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जाति की उत्पत्ति जाने बगैर उसका विनाश नामुमकिन

शशांक और पुष्यमित्र शुंग से प्रेरणा लेकर कई राज्यों में ब्राह्मण पुजारी, ब्राह्मण अधिकारी और ब्राह्मण दरबारी सिर उठाने लगे। उन्होंने राज्य की नीतियों को बदलना शुरू कर दिया। आजाद किसानों को उनकी ही खेती पर काश्तकार बना दिया गया और उनकी भूमि का केंद्रीकरण कर दिया गया। पढ़ें, प्रो. श्रावण देवरे के आलेख का दूसरा भाग

पहले भाग में आपने पढ़ा– बिहार जातिवार जनगणना : ‘जाति का विनाश’ के क्रांति पर्व का आगाज, अब आगे

इसका उत्तर ढूंढ़ा जाना चाहिए कि जातिगत जनगणना से वास्तव में क्या होगा, क्योंकि जाति के विनाश अर्थ है– जाति व्यवस्था को जड़ से उखाडकर नष्ट करना। यदि किसी चीज़ को नष्ट करना है, तो इसे कैसे बनाया गया, किन मूल तत्वों का उपयोग किया गया, कौन-सी प्रक्रियाएं अपनाई गईं, इसके लिए क्या रणनीतियां तैयार की गईं? और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि किस दर्शन का प्रयोग किया गया? इन सवालों का जवाब तलाशे बिना जाति का विनाश मुमकिन नहीं है।

जाति का निर्माण करते समय जिस बुनियादी मूल तत्व का सबसे पहले उपयोग किया गया, वह था– ‘पेशा’। दुनिया-भर में विकास के विभिन्न चरणों में आवश्यकता के अनुसार अलग-अलग पेशों का निर्माण किया गया और पेशा करने वालों के समूह को ‘वर्ग’ कहा जाने लगा। हालांकि, भारत में इन सभी पेशेवरों को शूद्र वर्ण के रूप में पहचान दी गई। 

जब भारत में ‘दासप्रथा आधारित वर्णव्यवस्था’ अपनी नष्ट होने के कगार पर खड़ी थी, तब बौद्ध धम्म का उदय हुआ। दूरदर्शी बुद्ध ने दासप्रथा आधारित वर्णव्यवस्था को नष्ट करने का बीड़ा उठाया और उसे अंजाम दिया। 

निस्संदेह, जब कोई पुरानी सामाजिक व्यवस्था क्रांति के माध्यम से नष्ट हो जाती है, तो वह अपेक्षाकृत अधिक उन्नत तथा अपेक्षाकृत अधिक समतावादी सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तित हो जाती है। इस क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए समय की मांग के रूप में एक क्रांतिकारी दर्शन का निर्माण करना होता है, जो बुद्ध ने प्रदान किया। लेकिन इसके साथ-साथ समय की मांग के अनुरूप ‘उत्पादन के औजारों’ का भी क्रांतिकारी ढंग से विकास होते रहता हैं। सिंधु सभ्यता के पतन के बाद लोहे की खोज की गई और इसलिए लकड़ी के हल की जगह लोहे का हल आ गया और पत्थर की कुल्हाड़ी की जगह लोहे की कुल्हाड़ी आ गई। 

पटना के एक ग्रामीण इलाके में मिट्टी के दीए बनाता एक कुम्हार

जैसे-जैसे दासप्रथा आधारित व्यवस्था नष्ट हो रही थी, गुलाम आजाद बनते गए। जो गुलाम आज़ाद हो गए, उन्होंने बड़े पैमाने पर जंगल साफ़ करना और ज़मीन पर खेती करना शुरू कर दिया। लोहे की कुल्हाड़ी और लोहे के हल ने इसे संभव बनाया। खेती से संबंधित लोहार, बढ़ई, कुम्हार आदि पेशे निर्मित हुए और फले-फूले। कई मुक्त हुए दासों ने इन नए पेशों को अपनाया। 

