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अदम गोंडवी और रवि कुमार की कविताओं की पृष्ठभूमि में गोंडा में सामंतवाद

रवि कुमार ‘रवि’ ने बताया कि गोंडा में आज भी सरकार के नियम-कानून कोई मायने नहीं रखते, वहां वही होता है, जो वहां के सामंती ठाकुर चाहते हैं। फिर उन्होंने अपनी किताब से अपनी वही कविता पढ़कर सुनाई। पढ़ें, कविताओं के जरिए गोंडा और उसके आसपास के जिलों की कहानी, कंवल भारती की जुबानी

‘चमारों की गली’ अदम गोंडवी की बहुत चर्चित कविता है। हालांकि, मैंने इस कविता की कभी प्रशंसा नहीं की, क्योंकि वह चमारों को सम्मानित नहीं, अपमानित करती है। लेकिन इसी वर्ष नवंबर में लखनऊ में ‘कथाक्रम’ के एक कार्यक्रम में मेरी भेंट दलित कवि रवि कुमार ‘रवि’ से हुई, जो रिटायर्ड ज्वाइंट डेवलपमेंट कमिश्नर हैं, और एक समय गोंडा में जिला विकास अधिकारी रह चुके थे। उन्होंने मुझे अपना शीघ्र प्रकाश्य कविता संग्रह ‘कबिरा तेरी झोंपड़ी गलकटवन के पास’ भेंट की। उनके सामने ही मैंने उनकी किताब के कुछ पन्ने पलटे, तो अदम गोंडवी के सम्मान में लिखी उनकी एक ग़ज़लनुमा कविता पर मेरी नज़र पड़ी, और उसमें भी इन पंक्तियों पर–

गोंडा ऐसा जिला जहां कन-कन राजशाही,
कीचड़ में कमल अदम जैसा कवि है।

फिर इस विषय पर उनसे विस्तार से बातचीत हुई, तो पता चला कि उन्होंने गोंडा की सामंतशाही को नजदीक से देखा है। उन्होंने बताया कि गोंडा में आज भी सरकार के नियम-कानून कोई मायने नहीं रखते, वहां वही होता है, जो वहां के सामंती ठाकुर चाहते हैं। फिर उन्होंने अपनी किताब से अपनी वही कविता पढ़कर सुनाई–

जो अदम के देश में जाके, अदम को जान पाया हो,
असल में मैं उसी दीवारों दर से लौट आया हूं।
परसपुर से निकलती आज भी, पगडंडी वही वैसी,
जो आटा की तरफ जाती, डगर से लौट आया हूं।
तुम्हारे ज़हन में जिंदा नज़र फाडू, वही मंजर,
कि जिससे मैं मिला पहले, उसी से लौट आया हूं।
दबंगों की है धरा कब्ल, जिसे गोंडा कहें सारे,
वो भारत से अलग सा-देश, उससे लौट आया हूं।
उसी के पास है सरयू, नदी को पार कर देखो,
वहां है कब्रे जम्हूरियत की, जहां से लौट आया हूं।

इस कविता को सुनकर समझ में आया कि क्यों गोंडा के सांसद बृजभूषण शरण सिंह के आगे पूरी मोदी सरकार नतमस्तक थी! गनीमत थी कि महिला पहलवानों का धरना दिल्ली में हुआ, अगर गोंडा की धरती पर हुआ होता, तो शायद ‘चमारों की गली’ कविता में जो हश्र कृष्णा की आबरू लूटने के बाद ठाकुरों के खिलाफ चमारों को एकजुट करने वाले मंगल चमार का हुआ था, उनमें से किसी का भी हो सकता था। अदम गोंडवी ने उसका चित्रण इस प्रकार किया है–

सिर पे टोपी, बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में।
घेर कर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने,
‘जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने।
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोल कर,
इक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर।
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया,
सुन पड़ा फिर, ‘माल वो चोरी का तूने क्या किया?’
‘कैसी चोरी माल कैसा?’ उसने जैसे ही कहा,
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा।
होश खो कर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर,
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर।
मेरा मुंह क्या देखते हो! इसके मुंह में थूक दो,
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूंक दो।
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहां चलने लगी,
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी।
दुधमुंहा बच्चा व बुड्ढा जो वहां खेड़े में था,
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था।
घर को जलते देख कर वे होश को खोने लगे,
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे।
‘कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएं नहीं,
हुक्म जब तक मैं न दूं कोई कहीं जाए नहीं।
यह दरोगा जी थे मुंह से शब्द झरते फूल-से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े, ‘इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा।

