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राधाकृष्णन नहीं, फुले दंपत्ति ही आदर्श और अनुकरणीय शिक्षक के सर्वश्रेष्ठ प्रतीक

डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब ‘जाति के विनाश’ और राहुल सांकृत्यायन ने अपनी किताब ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में राधाकृष्णन की तथाकथित महानता की पोल खोल दी। राधाकृष्णन विचार और आचरण दोनों स्तरों पर किसी तरह का कोई आदर्श और अनुकरणीय आचरण प्रस्तुत नहीं करते हैं। बता रहे हैं सिद्धार्थ

“और मेरे तीसरे आदर्श जोतीबा फुले। ब्राह्मणेत्तरों के सच्चे गुरु। दर्जी, कुम्हार, नाई, कुर्मी, माली, मछुआरे, मांग, चमारों को इंसानियत का पाठ उन्होंने ही पढ़ाए हैं। …कोई कहीं भी जाए, लेकिन हम जोतिबा की राह पर ही चलेंगे। साथ में कार्ल मार्क्स को ले लेंगे या किसी और को भी, लेकिन जोतिबा का मार्ग नहीं छोड़ेंगे।” – डॉ. आंबेडकर

(स्रोत : आंबेडकर वांङ्मय, वाल्यूम 40, 28 अक्टूबर, 1954 को मुंबई के पुरंदर स्टेडियम में आंबेडकर भाषण, उद्धृत देस हरियाणा, अंक-जनवरी-अप्रैल 2020, पृष्ठ 32)

जबकि हिंदू धर्मशास्त्रों का आदेश है–

पूजिए बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना॥

हिंदू धर्मशास्त्रों के इस आदेश को मानते हुए नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार ने वर्ण-जातिवाद और मनुस्मृति के प्रशंसक विप्र राधाकृष्णन के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में घोषित कर दिया। इसका सीधा अर्थ है कि राधाकृष्णन को अनुकरणीय आदर्श शिक्षक के रूप में भारतीय समाज के सामने प्रस्तुत किया गया है। डॉ. आंबेडकर और राहुल सांकृत्यायन ने अपनी किताब ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ ने अपनी किताब ‘जाति के विनाश’ में राधाकृष्णन की तथाकथित महानता की पोल खोल दी। राधाकृष्णन विचार और आचरण दोनों स्तरों पर किसी तरह का कोई आदर्श और अनुकरणीय आचरण प्रस्तुत नहीं करते हैं। विचारों में वे वर्ण-जातिवादी और मनुस्मृति के समर्थक हैं और आचरण के स्तर पर उन्होंने ‘थीसिस चोरी’ जैसा अनैतिक अपराध भी किया।

अब तक के भारतीय इतिहास में यदि कोई दर्शन, विचार और तीनों स्तरों पर आदर्श शिक्षक और अनुकरणीय शिक्षक के खिताब के लिए सबसे योग्य है, तो वह हैं, फुले दंपत्ति – सावित्रीबाई फुले और जोतीराव फुले। हालांकि जोतीराव फुले ने किसी स्कूल में तो कभी नहीं पढ़ाया, लेकिन उन्होंने कई स्कूलों की स्थापना की। शिक्षा कैसी होनी चाहिए, शिक्षक कैसा होना चाहिए, स्कूलों में क्या पढ़ाया जाना चाहिए, शिक्षा का खर्च किसे उठाना चाहिए और शिक्षा का क्या उद्देश्य होना चाहिए, इन सभी सवालों पर गंभीरता से विचार किया है और इन सवालों का ठोस उत्तर दिया। यह उत्तर उन्होंने बैठे-ठाले किताब पढ़कर सिर्फ नहीं दिया, बल्कि स्कूल और शिक्षा संबंधी अपने अनुभवों के आधार पर दिया। इस काम में सावित्रीबाई फुले उनकी करीब बराबर की सहयोगी थीं। इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप से शिक्षण नहीं करने के बावजूद वे आधुनिक भारतीय समाज के पहले सबसे बड़े शिक्षक हैं। खुद डॉ. आंबेडकर जैसे महान अध्येता भी जोतीराव फुले को अपने शिक्षक के रूप में याद करते हैं। वे जोतीराव फुले को न केवल अपना सच्चा गुरु (शिक्षक) बल्कि सभी गैर-ब्राह्मणों के सच्चे के गुरु के रूप में याद किया है। 

