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क्या अब शूद्र-ओबीसी को पता चलेगा कि वे कितने हैं और उनकी हिस्सेदारी कितनी होनी चाहिए?

बहिष्कृत जातियों और समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित करना, किसी भी सामाजिक लोकतंत्र के मूलभूत लक्ष्यों में से एक है। इसलिए, यह बेहद ज़रूरी है कि सब मिलकर यह मांग करें कि हर दस वर्षों में जाति जनगणना हो, जिससे हमें यह पता चल सके कि प्रत्येक जाति की आबादी और सामाजिक स्थिति क्या है, बता रहे हैं अरविंद कुमार

“चारवर्णी व्यवस्था के श्रेणीकरण में शूद्रों को न केवल सबसे निम्न स्थान पर रखा गया है, वरन् उन पर अनगिनत अपमानजनक शर्तें और अयोग्यताएं लाद दी गईं हैं, ताकि वे (हिंदू) विधि द्वारा निर्धारित उनके स्थान से ऊपर न उठ सकें; बल्कि जब तक अछूतों (जिन्हें पंचमा भी कहा जाता था) के रूप में पंचम वर्ण अस्तित्व में नहीं आया था, हिंदुओं की दृष्टि में शुद्र ही सबसे निम्नतम कहलाते थे। इससे उस समस्या, जिसे शूद्रों की समस्या कहा जा सकता है, की प्रकृति पता चलती है। अगर लोगों को इस समस्या के परिमाण का अंदाज़ा नहीं है तो इसका कारण यह है कि उन्होंने कभी यह पता लगाने की कोशिश ही नहीं की कि शूद्रों की आबादी कितनी है। पर इसमें संदेह नहीं कि अछूतों को छोड़कर, शूद्र हिंदुओं की आबादी का 75 से 80 प्रतिशत हैं।” 

ये पंक्तियां 1946 में प्रकाशित डॉ. बी.आर. आंबेडकर की लब्धप्रतिष्ठित रचना ‘हू वर द शूद्राज : हाउ दे केम टू बी द फोर्थ वर्णा इन द इंडो-आर्यन सोसाइटी’ से हैं, जिसमें वे शूद्रों के निम्न सामाजिक-आर्थिक दर्जे की चर्चा करते हैं। शूद्रों में लगभग वे सभी जातियां शामिल हैं, जिन्हें आज अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) कहा जाता है और कुछ अन्य जातियां भी, जो इसी ऐतिहासिक-सामाजिक श्रेणी में आती हैं और जिनका उल्लेख ऐतिहासिक और साहित्यिक ग्रंथों में है। 

शूद्र-ओबीसी समस्या 

शूद्र-ओबीसी की मुख्य समस्या यह है कि देश के विभिन्न क्षेत्रों – चाहे वह नौकरशाही हो या शिक्षा, सेना हो या विदेश सेवा, न्यायपालिका हो या मीडिया – में उन्हें वाजिब प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है। भारत के आज़ादी हासिल करने के एक साल पहले, डॉ. आंबेडकर ने देश की आबादी में शूद्र-पिछड़े वर्गों (सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों) के अनुपात का जो अंदाज़ा लगाया था, उसमें संभवत: वे जाति-समूह भी शामिल थे, जो अब तक ओबीसी की केंद्रीय सूची में नहीं हैं, जैसे– मराठा, जाट, पटेल, कम्मा, रेड्डी और कापू इत्यादि। इनमें से कई सामाजिक-राजनीतिक गोलबंदी के ज़रिए ओबीसी के रूप में मान्यता हासिल करने का प्रयास करते रहे हैं। 

