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बिहार के पसमांदा जातियों की बदहाली (तीसरा भाग, संदर्भ : अति पिछड़ा वर्ग में शामिल अरजाल मुसलमान)

आज पढ़ें, बिहार में पसमांदा समूह की अरजाल जातियों के बारे में। ये वे जातियां हैं जो कर्म के अनुसार हिंदू धर्म के समाज में भी हैं। इनमें शामिल हैं मुस्लिम धोबी, हलालखोर, मेहतर, भंगी, चीक, लालबेगी, नट आदि जातियां

भारत में जातियां सामान्य तौर पर पेशे के अनुरूप रही हैं। मसलन जिन्होंने गायों-मवेशियों के पालन को अपनाया, वे ग्वाले कहे गए। ऐसे ही जिन्हाेंने चर्म-शोधन को अपनाया, वे चमार कहे गए। जिन्होंने कपड़ों को धोने का काम किया, वे धोबी कहे गए। इसी तरह जिनके पास भूमि रही, वे भूमिहार और जिन्होंने एक समय इस देश पर राज किया, उन्होंने खुद को राजपूत कहा। हिंदू धर्म में वर्ण-व्यवस्था पर आधारित इस जाति-व्यवस्था का असर मुसलमानों में भी हुआ। मतलब यह कि जिन हिंदू धोबियों ने इस्लाम कबूल किया, वे सामाजिक रूप से अरजाल माने गए और उनके साथ छुआछूत व भेदभाव का स्तर वही रहा, जो हिंदू धर्म में है।

छुआछूत और भेदभाव के कारण इन जातियों का विकास भी बाधित हुआ। इसका प्रमाण बिहार सरकार द्वारा जारी जाति आधारित सर्वेक्षण रिपोर्ट में मिलता है। उदाहरण के लिए मुस्लिम धोबी जाति (अरजाल समूह में शामिल) की कुल आबादी 4 लाख 9 हजार 76 है। वहीं हिंदू धोबियों की कुल आबादी 10 लाख 96 हजार 158 है। आर्थिक स्थिति की बात करें तो कुल 82,109 मुस्लिम धोबी परिवारों में से 26 हजार 21 परिवार यानी 31.69 प्रतिशत परिवारों की मासिक आय 6 हजार रुपए या फिर इससे कम है। जबकि हिंदू धर्म माननेवाले कुल 2 लाख 35 हजार 906 धोबी परिवारों में 35.82 प्रतिशत परिवार गरीब बताए गए हैं, जिनकी आय 6 हजार रुपए या इससे कम है। हिंदू धोबी अनुसूचित जाति में शामिल हैं और मुस्लिम धोबी अति पिछड़ा वर्ग में क्योंकि संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 के तहत हिंदू, बौद्ध और सिखों के अलावा किसी और धर्म के लोगों को अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं दिया जा सकता है।

ऐसी ही एक जाति हलालखोर है, जो हिंदू भी हैं और मुस्लिम भी। हिंदुओं में इनके पर्याय डोम, वाल्मीकि, मेहतर और भंगी हैं। हालांकि उर्दू में हलाल का मतलब ‘धर्म के अनुकूल’ होता है और इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि हलालखोर वे होते हैं तो अपने श्रम की कमाई खाते हैं। लेकिन व्यवहार के स्तर पर यह स्थिति नहीं है। ये पारंपरिक रूप से सफाईकर्मी समुदाय का हिस्सा रहे हैं और सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा के शिकार। मुस्लिम हलालखोर भी हिंदू डोम, मेहतर और भंगी जाति के लोगों के जैसे ‘मैला कमाते’ थे। 

दलितों के समान उपेक्षित रही हैं अरजाल जातियां

बिहार सरकार की रपट में दो तरह के हलालखोर जातियों का उल्लेख है। इनमें से एक मुस्लिम हलालखोर जाति को मेहतर, लालबेगीया और भंगी (सभी मुस्लिम) के साथ अति पिछड़ा वर्ग में रखा गया है। वहीं हिंदू हलालखोर जो कि मूलत: डोम जाति के होते हैं, उन्हें अनुसूचित जाति में शामिल किया गया है। अब इन दोनों की आर्थिक स्थिति को देखें तो हम एकरूपता पाते हैं। जैसे कि बिहार में मुस्लिम मेहतर, लालबेगीया, हलालखोर व भंगी जाति के सामूहिक परिवारों की कुल संख्या 13,944 है, जिनमें 4,448 यानी 31.90 प्रतिशत गरीबी रेखा के नीचे हैं। जबकि हिंदू धर्म माननेवाले हलालखोर जाति के परिवारों की संख्या 1358 है, जिनमें 460 यानी 33.84 फीसदी परिवार गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं।