सावित्रीबाई फुले ने भी जोतीराव फुले को अपने और शूद्रों-अतिशूद्रों के महान शिक्षक के रूप में याद किया है–

पूरे मनोभाव से करती हूं मैं जोतिबा को नमन।
देकर हमें ज्ञानामृत, आशा से भर देते हैं जीवन।।
दीन शूद्रों-अतिशूद्रों को है महान जोतिबा की पुकार।
ज्ञान की ज्योति जलाकर, वे करते हैं हमारा उद्धार।।

(सावित्रीनामा : सावित्रीबाई फुले का समग्र साहित्य कर्म, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, पृष्ठ 38)

भले ही सावित्रीबाई फुले जोतीराव फुले को अपने और शूद्रों-अतिशूद्रों के शिक्षक के रूप में याद करती हैं, लेकिन स्वयं जोतीराव फुले सारा श्रेय सावित्रीबाई फुले को देते हैं। जब 1852 में अंग्रेजों ने फुले दंपत्ति को शिक्षा के प्रसार के लिए सम्मानित किया तो इस सम्मान का सारा श्रेय सावित्रीबाई फुले को देते हुए जोतीराव फुले कहा, “यह गौरव तुम्हारा ही गौरव है। मैं स्कूल खोलने के लिए कारण मात्र बना। लेकिन मुझे इस बात पर गुमान है कि उन स्कूलों को सुचारू रूप से चलाने में तुम सफल रही हो।” (‘हरि नरके की किताब ‘धन्यज्योति सावित्रीबाई फुले’ से डॉ. सुभाष चंद्र द्वारा ‘भारत की पहली शिक्षिका, माता सावित्रीबाई फुले’ में उद्धृत, पृ.15)

आदर्श शिक्षक : जोतीराव फुले व सावित्रीबाई फुले

1813 से पहले शूद्रों (पिछड़ों), अतिशूद्रों ( दलितों) और महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार हिंदू धर्मशास्त्रों और सवर्ण मर्दों ने बंद कर रखे थे। पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी ने शिक्षा का द्वार सैंद्धांतिक और औपचारिक तौर पर सबसे के लिए खोल दिया और यह घोषित कर दिया कि शिक्षा पर किसी का विशेषाधिकार नहीं होगा। यह 1813 के चार्टर एक्ट के तहत किया गया है। 1824 में ईसाई मिशनरियों ने पूना में मराठी स्कूल आरंभ किया। इसके पहले शिक्षा सिर्फ सवर्णों के कुछ गिने-चुने लोगों को मिलती थी। संस्कृत पाठशालाएं सिर्फ ब्राह्मणों के लिए थीं। ईसाई मिशनरियों के इस स्कूल में सबको प्रवेश मिलने लगा, जिसमें शूद्र-अतिशूद्र और महिलाएं भी शामिल थीं। 1813 में सिर्फ ब्राह्मणों के लिए आरक्षित ‘पूना कॉलेज’ सबके लिए खोल दिया गया। ब्राह्मणों ने इसका जबर्दस्त विरोध किया। इसका सीधा मतलब था कि ब्राह्मण शिक्षा को अन्य लोगों तक नहीं पहुंचने देना चाहते थे। 1824 में ही ईसाई मिशनरियों ने लड़कियों के लिए अलग से एक स्कूल खोला। लॉर्ड मैकाले ने 1835 में भारत में आधुनिक शिक्षा की विधिवत नींव डाली।