शूद्र-ओबीसी की आबादी का सबसे स्वीकार्य आकलन सन् 1931 की जनगणना पर आधारित है। उस साल आखिरी बार जनगणना में जातियों की आबादी को भी गिना गया था। इस जनगणना के अनुसार ये जाति-समूह, देश की कुल आबादी के 60 प्रतिशत से ज्यादा थे। नीतीश कुमार के मुख्यमंत्रित्व और तेजस्वी यादव के उपमुख्यमंत्रित्व वाली बिहार सरकार द्वारा हाल में जारी किए गए जाति-आधारित गणना रिपोर्ट-2022 के नतीजों ने यह साबित कर दिया है कि सन् 1960 के दशक के अंत में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ का नारा एकदम उचित था। बिहार सरकार के सर्वेक्षण से जाहिर हुआ है कि राज्य की 63 प्रतिशत आबादी – 27 प्रतिशत ओबीसी और 36 प्रतिशत ईबीसी (अत्यंत पिछड़ा वर्ग) – इस विशाल समूह में आती है। 

जैसा कि हममें से अधिकांश जानते हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप में पहली जनगणना ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने सन् 1881 में करवाई थी। उसका मुख्य उद्देश्य देश के विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई समूहों की संख्या को जानना था ताकि औपनिवेशिक शासकों को राज करने में सुविधा हो। लेकिन इसका एक प्रभाव यह हुआ कि समाज का एक तबका सामाजिक न्याय की बात करने लगा। बीसवीं सदी की शुरुआत में जनसंख्या के जातिवार आंकड़ों की उपलब्धता ने कम प्रतिनिधित्व वाले समुदायों के शिक्षा और रोज़गार में अधिक प्रतिनिधित्व की मांग को लेकर गोलबंद होने में महती भूमिका निभाई। 

जोतीराव फुले और उनके सत्यशोधक आंदोलन से प्रभावित होकर कोल्हापुर के शासक शाहूजी महाराज ने सन् 1902 में ही अपने राज्य में शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में शूद्रों (पिछड़े वर्गों) और दलितों (दमित वर्गों) को 50 प्रतिशत आरक्षण प्रदान कर दिया था। जानेमाने समाजशास्त्री जी. ओलाइसस के अनुसार, मैसूर रियासत में गैर-ब्राह्मण आंदोलन ने मिलर कमेटी, जिसे मंडल आयोग का पूर्व संस्करण कहा जा सकता है, की सिफारिश पर सन् 1921 में पारंपरिक कुलीनतंत्र से अपनी कई मांगें मनवाने में सफलता हासिल की। इसके बाद सन् 1920 के दशक में मद्रास प्रांत में पेरियार के नेतृत्व वाले आंदोलन ने समाज के सभी तबकों के लिए उनकी आबादी के लगभग अनुपात में आरक्षण हासिल करने में सफलता प्राप्त की, जिसमें ‘गैर-ब्राह्मण हिंदुओं’ और दलितों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण शामिल था।

बाएं से कर्पूरी ठाकुर; मुंगेरी लाल; द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग की रपट, राष्ट्रपति जैल सिंह को प्रस्तुत करते हुए बी.पी. मंडल; बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एवं राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव (मुंगेरी लाल का चित्र वीरेंद्र यादव के सौजन्य से)

स्वतंत्रता के बाद से भारतीय लोकतंत्र में द्विज जातियों का बोलबाला हो गया। विधायिका और कार्यपालिका (न्यायपालिका तो था ही) पर उनका पूरा कब्ज़ा था और उन्होंने जानते-बूझते शूद्र-ओबीसी नागरिकों के हितों को दरकिनार किया। उनका यह दृष्टिकोण काका कालेलकर (जो कि एक ब्राह्मण थे) की अध्यक्षता में गठित प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग के प्रति उनकी रूखे रूख और ओबीसी की गिनती करने के प्रति उनकी अनिच्छा से जाहिर है। 

