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जातिगत जनगणना से ही कायम हो सकती है जातिविहीन सामाजिक व्यवस्था

यदि 1955 में ही कालेलकर आयोग की अनुशंसाओं को लागू कर दिया गया होता, या कम-से-कम पूर्ण मंडल आयोग 1990 में लागू कर दिया गया होता, तो 1991 में निश्चित रूप से जातिगत जनगणना कराना आवश्यक हो गया होता। पढ़ें, प्रो. श्रावण देवरे के आलेख का तीसरा व अंतिम भाग

दूसरे भाग में आपने पढ़ा– जाति की उत्पत्ति जाने बगैर उसका विनाश नामुमकिन, अब आगे

अब इस लेख की अंतिम कड़ी की शुरुआत हम आजाद भारत में ओबीसी आंदोलन के पहले पर्व से करते हैं, जिसे  कालेलकर आयोग पर्व कह सकते हैं। सनद रहे कि इसका आगाज 1925 में रामासामी पेरियार ने कांग्रेस को खारिज कर शुरू किया था।

वहीं ओबीसी आंदोलन का दूसरा ‘मंडल पर्व’ 1980 में कर्पूरी ठाकुर-बीपी मंडल के नेतृत्व में शुरू हुआ, और इसे परवान लालू-मुलायम आदि नेताओं ने दी। वर्ष 1996 में तत्कालीन प्रधानमंत्री देवगौड़ा ने अपने मंत्रिमंडल में ओबीसी जातिवार जनगणना प्रस्ताव को मंजूरी देकर तीसरे ‘जातिगत जनगणना के पर्व’ की शुरुआत की। और अब जातिवार सर्वेक्षण के सफल समापन के साथ ही नीतीश कुमार के नेतृत्व में 2023 से ओबीसी आंदोलन का चौथा और अंतिम जाति का विनाश क्रांतिपर्व’ शुरू हो गया है।

बीते 2 अक्टूबर, 2023 को बिहार की जातिवार सर्वेक्षण के आंकड़ों व डेटा की घोषणा करते हुए नीतीश कुमार ने साफ कहा कि अब हमारे पास हर जाति का आंकड़ा मौजूद है। इसलिए हम ऐसी योजनाएं बनाएंगे ताकि इन जातियों के उत्थान के लिए कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं! उनके इस कथन का अर्थ यह है कि विभिन्न योजनाओं को लागू करके इन जातियों को सम्मान के साथ अर्थव्यवस्था और बाज़ार में लाकर सक्रिय किया जाएगा! जाति-व्यवस्था बनाने के लिए पुग-श्रेणी की संपन्न अर्थव्यवस्था को नष्ट करके जिन पेशेवरों को बाजारों से बाहर कर दिया गया था, वे सभी पेशेवर अगर अर्थव्यवस्था और बाजार में वापस आ जाएं, तो जाति के विनाश की क्रांति शुरू होगी।

ओबीसी में शामिल संतराश (महाराष्ट्र में पाथरवट) जाति के लोगों ने पत्थर से मूर्ति बनाई और ब्राह्मणों ने उस मूर्ति को मंदिर में स्थापित कर दिया। इसके बाद वह संतराश/पाथरवट शूद्र अपवित्र बन जाता है, और मूर्ति का दर्शन तक नही कर सकता। इसी प्रकार आजादी के 75 वर्षों में किसान, उत्पादक एवं सेवाकर्मी बलुतेदार मजदूरों व शिल्पकारों ने केवल सरकारी खजाना भरने का काम किया। लेकिन उन्हें इस खजाने से दूर रखा गया। अपने विकास के लिए उनको इस तिजोरी से अपने हिस्से का रिफंड कभी नहीं मिला। 75 वर्षों से ब्राह्मण, बनिया और ज़मींदार जातियां राजकोष लूट रही हैं। संघ-भाजपा के 9 वर्षों के सत्ता-काल मे पूंजीपतियों ने सरकारी बैंकों से 25 लाख करोड़ रुपए की लूट की। (संदर्भ : फ्री प्रेस जर्नल, 18 अक्टूबर, 2023) 

अब यह साफ है कि 75 साल बाद बिहार में पहली बार शूद्र जातियां सरकारी खजाने पर अपना अधिकार जमाना शुरू करेंगी। इसे जातिवार सर्वेक्षण का सकारात्मक असर माना जाना चाहिए, जिससे जाति के विनाश की प्रक्रिया को गति मिलेगी। 