ईस्ट इंडिया कंपनी और ईसाई मिशनरियों के शिक्षा के दिशा में उठाए गए कदमों और खोले गए स्कूलों का वैसे तो सबसे अधिक लाभ इस देश के सवर्ण मर्दों ने उठाया, लेकिन उसका कुछ फायदा शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं को भी मिला। विशेषकर शूद्रों (पिछड़ों) को। स्वयं जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले भी ईसाई मिशनरियों के स्कूलों के चलते शिक्षित हो पाए। उन्हीं के प्रयासों के चलते सावित्रीबाई को शिक्षिका का विधिवत औपचारिक प्रशिक्षण भी मिला।

कहना अतिरेक नहीं कि अतिशूद्रों (मांग, महार, चमार और महिलाएं) को शिक्षित करने और इनके लिए स्कूल खोलने का काम फुले दंपत्ति ने किया। सन् 1848 में जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने पुणे के बुधवार पेठ में लड़कियों के लिए स्कूल खोला। किसी भारतीय द्वारा लड़कियों के लिए खोला गया यह पहला स्कूल था। इसी स्कूल में सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख शिक्षिका बनीं और सावित्रीबाई फुले को पहली भारतीय शिक्षिका होने का गौरव प्राप्त हुआ। फुले दंपत्ति ने पूने के इलाके में 18 स्कूल खोले।

फुले दंपत्ति अच्छी तरह जानते थे कि शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं को शिक्षित करने के उनके निजी प्रयास की सीमाएं हैं। सबसे तभी शिक्षित किया जा सकता है, जब यह जिम्मेदारी सरकार उठाए। इसके लिए ठोस प्रयास करने का मौका उन्हें 1882 में मिला। जब ब्रिटिश सरकार ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था में सुधार करने के लिए हंटर कमीशन नियुक्त किया। हंटर कमीशन के सामने जोतीराव फुल भारतीय शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन और सुधार के लिए शिक्षा संबंधी एक विस्तृत प्रस्ताव प्रस्तुत किया। 

इस प्रस्ताव में उन्होंने परंपरागत ब्राह्मणवादी शिक्षा पद्धति के साथ ब्रिटिश सरकार की शिक्षा नीति की भी मुखर तौर पर आलोचना की और उसमें सुधार के लिए ठोस प्रस्ताव प्रस्तुत किए। अपनी किताब ‘गुलामगिरी’ में अंग्रेजी लिखित अपनी भूमिका में वह लिखते हैं–

“उच्च शिक्षा के लिए ज्यादा या पर्याप्त निधि और बेहतर सुविधाएं देने तथा जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा करने के पीछे उनका जो भी मकसद रहा हो, सभी इस बात को स्वीकार करेंगे कि उन्होंने जनसाधारण के साथ न्याय नहीं किया। यह माना हुआ तथ्य है कि भारतीय साम्राज्य के राजस्व का काफी बड़ा हिस्सा किसान के श्रम से – उसके द्वारा बहाए हुए पसीने से – आता है। उच्च और धनी वर्गों का राजकोष में थोड़ा या नगण्य योगदान होता है। …यह बात कि इस तरह से उगाही गयी आय का काफी बड़ा हिस्सा सरकार विपुलता से उच्च वर्गों की शिक्षा पर (क्योंकि यही वर्ग उसका लाभ उठा सकता है) खर्च करे, कतई न्यायपूर्ण नहीं है। इस तरह की वास्तविक उच्चवर्गीय शिक्षा को प्रोत्साहित करने के पीछे उनका संभवतः यह उद्देश्य था कि विद्वान् पैदा किए जाएं। “ऐसा सोचा गया कि ये विद्वान आगे चलकर बिना पैसे के और बिना कीमत के विद्या का वितरण करेंगे।” वे कहते हैं “अगर हम श्रेष्ठ वर्गों के मन में ज्ञान के लिए लगाव पैदा कर सकते हैं तो इसका नतीजा यह होगा कि व्यक्तियों में नैतिकता के उच्चतर मानक पाए जाएंगे, ब्रिटिश सरकार के प्रति बहुत स्नेह पाया जाएगा और उन्हें जो बौद्धिक वरदान मिला है, उसे अपने देशवासियों के बीच फैलाने की अमिट इच्छा दिखाई देगी।” (जोतीराव फुले, गुलामगिरी, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, 2021, पृष्ठ 50-51)