बौद्ध क्रांति के कारण स्वतंत्र हुए मेहनतकश दस गुना अधिक उत्पादन करने लगे, ऐसा  डी.डी. कोसंबी और शरद पाटिल कहते हैं। (कास्ट एंडिंग बुर्जुआ डेमोक्रेटिक रिवोल्यूशन एंड इट्स सोशलिस्ट कॉन्सिउमेशन, शरद पाटील, पृष्ठ 19) 

सामाजिक-धार्मिक दासता से मुक्ति पाने के लिए बुद्ध धम्म का क्रांतिकारी दर्शन काम आया और दस गुना अधिक उत्पादन करने के लिए क्रांतिकारी तरीके से विकसित उत्पादन के साधन काम आए। यह अतिरिक्त उत्पादन देश-विदेश में बेचा गया। अतः तत्कालीन अर्थव्यवस्था फल-फूल रही थी। जाहिर तौर पर उत्पादन साधनों का क्रांतिकारक विकास करने का काम भी पेशावर लोग ही करते हैं।

वर्णव्यवस्था के विघटन के परिणामस्वरूप पूग (पालि भाषा का एक शब्द, जिसका उपयोग व्यापारी समूह के लिए किया जाता है) और श्रेणी (पेशागत) नाम की एक नई व्यवस्था का जन्म हुआ। सभी उत्पादक ‘श्रेणी’ नाम के समाज घटक में संगठित हुए। उनकी नाम की अलग बस्ती और अलग गांव बसने लगे। जैसे आज के समय में उद्योग-व्यवसाय करनेवाले लोगों के लिए सरकारें अलग-अलग औद्योगिक इकाइयां निर्माण करती हैं। श्रेणियों द्वारा तैयार किए गए उत्पाद को बाजार ले जाकर बेचने वाले व्यापारी ‘पूग’ के रूप में संगठित हुए। 

हमें बताया गया है कि छठी शताब्दी तक पूग और श्रेणी द्वारा जाति व्यवस्था को रोका गया था। उत्पादकों की श्रेणियों के प्रमुखों को बाद में ‘श्रेष्ठ जन’ के रूप में सम्मानित किया गया।

लेकिन इससे पहले ही ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने राजा बृहद्रथ की हत्या करके सत्ता हासिल की। डॉ. आंबेडकर इस राज्यक्रांति को ‘ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति’ कहते हैं। शशांक जैसे अनेक ब्राह्मण राजाओं ने बौद्ध भिक्खुओं का नरसंहार किया। देशभर मे फैले बौद्ध भिक्खु पराजित मानसिकता में चले गए और ब्राह्मणों का मनोबल बढ़ गया। शशांक और पुष्यमित्र शुंग से प्रेरणा लेकर कई राज्यों में ब्राह्मण पुजारी, ब्राह्मण अधिकारी और ब्राह्मण दरबारी सिर उठाने लगे। उन्होंने राज्य की नीतियों को बदलना शुरू कर दिया। आजाद किसानों को उनकी ही खेती पर काश्तकार बना दिया गया और उनकी भूमि का केंद्रीकरण कर दिया गया। 

ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण से अनुवांशिक सामंतों का निर्माण हुआ। खेतों का केंद्रीकरण करके एक नई सामंत जाति का निर्माण किया गया। उत्पादक शूद्र जातियों को नियंत्रित करने के लिए पाटील, देशमुख, सामंत जैसे अधिकारिक पदों का निर्माण किया गया। इन पदों पर बैठे लोग उत्पादक शूद्र जातियों का शोषण करके लगान वसूलते थे और अपना हिस्सा निकालकर बाकी राजा को भेजते थे। उत्पादक शूद्र जातियों के लोग विद्रोह ना करें, इसके लिए सामंत और जमींदार लोग अपनी खुद की लड़ाकू फौज भी पालते थे। इस नई जाति-व्यवस्था ने बलपूर्वक दमन करके पूग और श्रेणी की अर्थव्यवस्था को नष्ट करना शुरू कर दिया। पुग, श्रेणी और बौद्ध धम्म के बीच संबंध अविभाज्य था, क्योंकि इनके कारण ही व्यापार मार्गों पर बड़े-बड़े विहार और बौद्ध विश्वविद्यालय आदि बनाए गए। भिक्खु संघ के आर्थिक आधार स्तंभ पुग और श्रेणी थे। उनकी मजबूत अर्थव्यवस्था के कारण, ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था पंगु और मृतप्राय हो गई थी।