इसे एक उदाहरण से समझते हैं। राजा शाहूजी महाराज ने सरकारी खजाने से कुछ रुपए निकालकर  दलित गंगाराम कांबले को होटल बनाने के लिए दिए और गंगाराम होटल का मालिक बन गया। मालिक बनने के बाद ही उन्हें नकदी मिलनी शुरू हुई। जब रोजाना नकदी आने लगी तभी एक मालिक के रूप में बाजार में उनका सम्मानजनक प्रवेश शुरू हुआ। अगर गंगाराम कांबले होटल चलाकर और ज्यादा अतिरिक्त पैसे कमाता है तो वह इसे पूंजी के रूप में कहीं निवेश करेगा और अपनी अगली पीढ़ी  के लिए होटल से भी बड़ा व्यवसाय-उद्योग शुरू कर सकता है।

बौद्ध काल में पूरे देश में अनेक तेली श्रेष्ठ थे और उनकी तेल बनाने की घानियां थी। बैलों को जोतकर यह घानियां घुमाई जाती है और मुंगफली या सोयाबीन से तेल निकाला जाता है। तेल निकालकर देश-विदेश के बाजारों में यह तेल बेचा जाता था। ये तेली कितने समृद्ध और अमीर थे, यह एक शिलालेख से समझ सकते है। एक बौद्धकालीन शिलालेख में दर्ज है कि नासिक-खानदेश के अभीर राजा ईश्वरकृष्ण ने बौद्ध भिक्षुओं के इलाज के लिए कुम्हारों के श्रेणी के पास 1000 कार्षापण और तेली श्रेणी-श्रेष्ठी के पास 500 कार्षापण ‘सावधि जमा’ जमा किए हैं। (संदर्भ : ‘जातिव्यवस्थाक सामंती सेवकत्व’, शरद पाटील, पृष्ठ 31) 

धूले शहर के पास कुसुंबा नामक एक गांव है। गांव में तेली जाति की काफी आबादी है। उससे यह विश्वास करने की गुंजाइश बनती है कि यह गांव बौद्ध काल में तेल उत्पादन का केंद्र रहा होगा। इस गांव में तेली जाति के महादु नागो चौधरी की छोटी-सी तेल मिल (एक घानी) है। यह घानी 1990 तक अच्छी स्थिति में चल रही थी। संभवतः बौद्ध काल में महादु नागो के पूर्वज तेली रहे होंगे। लेकिन जाति-व्यवस्था ने उनके तेल पूंजी उद्योग को नष्ट कर दिया होगा। इसलिए बाद में वह दिन में सिर्फ कुछ टंकी तेल निकालते थे और धुले शहर की सड़कों पर घूम-घूमकर ठेले पर तेल बेचने लगे। यह उनका नित्य का काम था। ठेले की तेल टंकी पर बड़े अक्षरों में लिखा नाम मुझे आज भी याद है– “बेबी घानी का तेल”।

अंग्रेजों ने पुराने धुले शहर के पास नया धुले शहर बसाया और देखिए कि नए धुले शहर का डिज़ाइन बनाते समय अंग्रेजों द्वारा शुरू की गई जातिगत जनगणना का कैसे लाभ उठाया गया। जातिगत जनगणना से अंग्रेजों को तेली जाति से संबंधित आंकड़े मिले होंगे। उन आकड़ों से यह जानकारी मिली होगी कि शहर के आसपास कितने तेली लोग अपना तेल बेचने के लिए धुले सिटी के मार्केट में आते हैं। तो यह जानकारी मिलने के बाद अंग्रेजों ने धुले शहर बसाते समय इन तेली लोगों के रहने की लिए अलग व्यवस्था की। इन तेल उद्यमियों के लिए अंग्रेजों ने धुले शहर में लगभग दो किलोमीटर लंबी गली बनवाई।

बाएं से कर्पूरी ठाकुर; मुंगेरी लाल; द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग की रपट, राष्ट्रपति जैल सिंह को प्रस्तुत करते हुए बी.पी. मंडल; बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एवं राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव (मुंगेरी लाल का चित्र वीरेंद्र यादव के सौजन्य से)

आजादी के बाद तेल पूंजी-उद्योग में बनिया जाति की घुसपैठ हो गई और पूरे तेल गलियारे पर मारवाड़ी-बनिया जाति का कब्जा हो गया। आज भी धुले शहर के लोग इस गली को ‘तेली गली’ के नाम से ही जानते हैं, लेकिन इस लंबी तेली गली में एक भी तेली जाति का व्यवसायी नहीं रहता, बल्कि सभी बनिए रहते हैं। इस तेली गली के एक छोर पर अवशेष के रूप में ‘तेली जाति-पंचायत भवन’ आज भी खड़ा है और इस पराजित जाति-संघर्ष की याद दिलाता है।