जोतीराव फुले ने कहा कि उच्च वर्ग अपनी शिक्षा की खुद व्यवस्था करने में आर्थिक तौर पर सक्षम है, जबकि जिन्हें प्राथमिक शिक्षा की जरूरत है, वे संसाधनहीन लोग हैं। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य और निःशुल्क करने का प्रस्ताव दिया। उन्होंने गरीबों के बच्चों के लिए स्कॉलरशिप की व्यवस्था करने का सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि “मेरा मत है कि कुछ विशिष्ट आयु तक स्कॉलरशिप अनिवार्य कर दी जाए। कम से कम 12 साल की आयु तक। (सिलेक्टेड राइटिंग्स ऑफ फुले, संपादन : जी.पी. देशपांडे, लेफ्टवर्ड बुक्स, 2002, पृष्ठ 106) उन्होंने प्राथमिक शिक्षा पर सबसे अधिक धन खर्च करने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने कहा कि कम से कम 50 प्रतिशत धन प्राथमिक शिक्षा पर खर्च होना चाहिए। 

शिक्षा के साथ उन्होंने शिक्षक कैसे हों और कौन हों, इस बारे में अपनी राय भी दी। उन्होंने कहा कि आजकल स्कूलों में जो शिक्षक पढ़ाते हैं, वे ज्यादात्तर ब्राह्मण हैं। फुले ने अपनी एक कविता (ब्राह्मणों का पवाड़ा) में भी ब्राह्मण शिक्षकों के छात्र विरोधी चरित्र का वर्णन किया है। उन्होंने बताया कि कैसे यह ब्राह्मण शिक्षक किसानों-मजदूरों के बच्चों से नफरत करते हैं, उनके साथ क्रूर व्यवहार करते हैं और उन्हें पढ़ाई छोड़ने के लिए मजबूर करते हैं। उन्होंने किसानों के बीच से शिक्षक की भर्ती करने के लिए हंटर कमीशन से सिफारिश की। फुले ने शिक्षकों का वेतन बढ़ाने की भी बात रखी। उन्होंने कहा कि न्यूनतम वेतन पर अच्छे शिक्षक नहीं मिलेंगे।

फुले दंपत्ति ने शिक्षा के दो उद्देश्य बताए। शिक्षा का एक उद्देश्य छात्रों को बेहतर इंसान बनाना और दूसरा छात्रों को उत्पादकीय कौशल से लैस करना, ताकि वे उत्पाद में हिस्सेदारी कर सकें और अपनी रोजी-रोटी जुटा सकें। एक शिक्षा शास्त्री के तौर पर जोतीराव फुले उत्पाद और श्रम से जुड़ी शिक्षा की बात करते हैं। फुले ने शिक्षा को खेती-किसान से जोड़ने पर जोर दिया। 

फुले ने पाठ्यक्रमों में बदलाव के लिए प्रस्ताव प्रस्तुत किया। उनका कहना था कि पाठ्यक्रम छात्रों को तार्किक-वैज्ञानिक बनाने वाले और खेती-किसानी से जुड़ा होना चाहिए। उन्होंने कहा कि शिक्षा छात्रों को स्वालंबी और निर्भय बनाने वाली होनी चाहिए।

फुले ने उच्च शिक्षा का विरोध नहीं किया, लेकिन यह जरूर कहा कि उच्च शिक्षा से सिर्फ उच्च वर्गों को फायदा हो रहा है, लेकिन बहुसंख्यक वर्ग को प्राथमिक शिक्षा की तत्काल जररूत है, क्योंकि अभी भी भारत में शिक्षा की शुरूआत हो रही है। बहुसंख्यक लोग अशिक्षित हैं। ऐसे में सबसे अधिक खर्चा प्राथमिक शिक्षा पर होनी चाहिए। 