इसके पच्चीस साल बाद बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता में दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया, जिसकी सिफारिशों को दस साल बाद, सन् 1990 में आंशिक रूप से लागू किया गया। मंडल आयोग की रपट और इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) में अपने निर्णय में उच्चतम न्यायालय की नौ जजों की खंडपीठ में कहा गया था कि देश के सभी पिछड़े वर्गों का समग्र सर्वेक्षण करवाया जाए ताकि पिछड़े वर्गों की कुल आबादी का सही-सही अंदाज़ा लग सके। अदालत ने अपने निर्णय में स्पष्ट शब्दों में कहा था– “… इसमें असंवैधानिक क्या है? विशेषकर इसलिए क्योंकि हमारे समाज में जातिगत व्यवसाय और सामाजिक पिछड़ेपन का निकट संबंध है।” 

ओबीसी की गणना से परहेज : नेहरू की भूल या मोदी की उदासीनता 

स्वघोषित ओबीसी नरेंद्र मोदी की नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने यदि सितंबर, 2021 में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में शूद्र-ओबीसी जाति समूहों की गणना करने में अपनी असमर्थता जाहिर की तो इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है। सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत शपथपत्र में कहा गया है कि “पिछड़े वर्गों की गणना करना प्रशासनिक दृष्टि से कठिन और जटिल है।” और यह कि “सरकार का 1951 से ही यही सचेतन नीतिगत निर्णय रहा है।” इससे यह जाहिर होता कि सारे दावों के बावजूद, वर्तमान सरकार शूद्र-ओबीसी जनता के प्रति किस तरह का दृष्टिकोण रखती है। 

ऐसा कहा जा रहा है कि सरकार का पिछड़े वर्गों/जातियों की आबादी की गणना से स्पष्ट इंकार, जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली स्वतंत्र भारत की पहली सरकार के उस कैबिनेट निर्णय पर आधारित है, जिसमें सरकार ने केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों के अंतर्गत आने वाले जाति समूहों की गणना करने का निर्णय लिया था, क्योंकि उनके लिए संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप विशेष नीतियां बनाई जानी थी। यद्यपि संविधान में शूद्र वर्ग/जाति समूहों के लिए इस तरह की विशेष नीतियां बनाने का प्रावधान नहीं है, तथापि संविधान का अनुच्छेद 340 कहता है कि “राष्ट्रपति आदेश द्वारा एक आयोग नियुक्त कर सकते हैं, जिसमें ऐसे व्यक्ति शामिल होंगे, जिन्हें वह उचित समझते हैं, जो भारत के क्षेत्र के भीतर सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थितियों और उन कठिनाइयों की जांच करेंगे, जिनके तहत वे काम करते हैं और उन कदमों के बारे में सिफारिशें करेंगे जो ऐसी कठिनाइयों को दूर करने और उनकी स्थिति में सुधार करने के लिए संघ या किसी राज्य द्वारा कदम उठाए जाने चाहिए और संघ या किसी राज्य द्वारा इस उद्देश्य के लिए दिए जाने वाले अनुदानों के बारे में, वे शर्तें जिनके अधीन ऐसे अनुदान दिए जाने चाहिए, और आदेश ऐसे आयोग द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया को परिभाषित करेगा।”

यह सही है कि इस प्रावधान के अनुरूप, नेहरू सरकार ने सन् 1953 में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया था और इस आयोग ने 1955 में अपनी रपट भी प्रस्तुत कर दी थी, लेकिन पिछड़े वर्गों के प्रति सरकार की नीति में कोई अंतर नहीं आया। भारत की आबादी के सबसे बड़े हिस्से से जुड़े जातिगत मुद्दों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

हालांकि, डॉ. राममनोहर लोहिया, भूपेंद्र नारायण मंडल, कर्पूरी ठाकुर और कुछ अन्य नेताओं ने सामाजिक जीवन में पिछड़े वर्गों/जातियों के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व को रेखांकित किया और मोटे तौर पर समाजवादी विचारधारा के झंडे तले उनकी राजनीतिक गोलबंदी के लिए प्रयास किए और उनके मुद्दों को संसद के भीतर और बाहर दोनों जगह उठाया। बंबई और मद्रास प्रेसीडेंसी में गैर-ब्राह्मण आंदोलन ने स्वतंत्रता के पूर्व ही शूद्र-पिछड़े वर्गों में वर्गीय चेतना जगा दी थी, लेकिन देश के उत्तरी हिस्से में यह जागृति स्वतंत्रता के बाद समाजवादी आंदोलन के जरिए आई। 