वर्ष 1990 के दशक के दौरान, धुले में वैश्य मारवाड़ियों द्वारा ‘सतीश साल्वंट’ नामक एक तेल कारखाना स्थापित किया गया था। आज धुले शहर तेल उत्पादकों का एक प्रमुख केंद्र के रूप में जाना जाता है। और इन सभी तेल फैक्ट्रियों के मालिक हंसराज अग्रवाल, संजय अग्रवाल, जुगल किशोर गिंदोडिया आदि मारवाड़ी वैश्य-बनिया हैं। इनमें एक भी तेली व्यक्ति नहीं है। तेली जाति के महादु चौधरी की बेबी घानी 1990 से हमेशा के लिए बंद हो गई है। सहकारिता को बढ़ावा देने का दंभ भरने वाली महाराष्ट्र सरकार ने धुले शहर में महाफेड की ‘तेल-बीज सहकारी’ परियोजना शुरू की। इसमें कोई तेली संचालक नहीं था। कांग्रेस-भाजपा के मराठा नेताओं ने भ्रष्टाचार करके पूरे प्रोजेक्ट को ही पलीता लगा दिया। इस सरकारी तेल परियोजना को बाद में एक मारवाड़ी ने खरीद लिया।

यदि 1955 में ही कालेलकर आयोग की अनुशंसाओं को लागू कर दिया गया होता, या कम-से-कम पूर्ण मंडल आयोग 1990 में लागू कर दिया गया होता, तो 1991 में निश्चित रूप से जातिगत जनगणना कराना आवश्यक हो गया होता। इस जातिवार जनगणना में कुसुंबा के महादु चौधरी के ‘बेबी घानी तेल’ उद्योग का भी सर्वेक्षण किया गया होता। मंडल आयोग की रिपोर्ट मे पैरा संख्या 13.27 से 13.31 की सिफारिशें ओबीसी के उद्यमियों को वित्तीय सहायता जैसी सभी सहायता उपलब्ध कराने को सरकार को कहती हैं। (संदर्भ : मंडल आयोग रिपोर्ट, पहला खंड, अनुशंसाएं, अध्याय तेरह, पृष्ठ 57-60) 

इन सिफारिशों के अनुसार चौधरी के ‘बेबी घानी तेल’ उद्योग को विशेष वित्तीय सहायता, सरकार की ओर से विशेष रियायतें, सरकार की ओर से आधुनिक प्रौद्योगिकी सहायता और सरकारी बुनियादी ढांचा प्रदान किया गया होता, तो एक छोटी-सी ‘बेबी घानी तेल’ एक बडी फैक्ट्री बन जाती। 

मंडल आयोग और जातिगत जनगणना की वजह से आज महादू चौधरी के लड़के करोड़ों रुपयों की लागत से बनी हुई फैक्ट्री के मालिक रहते। उनका अनुसरण करते हुए अन्य तेली बंधुओं ने भी तेल उद्योगपति बनने का प्रयास किया होता। इन तेली उद्योगपतियों मे से कुछ तेली लोग संसद और विधानसभा मे चुनकर जाते और हो सकता है उनमे से एक इस देश का पहला सच्चा तेली प्रधानमंत्री बन जाता। यह सच्चा तेली प्रधानमंत्री ब्राह्मण वर्ग के लिए ईडब्ल्यूएस आरक्षण का कानून लाने के बजाय स्टालिन की तरह ब्राह्मण पुजारियों को हिंदू मंदिरों से हटाने के लिए कानून बनाता। 

इस तरह से नाई, कुम्हार, बढ़ई, माली, सुतार, लुहार, मोची जैसे शूद्र-अतिशूद्र पेशेवर लोग अगर उद्यमी बन गए तो वह खुद की अपनी फुले, पेरियार, आंबेडकरवादी पॉलिटिकल पार्टी बनाएंगे और देश की सत्ता हासिल करके अपने को शूद्र बनानेवाली जाति-व्यवस्था को खत्म करने के लिए कानून बनाएंगे। 

ओबीसी के ऐसे पूंजीगत उद्योगों में अन्य विशिष्ट उच्च जातियों की घुसपैठ रोकने के लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट ने सरकार को विशेष उपाय करने की सलाह दी है। (संदर्भ : वही) 

दरअसल तेली जाति को पूंजीपति वर्ग, मध्यम वर्ग व श्रमिक वर्ग नामक तीन वर्गों में विभाजित करने से ही तेली जाति नष्ट हो सकती है। तेली जाति को नष्ट करना मतलब तेली लोगों को मारना नहीं,  बल्कि तेली जाति के लोगों को उच्च एवं अपेक्षाकृत अधिक समतावादी उन्नत (वर्ग व्यवस्था)  में लाकर स्थापित करना है। वर्गीय हित संबंध अधिक से अधिक प्रभुत्वशाली होने पर ही जातिगत हित संबंध नष्ट होंगे।

