे और न उसमें उनकी कोई दिलचस्पी थी। उनका भारत सवर्ण हिंदुओं का भारत था, और उनका इतिहास सवर्ण हिंदुओं का इतिहास। वे जाति-मुग्ध लोग थे। भारतेंदु हरिश्चन्द्र जैसे साहित्यकार तक जाति का इतिहास लिखकर (‘अग्रवालों की उत्पत्ति’) क्षत्रिय होने का दावा करते थे, जो उनके अनुसार, वैदिक कर्म छोड़ने से नीचे धकेल दिए गए थे। ऐसे कवि-लेखक-इतिहासकार वर्णव्यवस्था के खिलाफ कैसे जा सकते थे? वे उपेक्षितों के संघर्ष को कैसे समझ सकते थे? उनकी दृष्टि में तो वह सब ‘भाग्य-बदा’ ही था।
उपेक्षितों के दर्द और संघर्ष को नई कविता के दौर के कवि भी न लिख सके, क्योंकि सामाजिक पृष्ठभूमि उनकी भी वही थी, जिन्होंने ‘हवाई धारा’ बहाई थी। उन्होंने भी लिजलिजी मांसल देह की, या अपनी व्यक्तिगत कुंठाओं की कविताएं लिखीं। जैसे–
मैंने जमा कीं
नौ जवान
या दस बेबस लड़कियां
और उन्हें चिपके कपड़े पहना दिए
फिर मैं रोया उनके स्तनों की असली शक्ल देखकर।
वे यही लिख सकते थे, क्योंकि उनकी यही अनुभूतियां थीं। या, फिर वे राजनीतिक कविताएं लिखते थे। जैसे–
इससे तो पहले के शासक अच्छे थे
वे अंधे थे,
पर शासन तो करते थे।
मुझे आश्चर्य होता है कि अज्ञेय के ‘तार सप्तक’ में ‘नए कवि’ के रूप में ऐसे भी कवि शामिल थे, जो रामायण, गीता, उपनिषदों का पाठ करते थे। ऐसे कवि ने क्या नया लिखा होगा?
एक नई खोज और एक नई विचारशीलता नई कविता के मूल में ही नहीं थी। इसके पैरोकारों ने इसे किस आधार पर नई कविता कहा, यह आज भी मेरी समझ से परे है। अगर कविता में नई चेतना, और नई वैचारिकी नहीं, तो वह किधर से नई कविता हुई?
कविता के इतिहास में नई चेतना का उद्भव तब हुआ, जब हिंदी में निम्नवर्गीय सामाजिक पृष्ठभूमि से आए कवियों ने दस्तक दी। वह भी दलित जातियों से आए कवियों ने। उन्होंने उपेक्षितों के दबे हुए इतिहास को भी खोजा, और उनके संघर्ष को भी चित्रित किया। उन्होंने न केवल हिंदू शौर्य-गाथाओं और मिथकों का पुनर्पाठ किया, बल्कि उनमें अंतर्निहित सत्य को भी सामने रखा। उन्होंने वर्णव्यवस्था को भी नकारा और ब्राह्मणवाद के खिलाफ भी लिखा। वास्तव में देखा जाए तो नई कविता इन्हीं दलित कवियों के रचना-कर्म से शुरू हुई।
दलित रचनाकर्म के बाद एक और रचनाशीलता पिछड़ी जातियों के कविता-कर्म से आई। दलित और पिछड़ी जातियों के रचनाकर्म ने मिलकर बहुजन रचनाशीलता का निर्माण किया। लेकिन दलितों और पिछड़ों की अनुभूतियां एक समान नहीं थीं, इसलिए इस बहुजन रचनाशीलता में भी दो चेतनाओं का अंतर साफ़ दिखाई देता था। इसका कारण उनके अलग-अलग सामाजिक परिवेश थे। दलित जातियां अछूत मानी जाती थीं, इसलिए उनके साथ सवर्ण हिंदुओं का सामाजिक व्यवहार नहीं के बराबर था। उन्हें छूना तो दूर, उनकी छाया भी सवर्ण हिंदुओं के लिए, जिनमें पिछड़ी जातियां भी शामिल थीं, अशुद्ध मानी जाती थी। इसके विपरीत, पिछड़ी जातियां सछूत थीं, उनके साथ सामाजिक व्यवहार निषिद्ध नहीं था। इसलिए पिछड़ी जातियों में हिंदूधर्म की मान्यताओं, प्रथाओं और अनुष्ठानों का खासा प्रभाव था। यह प्रभाव उनकी कविताओं में भी आया। अत: कहना न होगा कि साहित्य के बहुजन रचनाकर्म में ओबीसी धारा इसी बिंदु पर दलित चेतना से अभी भी पृथक बनी हुई है।