सामाजिक न्याय का बिहार मॉडल 

बिहार के चुनावी मैदान में शूद्र-ओबीसी गोलबंदी पहली बार 1967 के आम चुनाव में सामने आई। इस चुनाव में तत्समय अत्यंत शक्तिशाली कांग्रेस पार्टी को अनेक राज्यों में मुंह की खानी पड़ी। सन् 1968 में पिछड़े वर्ग के बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल बिहार के मुख्यमंत्री बने। आगे चलकर, केंद्र में जनता पार्टी के शासनकाल में वे दूसरे पिछड़े वर्ग आयोग के मुखिया बने। पिछड़े वर्गों के सरोकार के मुद्दों को लेकर उनकी गोलबंदी के ईमानदार प्रयासों के चलते बिहार के मुख्यमंत्री रहे दारोगा प्रसाद राय ने सन् 1970 में मुंगेरीलाल आयोग का गठन किया। आयोग ने 1976 में प्रस्तुत अपनी रपट में 120 जाति समूहों को पिछड़े वर्ग के रूप में चिह्नित किया और इनमें से सौ को अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) बताया। 

सन् 1977 में कर्पूरी ठाकुर जब दूसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने और एक साल के अंदर उन्होंने इस आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया। इसी साल भारत के इतिहास में पहली बार एक गैर-कांग्रेस गठबंधन सरकार ने केंद्र में सत्ता सम्हाली। इस गठबंधन के सबसे बड़े दल, जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन का वायदा किया था। 

यद्यपि मंडल आयोग ने सन् 1980 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली केंद्र की कांग्रेस सरकार को अपनी सिफारिशें सौंप दीं, परंतु ऐसा लग रहा था कि उसकी गति भी वही होगी जो कालेलकर आयोग की रपट की हुई थी। शूद्रों और ओबीसी का राजनैतिक सत्ता में प्रतिनिधित्व नगण्य ही बना रहा। विधायिका में इन वर्गों की ताकत 1989 के लोकसभा चुनावों के बाद से बढ़ना शुरू हुई और इसका कारण था मंडल आयोग की सिफारिशों पर अमल की मांग को लेकर शुरू हुए आंदोलन से उत्पन्न जागृति। सन् 1990 में वी.पी. सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार द्वारा आयोग की सिफारिशों के अनुरूप राज्य के अधीन सेवाओं में इन वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा ने इस जागृति को और घनीभूत किया। 

इस प्रगतिशील निर्णय का राजीव गांधी के नेतृत्व वाले तत्कालीन प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने पुरजोर विरोध किया। मंडल गोलबंदी ने भारतीय राजनीति का लोकतांत्रिकरण किया और इससे बाद एक दशक से भी कम अवधि में देश के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की प्रकृति में जबरदस्त परिवर्तन हो गया। इस लोकतांत्रिक उभार का अकादमिक क्षेत्रों में कोई संज्ञान नहीं लिया गया, क्योंकि तब तक देश भर के विश्वविद्यालयों में कुछ विशेषाधिकार जाति समूहों का वर्चस्व था। सुखद यह कि फ्रेंच अध्येता क्रिस्टोफर जॅफरलो ने इस नई लहर का दस्तावेजीकरण किया और उसे भारत की मूक क्रांति की संज्ञा दी। 