सबसे पहले इन व्यापारियों पर प्रतिबंध लगाया गया। समुद्री प्रतिबंध कानून बनाया गया। इस कानून के कारण पूग और श्रेणी द्वारा उत्पादित माल घरेलू और विदेशी बाजारों में जाना बंद हो गया। गांव बंदी के कारण उत्पादित सामान गांव में ही बेचना पड़ता था। 

आइए हम बौद्ध मज्ज्जमनिकाय के ‘घटिकार-सुत्त’ में वर्णित कुम्हारश्रेष्ठी का उदाहरण देखे या रोमिला थापर द्वारा अपनी पुस्तक ‘लीनिएज टू स्टेट’ में वर्णित कुम्भारश्रेष्ठि का उदाहरण देखें! बौद्धकालीन सुप्रसिद्ध कुम्हारश्रेष्ठि, जो 500 कुंभशालाओं का मालिक था और अपने 500 बड़ी नौकाओं से देश-विदेश में मिट्टी के बर्तन बेचता था। अब वह समुद्री प्रतिबंध और गांव-प्रतिबंध के कारण केवल गांव की जरूरतों के लिए ही बर्तन बनाने लगा। यानी उसके उत्पादन को ही न्यूनतम कर दिया गया। 

उसके बाद, पूंजी उत्पादन के लिए आवश्यक नकद पूंजी पर प्रतिबंध लगाया गया। उत्पादक का निर्मित माल खरीदने के लिए नकद भुगतान बंद कर दिया गया और वस्तुओं के बदले अनाज देने का कानून लागू किया गया, क्योंकि ब्राह्मण वर्ग को भय था कि यदि इन उत्पादक-व्यवसायिक और व्यापारियों के हाथ में नकदी आ गई तो, वे उसे पूंजी में बदल देंगे और अपना व्यापार फैलाकर बाजार पर फिर से कब्जा कर लेंगे। अतः मनुस्मृति शूद्रादिअतिशूद्रों द्वारा धन संग्रह करने का घोर विरोध करती है। (मनुस्मृति, 10-129) 

मेंढकश्रेष्ठि जैसे दस गुना अधिक अनाज पैदा करने वाले किसान, लोहारश्रेष्ठि, सुतारश्रेष्ठि जैसे उत्पादक और सेवा के पेशे से जुड़े नाई, बढ़ई, धोबी आदि सामाजिक घटकों  को इसी प्रकार से कमजोर किया गया। उसके बाद सबसे क्रूर प्रतिबंध आया, अंतर-पेशेवर विवाह पर प्रतिबंध! और जाति बनने के बाद अंतरजातीय विवाहों पर प्रतिबंध। 

प्रत्येक पेशेवर समाज अपने स्वयं के पेशेवर समूह के भीतर ही विवाह करने का कानून थोपने से वंशानुगत पेशे के आधार पर जाति निर्माण की प्रक्रिया तेज हो गई। उसके बाद धर्म के परदे के पीछे ब्राह्मणवादी साहित्य रचा गया। पोथी-पुराणों की रचना करके ब्राह्मणवादी कुप्रबोधन के माध्यम से जातीय दासता को स्वयंचालित किया गया। मनुस्मृति जैसी पुस्तकें लिखकर जाति व्यवस्था को सूत्रीकरण करके अनुशासित किया गया।