हमारे समय के सवालों पर सबसे मुखर कवि दिनेश कुशवाह बहुजन रचनाशीलता के एक महत्वपूर्ण कवि हैं। उनका पहला कविता-संकलन ‘इसी काया में मोक्ष’ नाम से 2007 में आया। हालांकि मोक्ष की अवधारणा ही ब्राह्मणवादी है। मोक्ष को मानते ही, चाहे इसी काया में, या काया के बाहर, पाप-पुण्य की धारणा स्वत: विश्वास में आ जाती है। मनुष्य को पापों से मुक्ति चाहिए, और यह मुक्ति ही हिंदूधर्म में मोक्ष है। दिनेश कुशवाह के इस कविता-संकलन की पहली कविता यही है, ‘इसी काया में मोक्ष’। इस कविता को पढ़कर निराशा हुई, क्योंकि यह वैज्ञानिक नहीं, बल्कि ब्राह्मणवादी चेतना की कविता है। इस कविता के आरंभ में ही कवि ‘जन्म-जन्मांतर’ अर्थात कई जन्मों की हिंदू मान्यता में विश्वास करता है। यथा–
बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूं
जिसे देखते ही लगे
इसी से तो मिलना था
पिछले कई जन्मों से।
इसी कविता में कवि करोड़ों जन्मों के पापों में भी विश्वास करता है, जैसे सचमुच करोड़ों जन्म होते हों। और अफ़सोस कि कवि उन्हीं पापों से मुक्ति को मोक्ष मानता है। यथा–
बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूं
जिसे देखते ही लगे
करोड़ों जन्मों के पाप मिट गए
कट गए सारे बंधन
कि मोक्ष मिल गया इसी काया में।
लेकिन दिनेश कुशवाह की कविता-यात्रा का विकास संकलन की दूसरी कविता ‘पिता की चिता जलाते हुए’ से होता है। यह कविता संवेदना के स्तर पर मर्मस्पर्शी है। हालांकि इस कविता में भी कवि ने हिंदू पौराणिक बिंबों का ही प्रयोग किया है, तथापि उनके माध्यम से समाज में अभागे व्यक्तियों के जीवन-संघर्ष का जिस तरह भावप्रवण चित्रण किया है, वह रोमांचित करता है। वसुदेव और यमुना के बिंब के जरिए एक पिता अपने पुत्र से कहता है–
भादों की किसी विकट काली रात में
जब छप्पन कोटि बरसते हों देव
अपने निकट बहने वाली नदी को
उसकी समग्र भयावहता में देखो
और कल्पना करो कि
यमुना को कैसे पार किया होगा वसुदेव ने
एक नवजात बच्चे के साथ!
तुम्हें लेकर जीवन की वैतरणी को
कुछ इसी तरह पार किया है मैंने।
यही कारण है कि कवि धनी और गरीब के बीच के फर्क को उसकी वास्तविकता में समझ सका है–
अघाए हुए और रिरियाते आदमी की
हंसी में फर्क करना सीखो
अभागा आदमी का बच्चा
जनमते ही रोना शुरू कर देता है
जिंदगानी की कहानी उसी समय शुरू हो जाती है
फटी धोती, टूटी झोपडी, डसी देह और कुचली आत्मा ने
गरीब को एक अदद अधम शरीर बना दिया
पंचतत्व तो आज भी अमीरों की चाकरी में लगे हैं।
‘पंचतत्व अमीरों की चाकरी में लगे हैं’ यह ऐसा बिंब है, जिसके दो अर्थ हैं, एक यह कि अमीर के पंचतत्व अमीर के घर ही पुन: शरीर धारण करते हैं, और दूसरा यह कि हवा, पानी, आग, मिट्टी, और गगन सब पर अमीर का कब्ज़ा है। एक पुनर्जन्म के सिद्धांत में विश्वास पैदा कराता है, और दूसरा पूंजीवाद पर प्रहार करता है। लेकिन आगे कवि दोनों के विरुद्ध जनता को कविता से शिक्षित करने की बात कहता है–
इसलिए जनता को शास्त्र नहीं,
कविता से शिक्षित करो
साधुता को श्रम से जोड़ो
भिक्षा से मुक्त करो।
निस्संदेह ब्राह्मणवाद का सारा हवामहल शास्त्र से ही निर्मित है, और शास्त्र-पाठियों को श्रम से जोड़कर पंचतत्वों को भी अमीर की चाकरी से मुक्त कराने का यह कवि का अद्भुत चिंतन है।