इसके पहले से ही सामाजिक न्याय के बिहार मॉडल ने सबाल्टर्न जाति समूहों को नेतृत्व प्रदान कर प्रतिनिधिक लोकतंत्र के बारे में आम लोगों की सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया था। भारत राज्यों का संघ है और इसलिए यहां राज्यों की मुख्यमंत्रियों की शासन-प्रशासन में महती भूमिका होती है। बिहार में जो राजनीतिक मंथन हुआ उसके नतीजे में सतीश प्रसाद सिंह, बी.पी. मंडल, भोला पासवान शास्त्री, दारोगा प्रसाद राय, कर्पूरी ठाकुर और रामसुंदर दास; मंडल क्रांति के पहले ही बिहार के मुख्यमंत्री बन चुके थे। मंडल आयोग की रपट लागू होने के बाद लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी, नीतीश कुमार और जीतनराम मांझी मुख्यमंत्री बने। इन सभी में से तीन दलित (एससी) थे और अन्य शूद्र-ओबीसी जातियों से थे। 

नीतीश कुमार के मुख्यमंत्रित्व काल में बिहार सरकार ने स्थानीय पंचायती व शहरी निकायों में भी ओबीसी और ईबीसी को आरक्षण प्रदान किया और महिलाओं के लिए कोटा की उच्चतम सीमा को 33 प्रतिशत से बढ़ा कर 50 प्रतिशत किया। इसके अलावा, महिलाओं के लिए निर्धारित कोटा में ओबीसी और ईबीसी के अतिरिक्त, एससी और एसटी के लिए उपकोटा दिया गया। 

लेकिन बिहार के पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल में परिदृश्य एकदम अलग है। बिहार का निर्माण सन् 1912 में बंगाल प्रेसीडेंसी को दो हिस्सों में बांट कर किया गया था। पश्चिम बंगाल स्वतंत्रता के समय अस्तित्व में आया और इस राज्य के बारे में गर्व से कहा जाता है कि वह पुनर्जागरण का केंद्र था। इसके बाद भी, वहां केवल तीन उच्च जातियों – ब्राह्मण, बैद्य और कायस्थ – के लोग मुख्यमंत्री बने। इन्हें बंगाल में भद्रलोक कहा जाता है। राज्य के अब तक के सभी मुख्यमंत्रियों के उपनाम घोष, रॉय, सेन, मुख़र्जी, रे, बसु, भट्टाचार्य और बनर्जी रहे हैं। ये सभी उपनाम विशेषाधिकार प्राप्त जातियों के लोगों के उपनाम हैं। पश्चिम बंगाल में शूद्र-ओबीसी, कुल आबादी का कितना हिस्सा हैं, यह अज्ञात है। लेकिन 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य की 24 प्रतिशत आबादी दलित और 29 प्रतिशत मुसलमान है। 90 प्रतिशत से ज्यादा मुसलमान ओबीसी हैं। यह विडंबना ही है कि यह स्थिति तब है जब बंगाल पर 34 सालों तक वाम मोर्चे का शासन रहा है, जो कम-से-कम विचारधारा के स्तर पर, ‘छोटोलोक’ (सर्वहारा) की सत्ता तक पहुंच बनाने के लिए प्रति प्रतिबद्ध था। 

आगे का रास्ता

हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘द शूद्राज : विज़न फॉर ए न्यू पाथ’ (2021) में एक बार फिर यह बताया गया है कि समकालीन भारत में शूद्र-ओबीसी सत्ता और समाज के प्रमुख क्षेत्रों से अदृश्य हैं। विशेषकर उच्च स्तर पर, जहां नीतियां बनाई जाती हैं और न्यायपालिका द्वारा कानूनों और नियमों की व्याख्या की जाती है। मीडिया हाऊसों के मालिक और पत्रकार, उच्च व उच्चतम न्यायालयों के न्यायाधीश, शीर्ष नौकरशाह, विशेषकर विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों के सचिव, राष्ट्रीय संस्थानों जैसे – विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, भारतीय समाज विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएसएसआर), भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आईसीसीआर), केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपति और आईआईटी, आईआईएम और एम्स जैसे केंद्र द्वारा वित्तपोषित संस्थानों के संचालक मंडल – इन सभी में ओबीसी की उपस्थिति नगण्य है। 