 मंडल आयोग इस बात पर जोर देता है कि उत्पादक, कारीगर, व श्रमिक जातियों से ही उद्यमी-वर्ग बनाया जाना चाहिए और इसके लिए  ब्राह्मण, बनिया और जमींदार-शासक जातियों को इस पूंजी उद्योग में घुसपैठ करने की अनुमति कतई नहीं दी जानी चाहिए। यहां हमें मार्क्सवादी दर्शन की याद आती है। कारीगर व उत्पादक वर्ग से ही पूंजीपति वर्ग बनाया जाना चाहिए तभी व्यक्ति स्वतंत्रता की पूंजीवादी लोकतांत्रिक क्रांति यशस्वी हो सकती है। ऐसा  सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी शोधकर्ता इरफ़ान हबीब हमें बताते हैं। इसके साथ ही वह यूरोपीय पुनर्जागरण जैसे सांस्कृतिक-धार्मिक जागृति आंदोलन की आवश्यकता पर भी जोर देते हैं। (आर. बी. पाटणकर, अपूर्ण क्रांति, पृष्ठ 49-50) लेकिन भारतीय पूंजीपति वर्ग में अभी तक कारीगर जातियों, उत्पादक जातियों व सेवाकर्मी जातियों का नाममात्र भी प्रवेश नहीं हुआ है। ये सभी उत्पादक जातियां आज भी गुलामी का जीवन जी रही हैं। भारतीय पूंजीपति वर्ग आज भी ब्राह्मण-बनिया जाति से बन रहा है। ऐसा शरद पाटिल कहते हैं। (संदर्भ : कास्ट एंडिंग बुर्जुआ डेमोक्रेटिक रिवोल्यूशन एंड इट्स सोशलिस्ट कॉन्सिउमेशन, शरद पाटील, पृष्ठ 159)

मंडल आयोग सामंतशाही को भी खत्म करने की सिफारिशें करता है। सामंती-जमींदारों की जमीन ओबीसी जाति के भूमिहीन मजदूरों में बांटने की सिफारिश की है। जाति-व्यवस्था का सबसे बड़ा भौतिक आधार जमीन है। जमीन का केंद्रीकरण करके सामंत निर्माण किए गए और इन्हीं सामंतों द्वारा जाति-व्यवस्था का नियंत्रण, नियमन, दमन और शोषण सबसे ज्यादा किया गया। इसलिये मंडल आयोग की सिफारिश के अनुसार अगर सामंतों की जमीन भूमिहीन मजदूरों में बांट दी जाय तो जाति-व्यवस्था का सबसे बड़ा भौतिक आधार खत्म हो जाएगा। (संदर्भ :  मंडल आयोग रिपोर्ट, पहला खंड, अनुशंसाएं, अध्याय 13, पृष्ठ 57-60) लेकिन यह तभी संभव हो सकता है जब दिल्ली में फुले, पेरियार, आंबेडकरवादी पॉलिटिकल पार्टी सत्ता मे आएगी।

ऐसी परिस्थिति में, भारत में जाति का विनाश करनेवाली पूंजीवादी लोकतांत्रिक क्रांति का मार्ग प्रशस्त करने के लिए मंडल आयोग का संपूर्ण कार्यान्वयन सूक्ष्म स्तर से, सटीक ढंग से करने की जरूरत है। इसके लिए आवश्यक आंकड़े और विस्तृत जानकारी केवल जातिगत जनगणना से ही प्राप्त हो सकते हैं। बिहार द्वारा जातिवार सर्वेक्षण के माध्यम से यह कार्य शुरू कर दिया गया है। यदि यह जल्द से जल्द राष्ट्रीय स्तर पर साकार हुआ तब भारत में ‘जाति का विनाश करनेवाली पूंजीवादी लोकशाही क्रांति’ का आगाज होगा और दमनकारी जाति-व्यवस्था से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाएगी।

(समाप्त)

(मूल मराठी से अनुवाद : चंद्रभान पाल, संपादन : राजन/नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

श्रावण देवरे

अपने कॉलेज के दिनों में 1978 से प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े श्रावण देवरे 1982 में मंडल कमीशन के आंदोलन में सक्रिय हुए। वे महाराष्ट्र ओबीसी संगठन उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने 1999 में ओबीसी कर्मचारियों और अधिकारियों का ओबीसी सेवा संघ का गठन किया तथा इस संगठन के संस्थापक सदस्य और महासचिव रहे। ओबीसी के विविध मुद्दों पर अब तक 15 किताबें प्राकशित है।

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