हिंदू दलित और अरजाल मुसलमान

जाति का नामकुल परिवारों की संख्या6000 रुपए तक की मासिक आय वाले परिवार6000 रुपए तक की मासिक आय वाले परिवार (प्रतिशत में)
मुस्लिम धोबी 82,10926,02131.69
हिंदू धोबी2,35,906 84,50935.82
हलालखोर, मेहतर, लालबेगीया और भंगी (मुस्लिम)13,9444,44831.90
हिंदू हलालखोर (मूलत: डोम)1,35846033.87
लालबेगी (हिंदू)63724237.99
डोम, धनगड़, बांसफोड़, धारीकर, धरकर और डोमरा53,84629,65453.10
चीक 8,6982,48528.57
खटिक6,1761,99232.25
नट (मुस्लिम)12,2574,90640.03
नट (हिंदू)20,60710,11049.06

हलालखोर जाति के जैसे ही अरजाल समूह में एक जाति लालबेगी भी शामिल है, जिसका शाब्दिक अर्थ एक अपशब्द है। हिंदू धर्म में इसके पर्याय डोम जाति के लोग हैं। हालांकि बिहार सरकार की रपट में हिंदू लालबेगी भी शामिल हैं, जो अनुसूचित जाति में शुमार किए गए हैं। 

यह भी पढ़ें – बिहार के पसमांदा जातियों की बदहाली (दूसरा भाग, संदर्भ : अति पिछड़ा वर्ग में शामिल मुसलमान)

पारंपरिक पेशा की बात करें तो हिंदू जाति में शामिल डोम जाति के लोग सफाईकर्म के अलवा श्मशान घाटों पर शव जलाने का काम करते हैं। लेकिन लालबेगी (मुस्लिम) जाति के लोग केवल सफाईकर्मी होते हैं। रही बात आर्थिक स्थिति की तो बिहार में लालबेगी (हिंदू) के कुल 637 परिवार हैं, जिनमें 242 परिवार ऐसे हैं जिनकी मासिक आय 6 हजार रुपए या इससे कम है। लगभग यही स्थिति डोम जाति की भी है। हालांकि बिहार सरकार की रिपोर्ट में डोम, धनगड़, बांसफोड़, धारीकर, धरकर और डोमरा आदि जातियों को एक समूह में माना गया है तथा समूह के रूप में इनके परिवारों की कुल संख्या 55 हजार 846 बताई गई है। इनमें आधे से अधिक यानी 53.10 प्रतिशत परिवारों की मासिक आय 6000 रुपए या इससे कम है।

कर्म के स्तर पर एक और धर्म के स्तर पर अलग-अलग जातियों का एक उदाहरण खटिक (हिंदू) और चीक (मुसलमान) समुदाय के लोग हैं। चीक भी अरजाल जातियों में शुमार है। ये दोनों जातियां अत्यंत पिछड़ा वर्ग में शामिल किए गए हैं। पारंपरिक रूप से खटिक और चीक दोनों छोटे पशुओं – बकरे के मांस – का कारोबार करते हैं। इन दोनों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति एक जैसी है। उदाहरण के लिए चीक जाति के कुल परिवारों की संख्या 8 हजार 698 है, जिनमें 2 हजार 485 यानी 28.57 परिवार गरीबी रेखा के नीचे हैं। वहीं खटिक जाति के 6 हजार 171 परिवारों में यह आंकड़ा 32.25 फीसदी है।

अरजाल जातियों में एक जाति नट भी है। हिंदू धर्म के नट जाति के लोगों के जैसे ये मूलत: खानाबदोश रहे और मौजूदा दौर में खेतिहर मजदूर। इसके अलावा इस जाति के लोगों का पारंपरिक काम शारीरिक कौशल दिखाकर आय अर्जन करना भी रहा है। दोनों मजहबों में इनकी स्थिति एक जैसी है। मसलन, कुल 20 हजार 607 हिंदू नट परिवारों में 10 हजार 110 परिवार गरीबी रेखा के नीचे हैं। प्रतिशत के लिहाज से यह आंकड़ा 49.06 प्रतिशत है।

बहरहाल, बिहार सरकार की रिपोर्ट अरजाल जातियों की बदहाली की कहानी कहती है और समाज के स्तर पर यह सवाल भी खड़ा करती है कि जब इन जातियों (चाहे वे हिंदू हों या फिर मुसलमान) की सामाजिक और आर्थिक स्थिति एक जैसी है तब इन्हें राष्ट्रीय स्तर पर एक वर्ग के रूप में चिह्नित क्यों नहीं किया जाता ताकि संख्यापरक लोकतंत्र में अपनी दावेदारी पेश कर सकें?

(संपादन : राजन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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