इस कार्य में उन्हें मिशनरी स्कूलों से काफ़ी प्रेरणा मिली थी। ‘अछूतों’ और महिलाओं के लिए शिक्षा की ज़रूरत के संदर्भ में उन्होंने कहा कि “मेरे देश-बंधुओं में महार, मांग और चमार दुःख और अज्ञान में डूबे हुए हैं। दयानिधान परमात्मा ने उनकी स्थिति में सुधार लाने की प्रेरणा मुझे दी। स्त्रियों के स्कूल ने सबसे पहले मेरा ध्यान आकर्षित किया। पूर्ण विचारोपरांत मेरा यह निश्चित मत हुआ कि लड़कों के स्कूल के बजाय लड़कियों का स्कूल होना ज़रूरी है। महिलाएं दो-तीन साल की आयु में संस्कार अपने बच्चों पर डालती हैं। उसी में उन बच्चों के भविष्य के बीज होते हैं। अहमदनगर के अमेरिकन मिशन में मिस फैरार ने जो स्कूल चलाया, उसे मैंने अपने मित्रों के साथ देखा। जिस ढंग से उन लड़कियों को शिक्षा दी जाती है, वह पद्धति मुझे बहुत अच्छी लगी।” (भारतीय सामाजिक क्रांति के जनक, महात्मा जोतिबा फुले, डॉ. मु.ब. शहा, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ. 25)

महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में बराबरी दिए जाने के समर्थक फुले ने महिलाओं को प्राथमिक शिक्षा दिए जाने पर सबसे अधिक जोर दिया। उन्होंने हंटर कमीशन से जो आखिरी बात कही वह यह थी कि “महिलाओं में प्राथमिक शिक्षा का प्रसार बड़े पैमाने पर हो, इसके लिए सरकार को विशेष योजना बनाना चाहिए।” (वही, पृ.12)

जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले, दोनों शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की मुक्ति के लिए एक साथ जीवन-संघर्ष में उतरे। फुले दंपत्ति अंग्रेजी शिक्षा पर बहुत जोर देते थे। उनकी मुक्ति का रास्ता भी अंग्रेजी शिक्षा ही ने खोला था। 

आधुनिक अंग्रेजी ज्ञान को सावित्रीबाई फुले माता का दर्जा देती हैं। उनकी एक कविता का शीर्षक है– ‘स्नेहमयी मां’। इसमें इसके पहले के ज्ञान को मूर्खों का ज्ञान कहती हैं। आधुनिक ज्ञान सत्य से अवगत कराता है–

पेशवाओं का राज गया।
बड़ी किस्मत से, देखो अंग्रेजी माई आई।।
निराशा का गर्द अंधेरा।
स्वर्ग-नर्क के भय ने मारा।।
हीन भावना से था हर जन हारा।
ऐसे अंधेरे समय में, देखो अंग्रेजी माई आई।।
रूढ़ियों को उखाड़ फेंको।
परंपराओं को तोड़ के देखो।।
आओ लिखना-पढ़ना सीखो।
आये अच्छे दिन, देखो अंग्रेजी माई आई।।

(सावित्रीनामा : सावित्रीबाई फुले का समग्र साहित्य कर्म, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, पृष्ठ 74)

सावित्रीबाई फुले ने आदर्श शिक्षिका तो थी हीं, उन्होंने शिक्षा से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर भी अपनी बेबाक राय रखी है। इसकी अभिव्यक्ति सबसे अधिक उनकी कविताओं में दिखाई देती है।

अंत में सावित्रीबाई फुले की कविता की चंद पंक्तियां–

बच्चों को शिक्षित करें, हम भी नई विद्या सीखें।
विद्या और ज्ञान के जरिए हम भी नीति-धर्म सीखें।।
शिक्षा का दृढ़ संकल्प लेकर पढ़ने में सब जुट जाएं।
शूद्रत्व का सदियों का यह दाग चलो अब हम मिटाएं।

(वही, पृष्ठ 68)

निस्संदेह फुले दंपत्ति ही आदर्श और अनुकरणीय शिक्षक के प्रतीक हैं।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सिद्धार्थ

डॉ. सिद्धार्थ लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

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