रवि कुमार ‘रवि’ की कविता में एक पंक्ति है– “वो भारत से अलग-सा देश, उससे लौट आया हूं।” मैंने पूछा, “इसका क्या मतलब है?” तब उन्होंने बताया कि गोंडा भले ही उत्तर प्रदेश का एक जिला है, और सारा सरकारी अमला वहां कायम है, पर इसके बावजूद वहां सामंतों का ही कानून चलता है। उनके लिए लोकतंत्र और सरकारी कानून बहुत ज्यादा मायने नहीं रखते। वहां होता वही है, जो सामंत चाहते हैं। आम जनता वहां उसी तरह रहती है, जैसे बत्तीस दांतों के बीच जीभ। वहां सांसद-विधायक केवल ठाकुर ही बनता है। राजनीतिक पार्टी चाहे कोई हो, टिकट ठाकुर को ही मिलता है। सुरक्षित सीट एक अपवाद जरूर है, पर उस ‘अपवाद’ पर भी ठाकुर का ही आदमी होता है। जिला प्रशासन या पुलिस का कोई भी अधिकारी सामंतों के अनुसार ही काम करता है। ठाकुरों का जुल्म और आतंक गोंडा का वह दंश है, जिसे सदियों से दलित जातियां झेल रही हैं। इस दंश से लोकतंत्र भी मुक्ति नहीं दिला सका।

गोंडा रेलवे स्टेशन पर लगा साइन बोर्ड

गोंडा की इस तस्वीर ने मुझे गोंडा का इतिहास खंगालने के लिए प्रेरित किया। गोंडा और अयोध्या के बीच केवल एक घाघरा नदी बहती है, जिसे अब हिंदुत्ववादियों द्वारा सरयू कहा जाने लगा है। इस तरह गोरखपुर से लेकर अयोध्या तक का सारा इलाका, जिसमें गोंडा, बलरामपुर, बस्ती, बहराइच जिले शामिल हैं, नेपाल की तराई वाला वह इलाका है, जो इतिहास के अनुसार, एक समय बौद्ध धर्म का क्षेत्र था। इतिहास बताता है कि यह पूरा इलाका भरों का था, जो आदिम जनजाति है। भरों का क्षेत्र इलाहाबाद, लखनऊ, उन्नाव और सुलतानपुर और रायबरेली तक था। चार्ल्स अल्फ्रेड एल्लियट ने अवध पर अपने शोध कार्य में भर लोगों को बौद्ध माना है। उन्होंने बौद्ध पुरावशेषों के हवाले से यहां तक लिखा है कि शाक्य मुनि (गौतम बुद्ध) भी आर्य नहीं थे, बल्कि मूलनिवासी जाति के थे। चीनी यात्री फाहियान ने भी इस संपूर्ण इलाके को बौद्ध क्षेत्र बताया है, जो चार सौ ईस्वी में भारत आया था।

लेकिन आज ये संपूर्ण इलाके ब्राह्मणवाद और सामंतवाद के गढ़ हैं, और बौद्ध धर्म यहां से नष्ट हो चुका है। यह परिवर्तन कब और कैसे हुआ? यह जानना मुश्किल नहीं है, अगर हम बौद्ध धर्म और बौद्धों के विरुद्ध ब्राह्मणों के संगठित और हिंसक अभियान का अध्ययन कर लें। भारत में बौद्ध धर्म के तीन बड़े क्षेत्र थे– अयोध्या (साकेत), मथुरा और गुजरात। आठवीं सदी में इन तीनों बौद्ध क्षेत्रों से बौद्धधर्म के मठ, मंदिर और स्तूपों को नष्ट करने और बौद्ध शत्रुओं का शस्त्र-बल से दमन करने के लिए शंकराचार्य ने तीन सशस्त्र अखाड़े (बल) स्थापित किए थे– (1) गुजरात में दिगंबरी अथवा निरंजनी अखाड़ा, (2) अयोध्या में निर्वाणी अखाड़ा, और (3) मथुरा-वृंदावन में पञ्च-निर्मोही अखाड़ा। इन अखाड़ों ने तीनों क्षेत्रों से बौद्धों और बौद्ध धर्म का सफाया करके वहां ब्राह्मणवाद-सामंतवाद कायम किया। इस अभियान के तहत गोंडा क्षेत्र में, जिसमें गोरखपुर, बलरामपुर, गोंडा, अयोध्या, और बहराइच के क्षेत्र आते हैं, ब्राह्मणवाद के विकास के लिए क्षत्रियों को लाकर बसाया गया। यह काम एक दिन में नहीं हुआ, बल्कि इन क्षेत्रों में बुद्ध के विरुद्ध राम और कृष्ण की भक्ति स्थापित करने और हिंदू मंदिर कायम करने में कई शताब्दियां लगीं। चार्ल्स अल्फ्रेड एल्लियट के अनुसार जब गंगा घाटी में, जो आदिम जातियों का इलाका था, आर्यों ने हमला किया, और सूर्यवंशियों ने अपनी बस्तियां (उपनिवेश) स्थापित कीं, तो उन्होंने अपने प्राकृतिक संसाधनों के लिए पहाड़ियों के तराई इलाकों को चुना। इसी समय इस पट्टी में सामंतशाही कायम हुई, जिसने सारे संसाधनों पर कब्जा करके अपना राजपूत-सत्ता और हिंदू-भक्ति कायम की।