‘इसी जन्म में’ कविता में कवि पुनर्जन्म का भी खंडन करता है। यह कविता ‘इसी काया में मोक्ष’ की धारणा के भी विपरीत है। इसमें कवि ने वेलेंटाइन दिवस पर अपनी प्रेयसी को याद किया है। यथा–
अगर मेरा किंचित विश्वास होता पुनर्जन्म में
तो मान लेता कि मैं तुम्हें फिर कभी पा लूँगा
पर मुझे जितना विश्वास है तुम्हारे प्यार पर
उतना ही अविश्वास है दूसरे जन्म में
इसलिए तुम्हें न पाने की कल्पना से भी
मुझे बेइंतिहा दर्द होता है
कवि इस कविता में ईश्वर के अस्तित्व से भी इंकार करता है। यथा–
अगर मेरा किंचित विश्वास होता इस बात में
कि सब कुछ देख रहा है ईश्वर
एक दिन वह न्याय करेगा
तो मैं कभी विचलित न होता
मरते क्षण तक उसकी प्रतीक्षा करता
पर मुझे जितना सच दिखता है दुनिया का दुःख-दर्द
उतना ही झूठ लगता है भगवान।
गरीबी पर दिनेश कुशवाह की एक और मार्मिक कविता है– ‘उस मां की कोख से जनमे बिना’। हालांकि, गरीबी पर बेशुमार कविताएं लिखी गई हैं, वामपंथी कवियों द्वारा सबसे अधिक; पर उनमें अधिकांश में केवल वर्ग-दृष्टिकोण की रस्म-अदायगी हुई है। जैसे आलोक धन्वा की कविता ‘भूखा बच्चा’, धूमिल की ‘अकाल-दर्शन’, अरुण कमल की ‘मातृभूमि’, और ऋतुराज की कविता ‘मौसम’, जिनमें शायद ही इन जैसे कवियों को गरीबी और भूख से कभी वास्ता पड़ा हो। दिनेश कुशवाह इस कविता में कहते हैं–
जितनी पीड़ा भोगती है गरीब की मां
क्या भोगेगा कवि!
मां की अंगुली नहीं, आंख की पुतली
बीनती है गोबर में अनाज
कूड़े में रोटी की चिंदियां
और उसे भी क्षुधातुर जब देखता है
कलेजे का टुकड़ा
तो कितना हाहाकार करती है मां की छाती
कोई भी पार्टी उतना हल्ला नहीं बोलती
कि एक बार उस मां की कोख से जनमे बिना
कोई भी कवि
नहीं लिख सकता वैसी कविता।
यह सहानुभूति की अच्छी कविता है, जिसकी तुलना हम मलखान सिंह की स्व-अनुभूति की दलित-कविता से कर सकते हैं–
भूख, आंख खुलते ही तुझे
चौखट पर बैठा देखा है
देखा है कि तुझे आंगन में पसरा देख
मेरी मां फूट-फूट रोई है।
भूख, हमारी रात को दर्द
दिन को नासूर बना दिया है तूने
और हमारे वजूद को
घूरे तक खींच लाई है तू।
(सुनो ब्राह्मण, कविता भूख)
इस संग्रह में दलित पीड़ा की अनुभूति भी एक कविता ‘कानपुर की एक मेहतर बस्ती में रहने के दिन याद करते हुए’ में अभिव्यक्त हुई है, जिसे कवि ने कामरेड गोपाल प्रधान के लिए लिखा है। इस कविता पर थोड़ा विचार करना जरूरी है। कवि कहता है–
रखा गया है इन्हें कुछ ऐसे
कि उन्हें पता ही न चले
कि वे किस नरक में रह रहे हैं।
सिर्फ इन्होंने देखा है
कैसी होती है पीव-खून-पेशाब और मैले की नदी।
यहां लोग बोतल से करते हैं वैतरणी पार
वाराह की पीठ पर हाथ रख सुस्ताते हैं दो घड़ी।
यहां मेरी आपत्ति है कि क्या कामरेड की नजर में यह जुगुप्सा ही एक मेहतर बस्ती का परिचय है? क्या यही उनकी पहचान है कि वे शराब और सूअर में मस्त रहते हैं? मेहतर बस्ती में रहकर इतना ही देख पाए कामरेड? उन्होंने उनके संघर्ष और उनके शोषण को नहीं देखा, उनमें उभरती प्रतिभाओं की जिजीविषा और दम तोड़ती आकांक्षाओं को नहीं देखा? कामरेड चाहते तो और भी बहुत कुछ वहां देख सकते थे, पर कैसे देख सकते, जब साहित्य, कला और संस्कृति को वह अपने वर्ग की ही विरासत समझते हैं?