जाति के निर्माण और जाति व्यवस्था के निर्माण में सबसे बड़ा कारक पेशा थे। उनके उपर सबसे पहले और सबसे अधिक प्रतिबंध लगाकर जाति और वर्ण-व्यवस्था का निर्माण किया गया। उस समय के ये सभी पेशेवर आज ओबीसी के नाम से जाने जाते हैं। इसलिए, जिस मूल कारक का उपयोग जाति व्यवस्था बनाने के लिए किया गया था, उसी का उपयोग जाति-व्यवस्था को नष्ट करने के लिए किया जा सकता है। उदाहरण के लिए यदि हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के एक निश्चित तरीके से एक साथ आने के बाद पानी बनता है, तो उस पानी को नष्ट करने के लिए पानी को विघटित करना होगा। जल को विघटित करने का अर्थ है पानी से हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को एक विशिष्ट तरीके से अलग करना और उन्हें उनकी मूल (वायु) अवस्था में वापस लाना। जाति तभी नष्ट होगी जब कुछ प्रक्रियाओं द्वारा एक जाति में संगठित होने वाले लोग विघटित हो जाएंगे। यह एक सरल प्राकृतिक फार्मूला है।

ब्राह्मणी खेमे के सत्ताधारियों ने संविधान में दलितों-आदिवासियों को आरक्षण देने में बहुत ज्यादा हील-हुज्जत नहीं की। लेकिन ओबीसी को आरक्षण ना मिले, इसके लिए पूरे 35 वर्षों तक कालेलकर आयोग, मंडल आयोग की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डालकर रखा। आख़िरकार 1989 में ब्राह्मणी खेमे को दिल्ली की सत्ता से बाहर करने के बाद ही ओबीसी को मंडल आरक्षण मिलना शुरू हुआ। ऐसा क्यों? ब्राह्मणी खेमे ने आसानी से दलित-आदिवासी महिलाओं को राजनीतिक आरक्षण दे दिया। लेकिन ओबीसी महिलाओं को इस आरक्षण से वंचित रखा है। 

एक सवाल यह भी कि ब्राह्मण शासकों ने कभी भी आदिवासी समुदायों की जनगणना का विरोध नहीं किया और न ही दलित जाति की जनगणना का विरोध किया। लेकिन ब्राह्मण शासकों ने केवल ओबीसी की जातिवार जनगणना का पुरजोर विरोध क्यों किया और आज भी जी-जान से विरोध कर रहे हैं? ब्राह्मणी खेमा सिर्फ और सिर्फ ओबीसी से क्यों डरता है। अब इस पर ध्यान देने में कोई समस्या नहीं है, क्योंकि ब्राह्मण शासक जानते हैं कि केवल ओबीसी ही जाति-व्यवस्था के उन्मूलन का प्रभावी और सफलतापूर्वक नेतृत्व कर सकते हैं और जैसा कि तमिलनाडु ने साबित भी किया है। इसलिए ब्राह्मणी खेमा लगातार केवल ओबीसी जातियों को अधिकार देने का विरोध करती रही है। आज़ादी के तुरंत बाद नेहरू ने ओबीसी की जातिवार जनगणना क्यों बंद कर दी? इसके पीछे कारण यह है कि ओबीसी जाति ही ब्राह्मणी छावनी को जड़ से नष्ट कर सकती है, यह एक स्वाभाविक तथ्य है जिससे ब्राह्मणी खेमा पूरी तरह परिचित हैं।

क्रमश: जारी

(मूल मराठी से अनुवाद : चंद्रभान पाल, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

श्रावण देवरे

अपने कॉलेज के दिनों में 1978 से प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े श्रावण देवरे 1982 में मंडल कमीशन के आंदोलन में सक्रिय हुए। वे महाराष्ट्र ओबीसी संगठन उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने 1999 में ओबीसी कर्मचारियों और अधिकारियों का ओबीसी सेवा संघ का गठन किया तथा इस संगठन के संस्थापक सदस्य और महासचिव रहे। ओबीसी के विविध मुद्दों पर अब तक 15 किताबें प्राकशित है।

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