1868 में प्रकाशित, लखनऊ के डिप्टी कमिश्नर पैट्रिक कार्नेगी ने अपनी शोध कृति ‘नोट्स ऑन दे रेसेज, ट्राइब्स एंड कास्ट्स इन्हीबिटिंग दी प्रोविंस ऑफ अवध’ में लिखा है कि सूर्यवंशीय राजाओं की राजधानी अयोध्या में इक्ष्वाकु वंश दशरथ, राघव और रामचंद्र के बाद, दृगबाहु के पतन के बाद समाप्त हो गया था। अवध के इस इलाके में भील, भर, चेरू, भोटिया, भील और अहीर जनजातियां थीं। भीलों को आम लोग बनमानुस बोलते थे, जिनका पेशा पत्तों की थालियां बनाना था। पैट्रिक कार्नेगी के अनुसार रामायण में रामचंद्र की मिथकीय सेना इन्हीं लोगों की थी।

वह हिंदू मिथक का हवाला देते हुए लिखते हैं कि परशुराम ने ब्राह्मणवाद के हित में क्षत्रियों का उन्मूलन कर दिया था, लेकिन कुछ पीढ़ियों बाद, उन्हें देवताओं के आग्रह पर बौद्धों के विरुद्ध ब्राह्मणों की लड़ाई लड़ने के लिए पुन: आबू पर्वत पर पैदा किया गया। लेकिन वह ऐतिहासिक तथ्य का खुलासा करते हुए लिखते हैं कि जैसा भी हो, पर सच यह है कि जैसी मजबूत राजपूत-सत्ता और हिंदू-भक्ति हम अवध क्षेत्र में देखते हैं, वह मुसलमानों की विजय के बाद कायम हुई थी। उन्होंने आगे लिखा है कि राजपूत-सत्ता के सभी बड़े केंद्रों से मुस्लिम विजेताओं द्वारा खदेड़े जाने पर क्षत्रियों ने अयोध्या में आकर शरण ली होगी, जहां उनका पुराना सूर्यवंशी साम्राज्य था, लेकिन वहां से उन्हें भरों ने खदेड़ दिया था। उसके बाद अयोध्या के आसपास के जिन-जिन इलाकों में भी वे गए, वहां-वहां उन्होंने अपने उपनिवेश बना लिए। (पृष्ठ 32-33)

पौराणिक कथाओं में गोंडा का इतिहास यह है कि यहां भगवान विष्णु ने वाराह अवतार लेकर हिरणायक्ष का वध किया था, और नरसिंह का अवतार लेकर हिरण्यकशिपू का वध किया था। इन मिथकों का प्रतीकात्मक अर्थ यही है कि यहां दो बौद्ध राजाओं को दर्दनाक तरीके से मारा गया था। संभवत: वे गोंड राजा थे, जो पैट्रिक कार्नेगी के अनुसार, बौद्धधर्मी थे। यहां इस तथ्य को भी नहीं नकारा जा सकता कि गोंडा का इतिहास गोंड समुदाय (वर्तमान में अनुसूचित जनजाति में शामिल) से भी जुड़ा हुआ है।

गोंडा और बहराइच की सीमा पर श्रावस्ती है, जिसका प्राचीन नाम सहेट महेट है। यह बौद्ध क्षेत्र है, और आज भी यहां बौद्ध धर्म के मंदिर हैं, यहीं पर विशाल जेतवन विहार है। जैन ग्रंथों के अनुसार तीसरे जैन तीर्थंकर संभवनाथ और आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभ नाथ की जन्मस्थली भी श्रावस्ती ही है। वास्तव में एक लंबे समय तक श्रावस्ती का इतिहास ही गोंडा का इतिहास रहा है।

इस ऐतिहासिक विवरण से गोंडा और उसके आसपास गोरखपुर तक के इलाके में मजबूत राजपूत-सत्ता और हिंदू-भक्ति की स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है। और दलित कवि रवि कुमार ‘रवि’ की इस कविता का भी अर्थ खुल जाता है–

बीते पांच दशक हैं देश में आज़ादी के,
दुखिया के मन में, गरीबी की ही छवि है।
ऐसी जगह भारत में, होरी जहां बंधुवा है,
धनिया धुनत सिर, गोबर, गोबर है।
जन-जन व्यथित कराह आह मन की है,
देखि दीन दशा व्यथित हुआ ‘रवि’ है।
गोंडा ऐसा जिला, जहां कन-कन राजशाही,
कीचड़ में कमल ‘अदम’ जैसा कवि है।

हालांकि अदम गोंडवी सामंतों की राजशाही को चित्रित करने का वह साहस नहीं कर सके, जो रवि की कविता में चित्रित हुआ है, पर ‘चमारों की गली’ की बेबसी और सामंतों के जुल्म की पराकाष्ठा के बीच एक सीमा-रेखा चित्रित करने का उनका काम फिर भी सराहनीय है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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