लेकिन पिछले एक महीने में हुए दो घटनाक्रम देश में सामाजिक न्याय के आख्यान को एक नई दिशा दे सकते हैं। पहला है– बिहार सरकार द्वारा जातिवार सर्वेक्षण के नतीजे घोषित किए जाने के बाद से विभिन्न राज्यों में ओबीसी की आबादी के संबंध में दावे और प्रतिदावे। इनमें कर्नाटक और ओड़िशा जैसे राज्य शामिल हैं। कुछ राजनीतिक दल अब यह वायदा कर रहे हैं कि राज्यों में सत्ता में आने पर वे जातिगत सर्वेक्षण करवाएंगे। 

दूसरे, महिलाओं के लिए निर्धारित कोटे में ओबीसी महिलाओं के लिए उपकोटे की मांग कांग्रेस सहित ऐसे कई दलों द्वारा की जा रही है, जो जाति के प्रश्न और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर बहुत मुखर नहीं रहे हैं। कुछ अन्य पार्टियों जैसे उत्तर प्रदेश के अपना दल ने भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन का सदस्य रहते हुए भी और इस तथ्य के बावजूद कि उन्होंने संसद में महिला आरक्षण विधेयक को बिना शर्त समर्थन दिया था, ने भी कोटा के अंदर कोटा की मांग का समर्थन किया है। संविधान (106वां संशोधन) विधेयक, जिसे नारी शक्ति वंदन अधिनियम का नाम दिया गया है, में वर्तमान में केवल एससी और एसटी महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था है। इसमें ओबीसी के लिए ऐसी व्यवस्था नहीं है।

डॉ. आंबेडकर ने कहा था– “हमें केवल राजनैतिक लोकतंत्र से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। हमें हमारे राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र भी बनाना चाहिए। राजनीतिक लोकतंत्र लंबे समय तक नहीं चल सकता, यदि सामाजिक लोकतंत्र उसका आधार न हो।” सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना तभी संभव है जब इसमें उन सभी जातियों और समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए जो अब तक इससे बाहर थे। इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि सब मिलकर यह मांग करें कि हर दस वर्षों में जाति जनगणना हो, जिससे हमें यह पता चल सके कि प्रत्येक जाति की आबादी और स्थिति क्या है। 

सन् 1931 की तरह की जनगणना कम-से-कम चार पहेलीनुमा प्रश्नों के उत्तर देगी। पहला यह कि क्या सामान्य श्रेणी के लिए 10 प्रतिशत ईडब्लूएस आरक्षण आबादी में उनके अनुपात के अनुरूप है? दूसरा, क्या ओबीसी को महिलाओं के लिए निर्धारित कोटे के अंदर कोटा देना तर्कसंगत है, क्योंकि लैंगिक और जातिगत पहचानें एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं? तीसरा, चूंकि ईडब्लूएस के लिए कोटा के निर्धारण से कुल आरक्षण पर लगाई गई 50 प्रतिशत की उच्चतम सीमा पहले ही पार कर ली गई है, इसलिए क्या तमिलनाडु की तरह सभी राज्यों में विभिन्न समुदायों को आनुपातिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता? और चौथा, क्या शूद्र-ओबीसी के सामाजिक बहिष्करण के नतीजे में उनका आर्थिक बहिष्करण भी नहीं हुआ है, क्योंकि अगर ऐसा है तो इससे यह जाहिर होता है कि वर्ग और जाति एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं?

(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अरविंद कुमार

डॉ. अरविंद कुमार जामिया मिलिया इस्लमिया, नई दिल्ली के स्टडी ऑफ सोशल एक्सक्लूजन एंड इंक्लूसिव पॉलिसी केंद्र में अध्यापक हैं

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