इसी संदर्भ में एक कविता ‘एकलव्य की तरफ से’ भी है। यह बिंबों और प्रतीकों की दृष्टि से अद्भुत कविता है। लेकिन यह आकर्षक होते हुए भी अर्थपूर्ण नहीं है। इस कविता की ये पंक्तियां देखिए–
ये कैसी अग्निदीक्षा है, कठिन कितनी परीक्षा है,
कि कोदो की पढ़ाई में किसी नर का अंगूठा है।
ये गीता भी उन्हीं की है, गदा-गांडीव जिनके हैं।
जो अपने थे वे गूंगे थे, यही तो रोना, रोना है।
मगर जब बात बोलेगी, तो कितने भेद खोलेगी
तुम्हारा बोलना भी इस सदी में तंत्र-टोना है।
मगर फिर भी बात खुली नहीं। अगर इस कविता में हिंदू मैथोलोजी का प्रयोग नहीं किया जाता, तो यथार्थ के धरातल पर बात भी बोलती, भेद भी खोलती और कोई तंत्र-टोना भी नहीं होता।
दिनेश कुशवाह के इस पहले संग्रह में प्रेम और स्त्री एक केंद्रीय विषय के रूप में आए हैं। इस संदर्भ में ‘एक लड़ाई अनवरत’, ‘जो तुमसे चाहता है मन’, ‘प्यार कर रही छात्रा मेघना के लिए’, ‘आत्मालोचन’, ‘लड़की और सोना’, ‘लड़की और फूल’, ‘लड़की और रोटी’, ‘लड़की और शब्द’, ‘प्रेम में पड़ी हुई लड़की’, ‘मेरी प्रिया’, ‘सदी की शुरुआत पर स्त्री के लिए शोकगीत’, ‘सहचर’, ‘हमारा खून लाल क्यों है?’ के साथ-साथ ‘रेखा’, ‘हेलेन’, ‘स्मिता पाटिल’, ‘मीना कुमारी’ भी इसी शृंखला की कविताएं हैं। ये सभी कोमल भाव की कविताएं हैं। ‘एक लड़ाई अनवरत’ प्यार में असफल प्रेमियों के आत्महनन के खिलाफ है। इसलिए यह गोरख पांडेय की स्मृति को भी समर्पित है। इसकी खूबसूरत पंक्तियां ये हैं–
हमने लड़ी है एक लड़ाई अनवरत
धुएं के खिलाफ बेरंग दीवारों के लिए
घुटन के खिलाफ खिड़कियों के लिए,
निराश हो रहे नौजवानों
और उदास हो रही लड़कियों के लिए।
इसलिए प्यार न मिलने पर भी
हमने कभी आत्महनन की बात नहीं सोची
बस चाहा
हमारी सहज ही मित्र वह लड़की
इस लड़ाई की सिपाही बन जाए।
निश्चित ही अगर हमारी साथी भी, जिससे हम प्यार करते हैं, समाज में बदलाव के लिए हमारे संघर्ष की साथी बन जाए, तो दुनिया खूबसूरत हो सकती है।
कवि की संवेदनशीलता का विस्तार सिनेमा जगत की कुछ अभिनेत्रियों तक भी हुआ है। इन कविताओं में प्रयोग किये गए बिंब इतने बारीक हैं कि प्रभावित करते हैं। कवि ने ‘रेखा’ के लिए लिखा–
जो लोग तुम्हें नशा कहते थे
मुकम्मल ताजमहल
उनके लिए भी नहीं है
तुम्हारा कोई पुरातात्विक महत्व
कि बचाकर रखे जाएंगे तुम्हारे खंडहर।
और ‘हेलेन’ के लिए लिखा–
हंसना कोई हंसी-ठट्ठा नहीं है
क्या आप बता सकते हैं
अपनी जिंदगी में कितनी बार
हंसे होंगे ईसा मसीह?
