बिहार में लालबेगी, हलालखोर, धोबी (मुस्लिम), चीक, कसाब (कसाई) सहित अनेक जातियां ऐसी हैं, जिनकी सामाजिक स्थिति हिंदू धर्म के दलित जातियों के समान है। मतलब यह कि इनके साथ अछूतों की तरह व्यवहार किया जाता है लेकिन इसके बावजूद ये अनुसूचित जाति में शामिल केवल इस कारण नहीं हैं क्योंकि संवैधानिक (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 के कारण मुस्लिम अनुसूचित जाति में शामिल नहीं किए जा सकते हैं। उन्हें अत्यंत पिछड़ा वर्ग में रखा गया है, जिसमें कुल 112 जातियां शामिल हैं और इस वर्ग की कुल आबादी बिहार की पूरी आबादी का 36.0148 प्रतिशत है।
उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय में अनुसूचित जाति के तहत धर्म के परे निष्पक्ष आरक्षण से संबंधित एक याचिका विचाराधीन है।
हालांकि राज्य सरकार ने इस वर्ग के आरक्षण को 18 प्रतिशत से बढ़ाकर 25 प्रतिशत कर दिया है, लेकिन अब भी इसे समानुपातिक नहीं कहा जा सकता है। इसमें शामिल पसमांदा जातियों की स्थिति अत्यंत ही न्यून है।
मसलन, बिहार सरकार द्वारा जारी जाति आधारित सर्वेक्षण रिपोर्ट में धोबी (मुस्लिम) जाति की कुल आबादी 4 लाख 9 हजार 796 बताई गई है। इन्हें 1978 से अति पिछड़ा वर्ग के तहत बिहार में आरक्षण दिया जा रहा है। इनमें केवल 2933 लोगों को सरकारी नौकरी प्राप्त हुई है। प्रतिशत के हिसाब से यह आंकड़ा केवल 0.72 प्रतिशत है। रिपोर्ट में राज्य सरकार ने बेरोजगारों की संख्या का उल्लेख नहीं किया है। इसकी जगह राज्य सरकार ने अपनी रपट में ‘गृहिणी, विद्यार्थी एवं आदि’ नामक कॉलम दिया है।
धोबी (मुस्लिम) के मामले में इस कॉलम में बताया गया आंकड़ा 2 लाख 80 हजार 271 है। इसके अलावा राज्य सरकार की रिपोर्ट में इसका जिक्र नहीं है कि कितने लोग सरकारी संस्थानों में संविदा के आधार पर कार्यरत हैं और कितने प्रत्यक्ष रूप से राज्य सरकार के अधीन तथा स्थायी हैं।
सरकारी नौकरियों से दूर पसमांदा जातियां
जाति | कुल आबादी | सरकारी नौकरियां (प्रतिशत में) |
---|---|---|
सुरजापुरी मुसलमान | 24,46,212 | 0.63 |
माेमिन (जुलाहे, अंसारी) | 46,34,245 | 0.97 |
धुनिया | 18,68,192 | 0.47 |
साईं, फकीर, मदार | 6,63,197 | 0.40 |
धोबी (मुस्लिम) | 4,09,796 | 0.72 |
इदरीसी (दर्जी) | 3,29,662 | 0.76 |
चुड़ीहार | 2,07,914 | 0.83 |
हलालखोर, लालबेगी, भंगी, मेहतर | 69,914 | 3.92 |
खैर, धोबी (मुस्लिम) के जैसे ही एक जाति जुलाहा है, जिसे मोमिन व अंसारी भी कहा जाता है। पारंपरिक रूप से बुनकरी करनेवाले इस जाति की तो 68.99 फीसदी आबादी बिहार सरकार की रिपोर्ट में दर्शाए गए आखिरी कॉलम (‘गृहिणी, विद्यार्थी एवं आदि’) के रूप में सूचीबद्ध है।
रही बात सरकारी नौकरियों की तो इस जाति की कुल आबादी 46 लाख 34 हजार 245 में से केवल 44,896 राज्य सरकार के विभिन्न विभागों व संस्थानों में संविदा और स्थायी दोनों आधारों पर कार्यरत हैं। यह इस जाति की पूरी आबादी के एक प्रतिशत से भी कम 0.97 प्रतिशत है।

यह उल्लेखनीय है कि बिहार में पिछड़ा वर्ग और अति पिछड़ा वर्ग वर्ष 1978 में मुंगेरी लाल आयोग की अनुशंसाओं के क्रियान्वयन के साथ ही अस्तित्व में आया था और अत्यंत पिछड़ा वर्ग को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने का प्रावधान किया गया था। इस बात को करीब 45 साल होने को है। लेकिन पसमांदा जातियों की भागदारी में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई है।