ठट्ठा नहीं है थिरकना भी
या तो बलइया लेती है
या विद्रोह करती है देह की
एक-एक बोटी।
‘स्मिता पाटिल’ के लिए कवि ने लिखा–
उसके भीतर एक झरना था
कितनी विचित्र बात है
एक दिन वह उसमें नहा रही थी
लोगों ने देखा
देखकर भी नहीं देखा
उसकी आंखों का पानी।
इसी तरह कवि ने ‘मीना कुमारी’ के लिए लिखा–
वर्जित फल खाया भी, नहीं भी
स्वर्ग में रही भी, नहीं भी
पर जिंदगी-भर चबाती रही धतूरे के बीज
और लोग कैंथ की तरह उसका कच्चापन
अपनी लाडली के लिए ही
रसूल ने भेजा था एक जानमाज़
मुट्ठीभर खजूर और एक चटाई।
झुकी पलकें पलटकर लिखतीं
एक ऐसे महान अभिनय का शिलालेख
कि मन करता था चूम लें इसे
जैसे करोड़ों-करोड़ लोग चूमते हैं काबे का पत्थर
या जैसे बच्चों को बेवजह चूम लेते हैं।
दिनेश कुशवाह की स्त्री विषयक कविताओं में हम जिस स्त्री-विमर्श की परिकल्पना देखते हैं, वह पुरुष-सत्ता से मुक्ति वाला स्त्री-विमर्श नहीं है, बल्कि उसमें समान-भाव का आग्रह है। वह संवेदना के स्तर पर पुरुषोचित न होकर मानवीय है। इसे हम उनकी कविता ‘सदी की शुरुआत पर स्त्री के लिए शोकगीत’ में देख सकते हैं। यह कविता वास्तव में स्त्री पर एक शोकगीत ही है, जिसमें कवि कहता है, ‘गृहस्थ, सन्यासी, परमहस, मद्यप, चोर, लुटेरे, राजा, ब्रह्मा, विष्णु, मुरारी सारे के सारे इसी स्त्री के पीछे पड़े थे’, पर प्रेम किसी ने नहीं किया। वह भोग की वस्तु बनाई गई, और स्वयं भी वही बनती चली गई। स्त्री इस उलझन से निकल नहीं पाई। यह कविता स्त्री के विकास-क्रम की मार्मिक व्याख्या करती है। स्त्री कि उलझन पर कविता का यह अंश देखिए–
स्त्री भी कम उलझन में नहीं थी
वह कहीं भाई पाना चाहती थी, कहीं पिता
कहीं उसे सिर्फ दोस्त चाहिए था
तो कहीं वह किसी लल्लू के साथ
इतना खुश दिखती थी
कि मुझे उस पर दया आती थी।
यह स्त्री बेहद सुडौल थी
पर उतनी ही बेतुकी
एक आदमी जिसे वह पति कहती थी
उसे त्रस्त किए रहती थी
नहीं तो उससे त्रस्त रहती थी
वह उसे देखना भी नहीं चाहती थी
और उसके बिना उससे रहा भी नहीं जाता था।
इस स्त्री की उलझन यहीं पर खत्म नहीं होती, बल्कि सच यह है कि उसकी यह अनिश्चितता ही उसके दुख का मूल कारण बनी। कवि ने बहुत गहराई से स्त्री-मन को छुआ है। यथा–
विपत्ति की सबसे बड़ी रातें उसने देखी थीं
पर सुख के सपने उसके जीवन में
हवा के झोंकों की तरह आए
ऐसे मौकों पर उसे घर-परिवार
कुछ भी नहीं संभालना पड़ा उतना
जितना कि अपना आंचल।
उसे बचपन से ही एक पैर पर
खड़ा होना सिखाया गया था
उसे जीवन भर एक स्थान पर
इस तरह ठहरना पड़ा था कि
वह बुढ़ौती में भी
एक बार भागकर देखना चाहती थी
अपने बाल-बच्चे छोड़े बिना।
इसलिए कवि ने ठीक ही कहा कि आंसू इस स्त्री की नियति है–
स्त्री के पास ऊब थी, आदतें थीं, अजूबे थे,
मोहिनी थी, मर्म था, गृहस्थी थी, गरीबी थी, कठिन संघर्ष थे,
गीत थे, गाने की इच्छा थी
कहीं अमीरी और ऐश भी थे
पर आंसू सब जगह थे।
(संपादन : नवल/अनिल)