एक उदाहरण इदरसी (मुस्लिम दर्जी) जाति का भी है, जिनका पारंपरिक पेशा कपड़े सिलना रहा। सामाजिक रूप से ये अछूत रहे इसके बावजूद इनके हाथ से सीले गए कपड़े समाज के सभी लोग पहनते हैं। अब तो यह जाति भी धीरे-धीरे अपने पारंपरिक पेशे से दूर होती जा रही है और इसके युवा बेरोजगारी के शिकार हैं। सरकार की रपट ही बताती है कि 3 लाख 29 हजार 662 की कुल आबादी वाली इस जाति के केवल 2517 लोग ही सरकारी नौकरियों (संविदा और स्थायी दोनों) में हैं।
लगभग ऐसी ही स्थिति चुड़ीहार जाति के लोगों की भी है, जो पारंपरिक रूप से महिलाओं द्वारा पहनी जानेवाली चुड़ियां व कंगन आदि बेचते हैं। हालांकि यह पेशा करनेवालों की संख्या अब न्यूनतम हो गई है।
सरकार की रपट बताती है कि इस जाति के केवल 5.15 प्रतिशत ही स्वरोजगार में लगे हैं। यदि हम इनके पारंपरिक पेशे को ही इनका स्वरोजगार मानें तो हम इसका आकलन कर सकते हैं कि इस जाति में बेरोजगारी का आलम क्या है। रही बात सरकारी नौकरी की तो 2 लाख 7 हजार 914 की आबादी वाली इस जाति के केवल 1,730 लोग ही सरकारी नौकरी करते हैं।
यह भी पढ़ें – बिहार के पसमांदा जातियों की बदहाली (चौथा भाग, संदर्भ : शैक्षणिक स्थिति)
पसमांदा जातियों में केवल एक हलालखोर, भंगी, मेहतर व भंगी (मुस्लिम) ही हैं जिनकी 3.92 फीसदी आबादी कथित तौर पर सरकारी नौकरियों में हैं। बताते चलें कि यह सफाईकर्मी समुदाय है और इस समुदाय के लोग नगर निगम आदि के मातहत संविदा के आधार पर नियुक्त किए जाते हैं और सामान्य तौर पर यह काम दूसरी जातियों के लोग नहीं करते।
अब यदि हम अनुसूचित जाति में शामिल जातियों से तुलना करते हुए पसमांदा जातियों की सरकारी नौकरियों में भागीदारी से संबंधित आंकड़ों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि उनकी भागीदारी अधिक है। हालांकि इसकी दो वजहें मुमकिन हैं। पहली तो यह कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को देश में गणतंत्र की घोषणा के साथ ही आरक्षण मिल रहा है। दूसरी संभावित वजह यह कि अनुसूचित जाति में शामिल कुल जातियों की संख्या 22 है और उनकी कुल आबादी 2 करोड़ 56 लाख 89 हजार 820 (19.65 प्रतिशत) है तथा बिहार में अनुसूचित जातियों को 16 प्रतिशत आरक्षण मिलता था, जिसे अब बढ़ाकर 20 प्रतिशत कर दिया गया है।
उदाहरण के लिए बिहार में हिंदू धोबी जाति की सरकारी नौकरियों में भागीदारी 3.14 फीसदी है। ऐसे ही पासी जाति, पासवान जाति और चमार जाति के मामले में यह हिस्सेदारी क्रमश: 2 प्रतिशत, 1.44 प्रतिशत और 1.20 प्रतिशत है। हालांकि अनुसूचित जाति में मुसहर जाति के लोगों की भागीदारी सरकारी नौकरियों में अपेक्षाकृत बहुत कम केवल 0.26 फीसदी है।
बहरहाल, सरकारी नौकरी में कम हिस्सेदारी केवल अरजाल जातियों की ही नहीं है, बल्कि अजलाफ जातियों का भी यही हाल है। पसमांदाओं के अलावा ऊंची जातियों में शामिल मुसलमानों की स्थिति भी यही है।
इसका प्रमाण यह कि हिंदू धर्म में सबसे ऊंची मानी जानेवाली ब्राह्मण जाति (बिहार सरकार की रिपोर्ट में भी इसे प्रथम स्थान दिया गया है) की 3.6 फीसदी आबादी सरकारी नौकरियों में है। सबसे अधिक 6.68 फीसदी हिस्सेदारी कायस्थों की है। जबकि मुस्लिम ऊंची जाति शेख की केवल 0.79 फीसदी आबादी को सरकारी नौकरी है। वहीं पठानों की हिस्सेदारी शेखों से थोड़ी अधिक 1.07 फीसदी है। और पठानों से अधिक हिस्सेदारी 2.43 फीसदी सैयद जाति के लोगों की है।
(संपादन : राजन/अनिल)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, संस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in